विशेष: पश्चिमी प्रचार के अलावा आप चीन के बारे में क्या जानते हैं?
1921 में स्थापित चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपना शताब्दी वर्ष मना रही है। डेढ़ सौ देशों से अधिक देशों ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति अपना समर्थन प्रकट किया है। 1 जुलाई 1921 को कम्युनिस्ट पार्टी एक नाव पर गठित की गई थी जिसमें मात्र 13 लोग मौजूद थे। महज एक दर्जन लोगों से शुरू हुई चीन की कम्युनिस्ट पार्टी आज 9.2 करोड़ सदस्यों वाली विशाल पार्टी में तब्दील हो चुकी है। इन सौ सालों के दौरान चीन युगांतकारी परिवर्तनों से गुजरा है। दुनिया का कोई देश अब तक के ज्ञात इतिहास में चीन जैसी तेज गति से प्रगति के पथ पर आगे नहीं बढ़ा है। मात्र दो पीढी के अंतराल में चीन जितना आगे बढ़ा उतने में दूसरे देशों को शताब्दियाँ लगी हैं।
लेकिन पश्चिमी और खासकर अमेरिकी मीडिया चीन की महान उपलब्धियों को कमतर बताने का प्रयास कर रहा है। दशकों से ऐसे मुद्दों को उठाया जा रहा है जिनसे अब ऊब सी पैदा होने लगी है। पश्चिमी ढंग के लोकतंत्र का न होना, वीगर मुसलमानों पर अत्याचार, हॉन्गकॉन्ग में तथाकथित जनतंत्र समर्थकों का उत्पीड़न, तिब्बत की आज़ादी, ताइवान का सवाल। चीन के संबन्ध में यही रिकॉर्ड अब तक सुनने को मिलता आया है।
भारत के अखबारों में चीन संबंधी अधिकांश खबरें अमेरिका या इंग्लैंड के न्यूज एजेंसियों के माध्यम से आती हैं फलतः सही सूचना नहीं मिल पाती । भारतीय अखबार चीन के संबन्ध में इतनी नकारात्मक खबरों से भरे रहते हैं । अमेरिका, इंग्लैंड व पश्चिमी देशों ने चीन के खिलाफ इस तरह सूचना युद्ध छेड़ा हुआ है कि एक पाठक के लिए वस्तुपरक मूल्यांकन करना संभव नहीं हो पाता।
चीन का चमत्कार
लेकिन चीन अब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ( अमेरिका के बाद) बन चुका है। पिछले चालीस सालों से चीन 9.2 प्रतिशत के वार्षिक दर से लगातार विकास करता जा रहा है। दुनिया में कोई भी देश 9 प्रतिशत से अधिक विकास दर चार दशकों तक बरकरार रखने का अनूठा कारनामा नहीं कर पाया है। दुनिया भर के अर्थशास्त्री इस अभूतपूर्व उछाल को देख अचंभे में हैं कि जिस उपलब्धि को इंग्लैंड-अमेरिका हासिल नहीं कर पाया उसे चीन ने कैसे सम्भव कर दिखाया ?
इन चार दशकों में, 1981 के बाद, चीन ने विश्व बैंक द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा (1.90 डॉलर) से लगभग 85 करोड़ ( 853 मिलियन) लोगों को ऊपर उठाया है। चीन पर नई किताब ' द ग्रेट रोड अहेड' लिखने वाले जॉन रॉस के अनुसार " यह सामाजिक चमत्कार मानव जाति के इतिहास में अब तक कोई देश नहीं कर पाया है।" जॉन रॉस आगे बताते हैं " यदि दौर की तुलना भारत से करें, जो चीन की तरह ही एक बड़ा मुल्क है, तो मात्र 16 करोड़ लोग ही गरीबी रेखा से ऊपर उठाए जा सके हैं।"
विश्व बैंक के अनुसार इन चार दशकों के दौरान दुनिया भर में गरीबों की संख्या में जितनी कमी आई है उसका अकेले तीन चौथाई चीन के कारण सम्भव हो पाया है । चीन के साथ यदि अन्य समाजवादी देशों यथा वियतनाम, लाओस आदि को जोड़ दें तो दुनिया में गरीबों रेखा से बाहर आने वालों का 78 प्रतिशत तो इन कम्युनिस्ट के खाते में जाता है। बाकी दुनिया का यह आंकड़ा मात्र 22 प्रतिशत है।
जबकि 1949 में जब चीन में क्रांति के परिणामस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई तो वह दुनिया के सबसे गरीब देशों में शुमार किया जाता था। उससे नीचे मात्र 10 देश ही गरीब थे। कुपोषण एवं भुखमरी के शिकार बेघरबार लोगों की बहुत बड़ी तादाद थी। अकाल प्रत्येक कुछ वर्षों के अंतराल आते, भोजन के अभाव में हजारों-लाखों लोग मर जाते थे। इन मौतों की संख्या इतनी अधिक थी की क्रांति के पिछले एक सौ सालों में चीन की जनसंख्या में बढ़ोतरी ही नहीं हुई थी। यह 40 से 50 करोड़ के बीच स्थिर रहती आई थी।
