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मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी का एफ़सीआरए लाइसेंस रद्द होना संघीय ढांचे के लिए एक सबक है

क्रिसमस पर घटी घटना और नवीन पटनायक के मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी को समर्थन देने से यह उम्मीद जगी है कि अधिक से अधिक राज्य, निरंकुश केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ संवैधानिक मूल्यों और संघीय ढांचे की रक्षा के लिए आगे बढ़ेंगे। 
FCRA
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

क्रिसमस के दिन, खबर आई कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एफसीआरए या विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम के तहत मिशनरीज ऑफ चैरिटी (एमओसी) के पंजीकरण का नवीनीकरण करने से इनकार कर दिया है। कई अन्य संगठनों को भी एफसीआरए नवीनीकरण से वंचित कर दिया गया था, लेकिन मिशनरीज ऑफ चैरिटी (एमओसी) के मामले में, मंत्रालय ने नोबेल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा द्वारा स्थापित संगठन के बारे में "प्रतिकूल इनपुट" मिलने को बनाकर नवीनीकरण करने से इनकार किया है। हालाँकि, इस बाबत बहुत कम जानकारी सामने आई है। कुछ दिनों बाद, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने मिशनरीज ऑफ चैरिटी (एमओसी) की इकाइयों जो जरूरतमंद और निराश्रितों को मदद देती है, उन्हे मुख्यमंत्री राहत कोष से सहायता देने का प्रस्ताव किया है। 30 दिसंबर को, उन्होंने ट्वीट किया कि मिशनरीज ऑफ चैरिटी द्वारा संचालित केंद्र का कोई भी निवासी भोजन या स्वास्थ्य सेवा की कमी से पीड़ित नहीं होगा।

जैसे ही नवीन पटनायक के प्रस्ताव की खबर पूरे देश में फैली, जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में पढ़ाने वाले प्रोफेसर बलवीर अरोड़ा ने 31 दिसंबर को (फेसबुक पर) लिखा कि, "संघवाद मिशनरीज ऑफ चैरिटी के बचाव में आ गया है। ओडिशा के मुख्यमंत्री द्वारा दिखाई गई राह का अनुसरण क्या अन्य के द्वारा किया जाएगा, यदि ओडिशा के मुख्यमंत्री मिशनरीज ऑफ चैरिटी को सीएम राहत कोष से फंड का प्रस्ताव कर सकते तो क्या पीएम केयर्सफंड इसके लिए अपने दरवाज़े खोलेगा? जेएनयू में इतिहास पढ़ाने वाली प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी ने भी कहा कि, “यह ख़बर पहले पन्ने की ख़बर होनी चाहिए थी। मिशनरीज ऑफ चैरिटी को नुकसान पहुंचाने वाली केंद्र सरकार की कार्रवाई को कुछ हद तक ओडिशा राज्य में काम कर रही एमओएस की इकाइयों को पटनायक से मिले समर्थन से मदद मिलेगी। अन्य मुख्यमंत्रियों को उनके उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए। क्योंकि राष्ट्र को बचाने के लिए संघवाद अनिवार्य शर्त है!”

पांच दिन बाद, 4 जनवरी 2022 को, कलेक्टरों के अनुरोधों पर, ओडिशा के 8 जिलों में मिशनरीज ऑफ चैरिटी द्वारा चलाए जा रहे कुष्ठरोग और अनाथालयों सहित 13 संस्थानों के 900 कैदियों की सहायता करने के लिए सीएमआरएफ से 78.76 लाख रुपये स्वीकृत किए हैं।

