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बार-बार, तरह-तरह से मारा जा रहा है गांधी को : प्रो. सुधीर चंद्र

“गांधी की हत्या हुए 72 साल हो गए और मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या को 52 साल। क्या यह सिर्फ़ इत्तेफ़ाक था कि अहिंसा के दोनों ही पुजारियों का ख़ात्मा हिंसक हुआ?” प्रो. सुधीर चंद्र से प्रदीप सिंह की विशेष बातचीत
गांधी

प्रो. सुधीर चंद्र प्रसिद्ध इतिहासकार एवं “ गांधी : एक असंभव संभावना”  नामक चर्चित पुस्तक के लेखक हैं। पेश है उनसे प्रदीप सिंह की बातचीत के संपादित अंश:

प्रश्न-1- पिछले महीने अमेरिकी संसद की प्रतिनिधि सभा ने एक कानून पारित किया है जिसमें महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर के कार्यों एवं उनके विचारों के अध्ययन के लिए द्विपक्षीय कार्यक्रमों को बढ़ावा देने की बात की गयी है। इसे आप किस रूप में देखते हैं?

सुधीर चन्द्र : ‘अच्छा है ऐसी कोई पहल इतने ऊँचे स्तर पर की गयी है। अमेरिका और हिंदुस्तान संसार के दो विशालतम जनतंत्र हैं। दोनों ही देशों में अगर कुछ कारगर योजनाएँ चल निकलती हैं तो ज़रूर ही न केवल अमेरिकियों और भारतीयों का बल्कि सारे संसार का कुछ हित ही होगा।’

पर होगा क्या? होगा भी कुछ ? करेगा कौन ? इस अमेरिकी योजना में सरकारों की भूमिका काफ़ी निर्णायक होगी। मेरे लिए वह एक कारण काफ़ी है योजना से कोई उम्मीद न करने का।

प्रश्न-2- गांधी के भारत और मार्टिन लूथर के अमेरिका में आज कमोबेश वही माहौल है, जिस माहौल को बदलने के लिए उक्त दोनों महापुरुषों ने बलिदान दिया था। क्या उनके कुछ विचारों को पाठ्यक्रमों में शामिल करने या कुछ कार्यक्रम करने से स्थिति में परिवर्तन हो सकता है?  

सुधीर चन्द्र : गांधी की हत्या हुए 72 साल हो गए, और मार्टिन  लूथर  किंग  जूनियर की हत्या को 52 साल। क्या यह सिर्फ़ इत्तेफ़ाक था कि अहिंसा के दोनों ही पुजारियों का ख़ात्मा हिंसक हुआ? इन 72 सालों में गांधी और 52 सालों में मार्टिन लूथर किंग जूनियर का नाम कितना भी लिया जाता रहा हो, हिंदुस्तान और अमेरिका समेत सारी दुनिया उनके सिद्धांतों से निरंतर दूर होती गई है। क्या यह भी इत्तेफ़ाक है? वॉल स्ट्रीट पर लोगों का निकल पड़ना और सिरे से बेअसर रह जाना, ब्लैक लाइव्ज़ मैटर जैसे उफान के बाद भी व्यवस्था की निर्दयता का यथावत रहना, या 6 जनवरी की करतूत अमेरिकी जीवन के बहाव की जो दिशा बताते हैं उसमें मार्टिन लूथर किंग जूनियर दिखायी तो देते हैं, पर खासे कमज़ोर।

हिंदुस्तान की सच्चाई तो और भी निराशाजनक है। बस हम मानने को तैयार नहीं हैं कि हम गांधी से बहुत दूर आ गए हैं। गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसे इतिहास पुरुषों की हत्या किसी व्यक्ति की हत्या नहीं होती, और न ही उनका हत्यारा कोई एक व्यक्ति होता है। उनकी हत्या होती है उनके विचारों और आदर्शों के ठुकराये जाने पर। किसी युग-पुरुष का होना उसके पार्थिव अस्तित्व से नहीं होता,  उस के विचारों और आदर्शों में लोगों के विश्वास से, और उन विचारों और आदर्शों को व्यवहार में उतारे जाने से होता है।

प्रश्न-3- गांधी अपने अंतिम दिनों में बहुत दुखी थे, क्या वे नेहरू और पटेल से भी नाराज़ थे?

