मुफ़्त बिजली, पानी, पढ़ाई, दवाई के आगे 'नतमस्तक राष्ट्रवाद!'
दिल्ली में 8 फरवरी को राज्य विधानसभा के लिए होने जा रहे चुनाव को लेकर केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के हौसले बुरी तरह पस्त हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं के चेहरों पर मायूसी की रेखाएं उनकी नाउमीदी को साफ बयान करती हैं। आखिर ऐसा क्या है कि आम आदमी पार्टी के 5 साल के शासन के खिलाफ आम जनता में कोई गुस्सा या नाराजगी अभी तक उभारने में भाजपा या कांग्रेस पूरी तरह विफल रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के लोग भी निजी तौर पर साफ स्वीकार करते हैं कि दिल्ली में केजरीवाल सरकार की फिर से वापसी होने जा रही है।
आम आदमी पार्टी की सरकार पर भाजपा केवल एक आरोप बार-बार लगाती रही है कि वह गरीब लोगों में मुफ्तखोरी की आदत को बढ़ावा दे रही है। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में प्रति महीने 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त की है और हर महीने 20,000 लीटर तक के पानी को मुफ्त गरीबों को देने का प्रावधान किया है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी सरकार ने महिलाओं को डीटीसी की बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा कुछ महीने पहले ही दी है। सभी सार्वजनिक स्थलों पर मुफ्त वाईफाई देने का आम आदमी का पार्टी का वादा अभी पूरा नहीं हुआ है।
ये बात शायद ही किसी के गले उतरने वाली होगी कि केवल मुफ्त बिजली और पानी ही ऐसी सुविधाएं हैं, जिनके सामने भारतीय राष्ट्रवाद की चैंपियन पार्टी का मनोबल टूट जाता है। इसका साफ अर्थ तो यही है कि दिल्ली जैसे शहर में जहां रोजगार और आमदनी के जरिये बहुत हैं, वहां पर भी लोगों की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं है कि वे मुफ्त बिजली और पानी के डेढ़ से दो हजार रुपये महीने की सुविधा को ठुकरा सकें। दिल्ली के नागरिक केवल डेढ़-दो हजार रुपये की मुफ्तखोरी के लिए भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रवादी विचारों से असहमत होने के लिए तैयार हो जाते हैं। यदि ऐसा है तो भारतीय राष्ट्रवाद बहुत कमजोर नींव पर टिका हुआ है। ऐसी जनता से किसी बड़े त्याग की उम्मीद करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए उचित नहीं है।
इस तरह के आरोपों से हटकर अगर विचार करें तो आम आदमी पार्टी की सरकार ने कुछ ऐसे काम किए हैं, जो घनघोर राष्ट्रवाद की आड़ में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू कर रही भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार जानबूझ कर अनदेखा कर रही है।
दिल्ली में निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए जिस तरह से लोगों को ब्लैकमेल और परेशान किया जाता है, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति को भी अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में दाखिल कराने के लिए कम से कम हजार पापड़ बेलने पड़ते हैं। दिल्ली की राज्य सरकार ने सरकारी प्राथमिक स्कूलों की शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए जो प्रयास पिछले 5 साल में किए हैं, उसका विरोध करने के लायक मोटी खाल तैयार करना आसान नही है। केजरीवाल सरकार ने सरकारी स्कूलों को निजी स्कूलों के बराबर बनाने का जो प्रयास किया वह आज के दौर में धारा के विपरीत चलने जैसा ही है। पूरी दुनिया में शिक्षा के निजीकरण की धारा बह रही है और यह साफ कहा जा रहा है कि शिक्षा हासिल करने के लिए आपको भुगतान करना जरूरी है। इसे एकेडमिक कैपिटलिज्म का नाम दिया जा रहा है। इसे हर तर्क और तरीके से जायज ठहराने के प्रयास किए जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा आधार गुणवत्ता को बनाया जाता है।
