किसान आंदोलन प्रतिरोध और राजनीतिक पहल की नई ऊंचाई की ओर

सशर्त वार्ता के सरकार के प्रस्ताव को किसानों ने ठुकरा दिया है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने आगामी संसद-सत्र में अपने आंदोलन को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ले आने और राजनीतिक दबाव बढ़ाने की रणनीति तैयार की है।
एक ओर वे रोज संसद तक मार्च करेंगे और बाहर से संसद का घेराव करेंगे, दूसरी ओर विपक्ष को घेरेंगे कि वे सदन के अंदर किसान-प्रश्न को प्रमुख सवाल बनाएं। मोर्चे के बयान में कहा गया है, " 19 जुलाई 2021 से मानसून सत्र शुरू होगा। मोर्चा 17 जुलाई को देश के सभी विपक्षी दलों को एक चेतावनी पत्र भेजेगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सत्र का उपयोग किसानों के संघर्ष का समर्थन करने के लिए किया जायगा, जिससे सरकार किसानों की मांगों को पूरा करे। इसके साथ 22 जुलाई से कम से कम दो सौ प्रदर्शनकारी संसद के बाहर हर दिन मानसून सत्र की समाप्ति तक विरोध प्रदर्शन करेंगे।" जाहिर है किसान फिलहाल पुलिस से किसी टकराव में नहीं जाना चाहते और कोरोना प्रोटोकॉल के तहत अपना कार्यक्रम तय कर रहे हैं।
विपक्ष द्वारा महज रस्म अदायगी के प्रति वे सतर्क हैं। अब वे विपक्ष को कसौटी पर कसना चाहते हैं कि वह सचमुच उनके साथ किस हद तक है। वे इस बात को भूले नहीं हैं कि यही नरेंद्र मोदी 2013 में किसानों के लिए स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप MSP की कानूनी गारंटी की मनमोहन सिंह से मांग कर रहे थे, पर आज 500 से ऊपर किसानों की शहादत के बाद भी उसी मांग पर टस से मस होने को तैयार नहीं हैं।
इसलिए किसानों ने अपने बयान में कहा है कि, " “हम चाहते हैं कि विपक्षी दल यह सुनिश्चित करें कि किसानों का आंदोलन और उसकी मांगें मुख्य मुद्दा बनें और हमारी मांगों को पूरा करने के लिए सरकार पर दबाव बने। हम नहीं चाहते कि विपक्ष हंगामा करे या कार्यवाही से बाहर जाए। बल्कि, वे संसद के अंदर रचनात्मक रूप से शामिल हों, जबकि किसान बाहर विरोध करेंगे।"
दरअसल, अब तक का अनुभव यह है कि तमाम विपक्षी दल किसान-आंदोलन का समर्थन जरूर कर रहे हैं, पर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो यह रस्म-अदायगी अधिक लगती है, वे इसे अपनी लड़ाई मानकर सक्रिय जनगोलबन्दी में नहीं उतर रहे हैं, न ही इसे एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रहे हैं और संसद के अंदर-बाहर जोर-शोर से उठा रहे हैं।
सबसे बड़ी बात यह कि वे कृषि के कारपोरेटीकरण और इसे बाजार के हवाले करने के उसूली सवाल पर अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर रहे हैं। किसान इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि कारपोरेट के साथ पक्षधरता केवल भाजपा की ही नहीं है, तमाम विपक्षी दलों की भी है। यह अनायास नहीं है कि हाल ही में महाराष्ट्र की गैर-भाजपा सरकार ने केंद्र के 3 कृषि कानूनों के विरोध की बात तो की, पर उसमें संशोधन ही प्रस्तावित किये, उन्हें रद्द करने की बात नहीं की।