सुधीर चंद्र: हमारे आचरण से गांधी अपने अंत समय में कितने दुखी हो गए थे, इससे हम मुँह चुराये रहते हैं। कर लिया सामना तो अपना सामना नहीं कर पाएँगे। गांधी अपनी ज़िंदगी के लगभग आख़ीर तक इच्छा करते रहे 125 साल तक जीते रह कर सेवा करने की, और मानते रहे कि वैसा ही होगा। लेकिन जब आज़ादी का आना निश्चित हो गया और उसके हासिल होने से पहले ही पूत के पाँव पालने में दिखायी पड़ने लगे तो गांधी टूट गए। आज़ादी से चंद हफ़्ते पहले ही वह 125 साल तक जीने की इच्छा खो बैठे। इच्छा करने लगे जल्द ऊपर उठा लिए जाने की।

हमने कर दी उन की इच्छा पूरी। दोषी ठहराते रहते हैं नाथूराम को। अमेरिकी भी अपने को भुलावा दिए हुए हैं कि एक व्यक्ति-जेम्स अर्ल रे- ने हत्या की थी मार्टिन लूथर किंग जूनियर की।

गोडसे की गोलियाँ चल सकें उस से पहले ही अगर गांधी ऊपर उठा लिए जाने की प्रार्थना करने लगे तो उन का अंत तो 30 जनवरी से पहले ही हो चुका था। अंत के उन दिनों में गांधी बार-बार अपने दुखों की गाथा कहने लगे थे। वह जानते थे कि उन के दुःख केवल उन के दुःख नहीं हैं, देश के दुःख हैं, मानव मात्र के दुःख हैं। यह बात दीगर है कि देश और दुनिया को नहीं लगा कि गांधी के दुःख उनके दुःख हैं।  

आगे बढ़ने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि गांधी कितने भी अकेले क्यों न पड़ गए हों, सालों उन के साथ और उन के नेतृत्व में रहने वाले भी उन की नीतियों को क्यों न ठुकरा चुके हों- मसलन नेहरु और पटेल-गांधी किसी के प्रति कटु नहीं हुए, सब लोगों से पहले जैसे ही मधुर सम्बंध बनाए रखे।

प्रश्न-4- देश विभाजन से गांधी दुखी थे। बंटवारे के बाद उपजी त्रासदी में ऐसा होना स्वाभाविक था। गांधी के दुखी और नाराज़ होने के और क्या कारण थे?

सुधीर चंद्र : गांधी के दुख का कारण था- स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अमल में लायी गई अहिंसा का परित्याग; देश का विभाजन और उसके फलस्वरूप फूट पड़ी अमानवीय साम्प्रदायिक हिंसा; सत्ता पूरी तरह से हाथ में आयी भी नहीं और उस के दुरुपयोग का प्रारंभ; हिंद स्वराज के विकल्प को नकार कर उसी आधुनिक औद्योगिक प्रणाली के अनुसार चलने का फ़ैसला जिस प्रणाली को गांधी ने शैतानी सभ्यता घोषित कर मानव के लिए आत्मघाती बताया था।

प्रश्न-5- आपने एक स्थान पर लिखा है “एक छोटी-सी, पर बड़े मार्के की, बात भी हम भूले ही रहे हैं। वह यह कि पूरे 32 साल तक गांधी अँगरेज़ी राज के ख़िलाफ़ लड़ते रहे, पर अपने ही आज़ाद देश में वह केवल साढ़े पाँच महीने 169 दिन ज़िंदा रह पाए।” क्या आजाद भारत में गांधी की लड़ाई अपने ही लोगों से छिड़ गयी थी?

सुधीर चंद्र: गांधी जी ने कहा था कि आज तो मेरी जन्मतिथि है।… मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक ज़िंदा पड़ा हूँ, इस पर मुझको ख़ुद आश्चर्य होता है, शर्म लगती है। मैं वही शख़्स हूँ कि जिसकी ज़बान से एक चीज निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों उसको मानते थे। पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है। मैं कहूँ कि तुम ऐसा करो, ‘नहीं, ऐसा नहीं करेंगे’ ऐसा कहते हैं।... ऐसी हालत में हिंदुस्तान में मेरे लिए जगह कहाँ है और उस में जिंदा रह कर मैं क्या करूँगा? आज मेरे से 125 वर्ष की बात छूट गई है। 100 वर्ष की भी छूट गई है और 90 वर्ष की भी। आज मैं 79 वर्ष में तो पहुँच जाता हूँ, लेकिन वह भी मुझ को चुभता है।

और यह भी सोचना चाहिए कि क्यों हम भूले रहते हैं कि गांधी के जिंदा रहते आज़ाद हिंदुस्तान में यह उन का पहला और आख़िरी जनमदिन था। ऐसा तो नहीं कि हम इस तथ्य का सामना ही नहीं करना चाहते कि गांधी जिस बलशाली विदेशी हुकूमत के ख़िलाफ़ लड़ते रहे उस ने उन्हें 32 साल तक सुरक्षित रखा, किंतु आज़ाद हिंदुस्तान उन्हें सिर्फ़ 169 दिन जीवित रख सका?

