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बराबरी और किल्लत: कैसे समाजवाद ने पूंजीवाद को पछाड़ा

सामान के लिए उपभोक्ताओं की लंबी-लंबी कतारें लगना, समाजवादी उत्पादन व्यवस्था की अकुशलता को नहीं, बल्कि इन समाजवादी समाजों की बहुत ही समतावादी प्रकृति को ही दिखाता था।
SOCIALISM

बहुतों को याद होगा कि एक जमाने में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के अन्य समाजवादी देशों की निशानी यह मानी जाती थी कि वहां बहुत सी चीजों के उपभोक्ताओं की लंबी-लंबी कतारें लगती थीं। इसका पश्चिमी जगत में बहुत मजाक बनाया जाता था और इस स्थिति के लिए पूंजीवादी व्यवस्था की तुलना में, उत्पादन की समाजवादी व्यवस्था की अकुशलता को जिम्मेदार बताया जाता था। आखिरकार, पूंजीवादी व्यवस्था में तो कोई भी आराम से किसी सुपर मार्केट में जा सकता था और अपनी मर्जी की कोई भी चीज खरीद के निकल सकता था।

लेकिन, सच्चाई यह है कि सामान के लिए उपभोक्ताओं की लंबी-लंबी कतारें लगना, समाजवादी उत्पादन व्यवस्था की अकुशलता को नहीं बल्कि इन समाजवादी समाजों की बहुत ही समतावादी प्रकृति को ही दिखाता था। इसी प्रकार, पूंजीवादी व्यवस्था में मालों का आसानी से उपलब्ध होना, वास्तव में इस व्यवस्था के अंतर्गत पाई जाने वाली आय की बहुत भारी असमानता पर ही टिका होता है। इस नुक्ते को समझने के लिए हम एक उदाहरण का सहारा ले सकते हैं। इसमें हम समझने की सहूलियत के लिए जान-बूझकर ऐसी संख्याओं का उपयोग करेंगे, जो आय के वितरण को छोड़कर और सभी पहलुओं से एक जैसी हों।

उदाहरण के लिए हम दो अर्थव्यवस्थाओं को ले सकते हैं, पहली स यानी समाजवादी और दूसरी प यानी पूंजीवादी। अब मान लीजिए, ये दोनों ही व्यवस्थाएं 20 इकाई निवेश करती हैं और उससे 100 इकाई उत्पाद पैदा कर सकती हैं। अब मान लीजिए इस समाजवादी व्यवस्था में सबसे ऊपर की सीढ़ी की 20 फीसद आबादी के हाथ में, जिसमें समाजवादी अधिकारीगण हो सकते हैं, कुल उत्पाद का 30 फीसद आता होगा और नीचे की सीढ़ी पर 80 फीसद आबादी के हाथ में, जिसमें मजदूर आदि आते हैं, शेष 70 फीसद उत्पाद रहता होगा। इसके विपरीत, पूंजीवादी व्यवस्था में ऊपर की सीढ़ी की 20 फीसद आबादी के हाथ में, जिसमें पूंजीपति तथा अधिकारीगण आदि आएंगे, उत्पाद का 60 फीसद हिस्सा रहता होगा और शेष 80 फीसद के हाथों में, जिनमें मजदूर आदि आएंगे, शेष यानी 40 फीसद उत्पाद रहता होगा। अब मान लीजिए कि दोनों ही मामलों में, आबादी का उपरला वर्ग अपनी आय का आधा उपभोग में लगाता होगा, जबकि आबादी का निचला यानी मजदूरों वाला हिस्सा, अपनी पूरी की पूरी आय ही उपभोग पर खर्च कर रहा होगा।

अब अगर स या समाजवादी अर्थव्यवस्था में पूरी क्षमता से यानी 100 इकाई का उत्पादन होता है, तो उसमें उपभोग की कुल उपभोग मांग ऊपर की सीढ़ी के हाथ में आने वाले 30 फीसद उत्पाद के आधे यानी 15 फीसद और निचली सीढ़ी की आबादी के हाथ आने वाले पूरे 70 फीसद उत्पाद के योग के बराबर यानी 85 इकाई होगी। इसमें हम 20 इकाई के बराबर निवेश को और जोड़ दें तो, कुल सकल मांग 105 इकाई की होगी। इसके विपरीत, पूंजीवादी व्यवस्था प में उपरले वर्ग के हाथों में 60 फीसद उत्पाद के आधे यानी 30 फीसद इकाई और निचले वर्ग के हाथों के कुल 40 इकाई उत्पाद के योग के बराबर यानी 50 इकाई उपभोग मांग होगी और 20 इकाई के निवेश को जोड़कर, कुल सकल मांग 90 होगी। दूसरे शब्दों में, अगर इन दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं में पूर्ण क्षमता का उपयोग करते हुए 100 इकाई उत्पादन होता है, तो इससे समाजवादी व्यवस्था में तो 5 इकाई उत्पाद की मांग फालतू होगी यानी 5 इकाई की कमी पैदा हो जाएगी, जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मांग ही, आपूर्ति से 10 इकाई कम रह जाएगी।

