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अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई हुई है लेकिन पीएम मुजरिमों से समाधान पूछ रहे हैं!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे अमीर व्यक्ति, मुकेश अंबानी, टाटा समूह के रतन टाटा, टेलीकॉम ज़ार सुनील भारती मित्तल, अरबपति गौतम अडानी, महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा और माइनिंग बैरन अनिल अग्रवाल के साथ कथित तौर पर बैठक में शामिल हो रहे हैं।
अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई हुई है

यदि आप सोच रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काफ़ी समय से चुप क्यों हैं, और वे क्यों नहीं सीएए/एनआरसी (नागरिकता संशोधन क़ानून और नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर) के विरोध, पुलिस द्वारा हत्याओं या दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जारी आतंक, या जर्जर होती अर्थव्यवस्था के बारे में एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं। इसका उत्तर यहाँ है: इस दौरान मोदी चुपचाप बंद कमरों में कॉर्पोरेट प्रमुखों, अर्थशास्त्रियों, उद्यम पूँजीपतियों, मंत्रियों और नौकरशाहों के साथ लगातार बैठक कर रहे हैं।

वे देश के सबसे अमीर व्यक्ति, मुकेश अंबानी, टाटा समूह के रतन टाटा, टेलीकॉम ज़ार सुनील भारती मित्तल, अरबपति गौतम अडानी, महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा और माइनिंग बैरन अनिल अग्रवाल के साथ कथित तौर पर बैठक में शामिल हो रहे हैं।

मीडिया की चमचमाती ख़बरों के अनुसार, मोदी साहब दिन-रात काम कर रहे हें और अब उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अर्थव्यवस्था की ज़िम्मेदारी संभाल ली है। ऐसा बताया गया है कि वे अब तक 120 लोगों से मिल चुके हैं – ये वे लोग हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में ऊंची तोप माने जाते हैं। ये लोग भारत की सबसे बड़ी कंपनियों के सीईओ और फ़ंड सलाहकार या फिर फ़ंड मैनेजर हैं। ये भारत के सबसे सर्वोत्तम सबसे अमीर लोग यानी समाज की क्रीम है। मोदी ने एक दफ़ा इन्हे भारत के "धन सर्जक" के रूप में वर्णित किया था, यानी वे लोग जो धन संपदा को पैदा करते हैं, और इसलिए स्वाभाविक रूप से ये सब लोग मोदी जी को सलाह दे रहे हैं कि कैसे 2024 तक भारत को 5 खरब की अर्थव्यवस्था बनाना है और उसके लिए क्या रास्ता अख़्तियार करना है।

आभास ऐसा हो रहा है जैसे कि प्रत्येक मंत्रालय एक विस्तृत योजना बना रहा है और जिसकी समीक्षा मोदी द्वारा व्यक्तिगत तौर पर की जा रही है और कि आने वाले दिनों में क्या करने जा रहे हैं। कॉर्पोरेट मीडिया बिना सांस रोके इस बात की तारीफ़ कर रहा है कि बजट 1 फ़रवरी को आएगा, आपने अनुमान तो लगाया होगा! – यानी यह बजट ‘बड़े सुधार’ की तरफ़ बढ़ता क़दम होगा।

इन परियों की कहानी का एक पक्ष यह भी है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को इस पूरे अभ्यास से पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है। जबकि बताया यह जा रहा है, जो काफी  अफ़सोसजनक बात भी है कि वे सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के फ्रंटल संगठनों की बैठकों में भाग ले रही थी, ताकि अर्थव्यवस्था को कैसे बढ़ावा दिया जा सके, इस पर ज़मीनी स्तर से विचार को इकट्ठा किया जा सके।

कड़वा सच

आइए अब, भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक नज़र डालते हैं। पिछले साल के बजट में, सरकार ने मौजूदा चालू वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 7 प्रतिशत जाने की भविष्यवाणी की थी। नवीनतम जारी सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि निरंतर दर पर अनुमानित विकास दर लगभग 5 प्रतिशत रहने वाली है जो 11 साल में सबसे कम होगी।

