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दो टूक: हिंदू राष्ट्र में बिलक़ीस

क्या अत्याचार की पीड़िताओं को अदालतों द्वारा मिले न्याय से भी इसी तरह वंचित किया जाता रहेगा?, बिना डर के और शांति के साथ जीने के अपने अधिकार को बिलक़ीस बानो क्या कभी पा सकेगी!
bilkis bano

किसे मिलता है ‘अमृत; और किसे ‘विष’?

हिन्दुओं के विष्णु पुराण में क्षीरसागर के समुद्र मंथन के बाद देवों को ‘अमृत ’ मिलने और दानवों को विष मिलने की कहानी बतायी गयी है।

वैसे आज़ादी के अमृत काल में - जैसा कि हुक्मरान इस दौर को संबोधित करते हैं - बिल्कुल उलटा नज़ारा उपस्थित है, जहां 41 साल की बिलक़ीस बानो के अत्याचारी आज खुलेआम सड़कों पर घूम रहे हैं - क्योंकि सूबाई सरकार ने उनकी उम्र कैद की सज़ा घटा कर उन्हें रिहा किया है - जगह जगह सम्मानित हो रहे हैं, और खुद बिलक़ीस बिना किसी डर के जीने के अपने अधिकार के लिए, शांति के साथ अपनी जिन्दगी बिताने के लिए फिर एक बार संघर्षरत होने के लिए अभिशप्त है।

जिस बेशर्मी के साथ गुजरात सरकार इस मामले में आगे बढ़ी है, इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि इन दोषसिद्ध अपराधियों की उम्र कैद की सज़ा वह घटाने जा रही है, इसके बारे में उसने कोई भी भनक बिलक़ीस या उनके पति याकूब रसूल को नहीं दी थी।

अब राज्य सरकार जो भी दावे करे यह स्पष्ट है कि इतने बड़े फैसले को - जिस मसले की चर्चा देश और दुनिया के मीडिया में काफी हुई है - बिना केन्द्र सरकार की लिखित/अलिखित सहमति के बिना या उनकी तरफ से मिले संकेत के बिना नहीं लिया जा सकता था। कानून के जानकार बताते हैं कि राज्य सरकार ने इन दोषसिद्धों की सज़ा घटाने का निर्णय केन्द्र सरकार द्वारा इस मसले पर बने तमाम दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए लिया है । गौरतलब है कि कैदियों को रिहा करने या उन्हें सज़ा में छूट देने के जो नियम बने हैं, उनमें साफ तौर पर लिखा गया है कि बलात्कार और हत्या के मुज़रिमों को सज़ा में छूट नहीं मिलेगी। इतना ही नहीं चूंकि सीबीआई ने इस मामले की जांच की थी और अपने ठोस सबूत अदालत के सामने रखे थे, इसलिए तो यह लाजिमी था कि केन्द्र सरकार की अनुमति बिना ऐसी रिहाई मुमकिन ही नहीं थी।

कहा जाता है कि सत्य में यह संभावना छिपी होती है कि उसे कितना भी दबाने की कोशिश करें, वह अचानक उभर आता है। बिलक़ीस के अत्याचारियों की रिहाई के बहाने भी यही सत्य सामने आया है कि प्रधानमंत्राी की बातें कितनी खोखली होती हैं, जहां उनके अपने मातहत भी उन पर चलने से तौबा करते हैं। एक तरफ 15 अगस्त 2022 को आज़ादी की पचहत्तरवी सालगिरह पर नारीशक्ति, नारीसम्मान की बातें वजीरे आज़म कर रहे थे और तालियां बटोर रहे थे और उसके कुछ ही घंटों बाद सामूहिक बलात्कार एवं मासूमों के कत्लेआम के इन दरिंदों को रिहा करने करने का निर्णय मीडिया में सुर्खियां बना था।

वैसे प्रधानमंत्राी एवं गृहमंत्री के अपने गृहराज्य में हत्यारों एवं अत्याचारियों पर सरकारों की यह नज़रें इनायत /कृपा दृष्टि इसी बात को साफ तौर पर बेपर्दा करती है कि हिन्दुत्व वर्चस्ववादी नज़रिये में किस हद तक नारीद्वेष गहराई में धंसा हुआ है और वह विभिन्न रास्तों से वक्तव्यों से बार बार सामने आता रहता है।

