एक बार फिर सुर्ख़ियों में ‘जर्मनी का सवाल’
ब्रिटिश भारतीय सेना के घुड़सवार अधिकारी के रूप में गौरव हासिल करने वाले अंबाला में जन्मे लॉर्ड इस्माय अपने शानदार करियर के उत्कर्ष पर शायद तब पहुंचे थे, जब वे दूसरे विश्व युद्ध में विंस्टन चर्चिल के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ बन गये थे।
लेकिन, इस्माय को आज इसलिए याद किया जाता है कि उन्होंने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (1952-56) के पहले महासचिव रहते हुए शानदार कार्य कार्य किया था और यह कार्य था- नाटो गठबंधन के मक़सद के तौर पर "रूसियों को बाहर रखना, अमेरिकियों को बनाये रखना, और जर्मन को दबाये रखना”।
इस्माय की यह टिप्पणी उन दिनों की भावना को पूरी तरह अभिव्यक्त करती है और तब से लेकर यह एक कहावत के रूप में इस्तेमाल होती रही है और शीत युद्ध के पैदा होने के वजह की तत्काल व्याख्या करने का इसे एक सामान्य तरीक़ा कहा जाने लगा था। जोसेफ़ स्टालिन ने वास्तव में 1954 में एक चौंकाने वाला प्रस्ताव रखा था कि सोवियत संघ नाटो में शामिल होने और यूरोप के किसी विभाजन को रोकने के लिए तैयार है।
एक औपचारिक राजनयिक नोट में मॉस्को ने कहा था कि सोवियत संघ उत्तरी अटलांटिक संधि में भाग लेने के मामले की जांच करने के इच्छुक सरकारों के साथ जुड़ने के लिए तत्पर है। फ़्रांस का रवैया इस प्रस्ताव को लेकर सहानुभूतिपूर्ण था, लेकिन ब्रिटेन ने अपनी सख़्ती दिखायी थी और इस्माय ने इस पर तंज करते हुए कहा था कि सोवियत संघ का यह अनुरोध "पुलिस बल में शामिल होने का अनुरोध करने वाले किसी बेरहम सेंधमार की तरह है"।
'जर्मन का सवाल' दुनिया की राजनीति को परेशान करता रहता है। पिछले ही हफ़्ते वाशिंगटन, डीसी में राष्ट्रीय सुरक्षा पुरालेख द्वारा सोवियत संघ और अमेरिकी दस्तावेज़ों के एक और आकर्षक गुप्त दस्तावेज़ के ख़ज़ाने को सार्वजनिक किया गया, जिसमें राष्ट्रपति एचडब्ल्यू बुश और मिखाइल गोर्बाचेव के बीच 30 साल पहले (जून 1-3, 1990) कैंप डेविड शिखर सम्मेलन में भाग लेते हुए दिखाया गया है।
कैंप डेविड में यूरोप के भविष्य पर तीन दिनों की वह गहन चर्चा जर्मनी के उस एकीकरण के साये में हुई थी, जिसे अक्टूबर के बाद होना था। गोर्बाचेव तब तक काफी दबाव में आ चुके थे। पेरेस्त्रोइका से सोवियत संघ के थकान के लक्षण सामने आने लगे थे।
गोर्बाचेव दिवालिया होने वाली सोवियत अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए अमेरिका से वित्तीय सहायता की मांग कर रहे थे, बताया जाता है कि तब के विदेश मंत्री जेम्स बेकर से गोर्बाचेव ने कहा था, “हमें कुछ ऑक्सीजन की ज़रूरत है। हम तोहफ़ा नहीं मांग रहे हैं। हम कर्ज़ मांग रहे हैं।” (बेकर प्रतिबद्ध नहीं थे।)
