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जेंडर आधारित भेदभाव और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम

उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की वैधानिकता की जांच-परख के लिए इसे बड़ी पीठ को सौंप दिया है। अंततोगत्वा, इसका गठन किया जा रहा है। 
जेंडर आधारित भेदभाव और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने हाल ही में केंद्र सरकार को एक नोटिस भेजा है। यह नोटिस हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (एचएसए) की धारा 15 को चुनौती देने वाली एक याचिका के संदर्भ में भेजी गई है। विवेक गुप्ता लिखते हैं कि इस याचिका ने संपत्ति हस्तांतरण मामले में स्त्री एवं पुरुष के लिए अलग-अलग नियम-कायदा होने को जेंडर के प्रति ‘अन्याय’ मानते हुए मुद्दे को फिर से फोकस में ला दिया है। 

चंडीगढ़:  नारायणी देवी की 1955 में शादी के अभी तीन महीने भी नहीं हुए थे कि उनके पति का निधन हो गया था। इसके बाद, विधवा नारायणी को उनकी ससुराल से भगा दिया गया तो वे अपने माता-पिता के यहां लौट आई थीं। 

नारायणी देवी निसंतान थीं और अपनी बेशुमार संपत्ति के उत्तराधिकारी के बारे में बिना कोई वसीयत लिखे ही 1996 में दुनिया छोड़ गई थीं। 

इसके बाद हुए दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रमों में नारायणी देवी के स्वर्गवासी पति के दूर के रिश्तेदारों ने उनकी संपत्ति का उत्तराधिकारी होने पर अपना दावा ठोक दिया था। यह विवाद निचली अदालत से गुजरते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा था। तब न्यायालय ने नारायणी देवी की संपत्ति के वैध वारिस के सवाल पर ओमप्रकाश एवं अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य (2009) मुकदमे में विचार करते हुए अपना फैसला दिया था। 

सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (एचएसए) की धारा 15 पर भरोसा करते हुए नारायणी देवी की संपत्ति को उनके दिवंगत पति के परिजनों को देने का निर्णय दिया। जबकि नारायणी देवी की मां जिन्होंने उनके विधवा होने के बाद से आजीवन देखभाल की, लेकिन उन्हें बेटी की संपत्ति में से एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी गई। 

इस प्रसंग में नेशनल इंस्ट्टीयूट ऑफ पब्लिक फिनांस एंड पॉलिसी द्वारा मई 2020 में प्रकाशित किए गए एक शोधपूर्ण आलेख का आकलन है कि नारायणी देवी के साथ यह ‘अन्याय’ नहीं हुआ होता अगर संपत्ति हस्तांतरण में जेंडर की भूमिका में बदलाव कर दिया गया होता-यानी, नारायणी देवी के एक स्त्री होने की वजह से ही उनके निधन के बाद उनकी संपत्ति का वैध वारिस मायके परिवार को नहीं माना गया। यहीं वे पुरुष होतीं तो उनकी सारी संपत्ति उनके परिवार में ही होती। इसलिए आलेख का आकलन है कि “हिन्दू उत्तराधिकार कानून संपत्ति हस्तांतरण के मामलों में महिलाओं के प्रति स्वाभाविक रूप से भेदभावपूर्ण है।” 

“वास्तव में, नारायणी की संपत्ति का उत्तराधिकार भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (आइएसआइ) के तहत उनके मायके परिवार को ही मिलता, जब वे हिन्दू की बजाए ईसाई, पारसी या यहूदी धर्मावलम्बी होतीं या उनके परिवारों में पैदा हुई होतीं, या वे कदाचित गोवा राज्य की नागरिक होतीं तो उन्हें गोवा अधिग्रहण के विशेष नोटरी और सूची कार्यवाही अधिनियम, 2012 (जीएसएसएनआइपी) के तहत संपत्ति के उत्तराधिकार में बराबर का अधिकार मिलता। यह अन्य केवल और केवल इसलिए हुआ कि नारायणी देवी की पहचान एक विवाहित हिन्दू महिला की थी।”

बिल्कुल नारायणी देवी जैसा मामला अभी हाल में सामने आया है। गुरुगांव में रहने वाली एक महिला की बेटी इसी साल निसंतान एवं बिना वसीयत के ही दुनिया से कूच कर गई थीं। तब उस महिला ने मृत बेटी की अर्जित संपत्ति को उसकी ससुराल के हाथ में जाने से बचाने के लिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की और इसके जरिए हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की भेदभावकारी धारा 15 के प्रावधानों को चुनौती दी है। 

इस याचिका पर सुनवाई करते हुए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर धारा 15 की असंवैधानिकता की पड़ताल करने का अपना इरादा जाहिर किया है। 

