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ग़रीब से अमीर देश की ओर वित्त का प्रवाह

नवउदारवादी पूंजीवाद की एक चारित्रिक विशेषता यह है कि बड़ी संख्या में मेहनतकश जनता की जीवन दशाएं, मुठ्ठीभर वित्तीय सटोरियों की झकों और सनकों से तय होती हैं।
ग़रीब से अमीर देश की ओर वित्त का प्रवाह

वर्तमान विश्व आर्थिक हालात की दो ऐसी विशेषताएं हैं जो उसे परिभाषित करती हैं और आगे के लिए इशारा देती हैं। पहली, जिस पर काफ़ी चर्चा हुई है वह है सर्वव्यापी मुद्रास्फीतिकारी उछाल के जवाब में दुनिया भर में ब्याज की दरों का बढ़ाया जाना है। यह असंदिग्ध रूप से मंदी तथा बेरोज़गारी पैदा करने वाली चीज़ है और अलग-अलग देश चाहे इस सिलसिले में दिखावा कुछ भी करें, यही इन क़दमों का असली मक़सद है।

डॉलर मज़बूत क्यों हो रहा है?

दूसरी विशेषता, जिस पर कहीं कम चर्चा होती है, बाक़ी हर जगह से वित्तीय पूंजी का अमेरिका की ओर पलायन करना है, जो क़रीब-क़रीब दूसरी सभी मुद्राओं की तुलना में डॉलर को मज़बूत करने में योगदान दे रहा है। इसका इकलौता और विडंबनापूर्ण अपवाद है, रूस का रूबल। हालांकि, डॉलर के मुक़ाबले दुनिया की सभी प्रमुख मुद्राएं कमज़ोर हो रही हैं, जिसमें यूरो तथा पाउंड-स्टर्लिंग भी शामिल हैं, फिर भी यहां हमारी दिलचस्पी ख़ासतौर पर तीसरी दुनिया की मुद्राओं के कमज़ोर होने में है, रुपया जिसकी सबसे प्रमुख मिसाल है।

इसी साल यानी 2022 में ही भारत से अनुमानत: 200 अरब डॉलर निकल कर बाहर चले गए हैं, जो भारत के विदेशी मुद्रा संचित कोष के तिहाई हिस्से के बराबर है। और ख़ुद इस संचित कोष में से रिजर्व बैंक द्वारा डॉलर के मुक़ाबले रुपये का दाम संभाले रहने की कोशिश में, 100 अरब डॉलर से ज़्यादा निकाले जा चुके हैं। लेकिन, संचित कोष में से इतना हिस्सा निकाले जाने के बावजूद, रुपये के विनिमय मूल्य का क़रीब 10 फ़ीसदी अवमूल्यन हो गया है।

आम धारणा यह है कि देशों के बीच वित्त के प्रवाह मुख्यत: उनकी ब्याज दरों के अंतर से तय होते हैं और इसलिए, अमेरिका की ओर वित्तीय पूंजी का इस समय जो प्रवाह हो रहा है, वह इसी का नतीजा है कि अमेरिका ने अपने यहां ब्याज की दरों को, दूसरे देशों के मुक़ाबले ज़्यादा बढ़ाया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब दूसरे देश, अपने यहां ब्याज की दरें उतनी ही बढ़ा देंगे जितनी अमेरिका ने बढ़ायी है, तो उनके यहां से पूंजी का इस तरह का पलायन बंद हो जाएगा। लेकिन, यह सच नहीं है। इसमें तो शक नहीं कि ब्याज की दरों के बीच के अंतर का असर उनके बीच वित्तीय प्रवाहों पर पड़ता है, फिर भी एक चीज इससे भी बुनियादी है, जो इस तरह के प्रवाहों को प्रभावित करती है। और यह चीज़ है, वित्तीय खिलाडिय़ों के बीच इन प्रवाहों के लिए कितना जोश है। जब उनकी प्रत्याशाएं जोशीली होती हैं, वे हाशिए के देशों की ओर (ज़ाहिर है कि कुछ देशों की ओर ही, सभी ओर नहीं) बढ़ते हैं, लेकिन जब उनकी प्रत्याशाएं निराशाजनक होती हैं, वे अपने घरेलू अड्डे, अमेरिका की ओर वापस लौटने लगते हैं। और ये वित्तीय खिलाड़ी जोश में होंगे या निराश होंगे, इसे प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक होता है--अमेरिका में ब्याज का स्तर।

