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महामारी का मृत्यु - पर्व और पॉजिटिविटी का गरुड़ पुराण

हिंदुत्व के विचारक और कर्णधार अब जनता को समझाना चाह रहे हैं कि ‘पोजिटिविटी ही आज का सत्य है और महामारी तथा उससे होने वाली मौतें - मिथ्या हैं।
महामारी का मृत्यु - पर्व और पॉजिटिविटी का गरुड़ पुराण
Image courtesy : Al Jazeera

‘हे दिग्विजयी साध्वी प्रज्ञा ! शुक्रिया, आप को भोपाल की याद तो आयी’

तयशुदा बात है कि दो माह से अधिक अंतराल के बाद भोपाल पहुंची सांसद ने यह उम्मीद भी नहीं की होगी कि भारत का एक अग्रणी हिंदी दैनिक इस अंदाज में उनका स्वागत करेगा। 

दरअसल वह दैनिक भोपाल की लाखों जनता में कोविड को लेकर मची त्राहिमाम और इस दौरान सांसद महोदया का बिल्कुल अवतरित न होना तथा उससे उपजे आक्रोश को रेखांकित कर रहा था। इन क्रुद्ध नागरिकों ने तो बाकायदा सोशल मीडिया पर एक कैम्पेन भी चलाया था अपनी ‘‘मिसिंग अर्थात ‘गायब’’ सांसद के बारे में सूचना देनेवाले को कोई ईनाम भी घोषित किया था।

वैसे आखरी दफा मोहतरमा सांसद ठीक 2 मार्च को शहर में नज़र आयी थीं जब वह किसी श्रद्धांजलि सभा में उपस्थित थी. इस बीच का अंतराल दरअसल पूरे देश की तरह भोपाल तथा आसपास की जनता के लिए गोया कहर बन कर बरपा था जब कोविड की दूसरी लहर में  तमाम लोग कालकवलित हो रहे थे कि श्मशानों और कब्रिस्तानों में 24 घंटे अंतिम संस्कार हो रहे थे।

लोगों का गुस्सा बेहद स्वाभाविक था, पूरे 70 दिन  तक लोग आपदा से गुजर रहे थे, तब जनप्रतिनिधि बिल्कुल नज़र नहीं आई थी। दैनिक ने बिल्कुल सीधे पूछा कि आप इतने दिन कहां थी, जब लोग दवाइयों की तलाश में दर दर भटक रहे थे। 

वैसे एक चुने हुए जनप्रतिनिधि की इस तरह ‘गैरमौजूदगी’’ जबकि उसके मतदाताओं को उसकी सख्त़ जरूरत हो, कोरोना संकट के दिनों को लेकर एक मौजूं सवाल उठाती है।

पूछा जा सकता है कि क्या अनुपस्थिति अपवाद कही जा सकती है ?

यह मानने के वाजिब कारण मिल सकते हैं कि मामला यह नहीं था।

चुने हुए जनप्रतिनिधियों की बात भले ही हम मुल्तवी करें, हम यह तो जरूर देख सकते हैं कि दक्षिणपंथ के तमाम आनुषंगिक संगठनों के तमाम अनुशासित जन - जैसा कि वह दावा करते हैं - भी मैदान से बिल्कुल नदारद थे, जनता को अपने हाल पर उन्होंने छोड़ दिया था।

याद कर सकते हैं कि अभी ज्यादा वक्त़ नहीं बीता था जब वह सभी झुंड में घर घर जा रहे थे, मोहल्ला मोहल्ला छान मार रहे थे, जब वह अयोध्या में बन रहे ‘भव्य राम मंदिर’ के नाम पर चंदा उगाही में लगे थे। 

यह उनकी इस उगाही का ही नतीजा था कि 28 फरवरी को उनका यह धनसंग्रह अभियान खतम हुआ और वह तीन हजार करोड़ रूपए - आधिकारिक तौर पर - जुट चुके थे और आकलन यही था कि जब पूरे चंदा का आडिट/लेखाजोखा होगा तो इस रकम में और बढ़ोत्तरी निश्चित है।

