Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हिमाचल को हो रहा आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से जुड़े सेब उत्पादन से नुक़सान

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के कई फ़ायदे हैं, लेकिन इसके नुक़सान भी हैं। सेब की उच्च घनत्व वाली किस्मों की ओर झुकाव ने पूंजी निवेश और मशीनीकरण में वृद्धि की है।
apple
फाइल फ़ोटो।

सेब उत्पादन हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था और आजीविका का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अंकुरण में हाल में हुए विकास ने इस प्रमुख क्षेत्र को काफी महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है। हिमाचल, भारत में सेब उत्पादन में दूसरे स्थान पर है, जिसमें सेब का कुल उत्पादन का 85 प्रतिशत और फलों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 48.8 प्रतिशत है।

सेब का कुल उत्पादन इलाका और संचयी उपज 'बड़े पैमाने पर बागवानी उत्पादन' की एक रोमांचक तस्वीर प्रस्तुत करती है। 1950-51 में केवल 500 हेक्टेयर भूमि में फलों का उत्पादन होता था जो 1960-61 में 5,025 हेक्टेयर में पहुंचा, और फिर 2021-22 तक, यह बढ़कर लगभग 1,15,016 हेक्टेयर क्षेत्र में आ गया है। पहाड़ी राज्य के संस्थापक मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार के प्रयासों की बदौलत यह यात्रा इतनी ऊंचाइयों तक पहुंची है।

फसल पैटर्न और किस्मों में आए प्रमुख बदलाव

हमने इन कॉलमों में राज्य में सेब की फसल पर आए संकट और सेब किसानों के बीच बड़े पैमाने पर अशांति के बारे में बताया था। अशांति के महत्वपूर्ण मुद्दे फसल की 'उत्पादन लागत में वृद्धि' और 'बाजार की सहजता' हैं जो उत्पादकों को कम कीमत देती हैं। सेब की फसल खरीदने के लिए बड़े खिलाड़ी पहले ही बाजार में उतर चुके हैं और सेब की फसल की खरीद को प्रभावित कर चुके हैं।

यह अशांति हाल के विधानसभा चुनावों में हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार के मुख्य कारणों में से एक थी, जो लोगों के गुस्से को संभाल नहीं पाई। वर्तमान सरकार ने 'यूनिवर्सल कार्टन' के रूप में एक किस्म के मध्यस्थ समझौते तक पहुंचने की कोशिश की है।

हालाँकि, सेब उत्पादन में देखे गए बदलावों को 'बड़े पैमाने पर बागवानी उत्पादन' की अवधारणा में एक महत्वपूर्ण व्यवधान माना जा सकता है।

इसे लेखक द्वारा हाल ही में राज्य के कोटखाई क्षेत्र में गुम्मा की यात्रा से हुए अनुभव के माध्यम से समझाया जा सकता है। वहां के एक धनी किसान ने इटली की एक नर्सरी से सेब की नई आयातित किस्मों का प्रयोग किया है।

उन्होंने लगभग 4,000 वर्ग मीटर के इलाके में 1,500 पौधे लगाए हैं। ये पौधे पारंपरिक से अलग हैं। ये रूटस्टॉक्स हैं, जिन्हे उच्च घनत्व वाली किस्म में क्लोन किया गया है। पारंपरिक पद्धति और इन नई किस्मों के बीच अंतर यह है कि पुराने/पहले वाले बीजों से विकसित किए जाने वाले पौधे लगभग 10-12 वर्षों में परिपक्व हो जाते थे। इसके विपरीत, नई रूटस्टॉक किस्में तीन साल में फल देना शुरू कर देती हैं।

1,500 पौधे लगाने की लागत लगभग 30 लाख रुपये है, और वृक्षारोपण की विधि 'संरक्षित वातावरण' में की जाती है। फसल पद्धति अत्यधिक यंत्रीकृत और डिजिटल है। पहले जहां पौधों को पहाड़ी ढलानों या खेतों में लगाया जाता था वहीं इन नए पौधों को कृत्रिम सामग्री से ढके आधार के साथ सापेक्ष स्थिति में रखा जाता है। पुरानी विधि में ऐसा इस बात को सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था ताकि पानी का संरक्षण हो और खरपतवारों न बढ़े। 

पौधे की उपज अधिक होती है, और दिए गए क्षेत्र में पारंपरिक और रूटस्टॉक के बीच का अंतर उत्पादन से लगभग दोगुना होता है।

सिर्फ इटालियन ही नहीं; बाकी बाजार में इजरायली, अमेरिकी और बेल्जियम के लोग भी हैं जो  राज्य में एक बड़े बाजार की संभावनाएं तलाश रहे हैं।

आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस की भूमिका

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। 'फसल', नामक कंपनी बैंगलोर स्थित कंपनी है और इसमें सिंगापुर और ऑस्ट्रेलियाई कंपनियां निवेशक हैं, जो मिट्टी की नमी का मानचित्रण करने, भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) पोर्टल को समझने और यहां तक कि किसान को सलाह देने के लिए आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के जरिए बुनियादी ढांचा प्रस्तुत करती है। यहां तक कि यह भी सलाह दी जा रही है कि पौधे को पोषक तत्व और पानी प्रदान कैसे और अब दिया जाए। गुम्मा के सेब उत्पादक ने वह ऐप दिखाया जिस पर उसने अपने पौधों के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी हासिल की है। 

अब तक, सब अच्छा है। ऊपर बताई गई कंपनी लगभग 7,000 रुपये का वार्षिक किराया लेती है और सभी डेटा को समेटती है। एआई इस डेटा को कुछ मार्केट प्लेयर्स के साथ एकीकृत करने के लिए भी आगे बढ़ सकता है, अगर यह चाहे तो बाजार की कीमतों के साथ भी खेल जा सकता है।  

इस फसल पैटर्न और पौधों के साथ प्रमुख समस्या यह है और जैसा कि एक बागवानी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर विजय सिंह ने समझाया है कि ये पौधे निरंतर पानी के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं क्योंकि 'रूट स्टॉक' पौधों की जड़ें बहुत उथली होती हैं। औसतन, प्रति पौधे को प्रति सप्ताह 10 लीटर पानी की जरूरत होती है, और इसके लिए ड्रिप सिंचाई का उपयोग किया जाता है।

बड़े पैमाने के उत्पादन को झटका

उच्च घनत्व वाली किस्म ने राज्य के सेब के टोकरे में बड़े पैमाने पर पैठ बना रही है। धनी किसान तेजी से उत्पादन के इस प्रारूप को अपना रहे हैं, जहां खेत के आकार के आधार पर निवेश की पूंजीगत लागत 30 लाख रुपये से लेकर 1 करोड़ रुपये तक की होती है। उत्पादन के इस रूप को अपनाने वाले लोग चीन, यूरोप, अमेरिका और अन्य देशों का उदाहरण देते हैं जहां प्रति हेक्टेयर उपज भारत की तुलना में लगभग पांच गुना है। उनका कहना है कि बाजार में उनकी बराबरी करने के लिए उत्पादन के इस रूप को अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं है।

फिर भी, 95 प्रतिशत सेब किसान इस तरह के बदलाव का बोझ नहीं उठा सकते हैं। यदि वे इस छोड़ते हैं, तो क्षेत्र में पारिस्थितिकी तंत्र का पूर्ण पतन हो जाएगा। प्राध्यापक विजय ने बताया कि इस बदलाव के प्रभाव जल्द ही आने शुरू हो जाएंगे, क्योंकि इनमें से अधिकांश उत्पादकों ने बोरिंग के माध्यम से कानूनी और अवैध रूप से पानी का दोहन शुरू कर दिया है, जो पहाड़ी राज्य के पारिस्थितिकी तंत्र को और बिगाड़ देगा।

भौगोलिक और पर्यावरणीय भिन्नता भी महत्वपूर्ण और अप्रत्याशित है। चालू वर्ष में, एक ही सेब के बाग में, 'शून्य से फल' अवस्था पाई जा सकती है। बेमौसम बारिश ने फूलों को बहा ले जा सकती हैं जो इस इलाके में सेब के उत्पादन को गंभीर रूप से प्रभावित कर देगा। इस भिन्नता के साथ, एक निश्चित फसल पैटर्न सुनिश्चित करना कठिन है।

यह बदलाव सरकारी एजेंसियों, विशेष रूप से बागवानी विश्वविद्यालयों के विस्तार केंद्रों और बहुप्रचारित प्रधानमंत्री कृषि विज्ञान केंद्रों की लगभग विफलता को भी दर्शाता है। इन केंद्रों में शायद ही इस पर कोई पहल नज़र आती हो।

दिलचस्प बात यह है कि विश्वविद्यालयों की फ़ेकल्टी के बजाय यूट्यूबर्स इस बदलाव के मार्गदर्शक बने हुए हैं, जिन्हे आम तौर पर जैविक संबंधों की समझ नहीं होती है और बदलती वास्तविकता को समझने में उनकी विफलता इसका मुख्य कारण है। 

ये बदलाव रोमांचक हैं, लेकिन रूटस्टॉक पौधे कुदरती नहीं हैं और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल भी नहीं हैं। क्या वे जलवायु परिवर्तन की बढ़ती घटनाओं को सहन कर पाएंगे और किसानों की मदद कर पाएंगे? केवल समय बताएगा।

लेकिन एक बात तो तय है; बदलाव हो रहा है, और यह 'बड़े पैमाने पर बागवानी उत्पादन' से 'समृद्ध उत्पादकों' वर्ग तक जा रहा है।

लेखक हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल रिपोर्ट को पढने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Artificial Intelligence-Linked Apple Production a Major Disruptor in Himachal

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest