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गोजमुमो के तृणमूल के पाले में जाने पर भाजपा को झटका, वाम ने पूछा ‘डील’  तो बताइए दीदी

हाल ही में पंजाब में अकाली दल द्वारा एनडीए का साथ छोड़ने के बाद अब बंगाल में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का भी किनारा कर लेना भाजपा के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं। गोजमुमो ने आगामी विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस को समर्थन देने की घोषणा की है।
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तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और गोजमुमो प्रमुख बिमल गुरुंग फाइल फोटो। साभार : Economic Times

कहते हैं न कि युद्ध, प्रेम और राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं तो इन दिनों बंगाल की राजनीति में भी यही कहावत चरितार्थ होती है नजर आ रही है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में वह नया मोड़ देखने को मिल ही गया जिसकी अटकलें लंबे समय से लगाई जा रही थीं। भाजपा से बेहद नाराज चल रही गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) ने आखिरकार राजग (एनडीए) का साथ छोड़ने और आगामी विधानसभा चुनाव में तृणमूल का समर्थन करने की घोषणा कर ही डाली। हाल ही में पंजाब में अकाली दल द्वारा राजग का साथ छोड़ने के बाद अब बंगाल में गोजुजमो का भी किनारा कर लेना भाजपा के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं, और झटका हो भी क्यों न पिछले तेरह वर्षों से यानी जब से गोजमुमो का उदय हुआ (2007) तब से वह दार्जलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अन्य दलों के मुकाबले सबसे सशक्त और बड़ी पार्टी के तौर पर जानी जाती है।

गोजमुमो के इस कदम से खासा नाराज बीजेपी ने ममता बनर्जी पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री ने उत्तर बंगाल की तीन विधानसभा सीटें दार्जलिंग, कलिंगपोंग और कार्सियांग के लिए बंगाल का विभाजन स्वीकार कर लिया है और गोजमुमो की अलग गोरखालैंड की मांग मान ली है।

यहां बता दें कि गोजमुमो प्रमुख बिमल गुरुंग पिछले तीन साल से फरार चल रहे हैं। अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर दार्जलिंग जिले  में तीन साल पहले (2017) हुए आंदोलन के दौरान पुलिसकर्मियों पर जानलेवा हमला सहित गुरुंग पर कई आरोप हैं तो वहीं अनलॉफुल एक्टीविटी प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) के तहत देशद्रोह का मामला भी दर्ज है। हालांकि इस बीच बिमल गुरूंग की कभी गिरफ्तारी नहीं हुई। 

आख़िर क्यूं टूटा गठबन्धन

गोजमुमो और राजग का गठबन्धन क्यूं टूटा या यूं कहें कि आखिर गोजमुमो ने भाजपा का साथ क्यूं छोड़ दिया इस ओर जाने से पहले यह जान लेना भी जरूरी है कि आखिर ऐसी कौन सी बात थी जिसे लेकर गोजमुमो ने राजग के साथ गठबन्धन किया। 

2009 के आम चुनाव से पहले भाजपा ने जोर शोर से घोषणा करते हुए कहा था कि वे छोटे राज्यों के पक्ष में हैं और अगर वह आम चुनाव जीतती है तो दो नए राज्य तेलंगाना और गोरखालैंड के गठन में पूरा सहयोग करेगी। भाजपा की इस घोषणा से उत्साहित गोजमुमो ने तब के आम चुनाव में भाजपा उम्मीदवार जसवंत सिंह का समर्थन किया और उन्हें जिताने में एक अहम भूमिका अदा की। गोजमुमो के समर्थन से भाजपा ने तब दार्जलिंग लोकसभा सीट पर 51.5 % वोट हासिल कर जीत का परचम लहराया।