वह संसद के पटल पर भी कभी कभी उजागर होता है जब सत्ताधारी पार्टी के अग्रणी नेता विपक्षी पार्टी के नेता की संगिनी को लेकर ‘दस करोड़ की गर्लफ्रेंड ’ जैसे जुमले फेेंकते हैं तो उन्हीें का दूसरा सहयोगी विपक्ष की अग्रणी नेत्री के लिए ‘जर्सी गाय’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से गुरजे नहीं करते।

कानूनी प्रक्रियाओं, नियमों का उल्लंघन करते तथा सार्वजनिक नैतिकता के बुनियादी उसूलों को भी ताक पर रख कर लिए गए इस निर्णय ने सिविल समाज के एक तबके में जबरदस्त आक्रोश पैदा किया है और यह मांग जोरदार तरीके से उठी है कि उम्र कैद की सज़ा घटा कर रिहा किए इन अपराधियों को फिर एक बार जेल की सलाखों के पीछे भेजा जाए और सुप्रीम कोर्ट से यह मांग की गयी है कि न्याय के इस खिलवाड़ को वह रोके।

इस पूरे प्रसंग में विचलित करनेवाली बात यह भी है कि इस निर्णय को लेकर गुस्सा उतना व्यापक नहीं हो सका है जैसा कि निर्भया मामले में (2011) में या पूर्ववर्ती अन्य मामलों में हम लोगों ने देखा था।

क्या इसका मतलब अब लोगों का गुस्सा भी पीड़िता /उत्तरजीवी/ सर्वाइवर की आस्था तक सीमित होता जा रहा है ?

क्या यह दोषसिद्ध लोग - जिनकी सज़ा घटा दी गयी है - जो सामूहिक बलात्कार एवं मासूमों के कत्लेआम के दोषी पाए गए हैं,फिर एक बार सलाखों के पीछे चले जाएंगे?

क्या मुल्क की आला अदालत जिसने इन दोषिसिद्धों को मिली सज़ा पर अपनी मुहर लगा दी थी और जो गुजरात राज्य की अदालतों से इस मामले को मुंबई की अदालत में शिफ्ट करने के लिए जिम्मेदार थी, वह खुद अपने ही स्तर पर इस मामले में दखल देगी ताकि न केवल ‘बिना डर और पूरी शांति के साथ जिन्दगी जीने के ’ बिलक़ीस के अधिकारों की सुरक्षा की जा सके, इतना ही नहीं हर स्त्री या महिला आईंदा अपने उत्पीड़न के मामले में अदालत का दरवाजा खटखटाने से न झिझके, जैसी संभावना इस मनमाने निर्णय के बाद प्रगट की जा रही है। फिलवक्त़ यह खुला सवाल है।

एक बात तो तय है कि आने वाले दिनों में हिन्दुत्व परिवार के तमाम आनुषंगिक संगठनों के सदस्य, कार्यकर्ता इन दोषसिद्धों से मिलते रहेंगे और मुमकिन यह भी है जेल में इतना समय बिताए इन लोगों का सम्मान भी हो, ताकि यह दबाव बनाया जा सके कि उनकी रिहाई के प्रश्न पर पुनर्विचार का मामला जोर न पकड़े।

वैसे जिस तरह से इन सभी दोषसिद्धों का जेल के बाहर ही स्वागत हुआ, उन्हें मालाएं पहनाई गयीं, मिठाइयां खिलाई गई, कुछ लोगों की तो बाकायदा आरती उतारी गयी गोया किसी रणभूमि से लौट रहे हैं, दरअसल इसी बात की ताईद करता है कि मानवता के खिलाफ तरह तरह के अपराधों को अंजाम देने वालों के बारे में हिन्दुत्व के दायरों में क्या सोचा जाता है?