देविना भारद्वाज संपत्ति के उत्तराधिकार का मामला 

याचिका के अनुसार, देविना भारद्वाज एवं चेतन भारद्वाज ने 2007 में शादी की थी। वैवाहिक जीवन की शुरुआत में वे अपने पति के परिवार के साथ ही रहती थीं। लेकिन शादी के साल भर के अंदर, दंपति स्वतंत्र रहने लगे थे। इस जोड़े ने 2014 में गुरुगांव में संयुक्त रूप से एक घर खरीदा था। चूंकि उस समय पति चेतन की कमाई बहुत अधिक नहीं थी, लिहाजा देविना ने ही मकान की कीमत की बड़ी राशि का भुगतान किया था। 

अप्रैल 2021 में, देविना एवं चेतन दोनों ही कोविड-19 से संक्रमित हो गए तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। अंततः चेतन का निधन हो गया। उन्होंने भी, बिना कोई वसीयत किए ही, पत्नी देविना एवं अपने माता-पिता को अपनी संपत्ति को वर्ग-एक के वारिस के रूप में छोड़ गए। परिणामस्वरूप, चेतन की संपत्ति उनके माता-पिता एवं पत्नी देविना के बीच बराबर-बराबर हिस्से में हस्तांतरित कर दी गई थी।

हालांकि मई 2021 में, देविना भी कोविड-19 के संक्रमणजनित बीमारी से चल बसीं और उन्होंने भी चेतन की तरह अपनी कोई वसीयत नहीं लिखी थी। 

देविना की मां ने अपनी याचिका में कहा है कि उन्हें मालूम हुआ है कि देविना की सास ने देविना एवं चेतन की लगभग 2.7 करोड़ रुपये की संपत्ति हथियाने के लिए दंपति के बैंक से संपर्क किया है। 

जून 2021 में, उन्हें खबर मिली कि पालम विहार के तहसीलदार एवं पटवारी ने देविना एवं चेतन की कुल संपत्ति का वारिस देविना की सास को बनाने की रिपोर्ट जारी कर दी है। इसके परिणामस्वरूप, देविना मां ने एक याचिका दायर कर दी। इसमें उन्होंने न केवल बेटी के हिस्से की संपत्ति पर अपना दावा किया बल्कि हिन्दू अधिकार अधिनियम की धारा 15 की संवैधानिकता को भी चुनौती दी। 

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 की असल दिक्कत क्या है?

एचएसए की धारा 15 को भेदभावपूर्ण बनाने वाले प्रावधान की व्याख्या करते हुए नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फिनांस एंड पॉलिसी के रिसर्च फेलो देवेन्द्र दामले ने दि लीफ्लेट को बताया कि यह धारा पत्नी की स्व-अर्जित संपत्ति के हस्तांतरण मामले में उसके माता-पिता या भाई-बहन की बजाय पति के परिजनों को ही बेहद स्पष्ट रूप से वरीयता देती है। 

“यह भी प्रावधान है कि पत्नी को अपने सगे-संबंधियों, जो उनके माता-पिता नहीं हैं, उनसे भी मिली किसी भी संपत्ति पर पति के परिवार का उत्तराधिकार होने का दावा बहुत मजबूत है, बजाए पत्नी के भाई-बहनों के। उदाहरण के लिए, अगर एक महिला के भाई-बहन हैं, और उन्हें अपने एक अन्य दिवंगत भाई से संपत्ति मिली है, तो भी उनके खुद के गुजर जाने के बाद, भाई से मिली उस संपत्ति पर उसकी बहन का हक नहीं होगा, लेकिन उसके पति के परिवार को होगा,” उन्होंने स्पष्ट किया।

दामले के मुताबिक, पुरुष के मामले में ऐसा नहीं है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-8 के मुताबिक, पुरुष की अर्जित की हुई किसी भी संपत्ति पर हमेशा उसके अपने परिवार का अधिकार होगा। इसी तरह से, मृत पुरुष की संपत्ति के मामले में उनसे जुड़े रिश्तेदारों का दावा मृत महिला के मायके पक्ष के रिश्तेदारों की तुलना में अधिक मजबूत होगा। अतः उदाहरण के लिए, मृत पुरुष के लिए उसके पिता के भाई (यानी, चाचा-चाची) का उसकी संपत्ति पर दावा उसकी मां के भाई-बहनों (यानी, मामा-मौसी) की बजाए अधिक मजबूत होगा। 

दामले ने कहा कि इस प्रावधान की भेदभावकारी प्रवृत्ति के कारण महिला का मायका-परिवार विगत में भी बहुत नुकसान उठाया है। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि इस प्रावधान की संभावित उत्पत्ति, और अधिनियम के अन्य समान खंड पुरातन धारणा में निहित हैं कि महिलाएं अपने स्वयं के प्रयासों के माध्यम से संपत्ति का अधिग्रहण और स्वामित्व नहीं कर सकती हैं, और केवल मृतक रिश्तेदारों के माध्यम से इसे प्राप्त करती हैं। 

