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हिजाब मामला : सुप्रीम कोर्ट के बंटे हुए फ़ैसले के क्या मायने हैं?

कर्नाटक सरकार द्वारा हिजाब पहनने वाली माहिला छात्रों पर शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिबंध और ड्रेस कोड को कर्नाटक शिक्षा अधिनियम, 1983 के आधार पर लागू किया गया था।
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सुप्रीम कोर्ट के बंटे हुए फैसले के कारण, अब मामले को एक बड़ी पीठ का गठन करने की अपील के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश के सामने लाया गया है।

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आज सुबह, सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ, जिसमें जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया शामिल हैं, ने इस साल की शुरुआत में कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के मामले में एक खंडित फैसला दिया है, इसलिए हिजाब पर प्रतिबंध बरकरार रहेगा, जिसे कर्नाटक सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने वाली माहिला छात्रों पर प्रतिबंध और ड्रेस कोड लागू किया और जिसका आधार कर्नाटक सरकार ड्रेस कोड पर आदेश और कर्नाटक शिक्षा अधिनियम, 1983 था। 

न्यायमूर्ति गुप्ता ने सभी अपीलों और रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया, जबकि न्यायमूर्ति धूलिया ने सभी अपीलों के साथ-साथ रिट याचिकाओं को तरजीह दी और उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया, सरकारी आदेश को रद्द कर दिया और कर्नाटक में स्कूलों और कॉलेजों में कहीं भी हिजाब पहनने पर प्रतिबंध हटा दिया है।

लीफ़लेट यहाँ कोर्ट के फैसले और उसके पीछे के तर्क की परतें खोल रहा है:

जस्टिस गुप्ता फैसला क्या कहता है?

न्यायमूर्ति गुप्ता ने मामले में उठाए गए निम्नलिखित ग्यारह प्रश्नों को तरजीह दी, और उनमें से हर सवाल का उत्तर कर्नाटक सरकार के आदेश के पक्ष में दिया:

"(i) क्या अपीलों की सुनवाई कांतारू राजीवरु (धर्म का अधिकार) के साथ की जानी चाहिए और/या संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत वर्तमान अपीलों को संविधान पीठ को भेजा जाना चाहिए?"

उन्होंने इसका जवाब नकारात्मक दिया, क्योंकि वर्तमान मामले में यह मुद्दा है, कि क्या छात्र अपने धार्मिक विश्वासों को किसी धर्मनिरपेक्ष संस्थान में लागू कर सकते हैं, नहीं, उनके अनुसार संविधान की व्याख्या करना कानून का एक महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है "यह केवल इस  कारण है कि अपीलकर्ताओं ने जिस का दावा किया है उस अधिकार को संविधान के तहत प्रदान किया गया है"। इसलिए, उन्होंने फैसला दिया कि इसे एक बड़ी बेंच को संदर्भित करने या कंटारू राजीवारू के साथ इसे सुनने की कोई जरूरत नहीं है।

"(ii) क्या राज्य सरकार कॉलेज विकास समिति या प्रबंधन बोर्ड के ज़रिए वर्दी पहनने के अपने   निर्णय को लागू कर सकती है और क्या सरकार के आदेश के रूप में यह प्रतिबंध/निषेध कॉलेज विकास समिति को फैसला लेने का अधिकार देता है या अन्यथा हिजाब पर प्रतिबंध [कर्नाटक शिक्षा अधिनियम] की धारा 143 का पूर्व दृष्टया उल्लंघन है?”

यह मानते हुए कि कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल वैधानिक नियमों के पूरक के रूप में  किया जा सकता है, न्यायमूर्ति गुप्ता ने यह नहीं पाया कि कॉलेज विकास समिति का गठन कर्नाटक शिक्षा अधिनियम या उसके तहत बनाए गए नियमों के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करता है, या न ही यह पाया कि वर्दी का विनियमन समिति  के दायरे से बाहर है।

"(iii) अनुच्छेद 25 के तहत 'विवेक' और 'धर्म' की स्वतंत्रता के अधिकार का दायरा और क्षेत्र  क्या है?"