इसी तरह सीपीएसयू केंद्रीय समिति पूर्वी यूरोपीय देशों के खोने, गोर्बाचेव की एकतरफा विसैन्यीकरण की नीति और जर्मनी के एकीकरण की संभावना को लेकर विद्रोह पर अमादा थी। गोर्बाचेव के अमेरिकियों के साथ समझौते को मंज़ूरी देते हुए सोवियत पोलित ब्यूरो ने अपने ज्ञापन में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि “नाटो में एक एकीकृत जर्मनी को देखना हमारे लिए राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से अस्वीकार्य होगा। हम यूरोप में शक्ति और स्थिरता के संतुलन की उस तबाही को लेकर सहमत नहीं हो सकते हैं, जो इस क़दम के अनिवार्य नतीजे होंगे।”
यह ज्ञापन (15 मई, 1990 का) गोर्बाचेव के आधिकारिक संक्षिप्त विवरण में भी था,क्योंकि वह कैंप डेविड शिखर सम्मेलन में भाग लेने गये थे। गोर्बाचेव जर्मन के एकीकरण पर अड़े रहे और बड़ी शालीनता के साथ चेतावनी दी कि "अगर सोवियत लोगों को यह आभास हो जाये कि हम जर्मन प्रश्न की अनदेखी कर रहे हैं, तो यूरोप की सभी सकारात्मक प्रक्रियायें, जिनमें वियना (पारंपरिक शक्तियों पर) की वार्ता भी शामिल है, गंभीर ख़तरे में पड़ जायेंगे। यह सिर्फ झांसा नहीं है, बल्कि तब लोग हमें रुकने और चारों ओर देखने के लिए मजबूर कर देंगे।”
संक्षेप में इस बात को दुहराना पिछले सप्ताह के उन रिपोर्टों के सिलसिले में उपयोगी होगा कि राष्ट्रपति ट्रंप ने जर्मनी में तैनात अमेरिकी सैनिकों में से एक तिहाई सैनिकों को वापस बुलाने की योजना को मंज़ूरी दे दी है। वाशिंगटन के नाटो सहयोगी के साथ एक लंबे समय से चली आ रही व्यवस्था के रूप में जर्मनी में 34,500 सैनिक स्थायी रूप से तैनात है,जिनमें से 9,500 सैनिकों की वापसी को ट्रंप ने मंज़ूरी दे दी है।
इस बात को लेकर अटकलें लगायी जा रही हैं कि ट्रंप, जर्मन चांसलर, एंजेला मर्केल से उस बात का व्यक्तिगत रूप से बदला ले रहे हैं कि जून के अंत में वाशिंगटन में होने वाले G-7 शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने की उनकी परियोजना का खेल एंजेला मर्केल बिगाड़ रही हैं, जिससे पश्चिमी दुनिया को लेकर उनकी नेतृत्व क्षमता पर लोगों का ध्यान जाता, जब नवंबर में होने वाले चुनाव में उनका चुनाव अभियान अंतिम चरण में दाखिल होता। लेकिन, जितना दिखायी देता है, उससे कहीं ज़्यादा कुछ हो सकता है।
पोलैंड के प्रधानमंत्री, माटुज़ मोरवीकी अपने देश में अधिक अमेरिकी सैनिकों की मेजबानी करने की पेशकश पर ज़ोर दे रहे हैं। पोलैंड, जो अमेरिका के सबसे करीबी यूरोपीय भागीदारों में से एक है, वह लंबे समय से वाशिंगटन को नाटो के भीतर अपनी सुरक्षा के प्राथमिक गारंटर के रूप में देखता रहा है। पोलैंड एक स्थायी अमेरिकी सैन्य उपस्थिति के लिए अभियान चलाता रहा है (हालांकि पौलैंड में पहले से ही 5,500 अमेरिकी कर्मियों की संख्या है।)
मोरवीकी ने शनिवार को कहा, "मुझे वास्तव में इस बात की उम्मीद है कि हमने जो अनेक वार्तायें की हैं, और हमने इस बात को लेकर बार-बार साबित किया है कि हम बेहद ठोस नाटो साझेदार हैं, इसका नतीजा इस रूप में आ सकता है कि इस समय जर्मनी में तैनात जिन अमेरिकी सैनिकों को अमेरिका निकाल रहा है, वास्तव में वे सैनिक पोलैंड पहुंचा दिये जायें।”
