मुद्दा: ‘जीडीपी राष्ट्रवाद’ से फ़ासीवादी राष्ट्रवाद तक

उदारवादी अभिमत अपरिहार्य रूप से ‘राष्ट्रवाद’ के खिलाफ रहता है। वह ‘राष्ट्रवाद’ को एक एकसार संज्ञा की तरह देखता है, जिसमें अनिवार्य रूप से अन्य देशों के प्रति एक गैर-मैत्रीपूर्ण, गैर-लेनदेनकारी और प्रतिस्पर्धात्मक रुख निहित होता है। बहरहाल, यह नजरिया पूरी तरह से गलत है। तीसरी दुनिया का उपनिवेशविरोधी राष्ट्रवाद, उस राष्ट्रवाद से पूरी तरह से भिन्न होता है जो वैस्टफेलियन संधियों के बाद, सातवीं सदी के यूरोप में पनपा था। यह अंतर सबसे निर्भ्रांत रूप से एक ओर हिटलर के राष्ट्रवाद, जो यूरोपीय राष्ट्रवाद से निकला था और दूसरी ओर हो ची मिन्ह के राष्ट्रवाद के बीच, जोकि उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद का उदाहरण है, के बीच के अंतर में देखा जा सकता है।
यूरोपीय राष्ट्रवाद बनाम उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद
सातवीं सदी में पनपे यूरोपीय राष्ट्रवाद और बीसवीं सदी के तीसरी दुनिया के उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद के बीच, कम से कम तीन बुनियादी भिन्नताएं हैं।
पहली, यूरोपीय राष्ट्रवाद सामान्य रूप से राष्ट्र के अंदर एक ‘भीतरी दुश्मन’ की पहचान करता था, जैसे उत्तरी यूरोप में कैथोलिक, दक्षिणी यूरोप में प्रोटेस्टेंट और यहूदी, हर जगह। इसके विपरीत, तीसरी दुनिया का राष्ट्रवाद समावेशी था, वास्तव में उसे औपनिवेशिक आकाओं की विकराल ताकत का सामना करने के लिए समावेशी होना ही था। दूसरे, यूरोपीय राष्ट्रवाद, राष्ट्र को जनता के ऊपर रखता था, एक ऐसी सत्ता बनाकर रखता था, जिसके लिए लोगों को कुर्बानियां देने की जरूरत थी। इसके विपरीत, तीसरी दुनिया का राष्ट्रवाद, राष्ट्र का समूचा तर्क ही उस जनगण की सेवा में निहित मानता था, जिसे उपनिवेशवाद के दौर ने उत्पीड़ित किया था।
तीसरे, यूरोपीय राष्ट्रवाद अपनी शुरूआत से ही साम्राज्यवादी था। वैस्टफेलियन शांति संधियों के चंद महीने बाद ही ऑलीवर क्रोमवैल द्वारा आइरलैंड के जीते जाने से, सभी यूरोपीय शक्तियों द्वारा अपनायी गयी एक परियोजना की शुरूआत हुई थी। यह ऐसी परियोजना थी जो ‘राष्ट्रवाद’ की उसी खास अवधारणा से जीवनरस हासिल करती थी।
इसके विपरीत, तीसरी दुनिया का उपनिवेशविरोधी राष्ट्रवाद, क्षेत्रीय सीमाओं से बंधे होने के बावजूद, साम्राज्यवादी नहीं था। उल्टे वह तो तीसरी दुनिया के अन्य देशों के साथ, जो इसी प्रकार के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों में लगे हुए थे, भाईचारे के रिश्ते विकसित करना चाहता था।
संक्षेप में यह कि यूरोपीय राष्ट्रवाद की पहचान, ‘राष्ट्र’ नाम की एक अमूर्त आदर्शीकृत अभौतिक सत्ता पर देवत्व-आरोपण से होती है, जो सत्ता लोगों से ऊपर होती है, जबकि तीसरी दुनिया का राष्ट्रवाद सारत: गैर-अभौतिक था। यह वह चीज थी जिसे मार्क्स ने ‘इह-पक्षीय’ कहा होता और जिसे अपनी जनता के कल्याण की चिंता थी।
उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद को नवउदारवाद ने त्याग दिया
उत्तर-औपनिवेशिक राज्य ने, उसकी दूसरी चाहे जो भी विफलताएं रही हों, उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवाद की अवधारणा के प्रति अपनी वचनबद्धता को दोहराया था। मिसाल के तौर पर भारतीय संविधान की बुनियादी विशेषताएं, जिन्हें उसकी उद्देश्यिका में शब्दबद्ध किया गया है, राष्ट्रवाद की इसी अवधारणा पर आधारित थीं। जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद, सभी एक राष्ट्र की इस अवधारणा के प्रति उनिवेशविरोधी संघर्ष की वचनबद्धता में समाए हुए थे। और इसी प्रकार, लाइसेंसिंग प्रणाली के जरिए निजी क्षेत्र पर नियंत्रण रखने की कोशिश; मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढांचे में सार्वजनिक क्षेत्र को दिया जा रहा महत्व; और समतावाद के प्रति आम वचनबद्धता; हालांकि इनमें से किसी को भी अनिवार्य रूप से एक समाजवादी परियोजना का आगे बढ़ाया जाना नहीं कहा जा सकता था, ये सभी समाजवाद के नारे से निकले थे।
दूसरे शब्दों में भारतीय नियंत्रणात्मक व्यवस्था, समाजवाद के प्रति घोषित वचनबद्धता पर आधारित थी और यह वचनबद्धता आवयविक रूप से उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवाद की अवधारणा से जुड़ी हुई थी।
बहरहाल, नवउदारवादी निजाम के आने के साथ, भारतीय राज्य द्वारा घोषित किए जा रहे राष्ट्रवाद की अवधारणा में एक निर्णायक बदलाव आ चुका है। नव-उदारवाद के लाए जाने के पक्ष में, जिसे कि ‘राष्ट्र’ के हित में बताया जा रहा था, तर्क यह था कि इससे सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी में कहीं तेजी से बढ़ोतरी होगी और इसके लाभ ‘रिस-रिसकर’ सभी तक पहुंच जाएंगे और इससे भारत एक बड़ी ताकत भी बन जाएगा। इस तथ्य से कभी इंकार ही नहीं किया गया था कि नवउदारवादी निजाम से आर्थिक असमानता बढ़ती है। वास्तव में इससे उल्टी बात का दावा तो कभी भी, नवउदारवाद के सबसे पक्के पैरोकारों ने भी नहीं किया था।
संक्षेप में यह कि नवउदारवाद की हिमायत कोई इस आधार पर नहीं की जा रही थी यह स्वतंत्रता के संघर्ष में राष्ट्र की जैसी कल्पना की गयी थी, उसका निर्माण करने का बेहतर तरीका था। उसकी हिमायत तो इस आधार पर की जा रही थी कि इससे भारतीय राष्ट्र, एक बड़ी ताकत बन जाएगा। इस तरह राष्ट्र की अवधारणा में बदलाव आ गया था। जहां पहले यह अवधारणा एक ऐसी साम्राज्यवाद-विरोधी सत्ता की थी, जो समतापूर्ण तरीके से जनता की सेवा करती हो, अब उसकी संकल्पना एक ऐसी सत्ता की थी, जो एक बड़ी ताकत बनने के लिए दूसरे देशों के साथ दौड़ में लगी हुई थी।
राष्ट्र की अवधारणा बदल गयी
इस बदलाव में अंतर्निहित था, एक राष्ट्र की अवधारणा की ‘इह-पक्षीयता’ का परित्याग, उसकी एक ऐसी वास्तविक तथा ठोस सत्ता के रूप में, जो जनता की जीवन स्थितियों से बावस्ता हो, संकल्पना का त्याग और उसकी जगह पर एक बड़ी ताकत की एक अमूर्त, अभौतिक सत्ता का बैठाया जाना, जो जनता से ऊपर होगी और जिसके लिए जनता से बलिदान देने की अपेक्षा होगी। राष्ट्र की यह बदली हुई अवधारणा, राष्ट्र की यूरोपीय अवधारणा की याद दिलाती है, हालांकि जैसा कि हम आगे देखेंगे, वे दोनों समान भी नहीं हैं।
संक्षेप में नवउदारवाद से और ज्यादा हद वह हासिल करने की अपेक्षा नहीं थी, जो नियंत्रणकारी व्यवस्था हासिल करने चली थी। इस तरह के एक निजाम से दूसरे निजाम तक बदलाव में, खुद अभीष्ट को ही बदल दिया गया था और इसके साथ ही राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद की अवधारणा को ही बदल दिया गया।
हम इस बदलाव को, साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद की जगह, ‘‘जीडीपी राष्ट्रवाद’’ का लाया जाना कह सकते हैं। बेशक, इस तरह का ‘‘जीडीपी राष्ट्रवाद’’ अपने आप में साम्राज्यवादी नहीं होता है, जैसे कि यूरोपीय राष्ट्रवाद रहा है। हां! यह राष्ट्र को अन्य राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा होड़ में लगी हुई सत्ता के रूप में जरूर देखता है। न ही ‘‘जीडीपी राष्ट्रवाद’’ अनिवार्य रूप से ‘अंदरूनी दुश्मन’ की दुहाई का सहारा लेता है, जैसा कि सातवीं सदी के यूरोपीय राष्ट्रवाद ने किया था। ‘‘जीडीपी राष्ट्रवाद’’ के अनुयायी अनिवार्यत: ऐसे लोग नहीं होते हैं जो धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर समझौता करने वाले हों। फिर भी ‘‘जीडीपी’’ राष्ट्रवाद, चूंकि राष्ट्र की अभौतिक संकल्पना को वापस ले आता है, यह राष्ट्रवाद की फासीवादी धारणाओं के लिए एक पुल का काम करता है।
नवउदारवादी निजाम: संकट और प्रतिक्रिया
ऐसा दो कारणों से होता है। पहला, जैसा कि हम देख आए हैं,‘‘जीडीपी राष्ट्रवाद’’ एक ऐसे समानतापूर्ण समाज की ओर, जिसकी पहचान बराबर के नागरिक अधिकारों तथा बढ़ती माली बराबरी से भी होती है, बढऩे के काम्य को ही नकारता है। वह इस काम्य की जगह पर एक असमानतापूर्ण समाज को लाता है, जिसकी असमानताएं किसी ‘उच्चतर’ पराभौतिक लक्ष्य को हासिल करा रही बतायी जाती हैं, जैसे एक बड़ी ताकत का दर्जा।
दूसरे, जब नवउदारवादी निजाम संकट में फंस जाता है, जब लाभ के ‘रिसकर नीचे पहुंचने’ तक की उम्मीदें धुंधली हो जाती हैं और भौतिक वंचितता की सचाई लोगों की लगातार बढ़ती संख्या को घेर लेती है, उन्मुक्त होती हुई असमानतापूर्ण व्यवस्था के खिलाफ असंतोष बढ़ जाता है। बड़ी ताकत का दर्जा हासिल होना, अब इस तरह के असंतोष की काट करने के लिए काफी नहीं रहता है। ऐसे हालात में ही देश की बड़ी पूंजी, जोकि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के साथ एकीकृत हो चुकी होती है तथा नवउदारवादी व्यवस्था को थामे होती है, फासीवादी तत्वों के साथ गठजोड़ कर लेती है, ताकि एक नयी पराभौतिकी रच सके, एक हिंदू राष्ट्र की पराभौतिकी, जोकि एक फासीवादी राज्य का आवरण है।
यह नयी पराभौतिकी, पुरानी पराभौतिकी को प्रतिस्थापित नहीं करती है बल्कि उसकी पूरक बन जाती है। यहीं आकर जीडीपी राष्ट्रवाद, जिसे नवउदारवादी निजाम के लिए विचारधारात्मक आवरण मुहैया कराना था, फासीवादी ‘राष्ट्रवाद’ में जाकर जम जाता है।
