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हरियाणा के पलवल में किसान विरोध ने लंबे समय से चली आ रही बाधाओं को किया ध्वस्त

शुरू में उस नूंह ज़िले के मुसलमान समर्थन में आने से हिचकिचा रहे थे,जहां पहलू ख़ान की लिंचिंग की गयी थी। एक किसान नेता ने बताया,‘एक बार जैसे ही उनका विश्वास बहाल हो गया, उन्होंने वादा किया कि वे बड़ी संख्या में अपनी ट्रॉलियों और साज़-ओ-सामान के साथ आ जायेंगे।'
हरियाणा

सर्दी से बचने के लिए खाकी सूट पहने रतन सिंह सोरोट हरियाणा के पलवल में राष्ट्रीय राजमार्ग -2 पर अपनी टोलियों में पहुंचने वाले आस-पास के गांवों के लोगों का इंतज़ार करते हुए मूंगफली के दाने चबा रहे थे। सोरोट और उनके पाल या खाप के दूसरे लोग पहले से ही उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के उन किसानों के साथ शामिल हो गये हैं, जो हाल ही में लागू किये गये कृषि क़ानून और बिजली (संशोधन) विधेयक, 2020 का विरोध करने के लिए पलवल में डेरा डाले हुए हैं।

इस सीमा पर किसानों के विरोध की अनूठी ख़ासियत में से एक ख़ासियत उन स्थानीय किसानों का लगातार बढ़ता समर्थन रहा है, जो कभी पूरे आंदोलन को लेकर अजीब नज़रों से देखते थे।

सोरोट ने बताया कि अब आंदोलन को रोज़-ब-रोज़ के उस आधार पर लामबंद किया जा रहा है, जिसमें इस अभियान को लेकर उन गांवों के लोगों को कॉल के ज़रिये जानकारी दी जाती है,जिन गांवों के  दौरे किये जाने होते हैं। बदले में गांव न सिर्फ़ अपनी पूरी भागीदारी,बल्कि किराने का सामान, गैस सिलेंडर, लकड़ी और अनुदान राशि भेजकर अपना समर्थन देते हैं।

उन्होंने कहा, “शुरुआत में सिरसा, फ़तेहाबाद, कैथल, जींद, रोहतक, कुरुक्षेत्र, करनाल और पानीपत सहित राज्य के उत्तरी और मध्य भागों में आंदोलन प्रचंड था। हरियाणा का यह हिस्सा परंपरागत रूप से ब्रज से जुड़ा हुआ है। इसलिए,सम्बन्धित पाल सदस्यों द्वारा इस आंदोलन को गांवों तक ले जाया गया। सेहरावत पाल के सदस्य भी भूख हड़ताल कर रहे हैं।” 

सोरोट के साथ जल्द ही इस समुदाय के वे लोग भी आ मिले हैं, जो कहते हैं कि इस आंदोलन को लेकर सरकार और उसके मंत्रियों की तरफ़ से जिस तरह की धारणा बनायी या बतायी जा रही है,वह उन अभियानों के अनुरूप है,जिसमें सरकार ने उन्हें अपने विरोधी के तौर पर बताये थे। उन्होंने कहा, “सबसे पहले तो उन्होंने यही कहा कि लोगों को नोटबंदी और इसका मक़सद समझ में नहीं आया। वस्तु और सेवा कर, यानी जीएसटी के लिए इसी तरह का तर्क दिया गया था। अब उसी तर्ज पर हमें बताया जा रहा है कि हमें इन क़ानूनों की समझ नहीं है। यह तो मोदीजी और उनके मंत्री ही हैं, जिनके पास दुनिया की सारी की सारी समझदारी है और देश को खिलाने वाले लोग तो अनपढ़ हैं। ऊपर वाला ऐसे बुद्धिमान लोगों से देश को बचाये।”