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि सरकारी आदेश का उद्देश्य छात्रों के बीच वर्दी के मामले में समानता सुनिश्चित करना, एकरूपता को बढ़ावा देना और स्कूलों में एक धर्मनिरपेक्ष वातावरण को बढ़ावा देना है। उनके अनुसार, यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत अधिकार के अनुरूप है। इसलिए, उन्होंने कहा कि "धर्म और अंतरात्मा की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों को अनुच्छेद 25 (1) के प्रतिबंधों के तहत भाग III के अन्य प्रावधानों के साथ-साथ पढ़ा जाना चाहिए।"

"(iv) संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत जरूरी धार्मिक प्रथाओं का दायरा और क्षेत्र क्या है?"

न्यायमूर्ति गुप्ता ने फैसला सुनाया कि चूंकि अनुच्छेद 25 (2) को नकारात्मक रूप से लिखा गया है, "यदि राज्य धर्म से जुड़े आर्थिक, राजनीतिक, वित्तीय या अन्य धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को विनियमित करना चाहता है, तो राज्य के कानून को प्रस्तावित अधिकार पर प्रधानता देनी होगी। इसी प्रकार, यदि किसी धर्म की कोई विशेष प्रथा/विश्वास/भाग अस्तित्व में है और उसे "सामाजिक कल्याण" और "सुधार" की जरूरत है, तो ऐसे अधिकार को "सामाजिक कल्याण" और "सुधार" को सर्वोपरी मानना होगा।"

वह बताते हैं कि हिजाब पहनना किसी व्यक्ति के विश्वास या धर्म पर आधारित है, और इस धार्मिक विश्वास को राज्य निधि से बने किसी धर्मनिरपेक्ष स्कूल में लागू नहीं किया जा सकता है। यह छात्रों को किसी स्कूल में अपना विश्वास जारी रखने से नहीं रोकता है जो उन्हें ऐसा करने की अनुमति देता है, लेकिन राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में यह निर्देश दे सकता है कि धार्मिक विश्वासों के स्पष्ट प्रतीकों को राज्य निधि से बने स्कूलों में लागू न किया जाए।  इस प्रकार, उन्होंने माना कि सरकारी आदेश के अनुसार हिजाब पहनने की प्रथा को राज्य द्वारा प्रतिबंधित किया जा सकता है

"(v) क्या अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत निजता के अधिकार परस्पर अनन्य हैं या वे एक दूसरे के पूरक हैं; और क्या सरकारी आदेश अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 14 के उद्देश्य के तर्क की निषेधाज्ञा नहीं है?"

इस संबंध में न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि कोई भी मौलिक अधिकार निरपेक्ष नहीं है और उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए दिए गए मौलिक अधिकारों में कटौती की अनुमति है जो उचित है। उनके अनुसार शासनादेश का मकसद एवं उद्देश्य निर्धारित ड्रेस का पालन कर छात्रों में एकरूपता बनाये रखना है। उस तक, यह अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अधिकार का एक उचित विनियमन है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने कहा कि "अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 के तहत निजता का अधिकार एक-दूसरे के पूरक हैं और परस्पर अनन्य नहीं हैं और अनुच्छेद 21 और 14 के उद्देश्यों के प्रति तर्कसंगतता के निषेध को पूरा करते हैं।"

"(vi) क्या सरकारी आदेश संविधान की प्रस्तावना के तहत बंधुत्व और गरिमा के संवैधानिक वादे के साथ-साथ अनुच्छेद 51-ए उप-खंड (ई) और (एफ) के तहत उल्लिखित मौलिक कर्तव्यों पर लागू होता है?"

