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किसानों के प्रदर्शन में मुसलमानों की शिरकत का सवाल कितना वाजिब?

कृषि कानूनों के विरोध प्रदर्शन में मुसलमानों को हिस्सा लेना चाहिए या नहीं? इस सवाल के जवाब को तो छोड़िए, खुद यह सवाल बता रहा है कि आज हम कहां पहुंच चुके हैं।
किसानों के प्रदर्शन में मुसलमानों की शिरकत का सवाल कितना वाजिब?

किसान आंदोलन में टिकरी बॉर्डर पर सिख बुजुर्ग के पैरों की मालिश करता एक मुस्लिम युवक हो या फिर गाजीपुर बॉर्डर पर फल बांटते जमाअत-ए-इस्लामी हिंद जैसे संगठन का जत्था, किसानों को समर्थन देने पहुंचे मुसलमानों को कैमरे ने बिल्कुल नजरअंदाज नहीं किया। सिंघु बॉर्डर पर पंजाब के मलेरकोटला से आए मुस्लिम युवकों का किसानों को जर्दा (यानी पीले मीठे चावल) खिलाना और उससे कुछ दिन पहले मलेरकोटला में ही रिलायंस के एक पेट्रोल पम्प पर किसानों के बीच हिजाब पहने लड़कियों का पहुंचना, यह सबकुछ सोशल मीडिया के जरिए लाखों लोगों तक पहुंचा। दूसरी तरफ, एक सिख का वेश धरकर नमाज पढ़ने वाले मुस्लिम युवक का फर्जी फोटो वायरल हुआ और जर्दे को बिरयानी बनाकर पेश किया गया, मानो बिरयानी कोई विभाजनकारी व्यंजन हो। सवाल है कि यह सबकुछ इतना न्यूजवर्दी कैसे बना ? किसानों के आंदोलन में मुसलमानों का शामिल होना, किसी भी दूसरे समुदाय या समूह के शामिल होने से अधिक महत्वपूर्ण या हैरान कर देने वाला क्यों है ?

कृषि कानूनों के विरोध प्रदर्शन में मुसलमानों को हिस्सा लेना चाहिए या नहीं? इस सवाल के जवाब को तो छोड़िए, खुद यह सवाल बता रहा है कि आज हम कहां पहुंच चुके हैं।

आखिर किसानों के प्रदर्शन में उनके साथ कोई भी क्यों खड़ा नहीं हो सकता? क्यों यह सवाल पैदा होना चाहिए कि मुसलमान अगर इसमें शामिल हुए तो एक समुदाय के तौर पर उनकी अपनी छवि को या फिर पूरे प्रदर्शन की छवि को नुकसान तो नहीं पहुंचेगा?

सीएए-एनआरसी के खिलाफ शाहीन बाग के प्रदर्शन में किसान यूनियनों के जत्थों का पंजाब से दिल्ली पहुंचना और प्रदर्शनकारियों के लिए कई दिनों तक लंगर का इंतजाम करना किसे याद नहीं। पंजाब ही क्यों, दिल्ली में रहने वाले सिखों और दूसरे समुदायों ने भी शाहीन बाग में अपना हक अदा किया था। किसान जत्थे के जाने के बाद अपना एक फ्लैट बेचकर लंगर जारी रखने वाले डीएस बिंद्रा को कौन भुला सकता है। तो क्या कृषि कानूनों के विरोध में मुसलमानों को सिर्फ इसलिए शामिल हो जाना चाहिए क्योंकि उन्हें पंजाब के किसानों के एहसान का बदला चुकाना है? इसका जवाब अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह से दे सकते हैं। मगर सैद्धांतिक बात तो यही है कि हुकूमत के किसी खराब फैसले के खिलाफ देश में कहीं भी कोई भी प्रदर्शन कर रहा हो तो किसी एक शख्स को या फिर समुदाय को सिर्फ अपनी शख्सियत या फिर सामुदायिक पहचान की वजह से उसका समर्थन नहीं करना चाहिए। अगर सही मायने में मुसलमानों को या किसी भी समुदाय को लगता है कि ये तीन नए कानून किसान विरोधी हैं तभी इसमें हिस्सा लेना चाहिए।