प्रतिष्ठित शिक्षाविदों के लिए व्यक्तिगत तौर पर राजनेताओं के निर्णयों पर टिप्पणी करना दुर्लभ माना जाता है। हालाँकि, ऐसा लगता है कि संघवाद के संदर्भ ने उन्हे बोलने पर मजबूर कर दिया है। आखिरकार, भारतीय संघीय ढांचे के भीतर लिए गए किसी भी बड़े निर्णय को राज्य स्तर पर उलटने के लिए शायद ही कभी कदम उठाया गया है। इसके अलावा, ऐसे कई उदाहरण हैं जहां राज्यों ने एक निरंकुश केंद्र के साथ उनके क्षेत्र में की जा रही घुसपैठ का विरोध किया है। हालांकि, इस नए एपिसोड में, किसी राज्य ने उस नुकसान को पूरा करने की पेशकश की है जिसे संघीय ढांचे के बड़े स्तर से किया गया था। दरअसल, प्रो. अरोड़ा को इस मुद्दे की बारीक समझ है, क्योंकि वे संघवाद के विशेषज्ञ भी हैं और सामाजिक विज्ञान संस्थान के बहुस्तरीय संघवाद केंद्र के प्रमुख हैं। जैसा कि उन्होंने अपनी टिप्पणी में स्पष्ट किया, भारत में संघवाद संवैधानिक और कानूनी ढांचे से परे है। यह हमारे लोकतंत्र की गहरी जड़ों को समझने का भी एक तरीका है।

भारत को हम एक बहुस्तरीय संघवाद के रूप में समझते हैं, जिसमें सामाजिक और संवैधानिक संरचनाओं के तहत जांच और संतुलन की एक पूरी की पूरी श्रृंखला शामिल है। उनका लक्ष्य, संयुक्त रूप से काम करना, भारत के विचार को बनाए रखना और शासन सुनिश्चित करना है जिसमें केंद्र जो हो लेकिन राज्य इकाइयों की शक्ति को खत्म नहीं कर सकता है। साथ ही, संघीय ढांचा सभी नागरिकों की भलाई को संरक्षित करने उन्हे सुरक्षा प्रदान करने के लिए भी है। हालांकि उक्त बात आदर्श बात है, लेकिन वर्तमान में, हम पाते हैं कि संघीय व्यवस्था को चलाने वाले बड़े नेता अक्सर ज़मीनी स्तर पर शासन को खतरे में डालते हैं। आज हिंदुत्ववादी ताकतें भारत के संघीय ढांचे को भी खतरे में डाल रही हैं।

केंद्र द्वारा मिशनरीज ऑफ चैरिटी को एफसीआरए की मंजूरी वापस न देने का घटनाक्रम दिलचस्प हैं क्योंकि केंद्रीय स्तर पर लिए गए इस निर्णय ने शासन के अन्य स्तरों में अस्वीकृति तो पैदा की लेकिन साथ ही निचले स्तर की शासन संरचना ने उपचारात्मक उपायों की पेशकश की। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एमओएस के 22,000 मरीजों और कर्मचारियों की पीड़ा पर हैरानी और गुस्सा व्यक्त किया, कि जब केंद्र उनकी फंडिंग में  कटौती करेगा तो उन्हे खुद को संभालना कठिन हो जाएगा। भोजन और दवा की कमी में आश्रय लेने वाले लोगों के जीवन को जोखिम में डाल देगी। यह कोविड-19 महामारी के दौरान राज्यों को संसाधनों से वंचित करने और जीएसटी के तहत राज्यों के कारण धन के ढेर लगने जैसी स्थिति है। इस समय को छोड़कर, ईसाई धर्म से जुड़े निकाय को एफसीआरए मंजूरी से वंचित करना अब पूरे देश में लागू होता है। 

ओडिशा में, जिला कलेक्टरों को मिशनरीज ऑफ चैरिटी द्वारा किए जा रहे कार्यों में मदद करने के लिए जहां कहीं भी जरूरी हो, मुख्यमंत्री राहत कोष के फंड का के इस्तेमाल करने को कहा गया है। इस स्थिति को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह संघीय ढांचे में जिला अधिकारियों के महत्व को रेखांकित करता है। महत्वपूर्ण समय में, यह स्थानीय वास्तुकला है जो लोगों की सहायता के लिए आती है। तीसरा, जमीनी स्तर पर मिशनरीज ऑफ चैरिटी इकाइयाँ, और समाज के सबसे निचले पायदान पर उनके लाभार्थी, पूरे भारत में मौजूद सामाजिक-आर्थिक अभावों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। लंबे समय से, भारतीयों ने यह माना है कि वंचितों के दुखों को दूर करने के लिए नागरिक समाज और राज्य दोनों के हस्तक्षेप की जरूरत है। फिर भी, जब केंद्र ने मिशनरीज ऑफ चैरिटी का एफसीआरए रद्द किया तो उसने इन केंद्रों या उनमें रहने वाले लोगों की मदद के लिए कोई वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश नहीं किया था।

