Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

प्रभात पटनायक की क़लम से: साम्राज्यवाद के पुनर्जीवन की ट्रम्प नीति

ट्रम्प ने यूक्रेन और ग़ज़ा के मामले में साफ़ तौर पर भिन्न रुख़ अपनाए हैं। एक मामले में वह शांति के लिए काम करता लगता है और दूसरे मामले में समूची आबादी की ही इथनिक सफ़ाई की मांग करता लगता है। इसे कैसे समझा जाए! बता रहे हैं आर्थिक विशेषज्ञ प्रभात पटनायक
trump

डोनाल्ड ट्रम्प की विदेश नीति ने टीकाकारों को सचमुच चकरा कर रख दिया है। यूक्रेन और ग़ज़ा के मामले में उसने साफ तौर पर भिन्न रुख अपनाए हैं। पहले वाले मामले में वह प्रकटत: शांति के लिए काम करता लगता है और दूसरे मामले में समूची आबादी की ही इथनिक सफाई की मांग करता लगता है। इससे टिप्पणीकार हैरान रह गए हैं कि वैश्विक मामलों पर उसका प्रभाव ‘सकारात्मक’ होगा या नहीं होगा।

दाम और दंड की सामराजी नीति

बहरहाल, इस तरह की हैरानगी की वजह ट्रम्प की किसी करनी में नहीं है बल्कि साम्राज्यवाद की परिघटना को ही नहीं पहचानने में है। इसमें किसी खास शक की गुंजाइश नहीं है कि अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद ने खुद को एक कोने में धकेल लिया है, जहां चुनाव के लिए केवल यही था कि या तो यूक्रेन में युद्ध को खतरनाक ढंग से, यहां तक कि नाभिकीय टकराव के बिंदु तक तेज होने दिया जाता या फिर साम्राज्यवादी वर्चस्व का धीरे-धीरे क्षय होने दिया जाता। 

डोनाल्ड ट्रम्प, साम्राज्यवाद को ऐसे असंभव तरीके से मुश्किल कोने से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। नुक्ता यह नहीं है कि वह ‘‘शांति के पक्ष’’ में है या ‘‘युद्ध के पक्ष’’ में या उसे यूरोपीय हितों की परवाह है या नहीं है। नुक्ता यह है कि वह अपने हिसाब से एक वैकल्पिक साम्राज्यवादी रणनीति पर चल रहा है, जो साम्राज्यवाद को इस बंद गली से निकाल सकती हो और वह ऐसा करने की स्थिति में है क्योंकि उस पर पहले की उस नीति का दाग नहीं लगा है, जिसने साम्राज्यवाद को उस बंद गली में पहुंचाया है।

उत्तरोत्तर छीजते जा रहे साम्राज्यवादी वर्चस्व को फिर से आजमाने का उसका तरीका, दाम और दंड का योग करने का है। यूक्रेन युद्ध को भड़काने वाले उकसावे के पीछे की यह बुनियादी धारणा गलत साबित हो चुकी है कि इस लड़ाई के जरिए रूस को पश्चिमी फरमानों के सामने समर्पण करने के लिए मजबूर किया जा सकता है। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि इस युद्ध के दौरान यूक्रेन लगातार जमीन खोता रहा है, बल्कि यह भी है कि रूस के खिलाफ लगायी गयी आर्थिक पाबंदियां, जिनसे ‘रूबल के मिट्टी में मिल जाने’ की अपेक्षा थी, पूरी तरह से निरर्थक साबित हुई हैं। एक संक्षिप्त सी अवधि के लिए अस्थायी गिरावट के बाद, रूबल उछल कर डॉलर के मुकाबले पाबंदियों से पहले के स्तर से भी ऊपर पहुंच गया। और इससे भी बड़ी बात यह कि इन पाबंदियों ने एक ऐसी प्रतिक्रिया पैदा की जहां डॉलर के वर्चस्व के लिए चुनौती ही एजेंडा पर आ गयी।