टोपी-दाढ़ी, हिजाब-नक़ाब से आगे की बात

बेशक, किसानों की सेवा करते मुसलमानों की तस्वीरें इस मुल्क के लोकतंत्र की वो खूबसूरत दलीलें हैं जिन्हें सिर्फ मल्टीमीडिया डिवाइस में ही नहीं बल्कि अपने दिलों में भी संजो कर रखना चाहिए। सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि इन तस्वीरों में नजर आने वाले किरदार टोपी, पगड़ी, दाढ़ी, हिजाब या नकाब से पहचाने जा सकते हैं बल्कि इसलिए क्योंकि वो खुद से बिल्कुल अलग पहचान रखने वालों की सेवा में जुटे हैं। इसलिए क्योंकि वह पीड़ा का अर्थ जानते हैं, उन्होंने पीड़ा भोगी है और वह नहीं चाहते कि देश का कोई भी नागरिक पीड़ित किया जाए।

आपको याद होगा कि अमेरिका में जब ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन अपने चरम पर पहुंचा तो उसमें केवल काले ही नहीं बल्कि गोरे भी शामिल थे और हिस्पैनिक समुदाय का प्रतिनिधित्व भी था। दरअसल, जब कोई विरोध प्रदर्शन किसी वर्ग विशेष की पहचान की सीमाओं से निकलकर सही और गलत के व्यापक पैमाने पर परखा जाने लगता है, तभी वह सही मायने में लोकतांत्रिक प्रदर्शन बनता है। यह समझ पैदा करना जरूरी है कि शाहीन बाग में सिख या अन्य समुदायों के लोग इसलिए शामिल नहीं हुए थे क्योंकि वो केवल धर्म के आधार पर भेदभाव की बात थी। उस ऐतिहासिक प्रदर्शन में शामिल होने वाले हर व्यक्ति और वर्ग ने सच और झूठ, सही और गलत, लोकतांत्रिक और गैरलोकतांत्रिक का पैमाना मद्देनजर रखा था। ठीक इसी तरह कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए अगर कोई व्यक्ति या समुदाय सामने आता है तो जरूरी है कि उसे पहले इन कानूनों को, या कम से कम किसानों के दृष्टिकोण को ठीक से समझना होगा। बेहतर होगा कि इस समझ का बीज उस समुदाय के बीच ही अंकुरित हो। कृषि करने वाले मुसलमानों को सबसे पहले आगे आना चाहिए। अन्य समुदाय के किसानों को उन्हें समझाने की कोशिश करनी होगी। ठीक वैसे ही जैसा कि हरियाणा के नूंह जिले के मुसलमान किसानों को समझाया गया। उन्हें भरोसा दिलाया गया कि वे साथ आएंगे तो किसी को उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाने दिया जाएगा।

रही बात ऐसे मुसलमानों की जो खेती नहीं करते, तो उन्हें सिर्फ नागरिक की हैसियत से इस आंदोलन में शरीक होना चाहिए। कृषि कानून के विरोध में उनका जुटना सीएए-एनआरसी के नाम पर उनको परेशान करने वाली सरकार के खिलाफ विरोध करने का एक मौका भर नहीं होना चाहिए। नागरिक की हैसियत से अगर उनमें यह समझ पैदा हो चुकी है और वह अपनी धार्मिक पहचान के साथ इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होना चाहते हैं या किसी भी रूप में समर्थन देना चाहते हैं तो फिर हिचकिचाहट या झिझक नहीं रहेगी।

यह भी समझना जरूरी है कि यहां समुदायों के दो अलग-अलग प्रकार हैं। हिंदू, सिख और मुसलमान अपने आप में समुदाय तो हैं मगर इनकी सामुदायिक पहचान धर्म के आधार पर होती है। दूसरी तरफ, कृषि से जुड़े सभी लोग मिलकर एक आर्थिक समुदाय बनाते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। यही वजह है कि बिरयानी और खालिस्तानी जैसे लाख प्रोपागंडा के बावजूद पूरा देश किसानों के विरोध प्रदर्शन को हिंदू, सिख या मुसलमान के चश्मे से नहीं देख रहा है। जाहिर है, जिनको यह चश्मा रास आता है वो यही कोशिश करेंगे कि इसे हर आँख पर चढ़ा दिया जाए। सिख बुजुर्ग के पैरों की मालिश करने वाला मुस्लिम युवक हो या मलेरकोटला में सिर पर आँचल रखकर किसानों के समर्थन में भाषण देने वाली मुस्लिम युवती, सभी को बिना कोई चश्मा लगाए किसानों के साथ खड़ा होना होगा। तभी उन्हें सबकुछ साफ दिखाई देगा और यह सवाल हवा हो जाएगा कि मुसलमानों को विरोध प्रदर्शन में शामिल होना चाहिए या नहीं ?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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