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हिमाचल: मध्याह्न भोजन के लिए रसोइए की भर्ती में सांस्थानिक जातिवाद 

शिमला जिले के चार तहसीलों में दोपहर के भोजन की योजना के तहत एक भी दलित रसोइया-सह- सहायक को काम पर नहीं रखा गया है। यह प्रवृत्ति हिमाचल प्रदेश के स्कूलों में संस्थानिक नस्लवाद के बड़े मसले की तरफ इशारा करती है। 
हिमाचल: मध्याह्न भोजन के लिए रसोइए की भर्ती में सांस्थानिक जातिवाद 
दोपहर का भोजन करते बच्चे। चित्र केवल प्रतीकात्मक उपयोग के लिए। 

शिमला 

नीरज कुमार इन पहाड़ों के शिखरों की तऱफ दूर से अपनी उंगली उठाते हुए कहते हैं, "इन पहाड़ों की तरफ आप अपनी नजरें दौड़ाएं तो आप देख सकते हैं कि यहां इस क्षेत्र के किसी भी स्कूल में एक भी दलित रसोइया नहीं है।" कुमार, जो खुद भी दलित हैं, वे कहते हैं, "यहां गांवों (शिमला के) में जातिवाद की प्रथा इस कदर मजबूत है कि उसका असर स्कूलों में रसोइए को काम पर रखने तक में दिखता है।" 

इस सरकारी स्कूल के शिक्षक नीरज कुमार का दावा वास्तविकता से बहुत दूर भी नहीं लगती है। हिमरी पंचायत (कोथाई तहसील) के अंतर्गत नौ प्राथमिक एवं मध्य विद्यालय हैं, जिनमें से एक स्कूल में स्वयं नीरज भी एक शिक्षक हैं। इनमें से किसी भी स्कूल में एक भी दलित को रसोइया-सह-सहायक के काम में नहीं लगाया गया है। चाहे वह हिमरी की पड़ोसी पंचायत देवगढ़ हो या यहां से 80 किलोमीटर दूर का सारान्ह पंचायत, यहां भी वही कहानी है कि एक भी दलित इन दोनों पंचायतों के सरकारी विद्यालयों की किसी भी रसोई के भीतर नहीं घुस पाया है। तहसील थियोग के कयार पंचायत में भी स्थिति में कोई फर्क नहीं है, जहां सातों प्राइमरी एवं मिड्ल स्कूलों के रसोई ऊंची जाति के हैं। 

शिमला जिले की इन चार पंचायतों की स्थिति इसे राज्यव्यापी परिदृश्य होने की तरफ इशारा करती है। 

फरवरी 2020 में, हिमाचल प्रदेश में मिड-डे मील योजना के लिए काम करने वाले 21,533 रसोइयों-सह-सहायकों में से केवल 16.6% अनुसूचित जाति (दलित) से थे। फिलहाल महामारी को देखते हुए इस योजना के तहत बच्चों को भोजन के बदले नकद ही भुगतान किया जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा एवं साक्षरता विभाग के आंकड़ों के अनुसार पूरे राज्य में केवल 3,609 दलित रसोइए थे, जबकि दलितों की संख्या राज्य की कुल आबादी में एक चौथाई है। दरअसल, हिमाचल प्रदेश में दलित की आबादी 25.2 फीसदी है, जो इस मामले में पूरे देश पर दूसरे नम्बर पर आता है। दलितों के प्रतिनिधित्व में यह भेदभाव केंद्र सरकार के दिए गए दिशा-निर्देशों के बावजूद किया जा रहा है, जिनमें दलितों एवं समाज के अन्य कमजोर वर्गों के लोगों को खास तरजीह देने की बात कही गई है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय, जिसे इसके पहले मानवसंसाधन विकास मंत्रालय के रूप में जाना जाता था, उसने भी विगत वर्षों में हिमाचल सरकार के शिक्षा विभाग को कई पत्र लिख कर कहा था, “राज्य सरकार समाज के कमजोर वर्गों जैसे महिलाएं, एससी/एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यकों को रसोइए-सह-सहायकों की सेवाएं लेने को वरीयता दे।”

 राकेश वर्मा, जो खुद एक किसान हैं और जराई गांव (देवगढ़ पंचायत) के एक सरकारी हाईस्कूल की मैनेजमेंट कमेटी के सदस्य हैं, कहते हैं, "अगर हम दलित रसोइए को काम पर रख लेते हैं, तो ब्राह्मण एवं राजपूत जैसी ऊंची जातियों के बच्चे उनका बनाया या छुआ हुआ खाना नहीं खाएंगे। हमारी संस्कृति छात्रों के भोजन की तैयारी के लिए दलितों की भर्ती की इजाजत नहीं देती।" स्कूल प्रबंध समिति में शिक्षक, छात्रों के माता-पिता एवं अन्य लोग शामिल होते हैं और यही स्कूल में रसोइए की भर्ती के लिए जवाबदेह होती है। 

वर्मा आगे कहते हैं,"दलित चपरासी के रूप में काम करते हैं और यहां तक कि वे स्कूलों में शिक्षक भी हो सकते हैं, लेकिन हम उनका छुआ हुआ खाना नहीं खा सकते। आप यहां किसी भी गांव में चले जाइए, आपको स्कूलों में निम्न जातियों का एक भी रसोइया नहीं मिलेगा।" 