गर नाममात्र के संदर्भ में ही देखें (वह भी इसमें मुद्रास्फ़ीति को समायोजित के बिना), तो पिछले बजट ने 12 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर की भविष्यवाणी की थी लेकिन नवीनतम आधिकारिक अनुमानों के अनुसार यह घटकर 7.5 प्रतिशत रह गई है। यह 1978 के बाद से यानी पिछले 42 साल में सबसे कम है।

विनिर्माण क्षेत्र के इस वर्ष सिर्फ़ 2 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, 2005-06 के बाद से 13 वर्षों में यह सबसे कम बढ़ोतरी है। निर्माण क्षेत्र के 3.2 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, जो छह साल में सबसे कम है। ये दोनों क्षेत्र बड़ी संख्या में लोगों को रोज़गार देते हैं और यहाँ विकास की गति कम होने का मतलब है कि नौकरी के अवसरों का कम होना।

असली हत्यारा तो कृषि क्षेत्र है जहां अनुमानित विकास दर मात्र 2.8 प्रतिशत आँकी गई है जो पिछले वर्ष के 2.9 प्रतिशत के समान ही निराशाजनक आंकड़े से भी कम है, जबकि यह वह क्षेत्र है जिस पर देश की सबसे अधिक आबादी का भार है। यह स्थिति तब है जब खरीफ़ फसल बहुत अच्छी हुई है और चल रही रबी फसल का मौसम भी उतना ही अच्छा होने की उम्मीद है।

इस घातक मंदी के परिणामस्वरूप, 2019-20 में प्रति व्यक्ति आय 6.8 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जो कि 2011-12 के मुक़ाबले सबसे कम है। यह इस तथ्य से पता चलता है कि पिछले वर्ष 8.1 प्रतिशत की तुलना में इस वर्ष निजी उपभोग व्यय केवल 5.7 प्रतिशत के बढ़ने के आसार है, यह तब था जब जीडीपी 6.8 प्रतिशत थी। याद रखें : निजी खपत व्यय जीडीपी का लगभग 60 प्रतिशत बनाता है।

अब उपभोक्ता व्यय पर राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की रिपोर्ट जो दबी हुई है – उसके लीक हुए संस्करण में - खपत व्यय में एक चौंकाने वाली मंदी है। यह कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में औसत खपत व्यय प्रति व्यक्ति 1667 रुपये प्रति माह (पीपीएम) से घटकर 2017-18 में 1,524 रुपये पीपीएम हो गई है। शहरी क्षेत्रों में, यह 2014 में Rs.3,212 पीपीएम से घटकट 2017-18 में रुपये.2,909 पीपीएम हो गई है। इसका मतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति वर्ष 4.4 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 4.8 प्रतिशत की गिरावट है। सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन के उपभोग व्यय के आंकड़े उपलब्ध होने के बाद से कभी भी पारिवारिक खपत ख़र्च में इतनी तेज़ गिरावट नहीं देखी गई है।

इसने रोजगार की स्थिति को काफी खराब कर दिया है। सेंटर फॉर इंडियन इकोनॉमी के अनुमानों के अनुसार, 7.3 करोड़ से अधिक लोग, ज्यादातर युवा, वर्तमान में बेरोजगार हैं - शायद भारत में आज बेरोजगारों की सबसे बड़ी सेना जिसे देश ने कभी नहीं देखा था। दिसंबर 2019 में कुल बेरोजगारी की दर 7.7 प्रतिशत थी, जो नौवें महीने में 7 प्रतिशत से ऊपर रही है। शहरी क्षेत्रों में, यह 8.9 प्रतिशत से भी अधिक है, यह व्यापक रूप से उस धारणा को झूठलाती है जो मानते हैं कि शहरी केंद्र नौकरी पैदा करने के इंजन हैं।

यह मांग में कमी है

इस सब का क्या मतलब है? अर्थव्यवस्था क्यों धीमी हो रही है? दो तरीक़े हैं जिनमें उत्तर दिए जा सकते हैं। एक, कि मांग में कमी है। दूसरा, इसका विपरीत उत्तर है कि आपूर्ति की समस्या है। उत्तर के आधार पर, सुधारात्मक उपाय किए जाने की आवश्यकता है।

