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एक अरब ख़ुराक दान में देने की जी-7 की घोषणा महज़ एक ‘पब्लिक रिलेशन्स तमाशा'

जी-7 ने टीकाकरण से हो रहे मुनाफाखोरी को जल्द रोकने के लिए कोई चिंतन नहीं किया। यहां तक कि अमरीका तथा फ्रांस ने भी जी-7 के अपने अनिच्छुक संगियों को पेटेंट से अस्थायी छूट के अपने विरोध को त्याग देने के लिए राज़ी करने का कोई प्रयास नहीं किया।
जी-7
Image Courtesy: Reuters

पिछले ही दिनों संपन्न हुई जी-7 की बैठक ने कोविड के टीकों की 1 अरब खुराकें शेष दुनिया को दान में देने का वादा किया है। इनमें मुख्यत: तथाकथित ‘विकासशील’ देश आते हैं। अमरीका ने इसमें से टीके की 50 करोड़ खुराक देने का वादा किया है, ब्रिटेन ने 10 करोड़ का और बाकी बची खुराकें जी-7 के अन्य देश जैसे इटली, जापान, फ्रांस, जर्मनी तथा कनाडा मुहैया कराने जा रहे हैं।

‘एक अरब खुराक’ कहने-सुनने में बहुत बड़ी संख्या का मामला लगता है। लेकिन, यह मात्रा असाधारण रूप से मामूली है और शेष दुनिया की जरूरत के मुकाबले में तो बहुत ही मामूली है ही, इसके अलावा विकसित देशों ने, अपनी-अपनी आबादियों के लिए दो-दो खुराक लगाने की जरूरत से फालतू, टीकों के जो विशाल भंडार जमा कर के रख लिये हैं, उसके मुकाबले में भी यह बहुत ही मामूली है। इसीलिए, अनेक अंतर्राष्ट्रीय सिविल सोसाइटी संगठनों ने जी-7 की घोषणा को महज एक ‘पब्लिक रिलेशन्स तमाशा’ करार देकर खारिज कर दिया है।

इस समय दुनिया में कुल 6.8 अरब लोगों को टीका लगना बाकी है। इतनी आबादी के लिए दो खुराक के हिसाब से कुल 13.6 अरब खुराक टीके की जरूरत होगी। जी-7 ने 1 अरब टीका खुराकों का जो वादा किया है, इस जरूरत का मुश्किल से 7.4 फीसद बैठता है। अगर हम यह भी मान लें कि तथाकथित विकासशील देशों की टीके की कुल जरूरत 10 अरब टीके की ही होगी, तब भी जी-7 द्वारा किया गया वादा, इस मांग के 10 फीसद से ज्यादा नहीं बैठेगा।

इतना ही नहीं, विकसित पूंजीवादी देशों ने टीकों के उपलब्ध स्टॉक में से खासा बड़ा हिस्सा खरीद लिया है और टीकों का  जखीरा कर के बैठ गए हैं। वास्तव में शेष दुनिया को टीेके देने का उनका वादा, इस जखीरे के भी बहुत छोटे हिस्से के बराबर ही बैठता है। यूके की मिसाल ली जा सकती है। उसकी आबादी कुल 6 करोड़ 80 लाख है, लेकिन उसने टीके की  50 करोड़ खुराकें खरीदी हैं। यदि हम यह भी मान लें कि उसकी पूरी आबादी की टीके की जरूरत, टीके के इस जखीरे में से ही पूरी की जाने वाली है, तब भी अपनी आबादी की सारी जरूरत पूरी करने के बाद भी, उसके भंडार में टीके की 36.4 करोड़ खुराकें बाकी रह जाएंगी। वह इसमें से सिर्फ 10 करोड़ खुराकें दान करने का वादा कर रहा है यानी टीकों के इस फालतू जखीरे में से भी सिर्फ 27 फीसद। यह स्पष्ट नहीं है कि वह बाकी 73 फीसद क्यों जमा रखना चाहता है। बेशक, अगर महामारी बनी रहती है, तो टीकाकरण के और दौरों की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन, अगर हम यह भी मान लें कि मौजूद टीके ही आने वाले समय में भी इस वाइरस के खिलाफ कारगर बने रहेंगे और अगर हम यह भी मान लें कि टीकाकरण के नये दौर आवश्यक हो जाने तक, इस बीच के दौर में बनने वाले टीकों में से वह रत्तीभर टीके नहीं खरीदेगा, तब भी टीके की जो खुराकें जमा कर के रखने का उसका मंसूबा है। शेष दुनिया के लिए उसने जितने टीके दान करने का वादा किया है उसे निकालकर भी, यूके की पूरी आबादी का दो-दो बार टीकाकरण करने के लिए काफी होंगे! यही बात अमरीका तथा अन्य विकसित देशों के मामले में भी सच है।