गोधरा जिले की जिस समीक्षा कमेटी ने इन दंगाइयों को रिहा करने का निर्णय लिया था, इनमें से एक भाजपा विधायक रिहाई के बाद यह कहते पाए गए हैं कि यह सभी अभियुक्त ‘ब्राहमण हैं और अच्छे संस्कारों वाले हैं।’

सामूहिक बलात्कार के लिए जिम्मेदार दोषसिद्ध अपराधियों का ऐसा महिमामंडन और सैनिटायजेशन / साफसुथराकरण आप ने किसी दूसरे समाज या मुल्क में नहीं देखा होगा। गौरतलब है कि जेल के बाहर ‘स्वागत’ स्वीकारने के बाद यह सभी दोषसिद्ध शहर के एक अन्य जानेमाने हाॅल में पहुंचे हैं, जहां फिर उनके अभिनंदन का दौर चला है।

फिलवक्त़ यह कहना मुश्किल है कि हिन्दुत्व के जिन जमाती संगठनों ने इन अभियुक्तों को फूलमालाएं पहनायीं, उन्होंने किस वजह से यह सम्मान देना जरूरी समझा! क्या वह उन्हें उनके द्वारा अंजाम दिए गए सामूहिक बलात्कार को लेकर सम्मानित करना चाह रहे थे या उन्होंने जिन हत्याओं को अंजाम दिया, उस पर उनके ‘शौर्य’ पर उनका खैरमकदम करना चाह रहे थे या कथित तौर पर हिंदू राष्ट्र के विचार के लिए जो साल उन्होंने जेलों में बिताए थे, उस पर उनकी हौसलाआफजाई करना चाह रहे थे।

वैसे कोई भी सभ्य समाज ऐसे मानव द्रोही कारनामों को अंजाम देने वालों का, जिन्होंने मासूमों को मार डाला, किसी बच्चे की पत्थर पर पटक कर हत्या की या किसी स्त्री के शरीर पर अपना ‘पराक्रम’ उतारा, उनका सम्मान नहीं कर सकता, अलबत्ता यह ‘न्यू इंडिया’ है, जहां अब सम्मान के शायद नए नियम बने हैं।

अब हक़ीकत यही है कि विगत आठ सालों से अधिक समय से हत्या, बलात्कार या मानवता के खिलाफ अपराध को अंजाम देने वालों का महिमामंडन / उनका स्वागत बढ़ता जा रहा है, उनकी छवि का सैनिटायजेशन / साफसुथराकरण गति पकड़ रहा है।

हम याद कर सकते हैं कि जब अग्रणी पत्राकार एवं एक्टिविस्ट गौरी लंकेश की आततायियों ने हत्या की थी तो टिवटर पर इस हत्या का स्वागत करने वाले कम नहीं थे, जिनमें दधिच नामक एक युवा भी था, जिसे ट्विटर पर सत्ताधारी भाजपा के एक बड़े कर्णधार फालो करते थे ; मोदी सरकार के पहले कालखंड में उन दिनों कैबिनेट मंत्राी पद पर संभाल रहे जयंत सिन्हा ने लिंचिग के दोषसिद्धों का माला पहना कर स्वागत किया था ; या किस तरह पहलू खान,जो हरियाणा का रहनेवाला डेयरी चलाने वाला किसान था, की निशाना लगाकर हत्या करनेवालों की तुलना भगतसिंह जैसे शहीदों से की गयी थी ; या किस तरह दादरी की लिंचिग की घटना के अभियुक्तों में से एक अभियुक्त मर जाने पर उसके पार्थिव शरीर को तिरंगा से ढंक दिया गया था

वैसे यह बदलते वक्त़ की ही निशानी है कि बिलक़ीस के साथ न्याय के नाम पर जो खिलवाड़ किया गया है, जिसमें सत्ताधारी पार्टी की समूची मशीनरी ऊपर से नीचे तक संलिप्त दिखती है, वह कोई अपवाद नहीं है।

बच्चियों पर, किशोरियों पर बलात्कार की घटनाएं सामने आती रहती हैं और उन्हें न्याय दिलाने की लड़ाई बार बार मृगमरीचिका बन जाती दिखती है।

