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भू-विरासत संरक्षण का पहला मसौदा विधेयक आदिवासी अधिकारों की अनदेखी करता है

"विशेषज्ञों के अनुसार, भूवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों के संरक्षण के लिए एक संभावित मॉडल के रूप में प्रस्तावित विधेयक में भागीदारी शासन (पार्टिसिपेटरी गवर्नेंस) पर फोकस नदारद है।"
Adivasi Communities
फ़ोटो साभार: Counterview.Org

देश भर में भूवैज्ञानिक महत्व के क्षेत्रों की रक्षा और संरक्षण के लिए पहली बार तैयार किए गए विधेयक की इस आधार पर आलोचना की गई है कि यह आदिवासी समुदायों के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों पर लागू होने वाले विशेष शासन तंत्र (नियमों/कानूनों) को ध्यान में नहीं रखता है। भू-विरासत स्थल और भू-अवशेष (संरक्षण और रखरखाव) विधेयक 2022, शीर्षक वाला यह विधेयक, बुनियादी ढांचे या औद्योगिक विकास के उद्देश्य से इनमें से किसी भी क्षेत्र को गैर-अधिसूचित घोषित करने का निर्णय लेने के लिए, कार्यपालिका को पूर्ण शक्तियों के साथ सशक्त बनाता है।

संभावित भू-विरासत महत्व वाले क्षेत्रों में, खासकर बड़े पैमाने पर अनियमित औद्योगिक गतिविधियों के मद्देनजर, विधेयक के महत्व और तात्कालिकता को अलग अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा स्वीकारा गया है। लेकिन साथ ही, भूगर्भीय रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों के संरक्षण के संभावित मॉडल के रूप में बिल में भागीदारी शासन पर फोकस नदारद होने को भी इंगित किया गया है। मसौदा विधेयक को सार्वजनिक विमर्श के लिए 15 दिसंबर को केंद्रीय खान मंत्रालय की वेबसाइट पर डाला गया था।

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) द्वारा अब तक, समृद्ध भूवैज्ञानिक विरासत वाले 32 स्थलों को राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक के रूप में अधिसूचित किया गया है। GSI केंद्र सरकार का एक संगठन है जिसे राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक सूचना और खनिज संसाधन मूल्यांकन को बनाने और अद्यतन करने की जिम्मेदारी दी गई है। भविष्य में, भू-विरासत स्थलों को अधिसूचित करने के उद्देश्य से बिल, भूमि अधिग्रहण: उचित मुआवजे और पारदर्शिता के अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम- 2013 के तहत भूमि अधिग्रहण की परिकल्पना भी करता है। 

हालांकि, विशेषज्ञों द्वारा कहा गया है कि किसी भी क्षेत्र को भू-विरासत स्थल के रूप में अधिसूचित करने से पहले विरासत प्रभाव आकलन किया जाना आवश्यक है।

1965 बैच के आईएएस अधिकारी, सेवानिवृत्त नौकरशाह, ईएएस सरमा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा साइटों को मंजूरी देने के लिए अधिसूचना जारी करने से पहले, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986 के तहत पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) अध्ययन के एक हिस्से के रूप में, भू विरासत स्थल के 10-किमी त्रिज्या में "विरासत प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन" को भी अनिवार्य किया जाना चाहिए। 

यह विधेयक, अपने वर्तमान स्वरूप में, अपने क्रियाकलापों का पूरे भारत में विस्तार करता है। हालांकि, कुछ भू-विरासत स्थल अनुसूचित क्षेत्रों में जनजातीय इलाकों में स्थित हो सकते हैं। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 और ऐसे अन्य विशेष कानूनों के प्रावधानों को सुनिश्चित करने के लिए विधेयक में एक विशेष खंड को सम्मिलित करने की आवश्यकता है, जहां तक ​​कि यह, संविधान की पांचवीं अनुसूची में अधिसूचित क्षेत्रों पर लागू होता है। इस विधेयक के तहत किसी भी प्रतिबंध के लागू होने से पहले, प्रावधानों का पूरी तरह से पालन किया जाना चाहिए। सरमा ने कहा, खान मंत्रालय, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग जो एक संवैधानिक प्राधिकरण है, के मामले में सुविचारित विचार प्राप्त कर सकता है। साथ ही जनजातीय मामलों के मंत्रालय से भी परामर्श किया जाना चाहिए।

विशेष रूप से, आदिवासी आबादी के पूर्व-आबादी वाले क्षेत्रों को भारत के संविधान की अनुसूची V के तहत अनुसूचित क्षेत्रों के रूप में नामित किया गया है और उन्हें विशेष शासन तंत्र (नियमों/कानूनों) के तहत संचालित किया जाता है। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम- 1996, अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के अधिकारों यथा औद्योगिक विकास के उद्देश्य से इन क्षेत्रों में भूमि परिवर्तन को संरक्षित करने को सुनिश्चित करता है। यह अधिनियम किसी भी उद्देश्य के लिए भूमि के परिवर्तन या अधिसूचित करने से पहले सरकार के लिए ग्राम सभाओं (किसी विशेष गांव के सभी वयस्क सदस्यों से युक्त स्थानीय स्वशासी परिषद) की सहमति प्राप्त करने को अनिवार्य बनाकर, आदिवासी समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