मोदी सरकार - जिन लोगों के झुंड से सलाह ले रही है, उनके विचार में गर सरकार निवेश गतिविधि को तेज़ करती हैं, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। व्यवसाय अधिक निवेश करेंगे, अधिक नौकरियां पैदा करेंगे, जो अर्थव्यवस्था में अधिक पैसा लगाएंगे और अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी क्योंकि तब लोग अधिक ख़र्च करना शुरू कर देंगे। यह पहली गंभीर और अनपेक्षित खामी है।

इस पर एक नज़र डालें: चालू वर्ष में निवेश 1 प्रतिशत से भी कम बढ़ने का अनुमान है – यह भी 2004-05 के बाद सबसे कम है, यानी पिछले 15 वर्षों में सबसे कम। पिछले वर्ष के लिए, 2018-19 में निवेश की वृद्धि 10 प्रतिशत थी। 2008-09 के आर्थिक मंदी के दौरान भी, निवेश तेज़ गति से बढ़ा था।

ये वही अंबानी, अदानी और टाटा हैं जो बड़ा निवेश करते हैं। इन सब ने नई उत्पादक क्षमताओं में पैसा लगाने से इनकार कर दिया है क्योंकि उन्हें डर है कि उनका निवेश अपर्याप्त मांग की वजह से डूब जाएगा। मोदी सरकार द्वारा दी गई रियायतें जिसमें कॉर्पोरेट कर की दरों में कमी और रियल एस्टेट और अन्य क्षेत्रों में नि:शुल्क यानी बिना ब्याज के धन देने और औद्योगिक घरानों द्वारा उसे वक़्त पर वापस न करने पर शिकंजा नहीं कसने की छूट के बावजूद, कोई भी नए निवेश करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए इन कॉर्पोरेट के दिग्गजों से निवेश की उम्मीद करना, अपने आपको बेवकूफ़ बनाना है। फिर भी, मोदी जी इन लोगों के साथ सटीक विचार-विमर्श कर रहे हैं।

अधिक निवेश करने का मतलब होगा कि सरकार अधिक ख़र्च करे। ऐसा करने से अधिक रोज़गार पैदा होगा और लोगों की ख़रीदने की शक्ति बढ़ेगी, मांग भी बढ़ेगी और इस प्रकार अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन, मोदी सरकार और उनके अंतर्राष्ट्रीय सलाहकार इसके सख़्त ख़िलाफ़ हैं।

नवंबर 2019 की लेखा महानियंत्रक (CGA) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष में सरकार के ख़ुद के राजस्व में कमी आई है क्योंकि पिछले वर्ष की तुलना में राजस्व में शायद ही कोई  वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप, यह अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकारी व्यय में भारी कटौती होगी, शायद यह चालू वर्ष के बजटीय आवंटन की तुलना में 7 प्रतिशत या 2 लाख करोड़ रुपये होगा। यह दूसरी गंभीर और अनपेक्षित ख़ामी है। 

या स्थित पर पार पाने के लिए सरकार औद्योगिक और कृषि श्रमिकों के लिए बढ़ी हुई मज़दूरी की घोषणा कर सकती है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार करे और उसका कवरेज सार्वभौमिक कर सकती है, किसानों को क़ीमतें बढ़ा कर दे सकती है, जैसा कि मज़दूरों-किसानों की मांग रही है और जो 8 जनवरी को इन और अन्य मांगों के लिए हड़ताल पर भी गए थे। फिर भी, अभी तक सरकार ने इस पर विचार करने से इनकार कर दिया है और इसके समाधान के लिए श्रमिकों और किसानों से परामर्श भी नहीं कर रही है। यह तीसरी गंभीर और अनपेक्षित ख़ामी है। 

इसलिए, मोदी और उनके क्रोनियों और सेवकों द्वारा की जाने वाली सारी कसरत बेकार जाएगी - सिवाय इसके कि कॉर्पोरेट घराने अधिक मुफ़्तख़ोरी कर लेंगे।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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