आर्थिक धौंसपट्टी

ब्रिक्स देशों के कजान शिखर सम्मेलन ने ‘गैर-डॉलरीकरण’ को एक गंभीर संभावना के तौर पर सामने ला दिया। इकतरफा साम्राज्यवादी पाबंदियां, जब तक चंद छोटे-छोटे देशों के खिलाफ केंद्रित थीं, तब तक तो काफी असरदार बनी रहीं। लेकिन, जब उन्होंने देशों की एक बड़ी संख्या को निशाना बनाना शुरू कर दिया और उसमें भी रूस जैसे बड़े, विकसित तथा संसाधन संपन्न देशों को निशाना बनाना शुरू कर दिया, पाबंदियों के तौर पर न सिर्फ इन कदमों की कारगरता जाती रही बल्कि इसने उस समूची प्रभुत्वशाली सामराजी व्यवस्था के खिलाफ, जिसे अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के रूप में जाना जाता है, देशों के ब्लॉक के गठन को प्रोत्साहित किया और इस विकल्प ने अपने दायरे में ऐसे देशों को भी खींचना शुरू कर दिया, जिन पर खुद पाबंदियां नहीं लगायी गयी थीं।

ठीक यही हो रहा था और सत्ता में आने पर ट्रम्प को इसी का सामना करना था। दाम और दंड की इस पद्धति का दंड का जो पक्ष है, उसके बारे में तो सभी जानते हैं। ट्रम्प ने उन देशों के खिलाफ भारी तटकर लगाने की धमकी दी, जो गैर-डॉलरीकरण के रास्ते पर चल रहे थे। यह एक खुल्लमखुल्ला साम्राज्यवादी कृत्य है, जो पूंजीवादी खेल के सभी नियमों के खिलाफ जाता है। आखिरकार, इन नियमों के अनुसार हरेक देश इसके लिए स्वतंत्र है कि अगर उसका व्यापार सहयोगी राजी हो तो किसी भी मुद्रा में व्यापार करे और अपनी मनमर्जी की मुद्रा में अपनी संपदा को जमा कर के रखे। ऐसा करने वाले किसी देश के खिलाफ ऊंचे तटकर थोपने के जरिए उक्त स्वतंत्रता में ही कटौती किया जाना, खुल्लमखुल्ला ऐसे देशों की बाहें मरोड़ना है, जिसका कोई भी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था साफ तौर पर समर्थन नहीं कर सकती है। लेकिन, एक खुल्लमखुल्ला और बेरहम साम्राज्यवादी के नाते ट्रम्प को साफ तौर पर ऐसी आर्थिक धौंसपट्टी का सहारा लेने में कोई संकोच नहीं हुआ है।

यूक्रेन युद्ध के अंत की कोशिश का अर्थ

यूक्रेन युद्ध का अंत कराने की ट्रम्प की कोशिश, इस दाम और दंड प्रणाली में, दाम वाला पहलू है। बजाए इसके कि अमरीका तथा आम तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ कोई वैकल्पिक शक्ति गुट बन जाता, इस युद्ध का ऐसी शर्तों पर अंत होना जो रूस के लिए प्रतिकूल नहीं हैं, रूस को ऐसे किसी वैकल्पिक ब्लॉक से बाहर रखने का काम करेगा। इस तरह यह, साम्राज्यवादी वर्चस्व को चुनौती देने की इस समय चल रही कोशिशों कमजोर करेगा।