इसमें दो राय नहीं कि गोजमुमो के समर्थन के बिना भाजपा के लिए जीत हासिल करना मुमकिन नहीं था। जुलाई 2009 के संसद के बजट सत्र में तब तीन सांसद राजीव प्रताप रूड़ी, सुषमा स्वराज और जसवंत सिंह ने गोरखालैंड बनाने पर जबरदस्त समर्थन किया था। जसवंत सिंह के बाद दार्जलिंग लोकसभा सीट से 2014 में सांसद बने एसएस आहलूवालिया को भी जिताने में गोजमुमो ने अपनी अहम भूमिका निभाई।

दरअसल अलग गोरखालैंड राज्य बनाने में भाजपा की दिलचस्पी देख गोजमुमो ने राजग का हिस्सा बनने में देर नहीं लगाई तो वहीं बंगाल में अपने पैर जमाने की जद्दोजहद में लगी भाजपा के लिए भी गोजमुमो का साथ किसी मुंह मांगी मुराद से कम नहीं था। लेकिन साल 2014 में केंद्र में राजग की सरकार बनने के बावजूद गोजमुमो को अपनी मांग पूरी होती नहीं दिखी। 

वर्ष 2017 का मध्य आते आते गोजमुमो अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर दार्जलिंग पर्वतीय क्षेत्र में आंदोलित हो गया। देखते देखते गोजमुमो के इस आंदोलन ने काफी उग्र और हिंसक रूप ले लिया जिस कारण कई महीने दार्जलिंग जिला को बंद कर दिया गया। न तो कोई बाहरी आकर दार्जलिंग जा सकता था न ही दार्जलिंग का कोई व्यक्ति अपने क्षेत्र से बाहर जा सकता था। ऐसी परिस्थिति में उत्तर बंगाल का पर्यटन और अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई।  गोजमुमो के इस उग्र आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने बातचीत के रास्ते तो खोले, तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अलग गोरखालैंड की मांग से जुड़े दलों के साथ बैठकें भी की लेकिन नतीजा शून्य ही रहा।

हालांकि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर गोजमुमो ने भाजपा के समर्थन का ऐलान किया लेकिन अब 2020 में राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका है। किसी समय तृणमूल कांग्रेस को जमकर कोसने वाली गोजमुमो ने अब बीजेपी को धोखेबाज पार्टी कहते हुए अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में तृणमूल को समर्थन देने का ऐलान कर दिया।

बिमल गुरुंग ने बीजेपी पर आरोप लगाते हुए कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पहाड़ी क्षेत्र के लिए स्थायी राजनीतिक समाधान देने में नाकाम रही है। साथ ही केंद्र सरकार ग्यारह गोरखा समुदाय को अनुसूचित जनजाति के तौर पर चिह्नित करने के अपने वादे को पूरा करने में भी असफल रही। गुरुंग ने कहा कि केंद्र सरकार ने केवल उन्हें ठगने का काम किया है इसलिए अब राजग का हिस्सा बने रहने का कोई मतलब नहीं। गुरुंग के मुताबिक अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में गोजमुमो, तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन कर बीजेपी को करारा जवाब देगी। 

दशकों पुरानी है गोरखालैंड की मांग

दार्जलिंग पर्वतीय क्षेत्र में गोरखालैंड की मांग कोई नई नहीं है। सौ साल से भी ज्यादा पुरानी इस मांग के चलते कई बार इस क्षेत्र में हिंसक आंदोलन भी हुए। वर्ष 1907 से आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है। आज़ादी के बाद से अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर हुए आंदोलनों में कभी तेजी देखी गई तो कभी नरमी लेकिन मांग किसी न किसी रूप में सामने आती रही।

अखिल भारतीय गोरखा लीग ने वर्ष 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को ज्ञापन सौंपकर बंगाल से अलग होने की मांग उठाई थी। दार्जलिंग, जलपाईगुड़ी और कूचबिहार को मिलाकर एक अलग राज्य की मांग की गई। हालांकि अस्सी के दशक के शुरुआत में थक हारकर आंदोलन ने दम तोड़ दिया लेकिन नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बैनर तले सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में एक बार फिर गोरखालैंड की मांग ने जोर पकड़ना शुरू किया।

