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जीडीपी अनुमान : आर्थिक आंकड़ों के ज़रिये हक़ीक़त छुपाने की कोशिश

प्रतिशत में व्यक्त की गई वृद्धि भ्रामक है, ख़ासकर ऐसे समय में जब मौलिक आंकड़े महामारी के वर्षों से ही अस्थिर हैं।
GDP
Image courtesy : Business Today

सांख्यिकीय भ्रम का मौसम फिर से लौट आया है। 31 अगस्त को जारी चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के लिए राष्ट्रीय आय के पहले प्रारंभिक अनुमानों से पता चला है कि भारतीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अप्रैल-जून 2022 में पिछले वर्ष की इसी तिमाही की तुलना में 13.50 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। सकल मूल्य वर्धित या जीवीए, जो और कुछ नहीं बल्कि टैक्स और सब्सिडी रहित सकल घरेलू उत्पाद है, जिसमें वार्षिक आधार पर पहली तिमाही में 12.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

लगता है नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थकों को इसमें यह सबूत दिखाई दे रहा है ताकि वे डींग मार सके और दावा कर सकें कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। लेकिन रुकिए, इतनी जल्दी नहीं कीजिए, यह बात वे संशयवादी कहेंगे जो आर्थिक आंकड़ों की बारीकियों के लिए थोड़ा स्वस्थ सम्मान रखते हैं।

प्रतिशत में व्यक्त की गई वृद्धि भ्रामक है, विशेष रूप से उस अवधि में जब मौलिक आंकड़े अस्थिरता के कगार पर हैं, जैसा कि अभूतपूर्व महामारी के वर्षों में हुआ था। यह आंकड़ों के कारोबार में "आधार-प्रभाव" समस्या के रूप में सामने आता है। इस प्रकार, पिछली तिमाही में 13.5 प्रतिशत की वृद्धि पिछले वर्ष की इसी तिमाही में निर्धारित गति से धीमी है, जब अर्थव्यवस्था 20.1 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। महामारी के परिणामस्वरूप आर्थिक गतिविधि और उत्पादन के पतन के बाद यह स्वाभाविक था।

वास्तव में, जीडीपी में 13.5 प्रतिशत की वृद्धि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के पूर्वानुमान से कम थी। इसने भविष्यवाणी की थी कि पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था 16.2 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। जो कि तुरंत ही पूरे वर्ष के लिए केंद्रीय बैंक के विकास अनुमानों पर सवाल खड़ा करता है। आरबीआई ने अनुमान लगाया था कि 2022-23 में अर्थव्यवस्था 7.2 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी; नवीनतम जीडीपी संख्या अब दिखाती है कि इस अनुमान के पिछड़ने की की संभावना है, जिसका अर्थ है कि पूरे वर्ष में विकास दर 7 प्रतिशत से कम रहने की संभावना है।

जैसा कि यहां और अन्य जगहों पर बार-बार बताया गया है, प्रतिशत में व्यक्त विकास दर की बात हमें "रिकवरी" की वास्तविक सीमा तक अंधा कर देती है, खासकर तब जब इसे  महामारी के परिणामस्वरूप आर्थिक उत्पादन में गिरावट के विशिष्ट संदर्भ याद किया जाता है। वास्तव में, आर्थिक मंदी महामारी से पहले की है, अगर केवल मीडिया पंडित उन्हीं आधिकारिक आंकड़ों का दौरा करने की परवाह करेंगे जिन्हें अब सबूत के रूप में उद्धृत किया जा रहा है कि एक रिकवरी चल रही है तो यह हक़ीक़त से दूर की बात होगी।

ऐतिहासिक संदर्भ में डेटा

सबसे पहले, आइए हम 2014 के बाद से मोदी शासन के कार्यकाल के दौरान कुछ ऐतिहासिक संदर्भों में नवीनतम डेटा पर नज़र डालते हैं। 2014-15 की पहली तिमाही (जब मोदी ने पहली बार पदभार ग्रहण किया था) और 2018-19 की पहली तिमाही के बीच (आपको याद है, महामारी से बहुत पहले), भारतीय जीडीपी 7.58 प्रतिशत प्रति वर्ष की औसत दर से बढ़ी थी। इसकी तुलना में, सकल घरेलू उत्पाद की औसत वार्षिक वृद्धि दर इस दर से आधे से अधिक गिर गई थी – यानि 3.68 प्रतिशत प्रति वर्ष – जो 2019-20 और 2022-23 की पहली तिमाही के बीच के आंकड़े हैं। नवीनतम त्रैमासिक संख्याएं इस संदर्भ में जताई जानी चाहिए, एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो न केवल धीमी हो रही है बल्कि अब मुद्रास्फीति के दबावों से भी प्रभावित भी है।

दूसरा, पहले बताए गए कारणों के लिए, प्रतिशत से जुड़ी समस्याओं और 'आधार प्रभाव की समस्या' के बारे में, उत्पादन के वास्तविक स्तरों को देखना और फिर रिकवरी के दावों का मूल्यांकन करने के लिए उन्हें बेंचमार्क के रूप में इस्तेमाल करना अधिक बेहतर होगा। .

बुधवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जीवीए 4.42 लाख करोड़ रुपए रहने का अनुमान है; इसी अवधि में जीडीपी 36.85 लाख करोड़ रुपए है। इन आंकड़ों का अर्थ है कि जीवीए में पिछले वर्ष की तुलना में 12.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में वार्षिक आधार पर 13.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

लेकिन जब तर्क और संदर्भ को ध्यान में रखा जाता है तो स्पष्ट रूप से गुलाबी तस्वीर जल्दी से फीकी पड़ जाती है। इससे यह पता चलता है कि चालू वर्ष की पहली तिमाही में वास्तविक शब्दों (स्थिर कीमतों) में व्यक्त किया गया जीवीए तीन साल पहले की समान तिमाही में प्रचलित स्तर से सिर्फ 4.65 प्रतिशत अधिक था, जो भारत में महामारी के सबसे बुरे दौर से पहले था। इसे परिप्रेक्ष को रखने से तात्पर्य यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में जीवीए तीन साल की अवधि में 1.55 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ी है।

जीडीपी के आंकड़ों के संदर्भ में इसी तरह की एक कवायद मोदी शासन को और भी खराब रोशनी में दिखाती है। देखा जाए तो समग्र वृद्धि केवल 3.8 प्रतिशत की थी; यानि वार्षिक रूप से अर्थव्यवस्था मुश्किल से आगे बढ़ी है, यानि प्रति वर्ष लगभग 1.28 प्रतिशत की वृद्धि है। इसे रिकवरी का प्रमाण कहना हास्यास्पद है, भले ही मामला लाखों लोगों की आजीविका के भाग्य से कहीं अधिक गंभीर हो।

खपत और निवेश का पतन

खपत का स्तर फिर से कैसे बढ़ रहा है, इस बारे में बहुत शोर किया जा रहा है। यहाँ इस शोर का, फिर से तथ्यों, संदर्भ या तर्क से कोई लेना-देना नहीं है। यह हक़ीक़त है कि सकल घरेलू उत्पाद में निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) का हिस्सा - जो सामान्य रूप से सकल घरेलू उत्पाद का लगभग आधा है - पहली तिमाही में बढ़कर 59.9 प्रतिशत हो गया है। एक साल पहले पीएफसीई की हिस्सेदारी महज 54 फीसदी थी। लेकिन यह जश्न मनाने का कोई कारण नहीं है। जैसा कि सर्वविदित है, पीएफसीई महामारी में ढह गई थी और इसकी रिकवरी को जैसे दौरा पड़ गया था और शुरू ही हुई थी। थोड़ा सा ऐतिहासिक संदर्भ उस उत्साह को थोड़ा चोट पहुंचाएगा जिसने इन नंबरों का स्वागत किया है।

चालू वर्ष की पहली तिमाही में पीएफसीई की राशि 22.08 लाख करोड़ थी, जबकि 2019-20 की समान तिमाही में यह 20.09 लाख करोड़ रुपये थी। इसका अर्थ यह है कि यह 3.30 प्रतिशत  की वार्षिक वृद्धि दर बैठती है। आइए अब इसे संदर्भ में रखते हैं। महामारी से पहले के तीन वर्षों में, 2017-18 और 2019-20 के बीच, जब अर्थव्यवस्था पहले से ही धीमी हो रही थी, पीएफसीई  में 7.37 प्रतिशत प्रति वर्ष की वार्षिक दर से वृद्धि हुई है। केवल एक पक्का भक्त ही राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में खपत के आधा होने का जश्न मना सकता है!

इन आंकड़ों से संकेत मिलता है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को चलाने वाली खपत की अगुवाई वाली मोटर अभी काम नहीं कर रही है। बेशक, यह इस तथ्य के साथ अच्छी तरह से बैठता है कि मोदी शासन ने, दुनिया में अधिकांश अन्य देशों के विपरीत, अर्थव्यवस्था को एक प्रोत्साहन देने से इनकार कर दिया था, जो खोई हुई आजीविका और आय का समर्थन करता, जो कि खपत की रिकवरी एक बड़ी शर्त है।

जटिल मामलों में, सरकारी अंतिम खपत व्यय, जिसमें मांग में गिरावट को बढ़ावा देने की क्षमता है, ने भी पहली तिमाही में धीमी वृद्धि दर्ज की थी। वास्तव में, निरपेक्ष रूप से, यह दो साल पहले के स्तर से कम था।

सरकार में आशावादी लोगों के साथ-साथ इसके बाहर के समर्थकों ने भी खुशी-खुशी सकल स्थायी पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) में 20 प्रतिशत की वृद्धि की ओर इशारा किया है, जो इस बात का प्रमाण है कि निजी निवेश आखिरकार बढ़ रहा है। यहां भी इस किस्म का उत्साह, संदर्भ और सांख्यिकीय बारीकियों और सामान्य सामान्य ज्ञान के सम्मान को अंधा कर देता है। तथ्य यह है कि जीएफसीएफ की राशि 2022-23 की पहली तिमाही में 12.78 लाख करोड़ रुपए थी, जो 6.77 प्रतिशत थी पौर जीएफसीएफ के पहले तीन साल से अधिक थी।