दरअसल, ये 3 कृषि कानून कृषि-क्षेत्र में अब तक pending नवउदारवादी सुधारों की ही कड़ी हैं, जो मनमोहन सरकार के एजेंडे में भी थे, इन पर कांग्रेस और तमाम संसदीय विपक्षी दलों की अब क्या समझ है, इस पर स्वाभाविक ही किसानों के मन में गहरा संशय है। किसान चाहते हैं कि विपक्ष, उसकी सरकारें खुलकर पूरी ताकत के साथ उनके पक्ष में खड़ी हों, ताकि सरकार उनकी मांग मानने को मजबूर हो। नहीं मानती है तो किसान 2024 तक आंदोलन चलाने के लिए संकल्पबद्ध हैं, साथ ही वे घोषित तौर पर भाजपा हराओ अभियान चलाते हुए यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि भाजपा की जगह जो भी 2024 में दिल्ली में ड्राइविंग सीट पर आए, वह हर हाल में उनकी मांगों को स्वीकार करे।
वैसे किसान आंदोलन के पोलिटिकल रोल को लेकर आंदोलन के अंदर और उनके समर्थकों, बुद्धजीवियों के अंदर विमर्श तेज हो रहा है। सुप्रसिद्ध कृषि-विशेषज्ञ और आंदोलन के हमदर्द देवेंद्र शर्मा इधर लगातार यह सुझाव दे रहे हैं कि अब समय आ गया है जब किसानों को अपना राजनीतिक दल बनाकर लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहिए। पूर्व कृषिमंत्री सोमपाल शास्त्री का भी मानना है कि किसान आंदोलन को अपने को अराजनीतिक घोषित करने की बजाय खुलकर राजनीतिक पक्षधरता का एलान करना चाहिए।
अभी हाल ही में संयुक्त किसान मोर्चा के प्रमुख चेहरे, हरियाणा के ताकतवर किसान नेता गुरुनाम सिंह चढूनी ने कहा है कि किसान आंदोलन को UP में " मिशन UP " के तहत भाजपा-हराओ अभियान चलाना चाहिए, परन्तु पंजाब चुनाव में उन्हें स्वयं आगे बढ़कर अपना मॉडल देना चाहिए। इस पर संयुक्त किसान मोर्चा की ओर से डॉ. दर्शन पाल ने आधिकारिक बयान जारी कर कहा है कि यह चढूनी जी का व्यक्तिगत विचार है। किसान-आंदोलन अपनी अब तक की दिशा पर ही कायम है।
गौरतलब है कि इसके पहले भी किसान-आंदोलन को लेकर राजनैतिक नेताओं के साथ चढूनी की एक बैठक को लेकर विवाद हो चुका है, जिसमें कांग्रेस नेता भी थे।
पर यह मामला केवल देवेंद्र शर्मा, सोमपाल शास्त्री के सुझाव या चढूनी की मांग का नहीं है। यह सर्वविदित है कि किसान-आंदोलन भले ही किसानों की अपनी माँगों, मसलन 3 कृषि कानूनों की वापसी और MSP की कानूनी गारण्टी की मांग पर केंद्रित है, पर इसके सरोकार व्यापक और राजनीतिक हैं।
सरकार की बुनियादी नीतिगत दिशा से टकराकर, सीधे कारपोरेट के खिलाफ जाकर आंदोलन राजनीतिक तो पहले दिन से ही था। 26 जनवरी प्रकरण के बाद इसने खुले तौर पर भाजपा और सरकार-विरोधी दिशा अख्तियार कर ली और लोकतंत्र का प्रश्न इसके एजेंडा में प्रमुख प्रश्न बनता गया है। जनता के जीवन और लोकतांत्रिक अधिकारों पर सरकार के हर हमले के खिलाफ यह मजबूती से खड़ा रहा है, चाहे वह बस्तर के आदिवासियों की हत्या का मामला हो, खोरी गांव से गरीबों को उजाड़ने का सवाल हो या महंगाई के खिलाफ विरोध-दिवस का आह्वान हो।
सच तो यह है कि अपनी अन्तर्वस्तु में किसान-आंदोलन अधिकाधिक एक पोलिटिकल entity बनता ही जा रहा है। आज यह देश में मोदी-राज के विरुद्ध सबसे सुसंगत विपक्ष है तथा वह देश के सारे लोकतांत्रिक आंदोलनों की धुरी बन गया है, उसे राजनीति की भी धुरी बनना है।
जाहिर है किसान आंदोलन के अंदर राजनैतिक दिशा के प्रश्न पर churning जारी है और यह दिशा स्वस्थ और स्वाभाविक ढंग से विकसित हो रही है। इसके direct पोलिटिकल रोल में आने का सवाल अभी भविष्य गर्भ में है, यह आने वाले दिनों के developments से तय होगा। सरकार को जोरदार ढंग से संसद में घेरने के लिए किसान-आंदोलन द्वारा विपक्षी दलों को चेतावनी भी इस प्रक्रिया का हिस्सा है, जिससे प्राप्त अनुभव उन्हें अपनी दिशा को ठोस रूप देने में मदद करेगा।
अनायास ही नहीं है कि सुप्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान प्रो. नोम चॉम्स्की ने भारत में चल रहे किसानों के संघर्ष की सराहना की है और इन शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को पूरी दुनिया के लिए "संघर्ष का मॉडल" बताया है।
उन्होंने कहा कि यह अचंभित करने वाला है कि राज्य के दबाव तथा कोरोना वायरस की पूरी दुनिया, विशेषकर भारत में दूसरी लहर के बावजूद वे अपने आंदोलन के आवेग को बनाये रखने में सफल हुए हैं। वह इस तथ्य की सराहना करते हैं कि दमन, हिंसा और मीडिया के हर तरह के हमलों के बावजूद किसान दृढ़ता से डटे हुए हैं और न केवल अपने अधिकारों के लिए बल्कि एक ऐसी functioning society के लिए लड़ रहे हैं, जो सभी नागरिकों के अधिकारों और कल्याण की परवाह करे। वे कहते हैं कि कॉरपोरेट द्वारा कृषि पर नियंत्रण के खिलाफ जारी लड़ाई में भारतीय किसान बिल्कुल सही stand पर हैं, क्योंकि ये निगम 'अत्याचारी ढांचे' हैं।
आंदोलनकारी किसानों को अपना संदेश देते हुए वे कहते हैं "आपको अपनी लड़ाई पर गर्व होना चाहिए - आप सही काम कर रहे हैं, साहस के साथ, पूरी ईमानदारी के साथ। आपका संघर्ष सबसे अंधेरे समय में पूरी दुनिया के लिए रोशनी की किरण है।"
कृषि मंत्री तोमर के ताजा बयान के बाद, जिसमें उन्होंने फिर कहा है कि 3 कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग छोड़कर, सभी बिंदुओं पर बात करने को सरकार तैयार है, किसानों ने फिर दुहराया है कि कृषि कानूनों को निरस्त करने की अपनी मांग पर वे अडिग हैं। उन्होंने कहा है कि, " सरकार ने अब तक एक भी कारण नहीं बताया है कि इन कानूनों को निरस्त क्यों नहीं किया जा सकता है। हम केवल यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार अपने नागरिकों के सबसे बड़े वर्ग - किसानों - के साथ अहंकार का खेल खेल रही है, और देश के अन्नदाता के ऊपर क्रोनी पूंजीपतियों के हितों को तरजीह दे रही है।"
आंदोलन फिर चढ़ान पर है। 8 जुलाई को महंगाई के खिलाफ पूरे देश मे महंगाई-विरोधी दिवस मनाया गया। किसान आंदोलन में गहमागहमी बढ़ती जा रही है। संसद सत्र में यह नई ऊंचाई पर पहुंचेगी। दिल्ली के सभी मोर्चों पर किसानों के जत्थों का पंजाब, हरियाणा, UP, उत्तराखंड से आना लगातार जारी है।
नजदीक आते UP, उत्तराखंड, पंजाब के चुनावों के पहले किसान-आंदोलन की बढ़ती राजनीतिक पहल और हलचल से घबराई सरकार अपने पिटे-पिटाये ध्रुवीकरण के खतरनाक खेल पर उतर आई है। यह खेल सरकार के खुले संरक्षण में बेहद घिनौने ढंग से, पूरी नंगई के साथ खेला जा रहा है।
दक्षिण हरियाणा के मेवात अंचल में हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा खट्टर सरकार की शह पर जगह जगह पंचायतें आयोजित की जा रही हैं, पहले आसिफ, बाद में जुनैद नाम के नौजवान की हत्या के आरोपियों को छुड़ाने के नाम पर यह सिलसिला शुरू हुआ। इन पंचायतों में खुले आम साम्प्रदयिक जहर उगला जा रहा है और हत्या, बलात्कार, मुसलमानों को खदेड़ने जैसी उकसावामूलक बयानबाजी हो रही है। भाजपा नेता सूरजपाल अम्मू और अन्य वक्ताओं ने पटौदी की हिन्दू महापंचायत में बेहद आपत्तिजनक बातें की, जो कानून और संविधान की निगाह में दंगा भडकाने के संगीन अपराध की श्रेणी में आते है। पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही और वे खुलेआम आग लगाते घूम रहे हैं।
