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अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते पर विदेशी ताक़तें

पश्चिमी जासूसों और 'राजनयिकों' की पेरिस में हुई बैठक, जायज़ा लेने की एक कवायद भर थी।
UN
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 7 मार्च, 2023 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, न्यूयॉर्क में महिलाओं तथा शांति और सुरक्षा पर एक बैठक आयोजित की

7 मार्च को, तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए पश्चिमी ताकतों की एक छोटी बैठक पेरिस में हुईं। यह ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूरोपीयन यूनियन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, नॉर्वे, स्विट्जरलैंड, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान के विशेष प्रतिनिधियों और दूतों की एक खास बैठक थी।

बैठक के लिए बेतरतीब चुनाव चौंकाने वाला था – जरूरत के मुताबिक जानकारी हासिल करने के आधार पर यह बैठक हुई थी इसलिए इसमें तुर्की को बाहर और नॉर्वे अंदर रखा गया। संभवतः, पश्चिम को तुर्कों पर भरोसा नहीं था की वह रहस्य बनाए रखेगा। लेकिन नॉर्वे खुद को यूरोपीयन देश के रूप में अपरिहार्य बना देता है, जिसके पास पहले दर्जे का खुफिया तंत्र है, और जिसने पश्चिमी हितों की ख़ूब सेवा की है।

ऑस्ट्रेलिया और कनाडा ने बड़ी उत्सुकता से बैठक में भाग लिया, लेकिन फिर, वे हैं तो फ़ाइव आईज़। और जहां भी रूस या चीन को अस्थिर करने के एजेंडे पर विचार किया जाता है, वहां फाइव आईज जरूर जाते हैं। ये वाशिंगटन है जो ऐसी बातें तय करता है।

पेरिस बैठक खतरे की घंटी है। 7 मार्च को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में महिलाओं और शांति पर एक बैठक आयोजित की, जहाँ, दिलचस्प बात यह है कि, अमेरिकी राजदूत लिंडा थॉमस-ग्रीनफील्ड ने अफ़गानिस्तान, ईरान और "रूस के कब्जे वाले यूक्रेन के क्षेत्र में "महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न" के बारे बात की।"

बैठक की मेजबानी में फ्रांस की बेतहाशा रुचि कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फ़्रांस, सोवियत विरोधी सैन्य नेता अहमद शाह मसूद के सबसे बड़े बेटे अहमद मसूद के प्रति वफादार पंजशीरियों के नेतृत्व वाले तथाकथित नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान [NRFA] को बढ़ावा दे रहा है।

राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने पश्चिमी मदद से काबुल में तालिबान सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने के लिए नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान के लिए अपने देश को अभयारण्य के रूप में स्पेस देने के लिए ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति इमोमाली रहमोन को लुभाने में खास भूमिका निभाई है।

मैक्रॉन इसलिए नाराज़ हैं कि, रूस के वैगनर ग्रुप ने उत्तरी अफ्रीका के साहेल इलाके में फ्रांसीसी सैनिकों की जगह ले ली है, जो 2015 में बुर्किना फासो, चाड, माली, मॉरिटानिया और नाइजर में सैनिकों की तैनाती के बाद से फ्रांस का खेल का मैदान बना हुआ था और ये सैन्य ठिकाने, जाहिरा तौर पर 'जिहादियों' से लड़ने के लिए होते थे।

लेकिन इस इलाके में फ्रांसीसी हाज़िरी तेजी से अलोकप्रिय हो गई है और इस्लामवादी खतरा अधिक फैल गया है, जबकि फ्रांस ने अपने पूर्व उपनिवेशों में स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप किया, और अंततः अफ्रीकी आंखों में मैक्रॉन की मंशा संदिग्ध हो गई और यह धारणा बढ़ी कि फ्रांसीसी अभियान दल कब्ज़े के लिए अधिक काम कर रहा था। 

जैसे ही अफ्रीकी देशों ने रूस के वैगनर ग्रुप को फ्रांसीसी सेना की जगह देना शुरू किया, मैक्रॉन ने नवंबर में अपने प्रसिद्ध 'ऑपरेशन बरखाने' के अंत की घोषणा कर दी थी। 

