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जानिए, किसानों ने भारत बंद क्यों किया?

अभी तक का कॉन्ट्रैक्ट खेती का अनुभव बताता है कि कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें मजबूत व्यापारियों के पक्ष में झुकी होती है। किसानों का मुनाफा होने की बजाय उनका शोषण होता है। छोटे किसान तो इसमें शामिल नहीं हो पाते हैं।
भारत बंद

सरकार द्वारा लागू किए जाने वाले इन तीनों कानूनों का नाम बहुत लंबा है। इतना लंबा कि पढ़ते-पढ़ते जीभ टेढ़ी-मेढ़ी हो जाए। और आपने कई जगहों पर इसको पढ़ा भी होगा। तो इसलिए इसका देसी संस्करण पढ़िए जिससे इन कानूनों को समझने में आसानी हो।

पहला कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करने से जुड़ा है और इसे देसी नाम मिला है जमाखोरी कालाबाजारी अनुमति अधिनियम, दूसरा कानून कॉन्ट्रैक्ट खेती से जुड़ा है यानी बंधुआ मजदूरी का कानून और तीसरा कानून जो एपीएमसी मंडियों को बायपास करने से जुड़ा है, को देसी संस्करण में नाम दिया गया है मंडी तोड़ो, एमएसपी छोड़ो कानून। कानूनों को ये देसी नाम दिए हैं कृषि कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने।

सरकार द्वारा लाए गए कृषि संबंधी कानूनों का सबसे बड़ा विरोध यह हो रहा है कि इन कानूनों की वजह से मंडी सिस्टम खत्म हो जाएगा। सरकार कह रही है कि यह गलत बात है। कानून में एपीएमसी की मंडियों को खत्म करने की बात नहीं लिखी गई है।

किसान संगठनों का कहना है कि यह बात सही है कि बिल में कहीं भी एपीएमसी मंडी को खत्म करने की बात नहीं लिखी गई है। लेकिन बिल में साफ-साफ लिखा हुआ है कि कृषि उत्पाद खरीदने वाला खरीददार कोई भी हो सकता है। इनका एपीएमसी की मंडियों में रजिस्टर्ड होना जरूरी नहीं है। एपीएमसी की मंडियों में मौजूद विक्रेताओं द्वारा जो सरकार को टैक्स दिया जाता है, वह टैक्स एपीएमसी से बाहर व्यापार करने वाले व्यापारियों से नहीं लिया जाएगा।

सरकार द्वारा मिली इस छूट की वजह से एपीएमसी की मंडियां धीरे धीरे विक्रेताओं से खाली हो जाएंगी। आखिरकार कौन चाहेगा कि वह सरकार को टैक्स देकर एपीएमसी की मंडी यों के अंदर रहकर व्यापार करें जबकि वह बिना टैक्स दिए मंडियों से बाहर व्यापार कर सकता है। इस तरह से एपीएमसी की मंडियां भविष्य में जाकर ध्वस्त हो जाएंगी।

एपीएमसी की मंडियों के बर्बाद हो जाने से आखिरकर किसान को क्या नुकसान है? इस सवाल का जवाब यह है कि एपीएमसी की मंडियों में ही किसानों को सरकार द्वारा घोषित किया गया अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है। चूंकि एपीएमसी की मंडियों के बाहर भले किसान अपनी उपज बेच सकने का अधिकारी है लेकिन एपीएमसी के मंडियों के बाहर अनाज का खरीददार होना गैर कानूनी है।

इसीलिए एपीएमसी की मंडियों में अनाज के खरीददार को खुद को रजिस्टर्ड करवाना होता है। क्योंकि एपीएमसी की मंडियां सरकार की मंडियां होती हैं इसलिए यहां पर सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की पूरी संभावना रहती है। जब यह मंडिया ही खत्म हो जाएंगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की अनिवार्यता भी खत्म हो जाएगी।

जब न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा तो पूरे देश के किसानों की स्थिति बिहार की तरह बर्बाद हो जाएगी। जहां कि राज्य सरकार ने एपीएमसी कानून नहीं अपनाया है। बिहार में जो मक्का हजार रुपए क्विंटल भी नहीं बिक पाता वही मक्का एपीएमसी की मंडियों में सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत ₹2000 प्रति क्विंटल से अधिक बिकता है।