इस जहरीले सत्ता-प्रायोजित अभियान के खिलाफ 28 जून को संयुक्त किसान मोर्चा ने सुनेहरा में किसान मजदूर भाईचारा महासम्मेलन का आयोजन किया जिसमें मेवात के किसानों ने जोरदार संदेश दिया कि वे भाजपा-आरएसएस को किसान आंदोलन को तोड़ने नहीं देंगे। मोर्चे द्वारा जारी बयान में कहा गया, " सुनेहरा किसान महा सम्मेलन में किसानों की भारी भीड़ स्पष्ट संकेत है कि देश के किसान आजीविका, अपने अधिकारों और भविष्य को प्राथमिकता देना चाहते हैं, और भाजपा-आरएसएस के सांप्रदायिक और विभाजनकारी एजेंडे से प्रभावित नहीं हो सकते। "
"महासम्मेलन के माध्यम से यह बात पूरी दृढ़ता के साथ रखी गयी कि हर हाल में शांति, सांप्रदायिक सद्भाव, भाईचारे, एकता और न्याय के मूल्यों को बरकरार रखा जाएगा । मेवात (हरियाणा) के इतिहास के अनुरूप हर हाल में सांप्रदायिक सद्भाव,भाईचारे,एकता व न्याय के मूल्यों को बरकरार रखते हुए आन्दोलन को मजबूत किया जाएगा।"
दरअसल, किसान इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि यह पूरा खेल उनके आंदोलन को तोड़ने के लिए खेला जा रहा है। और एक बार अगर यह साजिश सफल हो गयी तो उनके ऐतिहासिक आंदोलन को अपूरणीय क्षति हो सकती है, ऐसा धक्का लग सकता है, जिससे उबरना कठिन हो जाएगा। जाहिर है, उन्हें सर्वाधिक चौकसी इसी मोर्चे पर बरतनी होगी क्योंकि आंदोलन को बदनाम करने, नेताओं-कार्यकर्ताओं को फ़र्ज़ी मामलों में फंसाने, जगह-जगह डराने-दमन करने की कोशिशों में हर जगह मुंह की खाने के बाद अब साम्प्रदयिक उन्माद भड़काने का यह आखिरी औजार वे इस्तेमाल कर रहे हैं, जो आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनजर भी उनकी जरूरत है।
लेकिन किसान 26 जनवरी का इनका साजिशी चेहरा अभी भूले नहीं हैं, जब अंधराष्ट्रवादी साम्प्रदायिक उन्माद भड़काकर इन्होंने पूरे आंदोलन को खून और आंसुओं में डुबो देने का खतरनाक षडयंत्र रचा था। तब किसान नेता राकेश टिकैत के गहन पीड़ा से उपजे आंसुओं की ताकत ने देखते देखते फासिस्ट सत्ता की सबसे खतरनाक साजिश की बाजी पलट दी थी। आक्रोशित किसान आधी रात में घरों से निकलकर सैकड़ों किमी दूर गाजीपुर बॉर्डर पहुँच गए थे । उनकी सामूहिक हुंकार से दिल्ली-लखनऊ के हुक्मरान सिहर उठे थे, क्रूर दमन के लिए उठ चुके कदम उन्हें तेजी से पीछे खींचने पड़े थे।
जाहिर है ऐसे किसी भी षड्यंत्र की पुनरावृत्ति के प्रति किसान अब पूरी तरह सजग हैं।
सरकार अगर विधानसभा चुनावों के मद्देनजर tactical retreat की तरफ नहीं बढ़ती है, तो सरकार की सारी शातिर चालों से दो दो हाथ करते हुए, किसान-आंदोलन कदम-ब-कदम और अधिक व्यापकता तथा सामाजिक वैधता हासिल करता जाएगा। संसद सत्र से लेकर विधान-सभा चुनावों तक किसान आंदोलन प्रतिरोध और राजनीतिक पहल की नई ऊंचाइयों की ओर बढ़ता जाएगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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