कठुआ की आठ साल की वह बच्ची - जो बक्करवाल समुदाय से थी - उसका अपहरण करके उसके साथ किस तरह कई दिनों तक बलात्कार किया जाता रहा और जिसके लिए किसी मंदिर परिसर का इस्तेमाल किया गया, वह सिहरन करनेवाली कहानी सभी ने पढ़ी होगी और जब बलात्कारियों को पकड़ा गया तब आलम यह बना कि उनकी रिहाई के लिए खुद भाजपा के कई मंत्री हाथों में तिरंगा लिए जुलूसों में शामिल हुए थे। या आप उन्नाव की बलात्कार की घटना से परिचित होंगे जब सत्रह साल की किशोरी, भाजपा के विधायक कुलदीप सेंगर के हाथों यौन अत्याचार का शिकार बनी और फिर उसे न्याय दिलाने की लंबी लड़ाई में पीड़िता के पिता भी मार दिए गए या आप हाथरस में दलित युवती के साथ हुए बलात्कार की घटना से वाकिफ होंगे कि किस तरह अपराधियों को बचाने की कोशिश की गयी और अंततः उसके पार्थिव को रात के अंधेरे में उसके अपने ही गांव में पुलिसवालों ने जला दिया और उसके माता पिता को भी अंतिम दर्शन का मौका नहीं दिया।

यह मसला विचारणीय लग सकता है कि बलात्कार, यौन हिंसा या ‘गैर’ कहे जाने वाले लोगों की हिंसा पर हिन्दुत्व वर्चस्ववादी जमातों में दंडहीनता (impunity ) की मानसिकता कैसे व्याप्त है।

क्या हम कह सकते हैं कि उसकी जड़े ‘‘हिन्दुत्व के अग्रणी विचारक’ कहे गए सावरकर के लेखन और चिंतन में मिलती हैं जिन्होंने ‘बदले की राजनीति’ की समझदारी, यहां तक कि हिन्दु राष्ट्र की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए बलात्कार को भी एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चर्चा अपने चर्चित ग्रंथ ‘भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने’ (‘Six Golden Epochs in Indian History)में की।

अपनी इस किताब में सावरकर ‘मुसलमानों के सामूहिक जुर्म /अपराध ‘collective guilt of Muslims. की बात करते हैं। वह यह थीसिस प्रस्तुत करते हैं कि मुसलमानों को न केवल इस बात के लिए दंडित करना चाहिए कि उन्होंने खुद क्या किया बल्कि उनके समानधर्मी लोग क्या कर रहे हैं, उसके लिए भी वह दंड के भागीदार होने चाहिए।

सावरकर की जिन्दगी का बहुत कम ज्ञान अलबत्ता बेहद निंदनीय पहलू है कि वह शिवाजी महाराज द्वारा कल्याण के नवाब की बहू के साथ बरती शिष्टता को लेकर उनकी बहुत आलोचना करते हैं। बताया जाता है कि कल्याण के नवाब की बहू को गिरफ्तार करके शिवाजी महाराज के सामने किसी ने पेश किया था। इस बहू को नज़राना के तौर पर पेश करने के लिए न केवल शिवाजी महाराज ने अपने उस सेनापति की निंदा की बल्कि उस युवती को ससम्मान अपने घर भेज दिया। सावरकर इस कार्रवाई को विकृत सदाचार की कार्रवाई (act of perverted virtue कहते हैं / भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने, खंड 4 और 5, पेज 147, 174, ;( Six Glorious Epochs of Indian History, P. 461, Delhi, Rajdhani Granthagar, 1971.)

शिवाजी महाराज की निंदा करके ही सावरकर रूकते नहीं है, वह कहते हैं कि यह बिल्कुल गलत था क्योंकि उनके साथ इस किस्म के सभ्य और मानवीय व्यवहार के चलते उन अतिवादियों मन में हिंदू स्त्रियों के प्रति कोई सम्मान नहीं जगा होगा। क्या यह कहना उचित होगा एक परस्त्री के साथ शिष्टाचार के शिवाजी महाराज के आचरण की निंदा के जरिए सावरकर एक तरह से हिन्दुत्व ब्रिगेड के अतिवादियों को एक संदेश देते हैं और एक तरह से ‘अन्य’ धर्मीय स्त्रियों पर यौन अत्याचार के लिए सैद्धांतिक औचित्य प्रदान करते हैं, जिसका अमल हम आज़ादी के बाद के तमाम सांप्रदायिक दंगों में बखूबी देख चुके हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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