और जब कोविड की दूसरी लहर - जिसके आने के अनुमान पहले ही लग चुके थे, वैज्ञानिक समूहों के सलाहकार मंडल ने सरकार को इस के बारे में आगाह भी किया था - ने अस्पतालों की जबरदस्त कमी, उनकी बदइंतजामी, ऑक्सिजन सिलिंडर की कमी से होने वाली मौतों को लेकर पूरी स्थिति को सामने प्रस्तुत किया और यह भी बेपर्द किया कि सरकार भी इस मामले में कितनी गाफिल रही है - तब कुछ समय पहले तक हर मोहल्ले, हर घर पहुंचनेवाले हिंदुत्व के सभी ‘रणबांकुरे’ बिल्कुल नदारद थे।

यह तो सोचा नहीं जा सकता कि 28 फरवरी को चंदा जुटाने की मुहिम समाप्त हो गयी और अगले ही दिन वह सभी अनुशासित जन कोविड से संक्रमित होकर अपने अपने घरों में ही सीमित हो गए।

सभी जानते हैं कि आम तथा खास जन सभी कोविड संक्रमण की संभावना और उससे होनेवाली मौत के बाद भी सम्मानजनक अंतिम संस्कार न हो पाने की संभावना से चिंतित थे। यह पहली दफा इतने पैमाने पर हो रहा था कि आप का बैंक बैलेंस आप के लिए अस्पताल के अदद बेड की या उसके साथ ऑक्जिसन सिलिंडर की गारंटी नहीं कर सकता था।

इधर कोविड के मरीज ऑक्सिजन की कमी से अस्पतालों के गेट पर या कभी कभी सुपरस्पैशालिटी अस्पतालों में ऑक्सिजन की सप्लाई रूक जाने से मर रहे थे और उधर सरकार थी जो गोया पूरे परिदृश्य से गायब थी। ऐसा आलम था कि उच्च अदालतों को कहना पड़ रहा था कि जनता को रामभरोसे छोड़ दिया गया है या इतनी बुनियादी सुविधाओं की कमी से मरीजों का मर जाना ‘जनसंहार’ से कम नहीं है।

गौरतलब था कि ऐसी स्थिति में जबकि जनता को अपने हाल पर छोड़ दिया गया था, तब उनकी मदद करने के लिए तरह तरह के हाथ आगे आए, जो अजनबियों के लिए देवदूत बने, जिन्होंने अपने मरीज की ऑक्सिजन बगल के बिस्तर पर पड़े मरीज को देकर उसकी जान बचायी, चंद आदर्शवादी नौजवानों ने अपने आप को जोखिम में डाल कर आपस में नेटवर्क बना कर जरूरतमंदों की मदद की, वाम से जुड़े संगठन या कार्यकर्ता भी पीछे नहीं रहे और यहां तक कि कांग्रेस पार्टी की युवा शाखा के कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए प्रयासों की चर्चा देश विदेश के अख़बारों में भी हुई। 

मिसाल के तौर पर क्या आप ने सुना है उदयपुर के उस शख्स अकील मंसूरी के बारें में जिसने रमजान के महिने में अपना रोज़ा तोड़ कर दो कोविड मरीजों -अलका और निर्मला की जान बचायी- जब कोविड संक्रमण से पहले प्रभावित तथा बाद में ठीक हुए उन्होंने अपना प्लाजमा इन्हें दिया।

या मुमकिन है कि आप ने यूपी के जौनपुर के उस शख्स विकी अग्रहरी के बारे में - जो बेहद साधारण परिवार का है तथा ऑटो चलाता है - भी सुना हो, जिसने अपने खर्चे से ऑक्सिजन सिलिंडर का इंतज़ाम करवा कर सरकारी अस्पताल के बाहर पड़े मरीजों को दिए जिन्हें बेड नहीं मिल सका था और इसके बदले उसे सरकार की तरफ से यह इनाम मिला कि कोविड के नियमों का उल्लंघन करने के लिए पुलिस ने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया। 

जाहिर है यह ऐसी स्टोरियां अपवाद नहीं है, हर कोई व्यक्ति हमें ऐसे प्रसंगों के बारे में बता सकता है और वह सोशल मीडिया पर जरूरतमंदों द्वारा डाली गयी उन अपीलों से भी आप को बता सकता है, जिनकी अपीलों को अग्रणी पत्रकार, लेखक और मीडियाकर्मी आगे बढ़ा रहे थे और ऐसी अपीलों के लिए जिस तरह जगह जगह से स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया मिलती थी।

आप कह सकते हैं कि एक तरह से राज्य के विलोपीकरण की स्थिति में - जबकि वह दिशाभ्रम का शिकार था - एक नयी तरह की एकजुटता लोगों के बीच बन रही थी और उसमें नए तरह के नायक भी सामने आ रहे थे। कोई जितेंद्र सिंह शंटी इधर तो कोई बी वी श्रीनिवास उधर।

अगर गुरूद्वारों में ऑक्सिजन लंगर शुरू किए गए ताकि वे लोग जो ऑक्सिजन की कमी से दर दर भटक रहे थे, उनके लिए कुछ आपातकालीन इंतज़ाम किया जा सके, अगर शहीद भगत सिंह सेवा दल जैसा कोई समूह अलग अलग समुदायां के नौजवानों को साथ जोड़ कर कोविड से मरे लोगों का पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करने में मदद कर रहा था तथा कोई ‘युनाईटेड सिक्स’ जैसा संगठन टीमें बना कर उन घरों में पहुंच रहा था जहां कोविड से मौतें हुई थीं, मगर कोई लाश उठाने को आगे नहींं आ रहा था तो आखिर हिन्दुत्व के इन रणबांकुरों को कौन रोक रहा था कि वह भी ऐसी कोशिशों को अंजाम देते।

अब जहां तक महामारी का सवाल है हिन्दुत्व के प्यादे और उनके अगुआ सब कदमताल करते चल रहे थे।

उन्हें इस बात का खयाल भी नहीं आया कि जो प्रचंड राशि उन्होंने आम जनता से इकटठे की है ताकि अयोध्या में राम मंदिर बनाया जाए क्या वह राशि संकट के इस समय में मरीजों, पीड़ितों की राहत के लिए - चाहे ऑक्सिजन सिलिंडरों का इंतजाम करके या अस्थायी अस्पतालों का इंतज़ाम करके या मुफत टेस्ट का इंतज़ाम करके - क्या इस्तेमाल नही की जानी चाहिए। मंदिर तो और बनेंगे, लेकिन लोगों के प्राण निकल गए तो वापस नहीं लौट आएंगे।

अगर इन हिंदुत्व के इन  हिमायतियों में से कोई पलट कर कहे कि वह बेहद सक्रिय तरीके से कोरोना पीड़ितों की मदद कर रहे थे, और मीडिया उन्हें स्थान नहीं दिया तो इससे बड़ा झूठ कोई अन्य नहीं हो सकता है। जब मामूली लगनेवाले लोगों की कोशिशें, स्थानीय समूहों के प्रयास मुख्यधारा की मीडिया में जगह पा रही थी तो फिर यह कहना सरासर झूठ है कि मुख्यधारा का मीडिया जो सत्ताधारी जमातों को लेकर पहले से ही मेहरबान रहता है, वह कोविड महामारी के वक्त़ अपना खयाल बदलेगा।

आखिर हिंदुत्व वर्चस्ववादियों द्वारा अपनायी गयी यह निष्क्रियता  - जब उनकी सबसे करीबी हुकूमत सात साला हुकूमत में सबसे कठिन संकअ से गुजर रही है - किसी को भी अनाकलनीय लग सकती है। फिलवक्त़ हम भूल भी जाएं कि किस तरह पश्चिमी मीडिया ने ‘मानवता के खिलाफ इन अपराधों’ को लेकर हुक्मरानों की तीखी आलोचना की थी, लेकिन हम यह तो निश्चित जोड़ सकते हैं मध्यमवर्ग जो उनका मजबूत स्तंभ रहा है उसमें महामारी से निपटने में उनमें नज़र आयी असंवेदनशीलता, कुप्रबंधन आदि से आत्मविश्वास का संकट जरूर पैदा होता दिख रहा था।

क्या इस बात पर कोई यकीन कर सकता है कि जानेमाने क्लासिकल गायक किराना घराना के छन्नूलाल मिश्रा, जो 2014 के संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी के प्रथम प्रस्तावक थे, उनकी पत्नी और बेटी स्तरीय चिकित्सकीय सहायता के अभाव में वाराणसी में गुजर गए, जबकि उन्होंने प्रधानमंत्रा कार्यालय से संपर्क भी किया था 

या हिंदुस्तानी संगीत के अहम गायक राजन मिश्रा राजधानी दिल्ली में सही वक्त़ पर वेंटिलेटर न मिलने से कालकवलित हुए, जबकि उनके बारे में भी प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क किया गया था या किस तरह ‘शक्तिमान’ सीरियल से चर्चित मुकेश खन्ना, जो भाजपा/मोदी के करीबी समझे जाते हैं - उनकी अपनी बहन भी उचित मेडिकल सहायता से कोविड से गुजर गयीं।

वैसे यह पता करने के लिए गहरे विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है कि क्यों दक्षिणपंथ और उनके प्यादों की सेना कोविड संकट में विलुप्तसी दिखी ?

एक संभावित कारण यह दिखता है कि हिंदुत्व के  समर्थक - जिन्हें भक्त कह कर संबोधित किया जाता है - वह आज भी शायद इस बात पर यकीन करने को तैयार नहीं है कि स्थिति इतनी गंभीर है और वह मानते हैं कि इसके पीछे ‘पश्चिमी षडयंत्रा’ काम कर रहा है और चूंकि सुप्रीम लीडर अगुआई कर रहे हैं, लिहाजा संकट जल्द ही खतम हो जाएगा। यह अलग मसला है कि ऐसे मौके भी आए हैं जब अग्रणी नेता में यह अंधविश्वास खुद उनके लिए निजी तौर पर नुकसानदेह हुआ है। आगरा के उस निवासी की ख़बर छपी है जिसने नरेंद्र मोदी के लिए अपना ‘‘जीवन न्यौछावर’’ कर दिया था और जिसे खुद नरेंद्र मोदी भी टिवटर पर फॉलो करते थे, वह कोविड के चलते तड़प तड़प कर मर गया, पीएमओ से संपर्क कर उसके लिए मदद मांगने की उनकी कोशिशें बेकार हो गयी। 

मुमकिन है समर्थकों में से जो अधिक समझदार कहे जा सकते हैं, वह इस बात का अच्छी तरह आकलन करने की स्थिति में थे कि राहत/सहायता कार्य की कोई भी कोशिश दरअसल उस आधिकारिक आख्यान के प्रतिकूल बैठेगी जिसके तहत दावा किया जा रहा था कि स्थिति नियंत्राण में है और किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रा योगी आदित्यनाथ ने तो बाकायदा दावा किया था कि चूंकि ऐसी कोई कमी नहीं है, कोई संकट नहीं है तो इस वजह से वे लोग जो इस बात का रोना रोएंगे, उनके खिलाफ अफवाह फैलाने के जुर्म में केस होगा और जरूरत पड़ने पर इस अपराध के लिए उनकी संपत्ति भी जब्त होगी। उधर वास्तविक हालत यह थी कि खुद इलाहाबाद उच्च न्यायालय को कहना पड़ा था कि ऑक्सिजन के अभाव में होने वाली मौतेंं ‘जनसंहार’ से कम नहीं हैं।

वैसे हुकूमत के करीबी ने एक पत्रिका को स्पष्ट बताया कि ‘उनके कार्यकर्ता लोगों को मदद करते नहीं दिख रहे हैं क्योंकि इससे यह संदेश जाएगा कि सरकार सही काम नहीं कर रही है।’ 

तीसरे, एक अहम बात यह भी थी कि वह जानते थे कि कोविड संक्रमण की महामारी के दिनों में किसी को मदद करने में एक जोखिम यह भी हो सकता है कि आप खुद संक्रमित हो जाएं, जो निश्चितही कोई आकर्षक प्रस्ताव नहीं था।