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि सरकारी आदेश, वास्तव में एक समान वातावरण को बढ़ावा देता है जिसमें बिना किसी बाधा के भाईचारे के मूल्यों को आत्मसात और पोषित किया जा सकता है। दूसरी ओर, उनके विचार में, यदि छात्रों को कक्षा के अंदर हिजाब पहनने की अनुमति दी जाती है, तो समुदाय की अवधारणा खंडित हो जाएगी, क्योंकि "हिजाब पहनने से कुछ छात्रों का अंतर स्पष्ट नज़र आएगा जो छात्रों को समरूप समूह नहीं बनने देगा। वह स्कूल जहाँ शिक्षा सबको समान रूप से दी जानी है, वह भी किसी भी धार्मिक पहचान चिह्न की परवाह किए बिना दी जानी है। यदि छात्रों को उनके प्रत्यक्ष धार्मिक प्रतीकों को कक्षा में ले जाने की अनुमति दी जाती है तो बंधुत्व का संवैधानिक लक्ष्य पराजित हो जाएगा।

उन्होंने नोट किया कि यदि छात्रों को इसके किसी भी हिस्से को जोड़ने या घटाने की अनुमति दी जाती है तो निर्धारित वर्दी अपना अर्थ खो देगी। उन्होंने दोहराया कि एक धर्मनिरपेक्ष, राज्य सहायता प्राप्त स्कूल में, राज्य वर्दी के अलावा किसी अन्य चीज की अनुमति नहीं देने के मामले में सक्षम है।

उन्होंने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि हिजाब पहनने से छात्राओं को सम्मान मिलता है, क्योंकि छात्राएं लड़कियों के कालेज़ में पढ़ती हैं। उनका मानना ​​है कि छात्रों को अपने धार्मिक प्रतीकों को स्कूलों के बाहर इस्तेमाल करने की स्वतंत्रता है, लेकिन प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज में, उन्हें "एक जैसा दिखना चाहिए, एक जैसा महसूस करना चाहिए, एक जैसा सोचना चाहिए और एक सौहार्दपूर्ण माहौल में एक साथ अध्ययन करना चाहिए।"

"(vii) यदि हिजाब पहनने को एक जरूरी धार्मिक प्रथा के रूप में माना जाता है, तो क्या छात्र अधिकार के रूप में एक धर्मनिरपेक्ष स्कूल में हिजाब पहनने के अधिकार की मांग कर सकते हैं?"

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि छात्रों को वर्दी के मामले में स्कूल के अनुशासन का पालन करना जरूरी है, और यदि वे क़ानून के तहत राज्य द्वारा तय वर्दी के आदेश का उल्लंघन करते हैं तो उन्हे स्कूल में रहने का कोई हक़ नहीं है।

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि सरकार के आदेश के बावजूद शिक्षा का अधिकार सभी छात्रों के लिए उपलब्ध है, और यह छात्र की पसंद है कि वह इस अधिकार का लाभ उठाए या नहीं। छात्राएं यह शर्त नहीं रख सकती कि जब तक उसे किसी धर्म निरपेक्ष स्कूल में हिजाब पहन कर आने की अनुमति नहीं दी जाती, वह स्कूल नहीं जाएगी। यह छात्र ही है जो स्कूल के नहीं, बल्कि वर्दी के नियमों का पालन नहीं करने का फैसला कर रहे हैं। 

 "(ix) क्या संवैधानिक विचार में, राज्य अपने नागरिकों को 'उचित गुंज़ाइश' सुनिश्चित को लिए बाध्य है?" 

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि यद्यपि हमारे देश में अदालतों ने उचित गुंज़ाइश देने के सिद्धांत को अपनाया है, लेकिन इसका वर्तमान मामले से कोई संबंध नहीं है। उनके अनुसार, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व और गरिमा जैसे संवैधानिक लक्ष्य सभी को समानता देते हैं और किसी को वरीयता नहीं देते हैं। याचिकाकर्ताओं द्वारा मांगी गई गुंज़ाइश, इस प्रकार, अनुच्छेद 14 की भावना के विपरीत है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप धर्मनिरपेक्ष स्कूलों में छात्रों के साथ अलग व्यवहार होगा जो विभिन्न धार्मिक मान्यताओं का पालन कर रहे होंगे।

"(x) क्या सरकार का आदेश, संविधान के अनुच्छेद 21, 21A, 39(एफ), 41, 46 और 51ए के तहत अनिवार्य साक्षरता और शिक्षा को बढ़ावा देने के राज्य के हित के विपरीत है?"