बेशक, वार्ताओं के आधार पर यूक्रेन युद्ध का कोई भी अंत होता है, तो उसका सभी स्वागत ही करेंगे। लेकिन, युद्ध के इस अंत को शांति की इच्छा का या यूरोप की ‘सुरक्षा चिंताओं’ की कीमत पर अमरीका के हितों के आगे बढ़ाए जाने का नतीजा मानना, पूरी तरह से गलत होगा। ट्रम्प किसी शांति के मिशन पर नहीं है। वर्ना उसने गज़ा के संबंध में पूरी तरह से युद्धकारी टिप्पणियां नहीं की होतीं। वास्तव में पूंजीवाद अपनी प्रकृति से ही, शांति के खिलाफ होता है। जैसी कि फ्रांसीसी समाजवादी ज्यां जोरेस की प्रसिद्ध टिप्पणी थी, ‘पूंजीवाद में वैसे ही युद्ध समाया रहता है, जैसे बादलों में बारिश रहती है।’ ट्रम्प के कदमों के पीछे साम्राज्यवादी वर्चस्व को मजबूती से टिकाने की आकांक्षा है न कि शांति की आकांक्षा। इसी प्रकार, यूरोपीय सुरक्षा का प्रश्न पूरी तरह से एक भुलावा है। यूरोपीय सुरक्षा के लिए रूस से कभी खतरा पैदा ही नहीं हुआ था और ‘‘रूसी साम्राज्यवाद’’ के यूरोप को रौंदने के खतरे की सारी बतकही, नाटो के विस्तारवाद को उचित ठहराने का बहाना भर थी। इस तरह, ट्रम्प के शांति के कदम से यूरोपीय सुरक्षा के कमजोर पड़ने का तो कोई सवाल ही नहीं है।

साम्राज्यवाद की दो रणनीतियां

यूरोपीय सत्ताधारी गुटों से ट्रम्प के मतभेद, उन दो अलग-अलग वैकल्पिक रणनीतियों के चलते हैं, जो साम्राज्यवाद इस समय अपना सकता है। इनमें एक है रूस के खिलाफ हमले की बाइडेन की पुरानी रणनीति, जो बंद गली में पहुंच गयी थी। और दूसरी है इसकी वैकल्पिक रणनीति कि युद्ध खत्म किया जाए और रूस को पश्चिमी साम्राज्यवाद के वर्चस्व के विरोधी ब्लॉक से दूर खींचा जाए। यूरोपीय शासक पहले वाली रणनीति से बंधे हुए हैं, जबकि ट्रम्प दूसरी रणनीति आजमा रहा है। जर्मनी में नव-नाजी पार्टी, एएफडी के यूक्रेन युद्ध के विरोध को, ठीक इसी नजर से देखना होगा। फिलिस्तीन के प्रति उसकी घोर आक्रामकता और इसके विपरीत, यूक्रेन युद्ध को खत्म कराने की उसकी आकांक्षा न तो शांति की किसी आम आकांक्षा की सूचक है और न ही ‘यूरोपीय सुरक्षा’ के प्रति किसी उदासीनता की। यह तो एक खास रणनीतिक रुख की ही सूचक है।

बेशक, साम्राज्यवाद को जिस कोने में पहुंचा दिया गया है, वहां से उसे निकालने की ट्रम्प की परियोजना, इसके साथ ही साथ समग्रता में साम्राज्यवादी ब्लॉक पर अमरीका के वर्चस्व को आजमाने की परियोजना है। ‘अमरीका को फिर से महान बनाओ’ का उसका नारा, फिर से एक ऐसी दुनिया गढ़ने की परियोजना है, जिस में निर्विवाद रूप से पश्चिमी साम्राज्यवाद का बोलबाला होगा जबकि अमरीका, पश्चिमी साम्राज्यवाद का निर्विवाद नेता होगा। इस अर्थ में यह इसकी रणनीति की निरंतरता में है कि यूरोप को अमरीकी ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर बनाया जाए। इस रणनीति का प्रतिनिधित्व करता था, रूस से यूरोप को जाने वाली नॉर्ड स्ट्रीम-2 गैस पाइप लाइन का उड़ाया जाना, जो कथित रूप से अमरीकी ‘‘डीप स्टेट’’ की करतूत थी।