इसका अर्थ यह है कि इस उदाहरण में पूंजीवादी व्यवस्था, मांग की कमी के चलते पूरी क्षमता के स्तर पर उत्पादन करेगी ही नहीं। इसके बजाय, वह तो सिर्फ 66.66 इकाई उत्पादन ही करेगी क्योंकि उत्पादन के इस स्तर पर, वितरण के उसी अनुपात के हिसाब से, पूंजीपतियों के हिस्से में 40 फीसद उत्पाद आएगा और मजदूरों के हिस्से में 26.66 इकाई उत्पाद और इस तरह कुल उपभोग मांग 20 और 26.66 इकाई के योग के बराबर यानी 46.66 इकाई होगी। इसमें 20 इकाई के निवेश को जोड़ दिया जाए तो, कुल सकल मांग, 66.66 इकाई होगी यानी कुल उत्पाद के ठीक बराबर। इसलिए, ऐसी अर्थव्यवस्था में वास्तविक रोजगार, पूरी क्षमता से उत्पादन किए जा रहे होने की स्थिति में जितना होता, उससे दो-तिहाई ही रहेगा। संक्षेप में यह कि उस अर्थव्यवस्था में भारी बेरोजगारी रहेगी। चूंकि ऐसी अर्थव्यवस्था में उत्पाद की तंगी का या फालतू मांग का कोई सवाल ही नहीं है बल्कि इससे उल्टी ही स्थिति होती है, उपभोक्ता आराम से किसी सुपर मार्केट में जा सकते हैं और मर्जी की खरीददारी कर सकते हैं। वहां चीजें खरीदने के लिए लाइन लगने का कोई कारण ही नहीं होगा।

इसके विपरीत, समाजवादी अर्थव्यवस्था में, जहां पूर्ण क्षमता पर, 100 इकाई का उत्पादन, 5 इकाई की फालतू मांग छोड़ देता है, जाहिर है कि पूर्ण क्षमता से, 100 इकाई उत्पादन तो हो ही रहा होगा। लेकिन, सवाल यह है कि ऐसी अर्थव्यवस्था, 5 इकाई की यह अतिरिक्त मांग से कैसे निपट सकती है? इस अतिरिक्त मांग से निपटने का एक आसान तरीका तो यही है कि कीमतों को उस हद तक बढऩे दिया जाए, जहां उपभोक्ताओं के एक हिस्से की वास्तविक आमदनियों को इतना निचोड़ दिया जाए कि उनकी क्रय शक्ति में ही, 5 इकाई के बराबर की कमी हो जाए। लेकिन, सामान्य रूप से  इसका मतलब मांग के इस तरह निचोड़े जाने का अनुपातहीन तरीके से ज्यादा बोझ मजदूरों के ऊपर ही पडऩा होगा क्योंकि उनके पास बहुत ही कम बचत होगी, जिसमें से पैसा निकालकर, अपने उपभोग को कीमतों में इस बढ़ोतरी से पहले के स्तर पर बनाए रख सकें। इसलिए, 5 इकाई की इस अतिरिक्त मांग को पूरी तरह से मजदूरों की ही कीमत पर घटाया जा रहा होगा। लेकिन, इसकी तुलना में हरेक के उपभोग में, अनुपात के हिसाब से कमी करना ही कहीं बेहतर होगा। समाजवादी अर्थव्यवस्थाएं यही किया करती थीं, जिनमें कीमतों को तो पहले के स्तर पर ही बनाए रखा जाता था, लेकिन उत्पादों के वितरण की राशनिंग कर दी जाती थी ताकि मांग में 5 इकाई की कमी का भी कहीं बराबरी से वितरण किया जा सके। उत्पाद के वितरण की इसी राशनिंग के चलते, लोगों को खरीददारी करने के लिए, दूकानों के बाहर लाइनें लगानी पड़ती थीं।

इस तरह, समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं की पहचान, चीजें खरीदने के लिए लाइनें लगने से होने का मतलब यह नहीं था कि ये लाइनें समाजवादी व्यवस्था की किसी तरह की अक्षमताओं की वजह से लगती थीं। उल्टे इस तरह की लाइनों का लगना तो यही दिखाता था कि समाजवादी व्यवस्था में इसका खास ख्याल रखा जाता था कि आय वितरण में असमानता को कम से कम बनाए रखा जाए। समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं में यह दो तरह से किया जाता था। पहला, वितरण के बुनियादी स्तर को और समानतापूर्ण बनाने के जरिए। दूसरे, यह सुनिश्चित करने के जरिए कि अगर सब कुछ के बावजूद अर्थव्यवस्था में फालतू मांग पैदा होती ही है तो, उससे निपटने के लिए कीमतें बढ़ाने का रास्ता नहीं अपनाया जाए क्योंकि ऐसा करना प्रतिगामी होता बल्कि दाम को उतना ही रखते हुए वितरण की राशनिंग कर दी जाए। दूकानों पर लगने वाली लाइनें, उत्पाद की ऐसी राशनिंग का ही नतीजा थीं।