साल 1985 से 1988 के दौरान दार्जलिंग क्षेत्र लगातार हिंसा की चपेट में रहा। एक अनुमान के दौरान तब  हुई हिंसा में करीब 1300 लोगों की जाने गई। इतनी हिंसा देख तब की वाम मोर्चा सरकार ने सुभाष घीसिंग के साथ एक समझौते के तहत दार्जलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद का गठन किया। साल 2008 तक सुभाष घीसिंग परिषद के अध्यक्ष रहे लेकिन साल 2007 में  बिमल गुरुंग के नेतृत्व में पहाड़ में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नाम से एक नई क्षेत्रीय ताकत का उदय हुआ जिसने शिथिल पड़ चुके गोरखालैंड आंदोलन में नई जान फूंकने का काम किया।  गोजमुमो ने साफ कर दिया था कि दार्जलिंग हिल्स, तराई और दुआर्स क्षेत्र में रह रहे गोरखाओं के लिए अलग राज्य की मांग ही उनकी पार्टी का एक सूत्री राजनीतिक एजेंडा है। 

मौजूदा सरकार से था मतभेद 

आज भले बिमल गुरुंग और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गुणगान करके उनके समर्थन में आई हो लेकिन साल  2017 में पहाड़ पर हुए हिंसक और उग्र आंदोलन का जिम्मेदार तृणमूल को ही ठहराते हुए तब बिमल गुरुंग ने आरोप लगाया था कि "गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन" (जीटीए) को समझौते के मुताबिक विभाग नहीं सौंपे गए। उनके मुताबिक जीटीए

को राज्य सरकार ने न तो कभी पूरा अधिकार ही सौंपा और पहाड़ पर सुचारू रूप से प्रशासन का कामकाज करने के लिए न ही समुचित पैसा दिया। गुरुंग का आरोप था कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कभी जीटीए को पहाड़ पर खुलकर काम करने ही नहीं दिया ऊपर से जबरदस्ती बांग्ला भाषा थोपने का भी काम किया। तृणमूल के इस रवैए से खासा नाराज गोजमुमो ने तो यहां तक कह डाला था कि उनकी अस्मिता को रौंदा जा रहा है।

जीटीए, जो कि दार्जलिंग पहाड़ी क्षेत्र की एक अर्ध- स्वायत प्रशासनिक निकाय है, जिसका गठन ममता बनर्जी ने अपनी सरकार आने के बाद यानी साल 2011 में किया था। 2011 के ही विधानसभा चुनाव में गोजमुमो ने दार्जलिंग पहाड़ी की तीन विधानसभा सीट दार्जलिंग, कलिंगपोंग और कर्सियांग में जीत का परचम लहराया। गोजमुमो की जीत ने एक बार फिर यह जाता दिया कि दार्जलिंग में अभी भी अलग गोरखालैंड की मांग जोरों पर है। 

विपक्षी दलों की मांग

गोजमुमो द्वारा राजग छोड़ने और तृणमूल का दामन थामने के बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में खासी तेजी देखी जा सकती है। एक तरफ भाजपा तृणमूल और गोजमुमो को आड़े हाथों ले रही है तो दूसरी तरफ अन्य विपक्षी दल यह मांग कर रहे हैं कि तृणमूल को यह खुलासा करना चाहिए कि आखिर गोजमुमो के साथ गोरखालैंड को लेकर क्या बात हुई।