इसी वजह से फसल की कटाई हो जाने के बाद पंजाब के किसान की औसत मासिक आमदनी तकरीबन 16000 रुपए के आसपास होती है और बिहार के किसान की औसत मासिक आमदनी 3500 रुपए पर आकर ही रुक जाती है।

सरकार द्वारा यह दावा किया जा रहा है कि अब किसान अपनी उपज को कहीं भी बेच सकते हैं। सरकार का यह दावा बिल्कुल गलत है। इससे पहले भी किसानों का अधिकार था कि वह अपने उपज को कहीं भी बेच सकें। प्रतिबंध केवल क्रेता यानी खरीददार पक्ष की तरफ से था कि वही खरीददार किसानों की उपज खरीद सकेगा जिसका रजिस्ट्रेशन एपीएमसी की मंडियों में होगा। और यह शर्त भी केवल उन्हीं राज्यों में लागू थी जिन राज्यों ने एपीएमसी एक्ट को अपनाया था।

इस तरह से अभी तक कृषि उपज का तकरीबन 65 फ़ीसदी हिस्सा एपीएमसी की मंडियों से बाहर बिकता था। इसलिए सरकार से यह पूछा जाना चाहिए कि अगर अब तक किसानों का भला एपीएमसी के मंडी के बाहर के बाजार नहीं कर पाए तो अब आखिरकर ऐसा क्या होगा कि किसानों का भला यह बाजार कर देंगे? अब तो स्थिति और बदतर होने वाली है क्योंकि कानून कि कहता है कि कोई भी खरीददार किसानों की उपज खरीद सकता है।

अभी तक आप यह समझ गए होंगे कि सरकार द्वारा पेश किए गए तीनों कानूनो की सारी कवायद न्यूनतम समर्थन मूल्य को खत्म करने की है। लेकिन आप पूछेंगे कि सरकार ऐसा कर क्यों रही है? वजह यह है कि सरकार को खेती घाटे का सौदा लग रहा है। इससे अपना पीछा छुड़ाने के लिए सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए भी कानून ला दिया है। यानी सरकार कृषि क्षेत्र से पूरी तरह से आजाद हो जाए। किसान और व्यापारी आपस में समझौता कर कृषि क्षेत्र को संभाले।

चूंकि एपीएमसी कानून का रोड़ा था। इसकी वजह से कृषि उपज के बड़े क्रेता, थोक खरीदार, बड़ी कंपनियां कृषि उपज नहीं खरीद पाती थी। अब कानून बनाकर एपीएमसी कानून को कमजोर कर दिया गया है। कृषि क्षेत्र में सब को आजादी है कि वह जो मर्जी वहां, जिस कीमत पर चाहे उस कीमत पर खरीदे। सरकार इसमें कोई दखलंदाजी नहीं करेगी।

चूंकि किसान कमजोर हैसियत रखने वाला पक्ष है और बड़ा व्यापारी मजबूत हैसियत रखने वाला पक्ष है। इन दोनों के बीच से सरकारी दखलअंदाजी गायब है। इसलिए किसान संगठन को पूरी आशंका है कि ट्रैक्ट खेती के नाम पर ना तो एमएसपी से अधिक कीमत दी जाएगी। और ना ही कमजोर किसानों को सुरक्षा मिल पाएगा।

अभी तक का कॉन्ट्रैक्ट खेती का अनुभव बताता है कि कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें मजबूत व्यापारियों के पक्ष में झुकी होती है। किसानों का मुनाफा होने की बजाय उनका शोषण होता है। छोटे किसान तो इसमें शामिल नहीं हो पाते हैं।

जमीन पर मालिकाना हक के लिहाज से ऊपर के 15% किसान ही कॉन्ट्रैक्ट खेती के भागीदार बन पाते हैं। छोटे किसानों की जमीन किराए पर ले ली जाती है और कंपनियां उन जमीनों का मनचाहा इस्तेमाल करती है।और अनुबंध खेती का रास्ता सीधे कॉर्पोरेट खेती के मंजिल तक पहुंचता है।