हालांकि, विधेयक उपरोक्त अधिकारों पर महत्व नहीं देता है, जिन्हें विशेषज्ञ आवश्यक बताते हैं। क्योंकि भूगर्भीय महत्व के अधिकांश स्थलों को आदिवासी आबादी वाले क्षेत्रों में स्थित माना जाता है।

ड्राफ्ट बिल की धारा 4 में कहा गया है: "एक बार किसी साइट को धारा 3 [ड्राफ्ट बिल] के तहत राष्ट्रीय महत्व की भू-विरासत स्थल के रूप में घोषित किया जाता है, तो केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण, उचित मुआवजे एवं पारदर्शिता के अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 के प्रावधानों के तहत ऐसे क्षेत्र का अधिग्रहण कर सकती है। बशर्ते, कि अधिनियम के अनुसार, अधिग्रहण एक सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किया गया हो।"

विधेयक भू-विरासत स्थलों को दुर्लभ और अद्वितीय भूवैज्ञानिक और भू-आकृति विज्ञान संबंधी महत्व के स्थलों के रूप में परिभाषित करता है। जिनमें गुफाओं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की प्राकृतिक रॉक-मूर्तियों सहित भू-आकृति विज्ञान, खनिज विज्ञान, पेट्रोलॉजिकल, पेलियोन्टोलॉजिकल और स्ट्रैटिग्राफिक महत्व वाले स्थल शामिल है। यह भू-अवशेषों (किसी भी अवशेष) या भूवैज्ञानिक महत्व की सामग्री या तलछट, चट्टानों, खनिजों, उल्कापिंडों या जीवाश्मों की तरह रुचिकर स्थलों के रूप में परिभाषित करता है।

मसौदा विधेयक के प्रावधानों के अनुसार, जीएसआई को भू-अवशेष को प्राप्त करने (अधिग्रहित करने) का अधिकार होगा यदि उसे, इसके नष्ट होने, हटाए जाने, क्षतिग्रस्त होने या दुरुपयोग के खतरे की आशंका हो। इन आधारों पर, GSI किसी भू-अवशेष को मूल स्थल से हटाने और उसे सार्वजनिक स्थान पर रखने का निर्णय ले सकता है।

केंद्र सरकार ने इस आधार पर जैसा कि विधेयक के तहत परिकल्पित किया गया है, कानून बनाने को उचित ठहराया है कि 32 स्थलों को भू-विरासत स्थलों या राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारकों के रूप में अधिसूचित किया गया है और वर्तमान में देश में इन साइटों का रखरखाव, सुरक्षा और संरक्षण के लिए कोई तंत्र मौजूद नहीं है। 

विधेयक पर मंत्रालय ने एक नोट में कहा है कि “… भू-विरासत स्थलों की सुरक्षा, संरक्षण, संरक्षण और रखरखाव के लिए देश में किसी भी कानून न होने के चलते, इन स्थलों के क्षय को लेकर, न केवल प्राकृतिक कारणों से बल्कि जनसंख्या के दबाव और बदलते सामाजिक और आर्थिक कारणों से भी स्थितियां गंभीर हुई हैं।

हालांकि जहां विधेयक में सामाजिक गतिशीलता में बदलाव का उल्लेख है, वहीं, यह उन क्षेत्रों में सदियों से विद्यमान जनसंख्या और प्राकृतिक संसाधनों की विविधता का संज्ञान लेने में भी विफल रहा है जिन्हें संभावित रूप से भूगर्भीय विरासत वाले स्थलों के रूप में घोषित किया जा सकता है।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली स्थित प्रमुख नीति थिंकटैंक की कांची कोहली कहती हैं कि यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयक है जो भूगर्भीय विरासत स्थलों को प्राकृतिक विरासत के रूप में मान्यता देता है जिन्हें मानचित्रित और संरक्षित करने की आवश्यकता है। लेकिन चूंकि, संरक्षण का ढांचा अधिकारों के अधिग्रहण के माध्यम से संरक्षण पर आधारित है, जिसके निहितार्थों के लिए संसदीय और सार्वजनिक बहस की जरूरत है।

इसके अलावा, देश की भूगर्भीय विरासत की सुरक्षा और संरक्षण के लिए, विधेयक के माध्यम से लाया गया यह एकमात्र मॉडल कहता है कि सरकार द्वारा भूमि और भू-विरासत संसाधनों को स्थानीय समुदायों के नियंत्रण से ले लिया जाए।

