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अर्थव्यवस्था में आई गिरावट से 1 करोड़ नौकरियों का नुक़सान

महामारी ने पहले से ही चल रहे आर्थिक संकट को और अधिक बढ़ा दिया है - और अभी सबसे बुरा वक़्त आना बाक़ी है।
अर्थव्यवस्था में आई गिरावट से 1 करोड़ नौकरियों का नुक़सान

भारत में रोज़गारशुदा व्यक्तियों की संख्या जनवरी में लगभग 40 करोड़ से गिरकर अप्रैल 2021 में 39 करोड़ रह गई है। यह पिछले साल अप्रैल-मई 2020 में लॉकडाउन से पूरे देश भर में हुई क्रूर तबाही के अलावा है जिसमें एक करोड़ रोज़गारशुदा को नौकरियों का का नुकसान हुआ है, जो चार महीनों की अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है। ये अनुमान सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के रोजगार पर नवीनतम अनुमानों से सामने आए हैं।

जनवरी वास्तव में रोजगार के मामले में बेहतर रहा था, वह भी मुख्यतः कृषि में बढ़ी मांग के कारण ऐसा हुआ। जैसे ही गेहूं और अन्य रबी की फसल की कटाई पूरी हुई, कृषि क्षेत्र से  नौकरियां गायब हो गईं, जिससे रोज़गारशुदा लोगों की संख्या में भारी गिरावट आई। [नीचे दिया चार्ट देखें]

बाकी बची अर्थव्यवस्था साफ़ तौर पर किसी को भी रोज़गार देने में पूरी तरह से असमर्थ रही है। पिछले साल लॉकडाउन के बाद से नौकरियों की स्थिति में कोई खास सुधार दिखाई नहीं दिया  है। वास्तव में, पिछले दो वर्षों में ऐसी भयंकर बेरोजगारी देखी गई है जिसने परिवार के बजट को तबाह कर दिया तथा जीवन स्तर को नीचे धकेल दिया है और – इसके एक गंभीर दुष्परिणाम  ले चलते दैनिक मजदूरी काफी नीचे चली गई है। 

मौजूदा नौकरियों में नुकसान की यह भयावह तस्वीर बढ़ती बेरोजगारी की दर के साथ-साथ चलती है, जैसा कि नीचे दिए गए अगले चार्ट में दिखाया गया है। सीएमआईई के त्वरित अनुमानों के अनुसार, बेरोजगारों की संख्या में अप्रैल बढ़ोतरी हुई है और हाल ही में वह 9 प्रतिशत की दर को छू गई है।

यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि नौकरी गंवाने वाले सभी बेरोजगारों की संख्या इसमें परिलक्षित नहीं होती हैं – क्योंकि कुछ लोग कुछ महीनों काम की तलाश करने के बाद तलाश बंद कर देते हैं, और इस तरह वे श्रम बल से बाहर हो जाते हैं।

दूसरी ओर, बेरोजगारी की दर में वृद्धि महामारी के बढ़ते प्रभाव को दर्शाती है, मृत्यु और संक्रमण के बढ़ते मामलों से उत्पन्न तबाही, और फिर सरकारों द्वारा घोषित राज्य-वार या क्षेत्रीय लॉकडाउन इसके बड़े जिम्मेदार हैं। वर्तमान में, कम से कम 26 राज्यों में अलग-अलग प्रकार के लॉकडाउन लगे हुए हैं। इसका सीधा प्रभाव आजीविका पर पड़ता है, क्योंकि बड़ी संख्या में लोग अनौपचारिक व्यवसायों में काम कर रहे होते हैं, जहां ऐसी परिस्थितियों में काम बंद हो जाता हैं।

सीएमआईई के अनुमान के अनुसार, सक्रिय रूप से काम की तलाश में बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या इस साल अप्रैल में 3.4 करोड़ के करीब पहुंच गई थी। इनके अलावा, वे निराश बेरोजगार लोग भी हैं जो काम करना चाहते हैं लेकिन सक्रिय रूप से इसकी तलाश नहीं करते हैं, यह जानते हुए कि नौकरी मिलना कितना मुश्किल है। इस तरह के लोगों की संख्या करीब 1.9 करोड़ आंकी गई है। इसलिए, काम करने के इच्छुक बेरोजगार लोगों की कुल संख्या अप्रैल 2021 में दिमागी को सुन्न कर देने वाली संख्या 5.3 करोड़ तक बढ़ जाती है।

ग्रामीण नौकरी गारंटी योजना में काम करने वाले लोगों की संख्या अप्रैल 2021 में 2.1 करोड़ थी। आमतौर पर, अप्रैल के बाद नौकरी चाहने वालों में बड़ा उछाल आता है, क्योंकि गर्मी शुरू हो जाती है और सभी कृषि कार्य सूख जाते हैं। इसलिए, ये संख्या - पहले से ही बहुत उच्च स्तर पर होती है - मई और जून में इसके बढ़ने की संभावना होती है।

मांग में गिरावट से आर्थिक बर्बादी बढ़ती है

कृषि के अलावा बाकी अर्थव्यवस्था के साथ आखिर हो क्या रहा है? यह लोगों को रोज़गार देने में सक्षम क्यों नहीं है? दरअसल, तमाम पीठ थपथपाने और तालियों की गढ़गढ़ाहट के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले साल के लॉकडाउन से अभी उबर नहीं पाई है. और, ऐसा इसलिए है क्योंकि 2019 का साल पहले ही मंदी में चला गया था, जिसका महामारी से वैसे भी कोई लेना-देना नहीं था।