बेशक, समाजवादी अर्थव्यवस्था में ऐसी नीति के वास्तविक अमल की अपनी ही अनेक समस्याएं भी थीं। मिसाल के तौर पर चीजों की तंगी के बीच, थोड़े से लोगों, जैसे कि शासन या सत्ताधारी पार्टी के अधिकारियों को, इन चीजों तक पहुंच के मामले में विशेषाधिकार हासिल होना। इसी प्रकार, ‘पहले आओ, पहले पाओ’ के सिद्घांत के लागू होने के जरिए, समान राशन के सिद्घांत का उल्लंघन। यह एक प्रकार से कमी के बीच चीजों के मनमाने तरीके से वितरण का ही काम करता था। फिर भी, इन समस्याओं के बावजूद यह बुनियादी नुक्ता तो अपनी जगह ही रहता है कि समाजवादी अर्थव्यवस्था में चीजों की जो तंगी नजर आती थी, वह आय के कहीं समतापूर्ण वितरण को ही दिखाती थी। इसी प्रकार, पूंजीवादी व्यवस्था में जो मालों का भरपूरपना नजर आता है, वह वास्तव में इसी का नतीजा है कि मेहनतकशों की विशाल संख्या के हाथों में इन मालों को खरीदने के लिए पर्याप्त क्रय शक्ति होती ही नहीं है। और क्रय शक्ति का यह अभाव, उस आम बेरोजगारी का कारण तथा परिणाम दोनों ही है, जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ उसकी पहचान के रूप में अपरिहार्य रूप से जुड़ी रहती है।

हंगरी के जाने-माने अर्थशास्त्री, यानोश कोर्नेई ने, जो अपने देश में उस समय मौजूद समाजवादी व्यवस्था के आलोचक थे, कहा था कि, ‘शास्त्रीय पूंजीवाद मांग-बाधित होता है, जबकि  शास्त्रीय समाजवाद, संसाधन बाधित’ होता है। इसका अर्थ यह है कि समाजवादी व्यवस्था, उपलब्ध श्रम समेत अपने सभी संसाधनों का पूरी तरह से उपयोग करती है। उन्होंने इस परिघटना की व्याख्या इस आधार पर की थी कि चूंकि समाजवाद के अंतर्गत फर्में सरकारी सब्सीडी को लेकर आश्वस्त होती हैं, उन्हें ‘नरम-बजट सीमा’ का सामना करना पड़ता है। इसका नतीजा यह होता है कि ये फर्में निवेश परियोजनाओं पर फालतू खर्च कर देती हैं और संभावित कमाई की दर की ज्यादा परवाह नहीं करती हैं। इसके विपरीत, पूंजीवादी व्यवस्था में फर्मों को ‘कठोर बजट सीमा’ का सामना करना पड़ता है, जिसके चलते वे निवेश करने के मामले में विशेष रूप से सचेत रहती हैं।

हालांकि, कार्नेई की इस दलील में सच्चाई हो सकती है, लेकिन इसके अलावा पूंजीवाद के मांग-बाधित तथा समाजवाद के संसाधन-बाधित होने का वह शक्तिशाली कारण भी होता है, जिस पर हम इस टिप्पणी में शुरू से जोर दे रहे थे। यह कारण है समाजवादी व्यवस्था में आय के वितरण में कहीं ज्यादा समानता होना। दूसरी तरह से कहें तो चूंकि किसी भी अर्थव्यवस्था में सकल मांग (विदेश व्यापार को छोड़ दें तो) के दो घटक होते हैं, निवेश का स्तर और उपभोग का स्तर। और इनका स्तर, आय और उपभोग के अनुपात के औसत से तय होता है, जिसे केन्स के शब्दों का प्रयोग करें तो संबंधित अर्थव्यवस्था की ‘उपभोग की प्रवृत्ति’ कहा जा सकता है। पूंजीवाद और समाजवाद के बीच अंतर की कोर्नेई की व्याख्या, इसके पहले तत्व के बारे में ही बताती है, जबकि दूसरे तत्व के मामले में भी दोनों व्यवस्थाओं के बीच बहुत ही महत्वपूर्ण अंतर होता है। समाजवादी व्यवस्था में आय के वितरण की कहीं ज्यादा समानता होने का अर्थ होता है, उसमें निवेश के किसी खास स्तर पर, औसत उपभोग-आय अनुपात का और इसलिए, सकल मांग के स्तर का ज्यादा होना। अर्थशास्त्रियों की शब्दावली का सहारा लें तो कहेेंगे कि निवेश के ‘गुणनांक’ का ज्यादा होना। समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के इस बुनियादी पहलू को कोर्नेई देख ही नहीं पाए थे।