मंदी की आशंकाओं का खेल

जब अमेरिका में ब्याज की दर कम होती है, समूची व्यवस्था में वित्त प्रणाली में ख़ुद ब ख़ुद सस्ते वित्त की बाढ़ सी बनी रहती है और यह वित्तीय पूंजी इसकी तलाश में दुनिया भर में चक्कर लगा रही होती है कि उसका कहां टिकना ज़्यादा फ़ायदे का सौदा होगा। लेकिन, जब अमेरिका अपनी ब्याज की दरें बढ़ाता है, पूरी व्यवस्था में तरलता में कमी आने लगती है तथा विश्व मंदी की आशंकाएं पैदा हो जाती हैं और वित्तीय पूुंजी, दुनिया भर से अपने घर की ओर लौट चलती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस समय अमेरिका में ब्याज की दर शून्य के क़रीब हो और मिसाल के तौर पर भारत में ब्याज की दर 3 फ़ीसदी हो तो उसकी ओर वित्त का प्रवाह ज़्यादा होगा बनिस्बत ऐसी स्थिति के जब अमेरिका में ब्याज की दर 6 फ़ीसदी के क़रीब हो और भारत में यही दर 9 फ़ीसदी के क़रीब हो। वित्त के प्रवाह की स्थिति में यह अंतर इसके बावजूद होगा कि दोनों ही सूरतों में अमेरिका और भारत की ब्याज दरों में अंतर, बराबर ही होगा।

विश्व वित्तीय हलकों में किसी भी तरह की आशंकाओं, मिसाल के तौर पर विश्व मंदी की आशंकाओं का असर, अपरिहार्य रूप से वित्तीय पूंजी को अपने घर की ओर धकेलने का काम करता है, इस तथ्य का प्रदर्शन 2008 के वित्तीय संकट के बाद भी देखने को मिला था। अमेरिका तो उस संकट का केंद्र बिंदु ही था और उसकी वित्त व्यवस्था में विषाक्त परिसंपत्तियों की भरमार थी, जो ऋण ग्राहकों को दिए गए ऐसे ऋणों के काग़ज़ों के रूप में थीं, जिनका चुकाया जाना ही मुश्किल था। इसके बावजूद, इस वित्तीय संकट के फलस्वरूप, वित्तीय पूंजी का अमेरिका से दूर पलायन करना तो दूर ही रहा, फौरन दुनिया भर से अमेरिका की ओर वित्तीय पूंजी का पलायन शुरू हो गया। और इसमें भारत जैसे ऐसे देशों वित्तीय पूंजी का पलायन भी शामिल था, जहां की वित्त व्यवस्था में उस तरह की विषाक्त परिसंपत्तियों का तो कोई नामो-निशान भी नहीं था।

बेशक, अमेरिका की ओर वित्तीय पूंजी के वर्तमान प्रवाह के पीछे, जिसके चलते डॉलर की क़ीमत बढ़ रही है, मुख्य कारण तो अमेरिका में ब्याज की दरों का बढऩा ही है। फिर भी, ब्याज की दरों में इस बढ़ोतरी से इतना ज़्यादा असर कोई इसलिए नहीं पड़ता है कि इससे अमेरिका में वित्तीय पूंजी को टिकाकर रखना कहीं ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाला गया है बल्कि इतना ज़्यादा असर इसलिए पड़ता है कि यह विश्व मंदी के दौर की ओर इशारा करता है, जो वित्तीय पूंजी को बहुत ही आशंकित कर देता है। दूसरे शब्दों में विश्व पूंजीवाद अब एक पूरी तरह से नये चरण में जा रहा है, जहां तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को लगातार अपने यहां से वित्त के पलायन का सामना करना पड़ रहा होगा, फिर भले ही वे अमेरिका की ब्याज की दरों से क़दम मिलाकर, अपनी ब्याज की दरें बढ़ाते ही क्यों नहीं रहें।