इसके अलावा, जी-7 ने टीके की जिन खुराकों का वादा किया है, वे भी अगले वर्ष के मध्य तक फैले अर्से में ही दी जाएंगी। इसलिए, ऐसा नहीं है कि टीकों की उक्त सीमित मात्रा भी एशिया, अफ्रीका तथा लातीनी अमरीका के जनगण को हाथ के हाथ मुहैया करा दी जाएगी, जो इस समय महामारी की दूसरी लहर की बदतरीन मार झेल रहे हैं। जिन टीकों का वादा किया गया है, जब तक संबंधित देशों के लोगों तक वास्तव में पहुंचेंगे, तब तक महामारी के चलते और दसियों लाख लोग और अपनी जान गंवा चुके होंगे।

किसी को यह लग सकता है कि जी-7 का दान शेष दुनिया की जरूरतों के सामने भले ही अपेक्षाकृत थोड़ा ही हो, फिर भी यह कीमत में जरूर ठीक-ठाक बड़ा होना चाहिए। लेकिन, यह धारणा भी बिल्कुल निराधार है। टीकों की कीमत में बहुत भारी अंतर है और यह अब भी स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में कौन से टीके जी-7 द्वारा दान में दिए जाने वाले हैं। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका के टीके लिए इस कंपनी द्वारा योरपीय यूनियन ने 3 डालर प्रति खुराक लिया जा रहा है। जबकि अन्य टीकों की कीमत कहीं ज्यादा है। खबर है कि अमरीका फॉइजर के टीके की 50 करोड़ खुराकें देने जा रहा है। चूंकि उसने अपनी आबादी के लिए इससे पहले यही टीका 19.5 डालर प्रति खुराक के हिसाब से खरीदा था, हम यह माने लेते हैं कि वह दान किए जाने वाले टीकों के लिए मोटे तौर पर 20 डालर प्रति खुराक के हिसाब से खर्च कर रहा होगा। उस स्थिति में इस प्रयास में उसका कुल योगदान, मोटे तौर पर 10 अरब डालर का बैठेगा। यह अमरीका के जीडीपी के महज 0.05 फीसद के बराबर बैठता है। हम इसे कैसे ही क्यूँ न देखें, जी-7 की पेशकश दावत की थाली में से रोटी का एक टुकड़ा डाल दिए जाने से ज्यादा का मामला नहीं है।

दूसरी ओर, इस पेशकश के गिर्द जो घिसी-पिटी बातों का तूमार बांधा गया है, वह इस सच्चाई को छुपाने का ही काम करता है कि जी-7 ने इन टीकों पर पेटेंट अधिकार के अस्थायी रूप से निलंबित करने के मुद्दे पर विचार तक नहीं किया। याद रहे कि जी-7 के सदस्य देशों में से अमरीका तथा फ्रांस ने ही इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। अगर जी-7 ने पेटेंट से ऐसी छूट पर विचार किया होता और उसका अनुमोदन कर दिया होता, तो उससे टीकों के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हुई होती। वास्तव में गरीब देशों के लिए ऐसा होना ही जी-7 के एक अरब टीका खुराकों के दान की तुलना में कहीं ज्यादा उपयोगी साबित होता।

वास्तव में दूसरे देशों की तो बात ही क्या करना। ब्रिटेन तक ने टीकों पर पेटेंट अधिकार से अस्थायी रूप से छूट के लिए सहमति नहीं दी है। जबकि वह जी-7 शिखर सम्मेलन का मेजबान था और उसके प्रधानमंत्री ही सार्वभौम टीकाकरण की जरूरत को लेकर सबसे बढ़-चढक़र बोलते रहे हैं। यह तथ्य इसी सच्चाई को रेखांकित करता है कि पूंजीवादी स्वार्थों को आगे बढ़ाने तथा उनकी हिफाजत करने की पूंजीवादी सरकारों की वचनबद्घता कितनी गहरी है। और फिलहाल, पूंजीवादी स्वार्थों का तकाजा तो यही है कि दुनिया में टीके की उस तंगी को बनाए रखा जाए, जिसने मुनाफाखोरी के लिए अनुकूल हालात बना दिए हैं।