ऐसे दौर में केजरीवाल सरकार ने सरकारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने के प्रयास किए हैं। दिल्ली सरकार का शिक्षा बजट शेष राज्य सरकारों के औसत शिक्षा व्यय से काफी अधिक है। पूरे भारत में राज्य सरकारों का औसत शिक्षा व्यय 16% के आसपास है, जबकि केजरीवाल सरकार ने 2019-20 में बजट का 28% शिक्षा को दिया है। सरकारी स्कूलों में भवनों, फर्नीचर, पेयजल और शौचालय की सुविधाओं और प्रयोगशालाओं को बेहतर किया गया है।
स्रोत : http://prsindia.org/hi
इसी तरह दिल्ली सरकार का स्वास्थ्य पर किया गया 13.8 प्रतिशत का व्यय अन्य राज्य सरकारों के औसत 5.2 प्रतिशत के बजटीय व्यय बहुत अधिक है। केजरीवाल सरकार का दूसरा महत्वपूर्ण काम स्वास्थ्य के क्षेत्र में है। जब दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक शुरू करने की योजना बनाई तो कई लोगों ने इसका मजाक उड़ाया। लेकिन जल्द ही लोगों की समझ में आ गया कि मोहल्ला क्लीनिक कितने उपयोगी हैं। इन मोहल्ला क्लीनिकों के कारण बड़े अस्पतालों पर न केवल दैनिक रोगियों का भार कम हुआ बल्कि आम रोगी भी छोटी-मोटी बीमारियों के लिए बड़े अस्पतालों का चक्कर लगाने से काफी हद तक बच गए। अब केवल उन्हीं गंभीर रोगियों को बड़े अस्पतालों में भेजा जाने लगा, जिनको वास्तव में वहां जाने की जरूरत थी।
स्रोत : http://prsindia.org/hi
दिल्ली में सरकार पर सबसे बड़ा आरोप मुफ्त बिजली देने का लगता है। लेकिन ऊर्जा पर दिल्ली सरकार का कुल व्यय 3.3 प्रतिशत है, जबकि अन्य राज्य सरकारों का औसत ऊर्जा व्यय 5.2 प्रतिशत है। इस तरह साफ है कि केजरीवाल सरकार ने केवल मामूली से उपायों के जरिए आम और गरीब जनता को राहत पहुंचाई है। उसके आगे भारतीय जनता पार्टी का हुंकार भरे नारों वाला राष्ट्रवाद फीका पड़ने लगा है।
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अगर केवल स्वास्थ्य, शिक्षा, सार्वजनिक परिवहन जैसे मूलभूत सुविधाओं वाले क्षेत्रों में दिल्ली सरकार के बजट की तुलना देश के अन्य राज्यों से की जाए तो अंतर साफ नजर आता है। आम आदमी पार्टी सरकार ने 2019-20 के अपने बजट आवंटन में सार्वजनिक परिवहन में 38%, शिक्षा में 35% और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण में 25% प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी की है। जलापूर्ति, स्वच्छता, आवास और शहरी विकास पर बजट को 10% बढ़ाया गया है।
ऐसा नहीं है कि दूसरे राज्यों में इस तरह की समाज कल्याण की नीतियों को अपनाने की कोशिश नहीं की गई। बिहार सरकार ने जुलाई 2006 में पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग को सबको समान शिक्षा के लिए एक शिक्षा नीति बनाने का काम सौंपा गया था। प्रसिद्ध शिक्षाविद प्रोफेसर अनिल सद् गोपाल को समिति का सदस्य बनाया गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट जून 2007 में सरकार को सौंप दी। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उसे लागू नहीं किया। सबको समान शिक्षा देने के लिए जिस राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत थी वो नीतीश कुमार में नहीं थी।
ये बड़ी विडंबना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में मुफ्त गैस सिलेंडर, मुफ्त शौचालय और किसानों को प्रति वर्ष 6,000 रुपये की किसान सम्मान निधि देने के काम को कभी भी मुफ्तखोरी का नाम नहीं दिया है। इनको तो वे गरीबों के लिए किए गए जनकल्याणकारी कार्यों के रूप में पेश करते हैं।
प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और कुमार विश्वास जैसे लोग कभी आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हुआ करते थे। वे सभी धीरे-धीरे पार्टी से किनारे हो चुके हैं। अब पार्टी में केवल केजरीवाल और मनीष सिसौदिया के अलावा कोई बड़ा चेहरा भी नहीं बचा है। जिस तरह से केजरीवाल की छवि राज्यसभा के लिए उम्मीदवार तय करने के मामले में धूमिल हुई है, उसके बावजूद अगर आप दिल्ली की सत्ता में बड़े बहुमत से लौटती है तो यह वास्तव में एक बड़ी बात होगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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