1949 में चीनी लोगों की औसत उम्र मात्र 36 वर्ष थी जबकि उस समय वैश्विक औसत 45 वर्ष था। आज चीन में एक सामान्य नागरिक की औसत उम्र 77 वर्ष है , वैश्विक औसत से 4 वर्ष अधिक। 1949 में चीन का सकल घरेलू उत्पाद विश्व का मात्र 0.3 प्रतिशत था जबकि आज चीन का आनुपातिक हिस्सा 18 प्रतिशत है। चीन ने अपनी पूरी आबादी के लिए भोजन, वस्त्र , आवास , शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधा मुहैया कराई है। अधिकांश लोगों के पास अपना घर है। इसका प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी) दस हजार डॉलर है। चीन की साक्षरता दर अब 97.33 प्रतिशत है जबकि 1949 में यह आंकड़ा मात्र 20 प्रतिशत ही था। टीकाकरण आज 100 तक प्रतिशत पहुंच चुका है जबकि उस समय शून्य था। चीन एशिया का इकलौता मुल्क है जिसकी कोरोना वायरस से लड़ने वाली दो दो दवाएं विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा स्वीकृत की गई हैं।
एक पिछड़े सामंती कृषि प्रधान देश से औद्योगिक महाशक्ति में तब्दील होने के परिघटना देख विश्व दांतो तले उंगली दबाए हुए है। इससे पहले यह काम इंग्लैंड , अमेरिका और सोवियत संघ कर चुके हैं। इंग्लैंड के औद्योगिक महाशक्ति बनने के दौरान 2 प्रतिशत लोगों को प्रभावित किया, अमेरिका ने 3 प्रतिशत, सोवियत संघ ने बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में लगभग 8.4 प्रतिशत जबकि चीन ने यह उपलब्धि 22 प्रतिशत आबादी के साथ किया।
बिना गोली दागे, गुलाम बनाये चीन ने यह सब हासिल किया इसके साथ साथ एक और बेहद महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में रखने लायक है कि चीन ने इतनी बड़ी उपलब्धि बगैर किसी देश को गुलाम बनाये, कहीं उपनिवेश स्थापित किये हुए और बिना किसी देश पर आक्रमण किये हासिल की है।
दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि हर बड़ी महाशक्ति ने अपने उभार के दौर में बड़े पैमाने पर खून खराबा किया है। आक्रमण, युद्ध , गुलामी और उपनिवेश स्थापित किये बिना वे औद्योगिक देश नहीं बन सके हैं। उदाहरणस्वरूप अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी या जापान का नाम लिया जा सकता है। या फिर थोड़ा और पीछे जाकर ऑटोमन या रोमन साम्राज्य का इतिहास देखें सबकी महाशक्ति बनने का इतिहास बेहद रक्तरंजित रहा है। परन्तु चीन बिना एक भी गोली चलाये, शांतिपूर्ण ढंग से महाशक्ति बन चुका है।
क्रांति के बाद, 1949 में , जब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई तब चीन की सीमा 16 देशों के साथ लगती थी और लगभग सबों के साथ सीमा संबंधी विवाद थे। लेकिन आज भारत को छोड़ चीन सब के साथ सीमा विवाद निपटा चुका है।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 70 के दशक के राष्ट्रपति रहे जिमी कार्टर से बातचीत में यह आशंका व्यक्त थी कि चीन तेजी से आगे बढ़ रहा है और हमें पीछे छोड़ सकता है। जिमी कार्टर ने ट्रम्प को जवाब दिया अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद निरन्तर युद्ध में सलंग्न रहा है जबकि चीन कुल मिलाकर शांतिपूर्वक अपना विकास करता रहा।
लेकिन इस बात के लिए चीन की तारीफ करने के बजाय अमेरिका के नेतृत्व में चीन को चारों ओर से घेरने और सैन्य रूप से अलग-थलग करने का प्रयास चल रहा है।
दुनिया भर में अमेरिका के 800 सैन्य अड्डे, चीन का एक भी नहीं।
पश्चिमी देशों और अमेरिकी मीडिया चीन को विस्तारवादी और साम्राज्यवादी देश के रूप में चित्रित करता है। लेकिन चीन ने अमेरिका या इंग्लैंड की तरह आज तक किसी देश पर कब्जे में नहीं लिया, प्रतिबंध नहीं लगाया, तख्तापलट या सत्ता परिवर्तन नहीं किया। इस वक़्त अमेरिका के पूरी दुनिया मे लगभग 800 सैन्य अड्डे हैं। जबकि विस्तारवादी कहे जानेवाले चीन का दुनिया में एक भी सैन्य अड्डा नहीं है।
अमेरिका दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार व सेना पर खर्च करता है। अमेरिका का अकेले सैन्य बजट उसके बाद के 12 देशों के सैन्य बजट के बराबर है। स्टॉकहोम ओएस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार चीन का प्रति व्यक्ति सैन्य खर्च पश्चिमी यूरोप के सैन्य खर्च का सिर्फ 12 प्रतिशत है।
दरअसल जब चीन ने 1978 में अपनी अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए खोला था उस वक्त इन साम्राज्यवादी देशों का अनुमान था कि वे चीन के श्रम का उपयोग कर उसे महज सस्ता श्रम सप्लाई कराने वाले देश के रूप में बदल देंगे। क्रांति के बाद चीन में माओत्से तुंग के कार्यकाल में लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया था। 'नंगे पांव डॉक्टर' ( बेयर फुट डॉक्टर) के जरिये पूरे चीन की स्वास्थ्य व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन लाया गया। ठीक इसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाया गया। इसने चीन में एक स्वस्थ व कुशल श्रम बल का निर्माण किया। इसके उलट भारत को देखें तो प्राथमिक के बदले उच्च शिक्षा पर जोर दिया गया लेकिन प्राथमिक शिक्षा का आधार न रहने के कारण भारत को उच्च शिक्षा में निवेश का कोई खास फायदा न मिल सका। भारत पश्चिमी देशों को कुशल श्रमिक सप्लाई करने वाला देश ही बना रहा।
जब देंगे श्याओ पिंग ने अर्थव्यस्था को खोला तो पश्चिमी देशों को चीन जैसा कुशल व स्वस्थ श्रम बल कहीं नहीं मिल सकता था। चीन ने कुछ क्षेत्रों में विदेशी पूंजी निवेश को इजाजत तो दी और साथ में तकनीक हस्तांतरित करने की भी शर्त रखी थी। इधर अपने विज्ञान व शोध पर अलग से ध्यान देता रहा। जैसा की कहा जाता है ' तकनीक पुराना विज्ञान होता है और विज्ञान भविष्य की तकनीक'। विज्ञान और निवेश व शोध का नतीजा यह हुआ कि धीरे धीरे चीन को कुछ क्षेत्रों खासकर टेलीकॉम, ग्रीन टेक्नोलॉजी, रोबोटिक्स, 5 जी आदि क्षेत्रों में अमेरिकी से निर्णायक बढ़त हासिल हो गई। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक यह अंतर कम से कम आज दो जेनरेशन का हो चुका है।
अब जो अमेरिका तीसरी दुनिया के देशों को बाजार में उतर कर प्रतियोगिता में उतरने की बात किया करता था वह अब चीन की बांह मरोड़ने, प्रतिबंध लगाने, जैसे गैर आर्थिक तौर तरीकों का इस्तेमाल कर चीन की तकनीकी बढ़त को रोकने का प्रयास कर रहा है। 5 जी पर अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों में रोक को इस रौशनी में देखा जा सकता है।
दरअसल अमेरिका, इंग्लैंड को उम्मीद थी कि सोवियत संघ की तरह चीन में भी कोई गोर्बाचेव या येल्तसिन मिल जाएगा जो स्टालिन की तरह माओ के कार्यकाल को कलंकित करने का काम करेगा। लेकिन दुर्भाग्य से चीन में उनका यह नापाक मंसूबा कामयाब न हो सका। चीन के वर्तमान नेतागण भी 1978 के बाद की अपनी प्रगति को माओ युग की निरंतरता में देखते हैं। जैसा कि चीन के वर्तमान राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने शताब्दी वर्ष के अवसर पर दिए गए अपने वक्तव्य में कहा "समाजवाद के बगैर चीन का कोई भविष्य नहीं है।" मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ विचारधारा आज भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का दिशा निर्देशक सिद्धांत है