मैक्रॉन काकेशस और मध्य एशिया में अपने ही पिछवाड़े में रूस पर पलटवार करने के अवसरों की तलाश में हैं। लेकिन वह अपनी ताक़त से अधिक करने की कोशिश कर रहा है। फिर भी, पेरिस की बैठक ने मंगलवार को “आईएसकेपी, अल क़ायदा, तहरीक़-ए-तालिबान-पाकिस्तान और अन्य सहित अफ़गानिस्तान में आतंकवादी समूहों के बढ़ते खतरे के बारे में गंभीर चिंता व्यक्त की है, जो इस इलाके में देश के भीतर सुरक्षा और स्थिरता को गहराई से प्रभावित करता है। और बैठक ने तालिबान/अफ़गानिस्तान से इन समूहों को सुरक्षित पनाहगाह न देने का आह्वान किया है। संयुक्त बयान सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है – जो पश्चिमी हस्तक्षेप को बढ़ाने का एक बहाना उपलब्ध कराता है। 

वास्तव में तालिबान को भारी बाधाओं के बावजूद, अपने शासन को स्थिर करने में जमीनी स्तर पर काफी सफलता मिली है। लेकिन पश्चिमी ताकतें इस बात से नाराज़ हैं कि तालिबान बातचीत के लिए झुक नहीं रहा है। एनआरएफए को पश्चिम समर्थन तालिबान को रास नहीं आ रहा है। तालिबान, एनआरएफए को पश्चिम द्वारा नियंत्रित सरदारों की वापसी को खतरे की घंटी के रूप में देखता है।

एनआरएफए को समर्थन नहीं मिल रहा है। रहमोन के साथ मैक्रॉन की व्यक्तिगत कूटनीति के बावजूद, रहमोन मास्को को नाराज़ नहीं कर सकता है - और क्रेमलिन की सर्वोच्च प्राथमिकता किसी तरह अफ़गान सुरक्षा स्थिति को स्थिर करना है। रूसी और चीनी तालिबान के साथ काम करने और उन्हें अपने देश की सुरक्षा और स्थिरता में हितधारक बनाने के इच्छुक हैं।

दरअसल, जिस दिन पश्चिमी ताकतों ने पेरिस में गिरोहबंदी की, उसी दिन दिल्ली ने घोषणा की कि वह मानवीय सहायता के रूप में चाबहार मार्ग के माध्यम से अफ़गानिस्तान को 20,000 टन गेहूं की एक और खेप भेज रहा है। काबुल में रूसी राजदूत दिमित्री झिरनोव ने आर्थिक संबंधों पर केंद्रित तालिबान के साथ रूस के गहरे होते संबंधों के बारे में भी बात की। (दिलचस्प बात यह है कि राजदूत ने खुलासा किया कि मॉस्को बेहद रणनीतिक सलांग सुरंग की मरम्मत कर उसे फिर से खोल सकता है – जोकि एक सोवियत विरासत है – और यह काबुल को उत्तरी अफ़गानिस्तान और मध्य एशिया से जोड़ता है।)

चीन ने हाल ही में उत्तरी अफ़गानिस्तान में अमु दरिया बेसिन में तेल निकालने के लिए 540 मिलियन डॉलर के तेल और गैस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। अपनी नियुक्ति के बाद नए विदेश मंत्री किन गैंग ने जो पहला फोन कॉल किया, उनमें से एक अफगानिस्तान था, जहां सुरक्षा चिंताओं के मद्देनज़र उन्होने काबुल में अपने तालिबान समकक्ष को फोन किया था। नि:संदेह, हाल ही में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच क्रेमलिन में हुई बैठक में भी इसी तरह की चिंता व्यक्त की थी।

रूस, अफ़गानिस्तान के संबंध में भारत के साथ काम करने का बहुत इच्छुक है। चीन अफ़गानिस्तान की सुरक्षा और स्थिरता में रूसी चिंताओं को भी समझता है। इसके विपरीत, अमेरिका और यूरोपीयन यूनियन कल्पना करते हैं कि यूक्रेन युद्ध में रूस की व्यस्तता से मध्य एशिया में उथल-पुथल की जा सकती है। लेकिन यह एक बहुत ही सरल और स्वार्थी धारणा है।

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन, जिन्होंने पिछले महीने मध्य एशिया का दौरा किया था, ने अपनी निराशा से सीखा कि क्षेत्रीय देश वाशिंगटन के शून्य-राशि के खेल में शामिल होने में रुचि नहीं रखते हैं। अपने मध्य एशियाई समकक्षों के साथ ब्लिंकेन की बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में रूस (या चीन) के खिलाफ किसी भी किस्म की आलोचना से दूर रहे हैं। 

जॉन्स हॉपकिन्स में प्रोफेसर मेल्विन गुडमैन और जाने-माने लेखक, जो कभी सीआईए के विश्लेषक हुआ करते थे, ने ब्लिंकन के मध्य एशियाई दौरे का वर्णन करते हुए लिखा है, कि  इस इलाके में पहली बार बाइडेन प्रशासन के किसी वरिष्ठ अधिकारी ने, "मूर्खतापूर्ण कार्य किया जो केवल अमेरिकी प्रयासों की निरर्थकता को उजागर करता है" क्योंकि रूस और चीन के खिलाफ दोहरे नियंत्रण को धता बताते हुए... सभी पांच मध्य एशियाई देशों ने पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव का समर्थन करने से इनकार कर दिया जिसमें रूस को यूक्रेन से सैनिकों की वापसी और यूक्रेन की पूर्ण संप्रभुता को मान्यता देने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका का समर्थन करने के लिए पेश किया गया था। सभी पांच मध्य एशियाई देशों को अपने ही देशों में आंतरिक विरोध का सामना करने पर रूस या चीन से समर्थन की जरूरत होगी।

मध्य एशियाई देशों का तटस्थ रुख सोवियत के पूर्व इलाकों, अबकाज़िया, ओसेटिया, क्रीमिया, लुगांस्क, डोनेट्स्क, ज़ापोरोज़्या और पर समान रूप से उनकी स्वतंत्र स्थिति के अनुरूप है। इसकी खास बात यह है कि: मास्को ने मध्य एशियाई लोगों को कभी धमकी नहीं दी कि 'या तो आप हमारे साथ हैं, या हमारे खिलाफ हैं।'

मध्य एशियाई लोगों ने अफ़गानिस्तान से पश्चिमी गठबंधन की वापसी देखी है और सुरक्षा के मामले में उन्हें भरोसेमंद नहीं मानते हैं। वे चरमपंथी समूहों के साथ पश्चिम की मिलीभगत से भी सावधान हैं। मध्य एशिया में व्यापक रूप से माना जाता है कि इस्लामिक स्टेट एक अमेरिकी रचना है। इन सबसे ऊपर, पश्चिमी देश व्यापारीवादी विदेश नीतियों को अधिक तरजीह देते हैं जो इलाके के खनिज संसाधनों पर नजर रखते हैं लेकिन क्षेत्र के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं लेते हैं। दूसरी ओर, वे घुसपैठ और हुक्म चलाने वाले हैं।

पेरिस की बैठक में, बंद दरवाजों के पीछे, अमेरिकी इनपुट यह होगा कि मध्य एशियाई देश अफ़गानिस्तान में शासन परिवर्तन परियोजना का समर्थन नहीं करेंगे। यहां तक कि ताजिकिस्तान, जिसका अफ़गानिस्तान की ताजिक आबादी के साथ जातीय संबंध है, एनआरएफए से दूरी बना लेगा, इसलिए कि कहीं ऐसा न हो कि वह अफ़गान गृहयुद्ध में फंस जाए। मैक्रॉन खुद को जन्मजात रूप से आकर्षक मानते हैं, लेकिन रहमोन कट्टर यथार्थवादी हैं।

आगे देखें तो, वास्तविक खतरा इस बात का है कि, तालिबान को झुकाने में विफल होने, तालिबान विरोधी प्रतिरोध आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ होने या मध्य एशियाई देशों को मॉस्को और बीजिंग के खिलाफ उकसाने में विफल होने कारण, अमेरिका और उसके सहयोगियों के पास अब एकमात्र विकल्प यही बचा है की वे अफगानिस्तान में अराजक स्थिति पैदा करें, एक ऐसी स्थिति जिसमें कोई विजेता नहीं होगा। 

इस्लामिक स्टेट का उदय और काबुल में काम कर रहे रूसी, पाकिस्तानी, चीनी, ईरानी और भारतीय दूतावासों के लिए इसकी खुली धमकियां एक चेतावनी है। इसलिए कहा जा सकता है की, पश्चिमी जासूसों और 'राजनयिकों' की पेरिस बैठक जायजा लेने भी की एक कवायद भर थी।

एमके भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Foreign Devils on Road to Afghanistan

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