कोई पूछ सकता है कि अब यह सब कहने का क्या फायदा है, जब सोवियत संघ और पूर्वी-यूरोप में समाजवाद का अंत ही हो चुका है? लेकिन, आज यह सब कहने की एक वजह तो खुद को इसकी याद दिलाना ही है कि अपनी सारी सीमाओं के बावजूद, समाजवादी अर्थव्यवस्थाएं ऐसी अर्थव्यवस्थाएं थीं, जहां पूर्ण रोजगार हासिल हो पाया था, जबकि पिछले दो सौ वर्षों में और किसी भी अर्थव्यवस्था में ऐसा नहीं किया जा सका है। इसकी वजह यह है कि पूंजीवाद अपनी प्रकृति से ही पूर्ण रोजगार हासिल नहीं कर सकता है। जबकि समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं की गति ही बहुत भिन्न थी, जो उनके लिए पूर्ण रोजगार हासिल करना संभव बनाती थी। यह हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि ऐसी अर्थव्यवस्थाएं वाकई इसी दुनिया में रही थीं।

इस सब को याद करने का अब क्या फायदा है। इस सवाल के जवाब का एक और हिस्सा इस तथ्य में छुपा हुआ है कि पूंजीवाद तथा समाजवाद के बीच का यह जमीन-आसमान का अंतर एक हद तक, भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में रहे नियंत्रणात्मक और नवउदारवादी निजामों के अंतर पर भी लागू होता है। बेशक, ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि इन देशों ने पहले किसी तरह का पूर्ण रोजगार हासिल कर लिया हो। फिर भी नियंत्रणात्मक निजाम में आय के वितरण में कहीं ज्यादा समानता थी और इसके चलते उसे फालतू सकल मांग की समस्याओं का सामना करना पड़ता था और विभिन्न मालों की राशनिंग का सहारा लेना पड़ता था। यह नवउदारवादी दौर की इन्हीं अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति से बिल्कुल भिन्न था। नवउदारवादी दौर में इन अर्थव्यवस्थाओं में आय असमानता में भारी बढ़ोतरी हुर्ह है और इसके चलते मेहनतकश जनता के हाथों में क्रय शक्ति बुरी तरह से सिकुड़ गयी है। इसी से सुपर मार्केटों में हर चीज भरपूर होने की पूरी तरह से भ्रामक छवि बनती है।

मिसाल के तौर पर चेंसेल और पिकेट्टी के अनुसार भारत में, ‘नवउदारीकरण’ के आने से पहले, 1982 में राष्ट्रीय आय में सबसे धनी 1 फीसद आबादी का हिस्सा महज 6 फीसद था। याद रहे कि बहुत से लोग भारत में नवउदारीकरण की शुरूआत 1985 से मानते हैं। बहरहाल, 2013 तक राष्टीय आय में इस शीर्षस्थ 1 फीसद आबादी का हिस्सा बढक़र 22 फीसद पर पहुंच चुका था। करीब एक सदी में कभी भी यह हिस्सा इतना ऊपर नहीं गया था। इसलिए, नवउदारवादी निजाम में मुद्रास्फीति आम तौर पर फालतू मांग की वजह से पैदा नहीं होती है। इस निजाम में मुद्रास्फीति सामान्यत: सरकार द्वारा पैदा की जाने वाली मुद्रास्फीति होती है और इस मुद्रास्फीति को पैदा करने का सरकार का तरीका यही होता है कि वह पूंजीपतियों की संपदा या मुनाफों पर कर लगाने के बजाए आम उपयोग की वस्तुओं पर ही करों का बोझ बढ़ा देती है।

इसके बाद इस मुद्रास्फीति पर भी काबू पाने के लिए राजकोषीय कमखर्ची थोपी जाती है। मानो यह मुद्रास्फीति मांग के फालतू होने से पैदा हो रही हो और यह राजकोषीय कमखर्ची, बेरोजगारी के पहलू से हालात और भी बिगाड़ देती है। जबकि इससे मुद्रास्फीति भी कम नहीं होती है। भारत सरकार इस समय ऐसी ही विचारहीन कसरत में लगी हुई है।  

अंग्रेजी में मूल रूप में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

newsclick.in/Equality-Scarcity-Socialism-Fared-Better-Than-Capitalism

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