“इसके अलावा, महिला संबंधियों द्वारा बने रिश्तों की बजाए पुरुष रिश्तेदारों के जरिए बने संबंधों को वरीयता दी गई हैं। इसके अलावा, एक विवाहित महिला अपनी ससुराल से “जुड़ी” समझी जाती हैं, बजाए अपने मायके के घर-परिवार के। इस अधिनियम में 2005 में संशोधन होने तक, एक विवाहित महिला को अपनी पैतृक संपत्ति में भी समान उत्तराधिकार का अधिकार नहीं मिला था,” उन्होंने बताया। 

इस ऐतिहासिक ‘भूल’ को सुधारने के तरीकों पर टिप्पणी करते हुए, दामले ने कहा कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 एवं 15 (और संबंधित प्रावधानों, एवं निर्धारणों) में संशोधन कर संपत्ति हस्तांतरण में पुरुष एवं महिला को समान अधिकार दिया जा सकता है। एक संभव मॉडल भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (आइएसए) है, जो कि निर्वसीयत उत्तराधिकार मामले में उन सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होता है, जो हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख या मुस्लिम नहीं हैं। 

“जबकि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के बनिस्बत आइएसए काफी पुराना है, लेकिन इसके द्वारा संपत्ति हस्तांतरण की सुझाई गई स्कीम जेंडर-समानता के संदर्भ में कहीं अधिक प्रगतिशील है,” उन्होंने कहा। 

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम,1956 में असमानताओं दूर करने के लिए विगत में किए गए प्रयास

भारतीय जनता पार्टी के अनुराग ठाकुर, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली मौजूदा सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं, ने मार्च 2013 में हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) के लिए बतौर निजी सदस्य एक विधेयक पेश किया था। 

इसमें कहा गया था कि महिलाएं जीवन के हरेक क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं, इसके परिणामस्वरूप वे स्वयं के कौशल से संपत्ति भी अर्जित कर रही हैं। इस आधार पर उन्होंने महिलाओं की स्व-अर्जित संपत्ति हस्तांतरण मामलों में उनके माता-पिता को उनका वारिस होने के अधिकार को अवश्य ही वरीयता दी जानी चाहिए, खास कर उन परिस्थितियों में जबकि ऐसी महिलाओं के पति की मौत हो गई हो या वे निसंतान हों और बिना वसीयत किए ही जिनकी मौत हो जाती हों। 

हालांकि, इस विधेयक को विचार के लिए दूसरे सदन में पेश नहीं किया जा सका। यह विधेयक 15वीं लोकसभा के कार्यकाल 2014 में पूरा होने के साथ ही निरस्त हो गया। 

16वीं लोकसभा का गठन होने के बाद, हिसार से तात्कालीन सांसद और हरियाणा के मौजूदा उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने भी 2015 में हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) विधेयक को एक निजी सदस्य के विधेयक के रूप में पेश किया था। 

इसी तरह, 2013 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन के लिए एक विधेयक के पेश कर संपत्ति हस्तांतरण मामलों में पति की तरह ही हिन्दू पत्नी के माता-पिता को समान अधिकार देने की मांग की गई थी, जो बिना वसीयत के ही स्वर्ग सिधार जाती हैं और जो निसंतान होती हैं। 

यह विधयेक संसद में पेश किया गया था, और गैर सरकारी सदस्यों के कार्य की संसदीय स्थायी समिति ने इस विधेयक पर चर्चा के लिए समय का आवंटन किए जाने की सिफारिश की थी। हालांकि, इस पर किसी भी सदन में चर्चा नहीं हो सकी थी। यह विधेयक भी 16वीं लोक सभा का कार्यकाल 2019 में पूरा होने के साथ ही अपनी मौत मर गया। 

बम्बई उच्च न्यायालय की एकल खंडपीठ ने ममता दिनेश वकील बनाम बंसी एस. वाधवा (2012) मामले में माना था कि, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 भेदभावकारी है और अनुचित है। इसलिए यह धारा असंवैधानिक है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 के उल्लंघन के रूप में अधिकारातीत है।

इसलिए उस एकल पीठ ने इस मामले को बड़ी बेंच को भेज दिया ताकि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की संवैधानिकता की समीक्षा की जा सके। आखिरकार इस मामले पर सुनवाई के लिए बड़ी बेंच का गठन किया जा रहा है। 

इस बीच, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रविशंकर झा एवं न्यायाधीश अरुण पल्ली की खंडपीठ अब इस मामले पर दिसम्बर में सुनवाई करेगी। 

(विवेक गुप्ता चंडीगढ़ में रहने वाले एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

यह लेख पहली बार दि लीफ्लेट में प्रकाशित हुआ था। 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Gender Discrimination and the Hindu Succession Act

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