माकपा के वरिष्ठ नेता अशोक भट्टाचार्य ने कहा है कि दोनों के बीच हुई डील के बारे में तृणमूल को बताना चाहिए और जरूरत पड़ी तो इसके लिए मुख्यमंत्री विधानसभा का विशेष सत्र भी बुलाएं और यह बताया जाए कि तृणमूल ने गुरुंग से कोई समझौता तो नहीं किया। उन्होंने कहा कि जिस तरह राष्ट्रद्रोह समेत दर्जनों मामलों में आरोपी भूमिगत गुरुंग बैखौफ होकर कोलकाता आते हैं और खुलेआम प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मुख्यमंत्री को समर्थन देने की बात करते हैं, यह अपने आप में आश्चर्य है तो वहीं बंगाल भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं कि ममता सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए की वह गोरखालैंड की मांग का समर्थन करती है या नहीं और साथ ही यह भी साफ करना चाहिए कि वह गुरुंग के खिलाफ़ आपराधिक मामलों को वापस लेगी या नहीं। हालांकि इन सब सवालों से अपने को काटते हुए तृणमूल फिलहाल गोजमुमो का खुले दिल से स्वागत कर रही है और गोरखालैंड के मुद्दे पर भाजपा को तुच्छ और झूठी राजनीति करने वाली पार्टी बता रही है। ममता बनर्जी ने ट्वीट कर कहा कि बीजेपी का झूठ सबके सामने आ चुका है। 

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक

राजनीति के जानकार मानते हैं कि गोजमुमो के इस फैसले के बाद उत्तरी बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र में कम से कम दस सीटों पर बीजेपी के वोटबैंक पर असर पड़ सकता है। तो वहीं कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने इस उठा पटक को चमत्कार और राजनीतिक तख्तापलट तक कह दिया है। वे मानते हैं कि इस फेरबदल के बाद अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव काफी रोचक साबित होगा,  हालांकि ममता सरकार के लिए भी यह काम कम चुनौतीपूर्ण नहीं होगा कि वह गोजमुमो के भीतर चल रही गुटबाजी को कैसे संभालती है और बिमल गुरुंग की छवि को जनता के सामने कैसे पेश करती है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस प्रस्ताव या गठबन्धन को एक साधारण नजरिए से नहीं देखा जा सकता क्यूंकि गोजमुमो ने अभी तक अलग गोरखालैंड की मांग को छोडा नहीं है और ममता सरकार कभी इसके पक्ष में नहीं रही इसलिए राजनीतिक दृष्टिकोण से यह बेहद कठिन प्रस्ताव है लेकिन भाजपा को पटकनी देने के लिए  तृणमूल के पास और कोई चारा भी नहीं।

फिर भी दोनों की साझेदारी की राह कितनी आसान होती है यह भविष्य में देखना होगा क्यूंकि गोजमुमो द्वारा समर्थन देने की बात कहने और तृणमूल द्वारा इस समर्थन का खुले दिल से स्वागत करने के बावजूद तृणमूल के वरिष्ठ नेता और लोकसभा सांसद सौगत रॉय ने साफ कहा है कि अलग गोरखालैंड की मांग मानने का कोई सवाल ही नहीं तो वहीं बिमल गुरुंग ने भी साफ कर दिया कि अलग गोरखालैंड ही उनकी राजनीति का पहला लक्ष्य है। 

फिलहाल यह कहना ग़लत नहीं कि यदि ममता सरकार उत्तर बंगाल में भाजपा को ध्वस्त करना चाहती है तो उसे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को साथ लेना ही होगा और यदि बिमल गुरुंग एक बार फिर राजनीति में अपनी सम्मानपूर्वक वापसी चाहते हैं और बीजेपी से बदला लेने की नीयत रखते हैं तो गोजमुमो को तृणमूल कांग्रेस के साथ जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं क्यूंकि अब यह बात किसी से छुपी नहीं कि तीन साल भूमिगत रहने के बाद अब गुरुंग राजनीति में अपनी वापसी के लिए बेचैन हैं और जब सिर पर विधानसभा चुनाव हों तो इससे अच्छा मौका दूसरा नहीं हो सकता। 

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं और बंगाल की राजनीति पर क़रीब से नज़र रखती हैं।)

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