तीसरी दुनिया पर दोहरी-तिहरी मार

यह आगामी संकट को उनके लिए ख़ासतौर पर ख़तरनाक बना देने जा रहा है। इन देशों को, बढ़ी हुई घरेलू तथा विदेशी ब्याज दरों के मंदी पैदा करने वाले प्रभावों को ही नहीं झेलना पड़ रहा होगा, इसके साथ ही साथ उन्हें इस तथ्य की भी मार झेलनी पड़ेगी कि उनके लिए ऋण भुगतानों को टालना पहले से ज़्यादा महंगा हो जाएगा और भुगतान संतुलन के उनके चालू खाते घाटों के लिए वित्त व्यवस्था करना और ज़्यादा मुश्किल हो जाएगा। यह सब अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी द्वारा अधिक ‘कटौती’ के निर्णय को उकसाएगा और इन्हें थोपा जाएगा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक जैसे वित्तीय पूंजी के निगरानी करने वालों द्वारा जिनका दरवाज़ा इस संकट के सामने ‘मदद’ के लिए आख़िरकार खटखटाना ही पड़ेगा।

विश्व पूंजीवाद के इस नये चरण का नुक़सानदेह असर, भारत जैसे देशों पर भी पड़ेगा और इसके बावजूद पड़ेगा कि तीसरी दुनिया के अनेक देशों के विपरीत, उन पर बाहरी ऋणदाताओं का बहुत ज़्यादा बोझ नहीं होगा। अब तक भारत को, नवउदारवादी निज़ाम के अंतर्गत अपने चालू खाता घाटों को संभालने के लिए, आसान शर्तों पर विदेशी वित्त उपलब्ध रहा है। ‘उदारीकरण’ के फ़ौरन बाद के दौर में ऐसा इसलिए हो रहा था कि चूंकि इससे पहले तक इस देश के दरवाज़े विदेशी वित्तीय प्रवाहों के लिए ‘बंद रहने’ के चलते, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी इसके लिए उत्सुक थी कि उन दरवाज़ों के खुलने से जो अनेकानेक अवसर सामने दिखाई देने लगे थे, उनको पकड़ लिया जाए। आगे चलकर, जब वित्तीय संकट के चलते पैदा हो रही मंदी से उबरने के लिए, अमेरिका में ब्याज की दरों को खींचकर शून्य के क़रीब पर ले आया गया, वित्तीय पूंजी स्वाभाविक रूप से भारत और तीसरी दुनिया के दूसरे ऐसे देशों की ओर बह निकली, जहां कमाई की दरें कहीं बेहतर थीं।

इसका नतीजा यह हुआ कि इस सदी की शुरूआत में, उससे पहले के नियंत्रणात्मक दौर के मुक़ाबले देश की जीडीपी वृद्घि दरों में जो उछाल देखने को मिला, उसे भुगतान संतुलन के पहलू से किसी प्रकार की बाधाओं से निश्चिंत रहते हुए, साधे रखना संभव हुआ। वास्तव में, 2002 से 2012 के बीच के क़रीब एक दशक के दौरान तो, डॉलर की तुलना में रुपये का विनिमय मूल्य उल्लेखनीय रूप से स्थिर बना रहा था और यह इसके बावजूद था कि भारत जीडीपी की वृद्घि दर में अभूतपूर्व उछाल देख रहा था। अब यह दूसरी बात है कि जीडीपी में इस तेज़ी से भी मेहनतकश जनता के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ, फिर भी यह तथ्य अपनी जगह है कि इस उछाल में, भुगतान संतुलन की किसी तरह की कठिनाई की कोई बाधा नहीं आ रही थी। उल्टे उस दौर में चालू खाता घाटे के अनुपात में, वित्त के प्रवाह का पैमाना इतना बड़ा था कि भारतीय रिजर्व बैंक को, देश के विदेशी मुद्रा को सुरक्षित कोष में बढ़ोतरी करनी पड़ी थी, ताकि रुपए के विनिमय मूल्य को बढऩे से रोका जा सके। रुपये के मूल्य में इस तरह की बढ़ोतरी ने तो पूरी तरह से अकारण, ‘ऋण-वित्त पोषित निरुद्योगीकरण’ ही पैदा किया होता क्योंकि एक ओर तो देश पर विदेशी वित्तीय पूंजीदाताओं के क़र्ज़ का बोझ चढ़ रहा होता और दूसरी ओर, रुपये के बढ़ते विनिमय मूल्य के चलते घरेलू उत्पादकों से होड़ में, विदेशी आपूर्तिकर्ता भारी पड़ते जाएंगे।