कोहली ने कहा कि, "सह-शासन, सहभागी शासन और समुदाय आधारित शासन के विभिन्न मॉडलों को भी विकल्प के रूप में माना जा सकता है, खासकर क्योंकि ये भू-विरासत स्थल सांस्कृतिक, पारिस्थितिक और व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों के साथ ओवरलैप करते हैं।"

इसके अलावा, उद्योगों, बुनियादी ढांचे या किसी अन्य उद्देश्य के लिए किसी विशेष भूगर्भीय विरासत स्थल को गैर-अधिसूचित करने से पहले विधेयक में किसी सार्वजनिक परामर्श की परिकल्पना नहीं की गई है। बिल के अनुसार, भूगर्भीय विरासत के अधिसूचित स्थलों पर या उसके निकट प्रस्तावों को मंजूरी देने या अस्वीकार करने का पूरा दायित्व जीएसआई पर डाल दिया गया है, जिसे विधेयक के अनुसार सक्षम प्राधिकारी के रूप में नामित करने की बात है।

विधेयक में कहा गया है कि "महानिदेशक या इस संबंध में महानिदेशक द्वारा प्राधिकृत अधिकारी धारा 10 [मसौदा विधेयक] के तहत किए गए आवेदन और इस तरह के निर्माण या पुनर्निर्माण या मरम्मत या नवीकरण (बड़े पैमाने पर विकास परियोजना के प्रभाव सहित) के प्रभाव पर विचार करेगा। सार्वजनिक परियोजना और जनता के लिए आवश्यक परियोजना) और, आवेदन प्राप्त होने के दो महीने के भीतर, या तो अनुमति प्रदान करेगा या आवेदक को सुनवाई का अवसर देने के बाद उसे मना कर देगा।"

विशेषज्ञों का कहना है कि भले ही पूरा भारतीय उपमहाद्वीप भू-विरासत स्थलों का एक समृद्ध भंडार है, लेकिन संसाधनों के बारे में ज्ञान की कमी और बुनियादी ढांचे और आर्थिक विकास के लिए भूमि पर दबाव के कारण देश में कई महत्वपूर्ण स्थल पहले ही नष्ट हो चुके हैं। विधेयक के लिए मंत्रालय के नोट में कई भू-विरासत स्थलों की सूची है जो भारतीय प्रायद्वीप के विभिन्न हिस्सों में स्थित हैं, जिनमें हिमालय पर्वतमाला, डेक्कन ट्रैप, प्रीकैम्ब्रियन भारतीय प्रायद्वीप, थार रेगिस्तान और पूर्वोत्तर भारत के बारिश से भरे क्षेत्र शामिल हैं। बिल के नोट में सूचीबद्ध महत्वपूर्ण स्थलों में मध्य प्रदेश और गुजरात के डायनासोर के जीवाश्म, कच्छ और स्पीति के समुद्री जीवाश्म, गोंडवाना के लकड़ी के जीवाश्म, सबसे पुराने जीवन रूप जैसे राजस्थान और मध्य प्रदेश के स्ट्रोमैटोलाइट्स और शिवालिक के कशेरुकी जीवाश्म शामिल हैं। 

बिल के नोट में कहा गया है कि "राजस्थान और आंध्र प्रदेश में सोने, सीसा और जस्ता के दुनिया के सबसे पुराने धातुकर्म रिकॉर्ड अभी भी संरक्षित हैं लेकिन बहुत खतरे में हैं।"

चंडीगढ़ में पंजाब विश्वविद्यालय में भूविज्ञान के प्रोफेसर डॉ ओम नारायण भार्गव ने कहा कि अनियमित और अवैज्ञानिक विकासात्मक गतिविधियों के कारण भारतीय उपमहाद्वीप से समृद्ध भूगर्भीय विरासत वाले कई स्थलों का सफाया हो गया है। उन्होंने कहा कि विकसित देश समृद्ध भूगर्भीय विरासत वाले स्थलों के संरक्षण की आवश्यकता के प्रति जागरूक हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, चीन ने अपने भूगर्भीय महत्व के कारण 41 क्षेत्रों को जियोपार्क के रूप में अधिसूचित किया है।

भार्गव के अनुसार, “भारत में, कई साइटें पहले ही खो चुकी हैं। स्पीति घाटी में एक प्रवाल भित्ति, जो लगभग 240 मिलियन वर्ष पुरानी थी, नष्ट हो गई क्योंकि इसके ऊपर एक नहर का निर्माण किया गया था। उच्च भूगर्भीय महत्व वाले क्षेत्रों को हमारे ज्ञान के भंडार का निर्माण करने और शिक्षाविदों, अध्ययन और अनुसंधान के उद्देश्य से संरक्षित करने की आवश्यकता है। कुछ उदाहरणों में, हमारी भूगर्भीय विरासत हमें भविष्य में संभावित चरम जलवायु संबंधी घटनाओं से निपटने के लिए भविष्यवाणी करने और मॉडल बनाने में मदद कर सकती है।"

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित साक्षात्कार को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

India’s First Draft Bill for Geo-heritage Conservation Ignores Rights of Adivasi Communities

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