प्रश्न-6- आप कहते है कि हम साल-दर-साल दो बार गांधी को रस्मी तौर पर याद कर बाक़ी वक़्त उन्हें भुलाये रखने के आदी हो गए हैं। उनके साथ हमारा विच्छेद कितना गहरा और पुराना है, इसकी सुध तक हमें नहीं है। क्या आज के समय में गांधी के विचारों पर अमल किया सकता है?

सुधीर चंद्र : मैं जानता हूँ कि गांधी पर कुछ कहने का यह मौक़ा मुझे 30 जनवरी के कारण दिया गया है। इस मौक़े पर ज़ोर दे कर मैं कहना चाहता हूँ कि गांधी को हर साल दो बार एक घिसेपिटे अनुष्ठान के तौर पर याद करना फ़िज़ूल है। ज़रूरत गांधी के किए-कहे को समझने की और उससे जूझने की है, उन्हें रस्मन याद करने की नहीं।

एक मिसाल देना चाहूँगा। दिल्ली में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा फैली हुई थी। गांधी शहर में शांति बहाल करने में जुटे हुए थे। थोड़े ही दिन पहले वह हिंसा-ग्रस्त कलकत्ता में अकेले अपने दम पर शांति स्थापित करवा चुके थे। गांधी जिसकी कल्पना नहीं कर सकते थे हमने 1992 में वह कर दिखाया। और उस करनी में हिंदू धर्म का दफ़न नहीं हिंदू धर्म की महानता देख रहे हैं। समझ नहीं रहे कि 30 जनवरी के बाद बार-बार, तरह-तरह से मारे जा रहे हैं गांधी को।

प्रश्न-7- वर्तमान समय में आप गांधी की विश्व और भारत में क्या प्रासंगिकता देखते हैं?  

सुधीर चंद्र : हम गांधी को और गांधी के आदर्शों को अपनी नैतिक पूँजी के रूप में देखते हैं। एक ऐसी अनमोल और अनोखी पूँजी जो समस्त विश्व में किसी और के पास नहीं है। हम गांधी के रहते ही उनको तज बैठे थे। इतना कि अपने आख़िरी दिनों में अपार दुःख से गांधी कहने लगे थे कि हमारे देश में कुछ ऐसा हो गया है कि नाम लो राम का और काम करो राक्षस का। जैसा नाम आज लिया जा रहा है राम का वैसा तो कभी गांधी के समय में नहीं लिया गया था। और जितना ज़्यादा हम नाम ले रहे हैं राम का उसी अनुपात में खरी हो रही है गांधी की हमारे राक्षसी आचरण की बात।

संसार पर छाए संकट जैसे-जैसे गहरा रहे हैं और नए रूप ले रहे हैं-जैसे कि इस समय चल रही वैश्विक महामारी वैसे-वैसे गांधी की प्रासंगिकता जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में उजागर हो रही है। किंतु विडम्बना-त्रासदी यह है कि संसार को गांधी के जीते जी जितनी उन की ज़रूरत थी उस से कहीं ज़्यादा आज है, लेकिन उन को व्यवहार में लाना आज उस से भी ज़्यादा कठिन है जितना उनके जीते जी था।

प्रश्न-8- आपने “ गांधी : एक असंभव संभावना”  पुस्तक लिखकर गांधी को समझने-समझाने की कोशिश की है। इसका आशय क्या है?  

सुधीर चंद्र : मैं गांधी को एक असम्भव सम्भावना इसीलिए कहता हूँ। क्योंकि गांधी ने एक बार इस सम्भावना को सम्भव बना कर दिखा दिया। हम बना पाएँगे फिर इसे सम्भव? दूसरे शब्दों में, हम रोक पाएँगे अपना विनाश ? या बस एक ‘काश’ के साथ याद करते रहेंगे उनका कहा: ‘मैं तो कहते-कहते चला जाऊँगा, लेकिन किसी दिन मैं याद आऊँगा कि एक मिस्कीन आदमी जो कहता था, वही ठीक था।’

(साक्षात्कारकर्ता प्रदीप सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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