राजीव मेहता (35) जो हिमरी पंचायत के पूर्व प्रधान हैं, वे कहते हैं, "यहां के लोग घोर जातिवादी हैं और ऐसे में दोपहर भोजन योजना के तहत किसी दलित रसोइए को काम पर रखने में बड़ा जोखिम है क्योंकि ऊंची जातियों से आने वाले बच्चे उनका बनाया खाना नहीं खाएंगे। ग्रामवासी तो ऐसी चीजों को सिरे से नकार देंगे।”

मेहता ने कहा, "हिमरी में दलितों की 35 फीसदी से अधिक आबादी होने के बावजूद, निम्न जातियों से आने वाले एक भी व्यक्ति को रसोइए के रूप में नहीं रखा गया है। अगर आरक्षण की सुविधा नहीं होती तो प्रधान के पद पर मेरा भी चुनाव मुमकिन नहीं होता।" मेहता दलित हैं।”

मेहता को डर है कि दलित रसोइए के काम पर रखने में कहीं कोई बवाल न हो जाए, यह भय बेबुनियाद भी नहीं है। 

60 वर्षीया कुलिका देवी, जिनके दो पोता-पोती जराई (देवगढ़ पंचायत) के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, बताते हैं, "कैसे एक दलित हमारे बच्चों के लिए भोजन बनाएगा और कैसे हम वह भोजन अपने बच्चों को ग्रहण करने देंगे? हमलोग ब्राह्मण हैं, और चूंकि हम स्थानीय मंदिरों में भगवान की आरती-वंदना करते हैं, हम दलित का बनाया भोजन ग्रहण करना तो दूर, उसे छू भी नहीं सकते, नहीं तो हम अशुद्ध हो जाएंगे।” 

13 वर्ष की यशिका शर्मा जो जरई गांव के स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती हैं बताती हैं, “ऐसा प्रतीत होता है कि कुलिका देवी ने अपनी जातिगत शुद्धता का पीढीगत विश्वास अपने पोते-पोती के मन-मस्तिष्क में भी भली भांति जमा दिया है। हमारे क्लास में 11 छात्रों में से पांच दलित हैं। क्लास में हम एक दूसरे की जाति के बारे में जानते हैं। अब जबकि हमारी कक्षाएं ऑनलाइन होती हैं, लेकिन जब भी हम स्कूल में होते हैं, हम (ऊंची जातियों) अपने सहपाठी (दलित छात्र) का छुआ हुआ भोजन नहीं ग्रहण करते।” 

ऐसा लगता है कि यशिका ने अपने परिवार से जो विश्वास अर्जित है, उसे उनकी उच्च जाति के स्कूल के शिक्षकों ने भी परवान चढ़ाया है, जो कथित तौर पर दलित शिक्षकों के साथ भिन्न व्यवहार करते हैं। 

इनमें से एक शिक्षिका, जो जरई के स्कूल में ही पढ़ाती हैं, अपने नाम को जाहिर न करने का अनुरोध करते हुए कहा, “स्कूल में एक ही दलित शिक्षक हैं, जबकि बाकी सभी ऊंची जातियों के शिक्षक हैं। कोविड महामारी के पहले जब स्कूल के किचन में दोपहर का भोजन बनाया जाता था, तब उन दलित शिक्षक को स्कूल के उन बर्तनों को भी छूने की अनुमति नहीं थी, जिनमें बच्चों के लिए भोजन बनाया जाता था। पहले, उन्हें बाकी शिक्षकों की तरह स्कूल के किचन में भी घुस आने की इजाजत नहीं थी।" 

 मेहता कहते हैं, "जब ऐसी जातिवादी मानसिकता वाले लोग हैं, तो ऐसी रिपोर्टों के बारे में क्या आश्चर्य जताना, जिनमें कहा गया है कि दोपहर भोजन के दौरान दलित बच्चों को जबर्दस्ती अलग पांत में बिठाया जाता है?" वे मंडी जिले के 2019 के एक मामले का हवाला दे रहे हैं, जहां के सरकारी प्राइमरी स्कूल में दलित बच्चों को भोजन के लिए कथित रूप से अलग कतार में बैठाया जाता है। हिमाचल प्रदेश के स्कूलों में जातिगत भेदभाव का आरोप लगाने वाला ऐसा मामला इसके पहले भी उजागर हुआ है। फरवरी 2018 में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘परीक्षा पर चर्चा’ के प्रसारण के दौरान कुल्लू के सरकारी हाईस्कूल में दलित छात्रों को बाहर अलग से बैठाया गया था।

मेहता जबकि अपने लोगों पर अधिक भरोसा नहीं करते, पर उनका मानना है कि सकारात्मक कार्रवाई समान भागीदारी की दिशा में आगे बढ़ने का एक रास्ता हो सकती है। वे कहते हैं, "दलितों को अपने साथ भोजन नहीं करने देना ही जातिवाद नहीं है, दलितों को जानबूझ कर काम पर नहीं रखा जा रहा है तो यह भी जातिगत भेदभाव है। लोगों के विश्वासों को बदलना हालांकि कठिन है, ऐसे में हमें दोपहर भोजन योजना में भी आरक्षण-नीति को लागू करने की आवश्यकता है।"

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Himachal: Institutional Casteism In Hiring Of Cooks For Mid Day Meals

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