1839 से 1949 तक
चीन एक शताब्दी से भी अधिक वक्त तक इस या उस साम्राज्यवादी ताकत के कब्जे में रहा था। 1839-42 के अफीम युद्ध के दौरान कभी ब्रिटिश उपनिवेश, कभी जापान ने उपनिवेश बनाने का प्रयास किया तो कभी अमेरिका ने। शताब्दियों से सामंती व साम्राज्यवादी जुए तले कराह रहे चीन को हमेशा राष्ट्रीय अपमान का शिकार होना पड़ता था ।
चीन की इस राष्ट्रीय तकलीफ व त्रासदी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1840 से लेकर 1949 के मध्य लगभग 10 करोड़ चीनी युद्धों में मारे गए। ये मौतें सीधे-सीधे विदेशी हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप हुए या फिर गृहयुद्ध और अकाल के कारण।
चीन को सबसे लंबे समय तक द्वितीय विश्व युद्ध का सामना करना पड़ा था। 1937 से 1945। लगभग 8 वर्षों तक चीन ने जो ध्वंस व बर्बादी झेली वह किसी दूसरे देश ने नहीं झेली। इस दौरान मरने वालों की तकरीबन एक करोड़ चालीस लाख थी। जापानी साम्राजावाद के खिलाफ चीन के बहादुराना संघर्ष के कारण सोवियत संघ को दूसरा मोर्चा न खोलना पड़ा। वह इस मामले में थोड़ा निश्चिंत रह सका। इसकी कीमत चीन को, अपनी लगभग 2 करोड़ आबादी को गंवा कर चुकानी पड़ी।
1949 और 1978 के बीच
चीन के बारे में यह एक दुष्प्रचार यह भी किया जाता है कि चीन के विकास की संपूर्ण गाथा 1978 के बाद लिखी गई है यानी जबसे उसने अपना द्वार निजी पूंजी निवेश के लिए खोला है। उसके पहले की चीनी की प्रगति उल्लेखनीय नहीं है। इन लोगों के अनुसार चीन जब तक समाजवादी दौर में रहा विकास उससे कोसों दूर रहा जबकि पूंजीवादी राह पर बढ़ते ही विकास की धारा बहने लगी।
लेकिन यह बात सत्य से परे है। इस बात को सभी चीन के सभी संजीदा विश्लेषक स्वीकार करते हैं कि माओ युग के बगैर चीन के वर्तमान विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।
1949 में क्रांति के बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जमींदारों, युद्ध सरदारों तथा सामंतों का राज्य पूरी तरह समाप्त कर डाला। सामंतों से जमीन छीनकर किसानों में बांटी गई। अब किसान अपनी भूमि के मालिक थे। पंचवर्षीय योजनाओं को शुरू किया गया। यदि 1949 से 1978 तक के वार्षिक विकास दर को देखें तो यह 3.6 प्रतिशत के करीब होता है। उस वक्त यह विकास दर लगभग वैश्विक दर के बराबर ही रहा था। लोगों के जीवन स्तर, शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार हुआ। सबसे बढ़कर लोगों की उम्र सीमा में बढ़ोतरी हुई। क्रांति के वक्त एक औसत चीनी 35-36 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रह पाता था लेकिन क्रांति के तीस वर्षों के दौरान चीनियों की औसत उम्र बढ़कर 67-68 साल हो गई। यानी लोग तीस वर्ष अधिक जीवित रहने लगे।
कई लोग चीन में माओ की अपार लोकप्रियता के रहस्य को जानना चाहते हैं। जिस नेता के कारण आपकी आयु तीन दशक अधिक बढ़ जाये उसके प्रति सम्मान और दीवानगी को सहज रूप से समझा जा सकता है।
यह बात भी ठीक है कि माओ के समय भी बड़ी संख्या में गरीब लोग थे। लेकिन शताब्दियों से साम्राज्यवादी जुए तले कराह रहे चीनियों को यह अब यह अहसास हो चला था उनके पास भले विकसित देशों वाली सुविधाएं नहीं हैं लेकिन अब उनकी नियति उनके अपने हाथों में है।
चीन के बारे में कभी नेपोलियन ने कहा था "चीन एक सोया हुआ शेर है। जिस दिन यह जागेगा, दुनिया काँप उठेगी।"
आज जब चीन जागा है तो इंग्लैंड और अमेरिका के कंपन को पूरी दुनिया महसूस कर रही है।
अगले अंक में
क्या चीन एक पूंजीवादी देश में तब्दील हो चुका है?
(अनीश अंकुर वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।