नवउदारवाद के बाद के मौजूदा दौर में बढ़े ख़तरे

बहरहाल, नवउदारवाद का वह दौर अब ख़त्म हो चुका है। एक तो अब भारत में पहले वाले स्तर की जीडीपी की वृद्घि होने ही वाली नहीं है क्योंकि देश के भीतर भी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी, असमानताओं में भारी बढ़ोतरी के चलते मांग पर ही अंकुश लग गया है। पर यह तो ऐसा तथ्य है जो पिछले काफ़ी समय से ही साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। लेकिन, मांग संबंधी सीमा के चलते जीडीपी में वृद्घि की ऐसी कमतर दर भी, भुगतान संतुलन संबंधी कठिनाइयों के चलते टिकाना मुश्किल होने जा रहा है।

भुगतान संतुलन की मुश्किलें, किसी देश को कैसी असाधारण तेज़ी के साथ घुटनों पर ला सकती हैं, इसका उदाहरण भारत के बगल में ही मौजूद है--श्रीलंका इसका पुराना उदाहरण है। अभी कल तक भी, ‘मध्यम आय देश’ माने जा रहे श्रीलंका में, जो कम आय वाले देश के दर्जे से निकलकर उस दर्जे तक पहुंचा था, आज अर्थव्यवस्था विदेशी ऋण के बढ़ते बोझ के नीचे दब गयी है और उसे विदेशी विनिमय की भारी तंगी का सामना करना पड़ रहा है। इसने श्रीलंका को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सामने याचक बनाकर छोड़ दिया है और मुद्रा कोष उस पर ‘कटौती’ की बहुत ही बोझीली शर्तें थोप रही है। साम्राज्यवादी प्रचार में तीसरी दुनिया के देशों की ऐसी ‘खुशहाली से कंगाली’ में खिसक जाने की कथाओं को, सिर्फ़ संबंधित देश में चल रहे भ्रष्टाचार का, राजपक्षे जैसे सत्ताधारियों के कारनामों का ही नतीजा बनाकर छोड़ दिया जाता है। बेशक, इस तरह के सत्ताधारियों के कारनामों की भी इस तरह का संकट पैदा करने में एक भूमिका होती है, फिर भी इन सत्ताधारियों की हरकतों पर ही ध्यान केंद्रित करना और नवउदारवाद द्वारा पैदा की गयी ढांचागत विसंगतियों की ओर से आंखेें ही बंद रखना तो, मूर्खता की पराकाष्ठा है।

नवउदारवादी पूंजीवाद की एक चारित्रिक विशेषता यह है कि मेहनतकश जनता की विशाल संख्या की जीवन दशाएं, मुठ्ठीभर वित्तीय सटोरियों की झकों और सनकों से तय होती हैं। इस तरह, मुद्रास्फीति के उछाल के सामने मुठ्ठीभर वित्तीय सटोरियों की घबराहट तथा उसके नतीजों के चलते, तीसरी दुनिया के मेहनतकशों पर भारी कठिनाइयां थोपी जा रही होंगी। अपनी भुगतान संतुलन की मुश्किलों की वजह से इन देशों पर जो कठोर कटौतियां थोपी जा रही होंगी, उनका नतीजा यह होगा कि जिस अवाम को नवउदारवाद के फलने-फूलने का शायद ही कोई फ़ायदा मिला होगा, वह विडंबनापूर्ण तरीक़े से उसके मुरझाने से सबसे ज़्यादा चोट खा रहे होंगे।

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