महामारी के दौरान निवेश के पतन के बाद, यह संभावना है कि "ताजा" निवेश मुख्य रूप से पिछले तीन वर्षों में रोके गए औद्योगिक निवेशों की संभावित बहाली है। महंगाई के बढ़ते दबाव के साथ-साथ खपत के मोर्चे पर सुस्त प्रदर्शन के साथ-साथ सरकारी और निजी क्षेत्र में नए निवेश रुकने की संभावना है। इसके अलावा, ब्याज दर के मोर्चे पर अनिश्चितता से औद्योगिक निवेश में बाधा आने की संभावना है।

ढीली होती आर्थिक गतिविधियां 

आर्थिक प्रदर्शन, क्षेत्रवार विभाजन का विश्लेषण करने से एक निराशाजनक तस्वीर प्रस्तुत करता है। तीन प्रमुख क्षेत्र - विनिर्माण, निर्माण और व्यापार (जिसमें होटल, परिवहन और संचार शामिल हैं) – जो सभी कार्यबल के एक महत्वपूर्ण अनुपात को रोजगार देते हैं और रोजगार के प्रमुख स्रोत हैं, में अभी भी खराब प्रदर्शन जारी है। आर्थिक गतिविधि के ये तीन क्षेत्र, जिनका कुल जीवीए का 41 प्रतिशत हिस्सा है, अभी भी मंदी की चपेट में हैं।

विनिर्माण से निकलने वाला जीवीए चालू वर्ष की पहली तिमाही में 6.05 लाख करोड़ रहा है, जो पिछले वर्ष की तुलना में केवल 4.8 प्रतिशत की वृद्धि दिखाता है। लेकिन यह भी वास्तविक स्थिति का एक धर्मार्थ दृष्टिकोण देता है; वास्तविकता यह है कि पिछले तीन वर्षों में विनिर्माण क्षेत्र में जीवीए केवल 2.3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ा है।

व्यापार और संबंधित सेवाओं से निकलने वाला जीवीए, जो रोजगार का मुख्य स्रोत है (और जो प्रच्छन्न बेरोजगारी में लाखों लोगों की शरणस्थली भी है) और जो आजीविका के लिए महत्वपूर्ण है, भले ही मजदूरी कम हो और रोजगार की शर्तें असुरक्षित हों। यह सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले सेक्टर रहा है जिसका 2022-23 की पहली तिमाही में जीवीए मात्र 5.6 लाख करोड़ रहा है, जो आश्चर्यजनक रूप से, वास्तव में तीन साल पहले इस क्षेत्र द्वारा दर्ज़ जीवीए से कम था। वास्तव में, इस क्षेत्र में जीवीए 2019-20 की तुलना में 2022-23 में 15.41 फीसदी कम था।

निर्माण में आर्थिक गतिविधि, जो पिछले दशक में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में रोजगार का प्राथमिक स्रोत रहा है, और जो देश के पिछड़े क्षेत्रों के प्रवासी श्रमिकों के रोजगार का एक प्रमुख स्रोत है, व्यावहारिक रूप से एक ठहराव पर है। जब इसे ऐतिहासिक संदर्भ में रखा जाता है तो यह तस्वीर उभरती है। इस क्षेत्र से निकलने वाला जीवीए चालू वर्ष की पहली तिमाही में 2.63 लाख करोड़ रुपए था और 2019-20 में यह 2.60 लाख करोड़ था। 

इस बीच, जबकि समग्र सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में निर्यात स्थिर रहा है, पिछले वर्ष आयात का हिस्सा बढ़ा है। आयात, जो पिछले वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद का 25.7 प्रतिशत था, 2022-23 की पहली तिमाही में बढ़कर 31 प्रतिशत हो गया था। यह पुष्टि करता है कि अर्थव्यवस्था की मंदी से उत्पन्न होने वाली समस्याएं भुगतान संतुलन और विदेशी मुद्रा के मोर्चों पर बढ़ते दबाव से जटिल हो गई हैं, जो मोदी शासन के नीतिगत विकल्पों को और बाधित करती हैं।

मोदी सरकार की खुद ही तेजी से घटती डिग्री, निश्चित रूप से उनकी अपनी बनाई हुई है। जिसने किसी भी तरह की उन नीतियों को लागू करने से दृढ़ता से इनकार कर दिया, जो एक तरफ सार्वजनिक खर्च को बढ़ावा दे सकती थी, जो आर्थिक गतिविधि और आय उत्पन्न कर सकती थी, और दूसरी तरफ, अच्छी तरह से संपदा-संपन्न लोगों से संसाधन जुटा सकती थी,  खासकर उनसे जिन्होंने महामारी में अपनी आय में वृद्धि की है, अब केवल उन लोगों पर और अधिक दुखों का ढेर बढ़ने की संभावना है, जिन्होंने पहले से ही सबसे अधिक दुख सहे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

GDP Estimates — Smoke And Mirrors With Economic Statistics

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