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30 साल बाद भी कश्मीरी पंडितों की ज़िंदगी दुर्भाग्यपूर्ण है

न्यूज़क्लिक ने पुरखू कैंप का दौरा किया है जो जम्मू शहर के बाहरी इलाक़े में स्थित है और जो अभी भी 250 कश्मीरी पंडितों के परिवारों का ठिकाना बना हुआ है।
KASHMIRI PANDIAT

राज कुमार भट की माँ के देहांत को तीन वर्ष बीत चुके हैं, जब अपने वतन-कश्मीर में वापस जाकर रहने का उनका यह सपना अधूरा ही रह गया। तभी से भट की ज़िंदगी में इसको लेकर अफ़सोस बना हुआ है। वे कहते हैं, “मेरी माँ की अंतिम इच्छा थी कि वे अपनी अंतिम साँस अपने मकान में ही त्यागें, अपने अनंतनाग के बागीचे में। मैं उनका यह सपना पूरा न कर सका। यह दर्द मेरे साथ मेरी क़ब्र तक जाने वाला है।“ इस बात को 30 साल हो चुके हैं, जब राज कुमार भट ने अपने चार मंज़िला घर और कश्मीर के अपने अखरोट के बगीचे को पीछे छोड़ जम्मू के लिए पलायन किया था। तभी से वे कभी एक शरणार्थी शिविर से दूसरे शिविर में स्थानांतरित होते हुए बेहद तकलीफ़देह ज़िंदगी काटने को मजबूर हैं।

पलायन के बाद 1990-94 के बीच पहले पाँच सालों के लिए भट को सरकार की ओर से उधमपुर में आवंटित किये गये एक शरणार्थी टेंट में अन्य शरणार्थियों के साथ ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ी, और उसके बाद उधमपुर के बाता बलिया के एक-कमरे के किराये वाले मकान में स्थानांतरित करा दिया गया था। अब वे जम्मू के पुरखु कैंप के दो कमरों वाले किराये वाले मकान में रहते हैं। उनके दरवाज़े पर लगी नेम प्लेट पर लिखा है : राज कुमार भट, बरियंगन, उमानगर, अनंतनाग कश्मीर।

भट कोई अकेले ऐसे इंसान नहीं हैं। 1980-90 के दशक में जब कश्मीर में हथियारबंद उग्रवाद का दौर जारी था तो हज़ारों कश्मीरी पंडितों को अपने पैतृक भूमि और जायदाद छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा था। तभी से कश्मीरी पंडित विभिन्न सरकारी वित्त पोषित शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। और हर साल 19 जनवरी का दिन कश्मीरी पंडितों के लिए अपने पलायन के दुख भरे अनुभवों को याद किये जाने का दिन होता है, जिसमें एक उम्मीद भी छुपी होती है कि इस बार, शायद इस बार उनकी वापसी संभव हो सके।

न्यूज़क्लिक ने इस बार पुरखू कैंप का दौरा किया है, जो जम्मू शहर के बाहरी इलाक़े में है और जहाँ पर 250 कश्मीरी पंडित परिवारों का बसेरा है। पुरखू कैंप में रहने वाले अधिकांश परिवार अनंतनाग के रहने वाले हैं और 2008 में उधमपुर के एक कमरे वाले किराये के कमरों से स्थानांतरित किए गए थे।

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‘हमारी संस्कृति नष्ट होती जा रही है'

हर रोज़ 67 वर्षीया बिट्टी कन्द्रू अपना एक घंटा अपनी पोती को कश्मीरी भाषा सिखाने में लगाती हैं। उनका मानना है कि यह उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे कश्मीरी संस्कृति और ज़बान को युवा पीढ़ी के हाथों सौंपें। उनका कहना है, “आज हम जो कुछ कश्मीरी में बोलते हैं, उसे वह पूरी तरह से समझ लेती है, लेकिन अभी भी धाराप्रवाह बोल पाने में सक्षम नहीं है। अभी वह सिर्फ़ पाँच साल की है।“ कन्द्रू कहती हैं कि वे इस बात से कई बार बेहद परेशान हो जाती हैं जब वे देखती हैं कि किस प्रकार से कश्मीरी संस्कृति गुम होती जा रही है। 

निराशा भरे स्वर में कन्द्रू कहती हैं, “कश्मीरी पंडितों के अंदर आधुनिकीकरण ने गहराई से अपनी जड़ें जमा ली हैं। आज की युवा पीढ़ी को कश्मीरी बोलना नहीं आता और कुछ तो ऐसे हैं, जिन्हें बोलने में भी लज्जा महूसस होती है। हमारी संस्कृति के बारे में उन्हें कुछ ख़ास पता नहीं है। यह सब देख कर मुझे कई बार ग़ुस्सा आने लगता है, लेकिन फिर सोचती हूँ कि इसमें उनकी ग़लती भी नहीं है। अगर हम कश्मीर में होते तो हालात इस प्रकार के नहीं होते।