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि सरकारी आदेश को साक्षरता और शिक्षा को बढ़ावा देने के राज्य के वैध लक्ष्य के विपरीत नहीं माना जा सकता है। किसी के लिए भी, अनुच्छेद 21ए इस मामले में लागू नहीं होता है क्योंकि सभी छात्र 14 वर्ष से अधिक आयु के हैं। छात्रों को अनुच्छेद 21 के तहत शिक्षा का अधिकार है, लेकिन तय वर्दी के अलावा अन्य कुछ पहनने पर जोर देने का हक़ नहीं है।

उनका मत है कि "सरकारी आदेश केवल यह सुनिश्चित करता है कि छात्रों द्वारा तय वर्दी का पालन किया जाए और यह नहीं कहा जा सकता है कि राज्य इस तरह के आदेश के माध्यम से छात्राओं की शिक्षा तक पहुंच को प्रतिबंधित कर रहा है।"

"(xi) क्या सरकारी आदेश न तो शिक्षा तक कोई समान पहुंच हासिल करता है, न ही धर्मनिरपेक्षता की नैतिकता की सेवा करता है, और न ही कर्नाटक शिक्षा अधिनियम के उद्देश्य के लिए ही वह सही है?"

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि स्कूल की वर्दी समानता, एकता और अनुशासन को बढ़ावा देती है। चूंकि धर्मनिरपेक्षता सभी नागरिकों पर लागू होती है, इसलिए एक धार्मिक समुदाय को अपने धार्मिक प्रतीकों को पहनने की अनुमति देना धर्मनिरपेक्षता के विपरीत होगा। इस प्रकार, उन्होंने निर्णय लिया कि सरकारी आदेश को धर्मनिरपेक्षता की नैतिकता के विरुद्ध या कर्नाटक शिक्षा अधिनियम के उद्देश्य के विरुद्ध नहीं माना जा सकता है।

जस्टिस धूलिया का फैसला क्या कहता है?

न्यायमूर्ति धूलिया ने अपने फैसले की शुरुआत उच्च न्यायालय द्वारा तैयार किए गए चार प्रश्नों पर चर्चा करते हुए की, और इसके पीछे के तर्क पर कि उसने हर एक का उत्तर कैसे तैयार किया।

उनका मानना ​​है कि विवाद को तय करते समय जरूरी धार्मिक प्रथाओं ('ईआरपी') का प्रश्न बिल्कुल भी प्रासंगिक नहीं था। उनका तर्क है कि जब संविधान के अनुच्छेद 25(1) के तहत सुरक्षा की मांग की जाती है, जैसा कि वर्तमान मामले में किया जा रहा है, इसमें ईआरपी की स्थापना की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह केवल कोई धार्मिक प्रथा, आस्था या विवेक का मामला हो सकता है। .

उनका मत है कि ईआरपी के रास्ते को किसी सीमा की जरूरत के रूप में लेने के बजाय, उच्च न्यायालय को पहले यह जांचना चाहिए था कि क्या प्रतिबंध वैध थे, या वे आनुपातिकता के सिद्धांत से प्रभावित थे।

ईआरपी पर अदालत के न्यायशास्त्र को अलग करते हुए, उन्होंने नोट किया कि व्यक्तिगत अधिकार के दावे का मामला सामुदायिक अधिकारों से अलग है: जबकि अनुच्छेद 25 (1) व्यक्तिगत अधिकारों से संबंधित है, अनुच्छेद 25 (2) और अनुच्छेद 26 समुदाय आधारित अधिकारों से संबंधित है। चूंकि अदालत का ईआरपी न्यायशास्त्र बाद वाले से संबंधित है, यह उदाहरण के मामले में प्रासंगिक नहीं है।