सरकार ने जमाखोरी पर प्रतिबंध का कानून ही खत्म कर दिया है तो आप यह भी समझ सकते हैं कि केवल मुनाफे के चाह से चलने वाली बड़ी कंपनियां जमाखोरी के जरिए मुनाफा कमाने की संभावनाओं पर ध्यान देंगे कि नहीं। जब सब कुछ आजाद ही रहेगा। कृषि क्षेत्र के बाजार पर किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं रहेगा तब तो जमाखोरी भी जमकर होगी। और जब जमाखोरी जमकर होगी तब महंगाई भी जमकर बढ़ेगी।

इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रखकर अगर भारत के खाद्य सुरक्षा के बारे में सोचा जाए तो खाद्य सुरक्षा पर भी संकट दिखेगा। भारत की बहुत बड़ी आबादी को रोजाना का राशन सरकार की राशन की दुकान से मिलता है। अगर किसान की उपज एपीएमसी मंडियों के सहारे सरकारी गोदाम तक नहीं पहुंचेगी खाद्य सुरक्षा का क्या होगा?

राशन की दुकान पर बड़ी मात्रा में चावल गेहूं कैसे पहुंचेगा? क्या बड़ी कंपनियां गरीबों को तीन रुपए किलो में चावल, गेहूं बेचेंगी? सरकारी गोदाम में पड़े अनाज का फायदा इस लॉक डाउन में खुलकर दिखा है। अगर सरकार अनाजों को नहीं खरीदती, यह तीनों कानून पहले से ही मौजूद होते तो इस लॉकडाउन में भूख की वजह से कई लोगों की मौत की खबर आती।

खेती किसानी की मौजूदा हालात यह है कि खेती किसानी में भारत की आधी से अधिक आबादी लगी हुई है लेकिन भारत की कुल जीडीपी में इसका योगदान 16 से 17 फ़ीसदी के आसपास रहता है। भारत में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपये से ज्यादा नहीं हो पाती। यह 200 रुपये रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है। 90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरि‍क्त दैनि‍क कमाई पर निर्भर हैं।

ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषि‍ कामों से आती है। खेती से आय एक गैर कृषि‍ कामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है। 86 फ़ीसदी किसानों के पास खेती करने लायक जमीन 0.25 हैक्टेयर से भी कम है। इतनी कम है कि एक फुटबॉल फील्ड इससे बड़ा होता है और इससे इतनी भी कमाई नहीं होती कि कोई भारत द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा की ₹27 प्रति दिन की आमदनी को भी पार कर पाए।

देश में मात्र 6% किसानों को एमएसपी मिल पाती है। 94% किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाती है। 23 फसलों पर सरकार एमएसपी की ऐलान करती हैं। लेकिन मिलती दो या तीन फसल की उपज पर ही है। अगर कृषि बाजार इतना सक्षम होता तो किसानों की हालत इतनी अधिक बुरी नहीं होती। साल 2000 से लेकर 2016 तक किसानी क्षेत्र को तकरीबन 45 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। बीते कुछ सालों से किसानों की आय में आधे फ़ीसदी से भी कम की बढ़ोतरी हुई है। बीते दो दशकों से किसानी घाटे का सौदा रही है और किसानों की स्थिति बद से बदतर हुई है।

इसलिए किसान संगठनों की मांग है कि जिस तरह से कानून ला करके मौजूदा किसानी नियमों में बहुत अधिक फेरबदल किया गया है ठीक इसी तरह से कानून ला करके उन फिर बदलाव को ऐसा किया जाए ताकि किसानों की बर्बादी ना हो।

यह नियम बनाया जाए कि देश के किसी भी इलाके में सरकार द्वारा ऐलान किए गए मिनिमम सपोर्ट प्राइस से कम कीमत पर कृषि उपज की खरीद बिक्री नहीं होगी। सरकार द्वारा जारी किए गए 23 फसलों की एमएसपी हर इलाके में 23 फसलों को मिलेगी। साथ में यह भी कानून बनाया जाए कि किसी भी तरह की कॉन्ट्रैक्ट खेती में तयशुदा कीमत एमएसपी से नीचे नहीं होगी।

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