दया क्रिशन भी इसी तरह एक पुरखु कैंप के निवासी हैं, जो सिर्फ़ कश्मीरी भाषा ही बोलते हैं और हमेशा फिरन ही पहनते हैं- यहाँ तक कि जब उन्हें रिश्तेदारों के यहाँ भी कभी जाना होता है, तब भी। उनका मानना है कि "हमारी संस्कृति जीवित रहे, इसे बनाए रखने का यह मेरा अपना तरीक़ा है।“

‘सरकारें आती जाती रहती हैं’

दया क्रिशन का कहना है, "30 साल हो गए हैं और कश्मीर में हमारे पुनर्वासन का वादा करते हुए कई सारी सरकारें आईं और चली भी गईं, लेकिन धरातल पर कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है। सरकारें आती और जाती रहती हैं। लेकिन जो वास्तव में हमारे पुनर्वासन को मुहैया करा सकेगा, हम उसी सरकार पर भरोसा कर सकते हैं।"

पुरखू कैंप के कश्मीरी पंडित अपनी दुर्दशा के प्रति सरकार की लापरवाही की शिकायत करते हैं।

कुन्द्रू ने अपने पड़ोसियों के साथ एक सौदा किया हुआ है। वे और उनके पति अगले दो दिनों के लिए अपने पड़ोसी के अपार्टमेंट में सोने जा रहे हैं, क्योंकि उनके घर में कुछ मेहमान आने वाले हैं। इसके बदले में वे उनके लिए रोगनजोश बनायेंगी।

 “मेहमानों को ठहराने के लिए कोई जगह नहीं बचती। घर में एक और इंसान आ जाता है तो हम संकट में घिर जाते हैं। इसलिए हम एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं। क्योंकि सरकार को कुछ करना धरना तो है नहीं, वह केवल ज़बानी जमाख़र्च में विश्वास करती है।”

कई अन्य लोगों ने चिकित्सा सुविधाओं की कमी के अलावा कैम्पों के रखरखाव के साथ अन्य मुद्दों के बारे में अपनी शिकायत दर्ज की।

क्रिशन याद करते हुए बताते हैं, “जहाँ तक मुझे याद आता है आख़िरी बार मनमोहन सिंह ने ख़ुद आकर जगती, पुरखू और मुथी कैंप का दौरा किया था; परिवारों से मुलाकात की थी और अपनी ओर से मदद की पेशकश की थी।“

‘हम वापसी चाहते हैं’

क्रिशन का कहना है कि वे सिर्फ़ इसी शर्त पर वापस जाएंगे अगर सरकार की ओर से कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से कॉलोनी आवंटित की जाएगी, जहां वे स्वतंत्र रूप से रह सकें। उनका कहना है, "हमें व्यावहारिक होना चाहिए। अधिकांश कश्मीरी पंडित भारत समर्थक हैं, और वापसी के बाद भी इस भावना में बदलाव नहीं होने जा रहा है। हम देखते हैं कि किस प्रकार से कश्मीर में रहने वाले भारत समर्थक मुसलमानों की ज़िंदगी खतरे में है। अगर सरकार वास्तव में हमारे लिए कुछ करने की इच्छुक है तो हमारी सुरक्षा की गारंटी का एक ही रास्ता है, और वह यह है कि हमें अलग कॉलोनी में पुनर्वासित किया जाए।"

डॉली रैना* (परिवर्तित नाम) जब जम्मू में आईं थीं, तो वे कक्षा 5 में थीं। तबसे वे वापस नहीं गई हैं। वे कहती हैं कि बचपन की यादें इतनी अधिक गड्डमड्ड हो चुकी हैं कि एक टूरिस्ट के बतौर कश्मीर यात्रा उनके लिए खो देने वाली साबित होंगी। वो बताती हैं, “अगर सरकार यह सुनिश्चित करती है कि हम लोग कश्मीर में सुरक्षित रहेंगे तो मैं तत्काल अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर घर वापसी के लिए तैयार हूँ। यहाँ हम बिल्कुल खुश नहीं और वहाँ जाने से डरते हैं।"

डॉली के पति ने मुझसे सवाल किया, “मैंने सुना आप कश्मीर के बारे में बात कर रही हैं। क्या आप हमें वापस कश्मीर ले जाने के लिए आई हैं? क्या आप अनंतनाग में मेरे घर के बारे में जानती हैं? क्या मैं अपना सामान पैक करना शुरू कर दूँ?"

डॉली का कहना है कि उनके पति को ख़ुद से बातें करते रहने और बे-फ़ुज़ूल के सवाल पूछने की आदत हो चुकी है। वो कहती हैं, “सदमे और आघात ने हम सबको बदलकर रख दिया है। इनके जैसे इस शिविर में आपको कई लोग मिल जाएंगे। कुछ लोग तो पागल ही हो चुके हैं। मैं चाहती हूँ कि हम सब वापस लौट जाएँ। हो सकता है एक बार घर वापसी के बाद मेरे पति की हालत ठीक हो जाए।”

 

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