जीडीपी राष्ट्रवाद से फ़ासीवादी राष्ट्रवाद तक
यही है जो हम भारत में होते हुए देख रहे हैं। जहां शुरूआत में नवउदारवाद को लाने का काम ऐसे राजनीतिक तत्वों द्वारा किया गया था जो धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं थे बल्कि जो इस नये निजाम को जीडीपी की वृद्धि को तेज करने और भारत को एक बड़ी ताकत बनाने के नाम पर उचित ठहराते थे। यहां तक कि एक कांग्रेस नेता ने तो यह तक कहा था कि भ्रष्टाचार से इसीलिए बचा जाना चाहिए कि क्योंकि यह भारत को एक बड़ी ताकत बनने से रोकता है!
बहरहाल, जब नवउदारवाद बंद गली में पहुंच गया, उसने देश को समावेशी उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवाद के विचार से और परे धकेल दिया। इसने न सिर्फ बड़ी पूंजी तथा फासीवादी तत्वों के बीच गठबंधन करा दिया बल्कि फासीवादी तत्वों को, उनके फासीवादी ‘राष्ट्रवाद’ के साथ सत्ता में भी पहुंचा दिया।
इस तरह, जहां नवउदारवाद, फासीवादी तत्वों के हावी होने के लिए भौतिक परिस्थितियां तैयार करता है, नवउदारवाद के लाए जाने के पीछे काम कर रही विचारधारा, जीडीपी राष्ट्रवाद की विचारधारा, साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवाद को कमजोर करने के जरिए, फासीवादी ‘राष्ट्रवाद’ के उभार का आधार तैयार करती है।
इसलिए, फासीवादी तत्वों के वर्चस्व से उबरने के लिए न सिर्फ नवउदारवाद को लांघना जरूरी है (वर्ना फासीवादी तत्व, सत्ता से बाहर कर दिए जाने के बाद भी, कभी भी दोबारा सत्ता में आ सकते हैं, जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में कर दिया है), बल्कि साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करना भी जरूरी है।
इस मुकाम पर इस पर जोर देने की एक वजह है। पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, जिनका पिछले ही दिनों निधन हो गया, दिल और दिमाग की बेहतरीन खूबियों से संपन्न थे और एक पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे। लेकिन, देश में नवउदारवादी ‘सुधार’ लाने के लिए भी बहुत हद तक वही जिम्मेदार थे। इस समय, नवउदारवादी निजाम के पैरोकारों में इसकी एक स्पष्ट प्रवृत्ति देखी जा सकती है कि डा. सिंह के असाधारण निजी गुणों का सहारा लेकर, इस निजाम को स्वीकार्यता प्रदान करने की कोशिश की जाए। यही नहीं, इस प्रवृत्ति को कुछ कामयाबी भी मिल सकती है क्योंकि नवउदारवाद और फासीवादी तत्वों के राजनीतिक उभार के बीच के रिश्ते को, आम तौर पर पहचाना नहीं जाता है। इन तत्वों के उभार को, आर्थिक संदर्भ से काटकर, पूरी तरह से राजनीतिक कारकों का ही नतीजा मान लिया जाता है। लेकिन, यह एक भ्रांतिपूर्ण समझ है, जिसे अगर दुरुस्त नहीं किया गया तो, फासीवादी तत्वों के वर्चस्व को बनाए रखने का ही काम करेगी।
(प्रभात पटनायक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें--
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