2021 में, कोविड-19 की दूसरी लहर और गतिविधि पर उप-राष्ट्रीय प्रतिबंधों ने लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को ओर करारा झटका दिया है। जबकि अधिकांश पेशेवर रेटिंग एजेंसियों ने चालू वर्ष में भारत के आर्थिक विकास के अपने पूर्वानुमान को कम कर दिया है, सरकारी अर्थशास्त्रियों के बीच एक विचार यह भी लगता है कि अर्थव्यवस्था को पिछले साल की तरह कोई बड़ा झटका  नहीं लगेगा। यह इस तथ्य पर आधारित है कि भारत में अभी भी अधिकांश निर्माण गतिविधियों की अनुमति है, और कृषि गतिविधि भी जारी है। रबी की फसल अच्छी चल रही है, और जैसे-जैसे महामारी फैल रही है, ज्यादातर कटाई का काम पूरा होता जा रहा है।

यह एक ऐसा सपना है जिसे ज्यादातर सरकार और उसके संस्थानों द्वारा दिखाया जा रहा है। इस दूसरी लहर को परिभाषित करने वाली कुछ खास विशेषताएं ये हैं: यह पहले के मुक़ाबले अधिक घातक है; यह युवा लोगों को अधिक प्रभावित कर रही है; और यह ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से फैल रही है। अकेले इन तीन कारकों से अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट लगने की संभावना है। कैसे, आइए देखते हैं।

बीमारी की गंभीरता और इसकी बढ़ती संक्रामकता का मतलब स्पष्ट है कि अब अस्पतालों पर दबाव बढ़ रहा है, जो इस दबाव से बदहाल हो गए हैं। इसका शुद्ध परिणाम - ऑक्सीजन, दवाओं, बिस्तरों की कमी में प्रकट हो रहा है – इसके चलते परिवारों को अपनी जेब से इलाज पर कहीं अधिक खर्च करना पड़ रहा है। इसका पारिवारिक बजट पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, जिसका अर्थ है खर्च करने की क्षमता में कमी आएगी।

युवा आबादी के अधिक प्रभावित होने का मतलब है कि उत्पादक नौकरियों में काम करने वाले लोग अधिक बीमार पड़ेंगे, और नौकरी की सुरक्षा के मामले में प्रचलित जंगल राज को देखते हुए, इसका मतलब है कि आमदनी का नुकसान और नौकरियों का नुकसान भी हो सकता है। इसका साफ़ मतलब है कि बेरोजगारी में फिर से डूबने से परिवारों का खर्च कम हो जाएगा।

ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण बढ़ने का मतलब है कि एक बहुत बड़ी आबादी प्रभावित होगी, और वायरस के उतार-चढ़ाव से गुजरने और उसके लंबे समय तक रहने की संभावना है।

इन सबका कुल मिलाजुला असर ये होगा कि लोगों की क्रय शक्ति – और उनके खर्च करने की क्षमता – कम हो जाएगी, और उनके पास जो कुछ भी बचत है, वह बुनियादी जरूरतों को हासिल करने पर केंद्रित होगी। माल की मांग, जो पहले से ही कम है, आगे और गिरेगी। और, यदि कोई मांग नहीं है, तो औद्योगिक गतिविधियों में भी गिरावट आएगी, जैसा कि व्यापार, रेस्तरां, निर्माण, पर्यटन आदि सहित सेवाओं की विभिन्न मांगें भी कम होंगी। सिर्फ संगठित क्षेत्र में विनिर्माण गतिविधियों को खुला रखने से कुछ खास मदद नहीं मिलने वाली है। यह गिरावट, बदले में, अधिक बेरोज़गारी का कारण बनेगी, और इसलिए पूरा चक्र घूम जाएगा। जैसा कि अब तक होता आया है वैसा ही होगा।

लोगों को समर्थन/सहायता दी जाए

मोदी सरकार के नेतृत्व वाली इस अंधी गली से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि पिछले साल की वित्तीय तंगी के रास्ते को पूरी तरह से नकार दिया जाए और लोगों पर पैसा खर्च करना शुरू कर दिया जाए। यह बात हर चीज पर लागू होती है:

  • स्वास्थ्य और कोविड प्रबंधन: टीकों को मुफ्त किए जाने की जरूरत है; उपचार के खर्च की सीमा तय की जाए और यथासंभव उसे मुफ्त बनाया जाए; केंद्रीय वित्त पोषण आदि के माध्यम से विकेन्द्रीकृत स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाए और इसके लिए तुरंत धन मुहैया कराया जाना चाहिए।
  • सार्वभौमिक और विस्तारित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस): एक सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से हर एक परिवार को कम से कम 10 किलो अतिरिक्त खाद्यान्न दिया जाना चाहिए; पीडीएस में वस्तुओं की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए, जैसे कि केरल में फूड किट दी जा रही है।
  • वित्तीय सहायता: सभी जरूरतमंद परिवारों को नकद राशि दी जानी चाहिए। ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों के साथ-साथ वामपंथी दलों ने सभी आयकर न अदा करने वाले परिवारों को प्रति माह 7,500 रुपये दिए जाने की मांग की है।

इसके अलावा, सरकार को उन राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए जो वास्तव में कोविड की लड़ाई लड़ रही हैं। जरूरत पड़ने पर सरकार को भारतीय समाज के धनी वर्गों पर कर लगाकर संसाधन जुटाने चाहिए, या कर्ज़ उठाना चाहिए। लेकिन, जब तक ये उपाय साहसपूर्ण तरीके से नहीं किए जाते हैं, तब तक भारत एक गंभीर और विनाशकारी भविष्य का सामना करता रहेगा।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Economy Tumbles, 1 Crore Jobs Lost Since January

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