वह इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि किसी अख़लाक के घर में झुंड में पहुंच कर उसके फ्रीज में रखे मीट की तलाशी लेना और उसे बीफ  घोषित करना काफी आसान काम है या गोरक्षा दल बना कर गाय के व्यापार में मुब्तिला व्यापारियों से मिलना / इसे आप प्रताडित करना या आतंकित करना भी पढ़ सकते हैं/ काफी आसान काम है या एक दोस्ताना शासन में राम मंदिर के नाम पर रैलियां निकाल कर चंदा इकठठा करना और जरूरत पड़ने पर उन लोगों / समूहों का प्रताडित करना, जो इस मुहिम से सहमत नहीं है, इसमें भी कोई खतरा नहीं है, मगर कोविड संक्रमण जो सांस से भी आप तक पहुंच सकता है, ऐसे लोगों से जितना दूर रहा जाए यही उन्होंने सोचा होगा। हम याद कर सकते हैं कि किस तरह मध्यप्रदेश में राममंदिर के नाम पर चंदा उगाही की मुहिमों से सांप्रदायिक विवादों को हवा दी गयी थी। 

यह जानना भी दिलचस्प है कि जहां वह जमीनी स्तर पर कहीं सक्रिय नहीं थे अलबत्ता अपने वॉटसएप समूहों पर या सोशल मीडिया पर एक नए अवतार में उपस्थित थे, जहां वह नफरत के नहीं बल्कि पोजिटिविटी के नए वाहक बन कर सामने आ रहे थे।

बीत गया वह समय जब हर ‘अन्य’ को निशाना बनाया जाता था - जिस तरह पिछले साल तबलीगी जमात को सुपरस्प्रेडर के तौर पर प्रचारित किया था - वह काल भी बीत गया जब गणतंत्र के प्रथम प्रधानमंत्री, जिनको गुजरे भी साठ साल होने को है, उन्हें मौजूदा हुकूमत की हर दूसरी सीमा या नाकामी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता था, नफरत के वह सिपाही अलसुबह पोजिटिविटी की नयी मूर्ति बने थे।

हम यह भी देख सकते हैं कि किस तरह यह आख्यान बनाने की केशिशें जारी थीं कि लोगों को यह समझाया जा सके कि स्थिति जमीनी स्तर पर इतनी ख़राब नहींं है और चीजें सुधार के रास्ते पर हैं। 

लोगों को संदेशों में बताया जा रहा था कि वह सकारात्मक चीजों के बारे में सोचें, इस बात पर न सोचें कि इतने लोग मर रहे हैं बल्कि इस बात पर गौर करें कि कितने सारे लोग स्वस्थ हो कर घर लौट रहे हैं। शायद पोजिटिविटी के इन नए वाहकों को लग रहा हो - जो पिछले ही साल तबलीगियों के पीछे पड़े थे और नफरत की आंधी चला रहे थे - कि इन बातों से लोग इस बात को भूल जाएंगे किस तरह मुल्क की राजधानी के अग्रणी अस्पतालों में - बाबू गंगाराम, बात्रा या जयपुर गोल्डन में - भरती मरीज ऑक्सिजन की कमी से तड़प तड़प कर मरे या किस तरह लोगों के मरने की तादाद इतनी ज्यादा हो गयी है कि नए नए स्मशान बनाने पड़ रहे हैं, कब्रगाहों का इंतज़ाम करना पड़ रहा है और यह भी शायद पहली दफा सत्तर साल में हो रहा है कि अपने आत्मीय जनों के शवों को दफनाने के लिए लोगों को घंटों इंतज़ार करना पड़ रहा है।

दूसरे, पोजिटिविटी के इन नए वाहकों की यह कोशिश भी रहती थी कि बाकी लोग हुकूमत की तमाम लापरवाहियों पर उंगली ना रखे, वही हुकूमत जो सही मायने में इन मौतों के लिए जिम्मेदार कही जा सकती है, जिसने न वक्त़ पर टीकों का इंतजाम किया, न ऑक्सिजन प्लैंट राज्यों में लगाए, जिसने खुद सुपरस्प्रेडर कार्यक्रमों का आयोजन करने में - चुनाव प्रचारों में रैलियां करके, मास्क का इस्तेमाल छोड़ करके लोगों को वाहक बना दिया - संकोच नहीं किया और जिसने  विशेषज्ञों की सलाह के बावजूद दूसरी लहर की भयावहता को लेकर कोई इंतजाम नहीं किए।