पोलैंड का रूस के साथ कड़वे रिश्तों पर नज़र रखते हुए उन्होंने कहा, "वास्तविक ख़तरा तो पूर्वी सीमा पर है, इसलिए अमेरिकी सैनिकों को नाटो के पूर्वी हिस्से में ले जाने से यूरोप के सभी देशों की सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा।" मोरवीकी ने आगे कहा कि इस सम्बन्ध में वाशिंगटन के साथ "वार्ता चल रही है"।
ट्रंप की योजना को लेकर जो जर्मन प्रतिक्रिया हैं, उसमें खेद से लेकर राहत तक के भाव हैं। मर्केल के क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन के संसदीय समूह के डिप्टी चेयरमैन, जोहान वडफुल ने इस वापसी को लेकर चेतावनी दे ही।
जोहान वडफुल ने कहा, “इन योजनाओं से पता चलता है कि ट्रंप प्रशासन गठबंधन भागीदारों को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में बांधने की कोशिश में नेतृत्व के एक मूल मानक की उपेक्षा कर रहा है। गठबंधन में बने रहने से हर किसी को फ़ायदा है, लेकिन इस कलह से सिर्फ़ रूस और चीन को फ़ायदा होगा। वाशिंगटन को इस पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है।”
बुंडेस्टैग की विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष और अगले साल मर्केल के उत्तराधिकारियों में सबसे आगे दिखने वालों में एक, नोर्बर्ट रॉटगेन ने इन योजनाओं की आलोचना करते हुए कहा है, “इस तरह की वापसी हर लिहाज से अफ़सोसनाक होगी। मुझे इस तरह की वापसी का तर्कसंगत आधार नहीं दिखता।”
लेकिन, वामपंथी पार्टी-डाई लिंके के नेता, डाइटमार बार्टश ने इस घटनाक्रम का स्वागत करते हुए कहा है, “संघीय सरकार को इसे कृतज्ञता के साथ स्वीकार करना चाहिए और तुरंत ट्रंप प्रशासन के साथ अमेरिकी सैनिकों की पूर्ण वापसी की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। इससे करदाताओं के अरबों रुपये बचा लिये जाने का अतरिक्त लाभ मिलेगा, क्योंकि अब नये लड़ाकू जेट हासिल करने की ज़रूरत नहीं रहेगी।”
दिलचस्प बात तो यह है कि न तो व्हाइट हाउस और न ही पेंटागन ही ट्रंप की इस योजना की पुष्टि करेंगे और इस बात के कोई संकेत भी नहीं हैं कि नाटो के अधिकारियों को समय से पहले किसी तरह की कोई हिदायत भी जाये। लेकिन ऐसे हालात में ट्रंप अक्सर एकतरफ़ा सैन्य कार्रवाई के साथ सहयोगियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
इस बात में कोई शक नहीं है कि यह विवाद ट्रंप के कार्यकाल के दौरान ट्रांसअटलांटिक रिश्तों के बीच का एक बहुत ही तनावपूर्ण लक्षण है। ट्रंप की यह योजना G-7 पर मर्केल के रुख पर हमला करने से कहीं ज़्यादा जर्मनी में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को कम करने की उनकी पिछली धमकी को पूरा करने की ज़िद की तरह दिखती है।
अब तक इसे लेकर रूसी की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी है। ज़ाहिर है, मॉस्को हालात को देखते हुए किसी भी परेशानी या ख़तरे को मोल लेने से बच रहा है। उसे ऐसा लगता है कि यह अमेरिकी सैन्य क्षमता के आकार में 28% की कमी सही मायने में नाटो के अवरोध का एक मुख्य हिस्सा था और यह वापसी पुतिन के लिए किसी "उपहार" से कम नहीं है (पुतिन का मर्केल के साथ रिश्ता खट्टे-मीठे दोनो ही तरह के हैं)। यह कहकर कि यदि अमेरिका पोलैंड में और अधिक सैनिकों को तैनात करने की तरफ़ आगे बढ़ता है, तो मॉस्को इसे उकसावे के रूप में देखेगा और निश्चित रूप से ट्रान्साटलांटिक रिश्तों का कमज़ोर किया जाना आने वाले दिनों में रूसी रणनीतियों के लिए बेहद अहमियत रखने वाला एक घटनाक्रम होगा।
यह महज संयोग ही है कि सितंबर तक ट्रंप की जर्मनी से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की योजनायें पिछले सप्ताह मीडिया में उसी दिन "लीक" हुईं, जिस दिन जर्मनी के उस एकीकरण की 30वीं वर्षगांठ थी, जो तत्कालीन जर्मन चांसलर हेल्मुट कोल की सांकेतिक उपलब्धि रही है। किसी मायने में यह उस मर्केल के लिए याद दिलाने बात है, जो कोल के प्रभाव से निर्देशित रही हैं।
1990 के उन घातक महीनों के उस मोर्चे पर कोल के सबसे मज़बूत सहयोगी के रूप में सामने वही राष्ट्रपति बुश थे,जिन्होंने तत्कालीन विदेश मंत्री जेम्स बेकर के साथ जर्मन एकीकरण को लेकर गोर्बाचेव के प्रतिरोध को दूर करने में एक ऐतिहासिक भूमिका निभायी थी।
बुश ने तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री, मार्गरेट थैचर और फ़्रांस के राष्ट्रपति, फ्रांस्वा मितरां के मज़बूत संदेह को दरकिनार कर दिया था, जो एक फिर से उठ खड़े होने वाले जर्मनी और यूरोप के राजनीतिक-रणनीतिक परिदृश्य पर "जर्मन प्रश्न" के फिर से सामने आ जाने को लेकर बेहद परेशान थे, और जिसके लिए वे अभी तक तैयार नहीं थे।
थैचर ने भी सितंबर 1989 में मॉस्को की यात्रा की थी ताकि यूरोप के भविष्य पर उनकी चिंताओं को आवाज़ दी जा सके, क्योंकि गोर्बाचेव ने वारसा संधि को बुरी तरह से समाप्त कर दिया था। उस यात्रा के दौरान सोवियत नेताओं द्वारा सोवियत संघ के विघटन की अराजक काल में अमेरिका की नज़रों से दूर दोनों नेताओं के बीच हुई प्रमुख बैठकों के बेहद गोपनीय रिकॉर्ड के अनुसार, थैचर ने 1980 के दशक में जर्मनी के एकीकरण के ख़िलाफ़ सोवियत नेता के साथ एक गुप्त समझौते पर पहुंचने के लिए गोर्बाचेव के साथ अपने पारस्परिक-अनुकूल रिश्तों को भुनाया था।
हाल के वर्षों में मर्केल उस अमेरिका पर निर्भर रहे बिना यूरोप की सुरक्षा की ज़बरदस्त वक़ालत करती रही हैं, जिसकी यूरोप-अटलांटिकवाद के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर संदेह लगातार बढ़ता जा रहा है। ट्रंप की यह योजना जर्मनी में इस सोच की प्रवृत्ति को ही मज़बूती देगी कि अमेरिका को अब सुरक्षा मुहैया कराने वाले देश के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।
इतना तो तय है कि इस्माय ने समकालीन विश्व राजनीति के केंद्र में जिस "जर्मन प्रश्न" को नाटो के निर्माण के समय देखा था, अगर वही जर्मनी "ओस्टपोलिटिक" यानी जर्मनी के संघीय गणराज्य (एफ़आरजी, या पश्चिमी जर्मनी) और पूर्वी यूरोप के बीच सम्बन्धों के सामान्यीकरण के नये संस्करण को चीन की धुरी की प्रकृति में बदल देता है, तो इसका वैश्विक गठबंध के लिहाज से गंभीर परिणाम सामने आयेंगे।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।
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