सोरोट ने ज़ोर देकर कहा कि फ़सलों की क़ीमत मूल्य सूचकांक की लागत से जुड़ी हुई होती, तो किसान आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में होते। उन्होंने कहा, “1967 में गेहूं 76 रुपये प्रति क्विंटल में बेचा जाता था और एक किसान तीन क्विंटल गेहूं बेचकर 210 रुपये में दस ग्राम सोना ख़रीद सकता था। लेकिन, इतनी ही मात्रा में सोना ख़रीदेने के लिए उन्हें अब 27 क्विंटल गेहूं बेचना होगा। जब हम इन सवालों को उठाते हैं, तो हम आतंकवादी बता दिये जाते हैं, हमें ख़ालिस्तानी कह दिया जाता है और पूछिये मत कि क्या-क्या नहीं कहा जाता है।”

पलवल के गेहलाब के अत्तर सिंह गुरुवार को भूख हड़ताल करने वाले ग्यारह किसानों में से एक हैं। उसके यहां होने की अपनी वजह हैं। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए उन्होंने कहा,“ हरियाणा ने पिछले रबी के मौसम में 11.84 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन किया था, लेकिन राज्य सरकार ने महज़ चार करोड़ टन की ही ख़रीद की थी, बाक़ी उपज खुले बाज़ार में बेची गयी थी। हमने गेहूं को 1,100 रुपये प्रति क्विंटल पर बेचा था, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,950 रुपये था। सबसे बड़ी समस्या जो हमारे सामने थी, वह ख़रीद और पंजीकरण से सम्बन्धित थी। जब हमने पहली बार पंजीकरण करवाया, तो बाजार के अधिकारियों ने प्रति एकड़ हमारी औसत उपज के बारे में पूछा था। फ़सल तो मौसम पर निर्भर करती है। फिर भी, हमने उन्हें अपने उत्पादन का अनुमानित औसत बता दिया। अब, अगर यह अनुमानित औसत उपज पंजीकृत मात्रा से ज़्यादा है,तो मंडी के अधिकारी ख़रीद से ही इनकार कर देते हैं। यह तो पूरी तरह से अराजकता है। जो लोग रिश्वत देने के लिए तैयार होते हैं, उन्हें ख़रीद में कोई समस्या नहीं होती है।”

मंच से थोड़ी दूरी पर खड़े राजवीर सिंह कुंडू ने अपने दो एकड़ खेत में बोई गयी कपास की फ़सल के साथ हुए अपने संघर्ष की कहानी बतायी। “हम आमतौर पर कपास, गेहूं,गन्ना और बाजरा उगाते हैं। धान यमुना नदी से सटे इलाकों में ही बोया जाता है। कपास के लिए हम जुताई के साथ बुवाई की प्रक्रिया शुरू करते हैं; इसमें मुझे प्रति एकड़ 5,000 रुपये का ख़र्च आता है। खरपतवार निकालने के लिए बीज और उर्वरक, पानी और शारीरिक श्रम की लागत क्रमशः 4,000 रुपये, 1,000 रुपये और 5,000 रुपये पड़ती है। कीटनाशक, स्प्रे करन वाले श्रमिकों, फ़सल काटने वाले श्रमिकों और परिवहन पर लागत क्रमशः 2,500 रुपये, 1,500 रुपये, 7,500 रुपये और 1,500 रुपये बढ़ जाती है। मैंने अपनी उपज 5,500 रुपये प्रति क्विंटल पर बेची, जिसके लिए प्रति एकड़ 28,000 रुपये मिले, जबकि मेरी उत्पादन लागत 27,755 रुपये प्रति एकड़ है। बताइये,मुझे कितनी बचत हुई ? !”