राज सत्ता की इस किस्म की उपेक्षा ही वह कारण है कि गरीबी और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण होने वाली पीड़ा को कम करने के लिए एमओसी जैसे संगठन, जो जरूरतमंदों की मदद के मामले में करुणा से भरे हुए हैं, जरूरी हो गए हैं। ये निकाय भारत के मानव विकास सूचकांकों को रोकने वाली कुछ कमियों से निपटने का प्रयास करते हैं। वे गरीबों को कुछ सम्मान देने का भी वादा करते हैं, जबकि हुकूमत/राज्य उन सामाजिक और आर्थिक न्याय की संवैधानिक अनिवार्यताओं की उपेक्षा करता है जिसे देना उसका कर्तव्य है।

हमें इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पटनायक की पेशकश ने राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है: इसका महत्व इस तथ्य में निहित है कि लोग संवैधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों से उनकी बुनियादी जरूरतों और मांगों का ख्याल रखने की अपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि प्रोफेसर अरोड़ा का बयान सभी भारतीय राज्यों को अपनी संवैधानिक स्थिति और कर्तव्यों पर जोर देने की जरूरत को भी बढ़ाता है।

अंतत, ओडिशा का कदम, भारतीय लोकतंत्र में उदारवादी प्रवृत्तियों का एक बेहतरीन समाधान है। जैसे-जैसे अधिक से अधिक भारतीय आर्थिक संकट में फसते जा रहे हैं, देश सुधार के उपायों के बजाय बहुसंख्यकवाद, संप्रदायवाद और कट्टरता की ओर मुड़ रहा है। इस प्रकार के अंतर्विरोध राज्य द्वारा अपने आवश्यक कर्तव्यों को निभाने के बजाय उनकी अधिक उपेक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं। इस प्रवृत्ति ने भारत को "आंशिक रूप से मुक्त" देश के पायदान पर ला कर खड़ा कर दिया है। इसे "चुनावी निरंकुशता" करार दिया गया है। ऐसे समय में पटनायक का प्रस्ताव स्वाभाविक रूप से आत्मविश्वास और आशा पैदा करता है। 

महात्मा गांधी ने कहा था कि वे मूक लाखों भारतियों के बल पर शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ेंगे। उन्होंने शासन के मामले में बहुस्तरीय दृष्टिकोण का भी प्रतिनिधित्व किया था जो भारत की अनूठी विशेषता है। गांधी चाहते थे कि समाज के सबसे निचले पायदान के लोगों की जरूरतों के मुताबिक सार्वजनिक नीतियों बने - जिसे उन्होंने स्वराज कहा था और 1947 में, भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि स्वराज को सु-राज में बदल दिया जाएगा, और केंद्र के नेता इसे सु-राज या सुशासन में बदलना चाहते थे। अब, स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के बाद, भारतीयों को संघवाद को नुकसान पहुंचाने के खिलाफ रचनात्मक समाधान की मांग करने की जरूरत है – यानि वास्तविक सुशासन, न कि केवल वादे। उम्मीद है, "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास" की कसम खाने वाले भी इस प्रकरण से सबक लेंगे और लोगों की सेवा करने के लिए काम करेंगे, चाहे वे किसी भी धर्म, भाषा, जातीयता से हों फिर चाहे वे कहीं से भी आए हों।

लेखक, भारत के राष्ट्रपति केआर नारायणन के स्पेशल ऑफिसर ऑन ड्यूटि और प्रेस सचिव थे। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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