मॉडर्ना का ही मामला ले लीजिए। उसे कोविड के टीके के लिए शोध व विकास के लिए, अमरीकी सरकार से 6 अरब डालर मिले थे। इसके बदले में उसने अमरीकी सरकार को 15 डालर प्रति खुराक के हिसाब से टीका दिया है, जो एस्ट्राजेनेका द्वारा लिए जा रहे 3-4 डालर प्रति खुराक के दाम से तो कहीं महंगा है, पर फॉइजर द्वारा वसूल किए जा रहे 19.50 डालर प्रति खुराक के दाम से कहीं कम है। अब अगर सिर्फ बहस के लिए हम यह मान लें कि 15 डालर, इकाई टीके की उत्पादन लागत है, जिसमें कंपनी का एक उचित मुनाफा तो शामिल है, लेकिन सरकार ने शोध पर जो खर्चा किया है उसकी वसूली शामिल नहीं है, तो इसकी कोई वजह नहीं बनती है कि मॉडर्ना अन्य खरीददारों से 15 डालर प्रति खुराक से ज्यादा वसूल करे। आखिरकार, इसका कोई औचित्य नहीं बनता है कि अमरीकी सरकार ने उसके शोध के लिए जो खर्चा किया है, मॉडर्ना उस खर्चे के बदले में अतिरिक्त कमाई करे। लेकिन, मॉडर्ना के सीईओ, स्टीफन बेंसेल का कहना है कि ऑर्डर के आकार के हिसाब से, ‘उचित कीमत’ 25 डालर से लेकर 37 डालर के बीच बैठेगी।

इसी तरह की मुनाफाखोरी का नतीजा है कि मॉडर्ना के शेयरों की कीमत, पिछले साल के मार्च और इस साल के अप्रैल के बीच, छ: गुना बढ़ गयी है और इस कंपनी के सीईओ ने मोटे तौर पर इतने ही अर्से में 5.5 अरब डालर जमा कर लिए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि मॉडर्ना कोई अकेली कंपनी नहीं है जो टीकों की मौजूदा तंगी से अनुचित फायदा उठा रही है। दूसरी टीका कंपनियां भी इसी खेल में लगी हुई हैं और तगड़ी कमाई कर रही हैं।

ऑक्सफेम से आयी एक सादा सी गणना से इसका अंदाजा लग जाता है कि यह मुनाफाखोरी किस पैमाने की है। ऑक्सफेम का कहना है कि ‘अल्प तथा मध्यम आय वाले देशों’ की समूची आबादी का कुल 6.5 अरब डालर के खर्च में टीकाकरण किया जा सकता है, बशर्ते पेटेंट से छूट मिल जाए। दूसरी ओर, अगर पेटेंट से छूट नहीं मिलती है तो, इसका खर्चा 80 अरब डालर बैठेगा। अगर इन देशों की पूरी आबादियों का टीकाकरण होना है तो, इस 80 अरब डालर के कुल खर्चे में से 72 अरब डालर टीका उत्पादक कंपनियों की जेब में ही जा रहे होंगे। दूसरी तरह से कहें तो पेटेंट-संरक्षण युक्त कीमतों पर अपनी आबादियों का टीकाकरण करने पर ये देश जितना खर्चा करेंगे, उसका 90 फीसद से भी ज्यादा हिस्सा पेटेंटधारक कंपनियों की ही जेब में जा रहा होगा।

पूंजीवादी सरकारों की ऐसी मुनाफाखोरी की हिफाजत करने में गहरी दिलचस्पी है। जो सरकारें इन पेटेंट अधिकारों से अस्थायी रूप से छूट दिए जाने के लिए राजी भी हो गयी हैं, वे भी इस मुनाफाखोरी के अब से कुछ महीने बाद यानी विश्व व्यापार संगठन के स्तर पर इस पर सहमति हो जाने के बाद ही, बंद किए जाने के पक्ष में हैं। जो सरकारें पेटेंट से इस तरह की छूट के खिलाफ हैं, वे चाहती हैं कि यह मुनाफाखोरी बेरोक-टोक चलती रहे। लेकिन, जी-7 की बैठक में इन दोनों रुखों पर चर्चा करने का और इस पर किसी सहमति पर पहुंचने का प्रयास ही नहीं किया गया कि कितनी जल्दी इस मुनाफाखोरी को रोका जा सकता है। यहां तक कि इसकी भी कोई खबर नहीं है कि अमरीका तथा फ्रांस ने भी इसके लिए कोई विशेष प्रयास किए हों कि जी-7 के अपने अनिच्छुक संगियों को इसके लिए राजी किया जाए कि पेटेंट से अस्थायी छूट के अपने विरोध को त्याग दें।

बहरहाल, पेटेंट से यह छूट सिर्फ कीमतों को नीचे लाने के लिए ही जरूरी नहीं है। यह छूट सबसे पहले तो टीकों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए ही जरूरी है। लेकिन, उसकी दिशा में प्रगति के शायद ही कोई साक्ष्य हैं। हाल में इस मामले में सिर्फ इतना हुआ है कि 9 जून को विश्व व्यापार संगठन की एक बैठक के दौरान देशों ने ‘एक समझौता सूत्रबद्घ करने की प्रक्रिया शुरू करने’ का अनुमोदन कर दिया है और वे ‘इस चर्चा के अत्यावश्यक होने पर सहमत हुए हैं’।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

G-7 Offers Crumbs from its Table to ‘Developing’ Countries

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