इस इलाक़े में घटते रोज़गार के अवसरों को लेकर कुंडू भी ग़ुस्से में हैं। उन्होंने कहा, “इस इलाक़े के नौजवान फ़रीदाबाद स्थित एस्कॉर्ट्स और इसी तरह के दूसरे फ़ैक्ट्रियों में काम किया करते थे। अब हालात ऐसे हैं कि जो कंपनियां कभी 18,000 रुपये प्रति माह की नौकरी दिया करती थीं, वे अब हर महीने 8,000 रुपये की पेशकश कर रही हैं। नासमझी के साथ लागू किये गये लॉकडाउन ने नौजवानों को घर बैठने के लिए मजबूर कर दिया है। अगर यह राष्ट्रीय आपदा ही थी, तो भाजपा के नेता बिहार में विशाल रैलियों को संबोधित क्यों कर रहे थे?” हालांकि, उन्हें इस बात की उम्मीद है कि यह आंदोलन अपने मक़सद को हासिल कर लेगा। उन्होंने आगे कहा, “हक़ के लिए तो बाप से भी लड़ना पड़ता है, यह तो सरकार है।”

पेशे से वक़ील और किसान, रवि तेवतिया ने न्यूज़क्लिक को बताया कि केंद्र की हालिया घोषणाओं से किसान अपमानित हुए हैं और इनसे उनकी गरिमा को ठेस पहुंची है। तेवतिया का कहना था, “प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार ने नौ करोड़ किसानों को दो-दो हज़ार रुपये देकर कुल 18,000 करोड़ रुपये का वितरण किया। उन्होंने हमारी हैसियत को घटाकर प्रति दिन 16.66 रुपये पाने वालों की कर दी है। क्या उन्होंने कभी इस बात को बताया कि उनकी ही सरकार ने उसी योजना को बढ़ावा देने और उसके विज्ञापन पर 700 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिये !” कृषि मंत्री, नरेंद्र तोमर के बेहतर दाम पाने वाली फ़सलों को पैदा करने वाले बयान पर उन्होंने अपनी नाराज़गी जताते हुए कहा, “बहरहाल, उन्हें हमें यह बताना चाहिए कि आख़िर ये कौन सी महंगी फ़सलें हैं, जिनसे हम अनजान हैं। सचाई तो यह है कि उनके मंत्रालय ने मोज़ाम्बिक से 6,000 रुपये प्रति क्विंटल दाल ख़रीदी है। वे भारतीय किसानों को दाल के लिए उतनी ही राशि का भुगतान क्यों नहीं कर देते? उन्हें नौटंकी का सहारा लेना बंद कर देना चाहिए।”

हालांकि, आंदोलन के नेताओं को लगता है कि उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि इस इलाक़े में सामाजिक अवरोधों को दूर करना रहा है। अखिल भारतीय किसान सभा के एक किसान नेता,जसविंदर सिंह ने कहा कि खो चुकी जाति और सांप्रदायिक आधारित एकता को इस आंदोलन ने फिर से बहाल कर दिया है।

“अपने अभियान के दौरान हमने मुस्लिम समुदाय के उन कुछ लोगों से मुलाक़ात की, जिन्होंने हमसे अनुरोध किया कि इन कृषि क़ानूनों को समझाने के लिए नूंह ज़िले के उनके गांव हम आयें। हमने उनकी उस दावत को तत्काल मंज़ूर कर लिया। जब हम उन मुद्दों को समझाने के लिए वहां गये, तो हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया गया। लेकिन, जब हमने उनसे विरोध स्थल पर आने का अनुरोध किया, तो वे झिझक रहे थे। ग़ौरतलब है कि पहलू ख़ान की लिंचिंग उसी ज़िले में की गयी थी। लोगों को इस बात का डर था कि अगर वे बड़ी संख्या में ज़िले से बाहर चले गये, तो उनके साथ बुरा व्यवहार किया जायेगा। हमने उन्हें भरोसा दिलाया कि उन्हें ऐसी किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। एक बार जैसे ही उनका विश्वास बहाल हो गया, उन्होंने वादा किया कि वे बड़ी संख्या में अपनी ट्रॉलियों और रहने-सहने के समान के साथ आ जायेंगे। मुझे लगता है कि यह अहम है कि हम उस एकता को बहाल कर पाये। सरकार के ज़ुल्म से लड़ते सिख, हिंदू और मुसलमान साथ-साथ। और क्या चाहिए !”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

In Haryana’s Palwal, the Farmers Protest Brings Down Longstanding Barriers

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