तीसरे, पोजिटिविटी के इस प्रचार युद्ध में एक सचेत प्रयास यह भी दिख रहा था उन सभी पत्राकारों - जो अपने आप को जोखिम में डाल कर रिपोर्ट कर रहे हैं - लेखकों या अन्य मशहूर शख्सियतों को भी थोड़ा थोड़ा बदनाम किया जाए, जो अपने अपने सोशल मीडिया से जरूरतमंदों की सहायता की अपीलों को फारवर्ड कर रहे थे ताकि किसी भविष्य में वह न किसी के सहायता की कोई अपील कहीं फारवर्ड कर दें  ना सरकार पर कुछ सवाल उठाए।

पोजिटिविटी के यह वाहक दरअसल स्थिति किस तरह अच्छी हो रही है तथा किस तरह उनके लोग भी बहुत त्याग कर रहे हैं, इसको बताने को लेकर इस कदर बदहवास से थे उन्हें संघ के एक बुजुर्ग कार्यकर्ता - जो खुद कोविड पॉजिटिव थे और उनका देहांत हुआ - के कथित ‘त्याग’ के बारे में कहानी बुनने में भी संकोच नहीं हुआ । दरअसल इस प्रसंग के जरिए वह उनके अंदर उठ रही सक्रिय होने की आवाज़ों को भी संदेश देना चाह रहे थे कि ऐसा नहीं कि सभी घर पर ही बैठे हैं।  

संघ के इस कार्यकर्ता की कहानी देश के अग्रणी मुख्यधारा के अख़बारों में छपी। इस कहानी में बताया गया था कि उस कार्यकर्ता ने किसी युवा के लिए - जो कोविड पोजिटिव था और उसके लिए अस्पताल में बेड उपलब्ध नहीं था - अपना बेड खाली किया और बाद में वह बुजुर्ग मर गया।

लेकिन इस समूची कहानी में ही इतने झोल थे कि एक साधारण पत्रकार को अस्पताल को फोन करके सच्चाई उजागर करने में कोई वक्त़ नहीं लगा। बाद में यही उजागर हुआ कि कहानी में तथ्य नहीं गल्प ज्यादा है। 

अस्पतालवालों ने पत्रकार को बताया कि दरअसल उस दिन अस्पताल में तीन चार खाली बेड पड़े थे और दूसरे, अस्पतालों की कम सुविधाओं को देखते हुए संघ के उस कार्यकर्ता के परिवारजनों को सूचित किया गया था कि वह किसी बेहतर अस्पताल में उन्हें ले जाएं।

सुनने में यही आ रहा है कि पोजिटिविटी फैलाने का यह मिशन अब और गति पकड़ा है और इस संदेश को बताने के लिए तमाम साधु संतों को भी लगाया गया है।

वैसे उन्होंने समय निश्चित ही गलत चुना है, यह समय है जब गंगा जमुना और अन्य नदियों में हजारों की तादाद में लाशें बहायी जा रही हैं, कथित तौर पर कोविड संक्रमण से मरे इन लाशों को लेकर यही कहा जा रहा है कि मरनेवालों की संख्या छिपाने के लिए अपने आंकड़े दुरूस्त करने के लिए यह किया जा रहा है।

एक ऐसे वक्त में जब आम जन भी कह रहे हैं कि  ‘साब, तुम्हारे राम राज में शववाहिनी गंगा’ संघ सुप्रीमो जनाब मोहन भागवत द्वारा ‘पोजिटिविटी अनलिमिटेड’ नामक व्याख्यान श्रृंखला के अंतिम व्याख्यान में दिया व्याख्यान काफी कुछ कहता है।  

काबिलेगौर है  राज्य की आपराधिक लापरवाही के चलते मरने को मजबूर हो लोगों के आत्मीयजनों को यह कहने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ कि आखिर हम सभी ‘जीवन जरा मरण’ से परिचित हैं, जीवन मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जिस तरह हम पुराने कपड़े बदलते हैं, उसी तरह मनुष्य पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण कर लेते हैं।

शायद हिंदुत्व के विचारक और कर्णधार अब जनता को समझाना चाह रहे हैं कि ‘पोजिटिविटी ही आज का सत्य है और महामारी तथा उससे होने वाली मौतें - मिथ्या हैं।

सुभाष गाताडे वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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