उनका मानना है कि इस विवाद के निर्धारण के लिए हिजाब पहनना इस्लाम में ईआरपी है या नहीं यह जरूरी नहीं है। उनके विचार में, "यदि आस्था ईमानदार है, और यह किसी और को नुकसान नहीं पहुंचाती है, तो कक्षा में हिजाब पर प्रतिबंध लगाने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता है।"

उन्होंने आगे कहा कि अदालतों को धार्मिक प्रश्नों को हल करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होने पर ही उन्हें हस्तक्षेप करना चाहिए।

इसके बाद, वह बताते हैं कि अदालत के 1986 के बिजो इमैनुएल फैसले पर विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि इसका अनुपात उदाहरण के मामले पर लागू होता है।

वे मानते हैं कि स्कूलों में अनुशासन होना जरूरी है, लेकिन स्वतंत्रता या सम्मान की कीमत पर नहीं। उनका मानना ​​है कि किसी विश्वविद्यालय की छात्रा को स्कूल के गेट पर हिजाब उतारने के लिए कहना उसकी निजता और गरिमा पर हमला है, और स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 19 (1) (ए) और 21 के तहत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी है।

वे सवाल उठाते हैं कि क्या अधिक महत्वपूर्ण है: एक बालिका की शिक्षा या एक ड्रेस कोड लागू करना। वह यह भी सवाल उठाते हैं कि क्या सिर्फ इसलिए कि वह हिजाब पहनती है, और उसे शिक्षा से इनकार कर दिया जाना चाहिए, इससे कैसे किसी लड़की के जीवन को बेहतर बनाया जा सकता है।

उनका मानना है कि एक बालिका को "अपने घर में या अपने घर के बाहर हिजाब पहनने का अधिकार है, और यह अधिकार उससे उसके स्कूल के गेट पर नहीं छिना जा सकता है। जब वह स्कूल के गेट के अंदर, अपनी कक्षा में होती है तब भी बच्चा अपनी गरिमा और अपनी निजता को बनाए रख सकता है।”

उनका यह भी मानना है कि हिजाब पहनने पर रोक लगाने वाला सरकारी आदेश भाईचारे और मानवीय गरिमा के संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके अनुसार, बिरादरी को दूसरों की आस्थाओं और धार्मिक प्रथाओं के प्रति सहिष्णुता और मिलनसारी की जरूरत है। उन्होंने छात्रों के बीच विविधता का सम्मान करने उसे स्वीकार करने और विकसित करने के महत्व पर भी जोर दिया।

उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि हमारे संवैधानिक विचार के अनुसार, हिजाब पहनना केवल पसंद का मामला है। "यह जरूरी धार्मिक अभ्यास का मामला हो सकता है या नहीं भी हो सकता है, लेकिन यह अभी भी अंतरात्मा, विश्वास और अभिव्यक्ति का मामला है। वे नोट अरते हैं कि, "यदि वह अपनी क्लास रूम के अंदर भी हिजाब पहनना चाहती है, तो उसे रोका नहीं जा सकता, अगर इसे उसकी पसंद के मामले में पहना जाता है।" इसके अलावा, वह यह भी बताते हैं कि हिजाब प्रतिबंध का कई लड़कियों को शिक्षा से वंचित करने का दुर्भाग्यपूर्ण और अनपेक्षित प्रभाव होगा। उन्होंने शिक्षा तक पहुँचने में लड़कियों के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा करते हुए इस पर विस्तार से चर्चा की।

उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि "लड़कियों को स्कूल के गेट में प्रवेश करने से पहले उन्हे   हिजाब उतारने के लिए कहना, पहले तो उनकी निजता पर हमला है, फिर यह उनकी गरिमा पर भी हमला है, और फिर अंततः यह धर्मनिरपेक्ष शिक्षा से इनकार भी है। ये स्पष्ट रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए), अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 25(1) का उल्लंघन हैं।

लेखक, दिल्ली स्थित वकील और द लीफलेट में सहायक संपादक हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित साक्षात्कार को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Decoding the Supreme Court’s Split Verdict on Hijab Ban

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