पूंजीवादी दुनिया के नेतृत्व की क़ीमत

बहरहाल, ट्रम्प की रणनीति में एक बड़ा अंतर्विरोध है। पूंजीवादी दुनिया का ‘नेतृत्व करने’ के लिए एक कीमत भी चुकानी पड़ती है। और ट्रम्प को ‘नेतृत्व’ की यह भूमिका, यह कीमत चुकाए बिना ही चाहिए। नेतृत्व की भूमिका के लिए जो कीमत चुकानी पड़ती है, इस प्रकार है– पूंजीवादी दुनिया के ‘नेता’ को अन्य प्रमुख पूंजीवादी शक्तियों के साथ व्यापार घाटे बर्दाश्त करने होते हैं, जिससे उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए जगह बन सके और समग्रता में पूंजीवादी दुनिया को संकट में डूबने से बचाया जा सके। ब्रिटेन ने पूंजीवादी दुनिया के अपने ‘नेतृत्व’ के जमाने में यही किया था और यही कहीं हाल के दौर में अमरीका करता आया था। बहरहाल, ब्रिटेन को उस दौर की अन्य प्रमुख शक्तियों, महाद्वीपीय यूरोप तथा अमरीका के साथ व्यापार घाटा झेलने में तकलीफ नहीं हुई थी क्योंकि इस घाटे को अन्य चीजों के अलावा अपने औपनिवेशिक साम्राज्य ये अदृश्य आमदनियों की कमाई से वह बराबर कर लेता था। इस आय का ज्यादातर हिस्सा एक गढ़ा हुआ अधिशेष था, जिसके बदले में वह अपने इन जीते हुए उपनिवेशों से धन की उगाही करता था। इसी के सहारे वह अन्य प्रमुख पूंजीवादी शक्तियों के साथ अपने घाटे की भरपाई करता था।

बहरहाल, युद्धोत्तर दौर में अमरीका को ऐसा ‘सौभाग्य’ हासिल नहीं रहा है। उसके अन्य प्रमुख पूंजीवादी शक्तियों के साथ व्यापार घाटे झेलने ने, उसे कर्ज के गड्ढे में गहरे से गहरा धकेला है। अमरीका को कर्ज के गड्ढे में और भी गहरे धंसने से बचाने की उसकी कोशिश, जोकि ट्रम्प की ‘अमरीका को फिर से महान बनाओ’ परियोजना का हिस्सा है और जिसके लिए वह अब अपने सभी व्यापार सहयोगियों पर तटकर थोपने की प्रक्रिया में है, ऐसे हालात में हो रही है जब पूंजीवादी विश्व अर्थव्यवस्था में कुल मांग नहीं बढ़ रही है। और यह इसलिए हो रहा है कि हर जगह वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी का दबाव है कि सरकारी खर्चे बढ़ाने के लिए, राजकोषीय घाटों का सहारा लेने से और अमीरों पर कर लगाने से बचा जाए। इन हालात में ये कोशिशें विश्व पूंजीवादी संकट को बढ़ाने का ही काम करेंगी और इसका खासतौर पर ज्यादा बोझ पड़ेगा, अमरीका-इतर पूंजीवादी दुनिया पर।

ट्रम्प नीति का अंतर्विरोध

इसलिए, साम्राज्यवाद के पुनर्जीवन की ट्रम्प की रणनीति, एक ही समय पर केक खाने और बचाए भी रखने की रणनीति बन जाती है। वह अमरीका के नेतृत्व को आजमाने की कोशिश उस समय कर रहा है, जबकि वह अन्य देशों पर तटकर थोपने की कोशिश कर रहा है, जोकि शेष दुनिया के प्रति पड़ोसी जाए भाड़ में नीति अपनाना ही है। इस तरह की पड़ोसी जाए भाड़ में की नीति, जो दूसरों से बाजार छीनकर अपने लिए ही विकास सुनिश्चित करने की नीति हो जाती है, साम्राज्यवादी वर्चस्व का फिर से प्रदर्शन करने की परियोजना के बुनियादी तौर पर खिलाफ जाती है। अगर बाइडेन ने साम्राज्यवाद को एक कोने में धकेल दिया था, तो ट्रम्प की साम्राज्यवाद को इस कोने से निकालने की कोशिश, उसे दूसरे कोने में धकेलने का ही काम करेगी। 

(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest