Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हिंदुत्व, प्रति-संस्कृति और मनुस्मृति

मुकुलिका आर के साथ अपने इस साक्षात्कार में वेंडी डोनिगर बताती हैं कि भारत में अपना बचपन गुज़ारते हुए, मैकार्थी युग के दौरान अमेरिका में बड़ी होते हुए आज के भारत की असहमति और बहुत सारी चीज़ों को लेकर उनकी दिलचस्पी किन-किन चीज़ों ने बढ़ायी।
वेंडी डोनिगर |
वेंडी डोनिगर | UChicagoNews

दीनानाथ बत्रा की तरफ़ से दायर एक मुकदमे और दुनिया भर में हिंदुत्व के कार्यकर्ताओं के व्यापक प्रतिरोध के बाद, मशहूर भारतविद् और संस्कृत विद्वान-वेंडी डोनिगर की शानदार किताब, ‘द हिंदूज़’ को इसके शुरुआती प्रकाशक की तरफ़ से बाज़ार से वापस लिये जाने की घटना को हुए तक़रीबन एक दशक बीत चुका है। इस किताब में एक ऐसी ग़ैर-पारंपरिक बातें की गयी हैं, जो उन हाशिये की जातियों और महिलाओं की तरफ़ से धर्म के प्रति किये गये योगदान को सामने लाती हैं, जिन्हें बतौर समूह ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रखा गया है, भारत में ‘द हिंदूज़’ नामक इस किताब पर जिस संघ की तरफ़ से "कपोल कल्पित किताब" कहकर हमला किया गया था, उसी संघ ने इस किताब की मौजूदा प्रतियों को नष्ट किये जाने और उन्हें बाज़ार से वापस मंगवाने तक की मांग की थी। बत्रा के मुताबिक़ यह एक श्वेत महिला की तरफ़ से धर्म का अपमान किये जाने और ख़ासकर भारत का अपमान किये जाने की कोशिश थी। 2021 में बात करते हुए डोनिगर का इस साक्षात्कार में यह कहना कि,"चीज़ें बहुत कुछ, बहुत हद तक बिगड़ गयी हैं", यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि हिंदू धर्म का इतिहास लिखना कितना कठिन हो रहा है, यह हिंदुत्व की धारणाओं से अलग है।

80 साल की डोनिगर ने अपने पांच दशकों से भी ज़्यादा समय के करियर में इस अप्रैल में आने वाली नवीनतम किताब सहित हिंदू धर्म के इतिहास पर अनेक शानदार किताबें लिखी हैं। उनका काम समस्या पैदा करने वाले क्षेत्रों में समस्या से निजात पाने में मददगार और उस शैक्षणिक क्षेत्र में जांच-पड़ताल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है, जिसे लेकर अब एकतरफ़ा या ठोस विचार हावी हो रहा है। हालांकि वर्षों से धर्म की प्रोफ़ेसर रहीं डोनिगर की प्रतिबद्धतायें अब अकादमिक दुनिया तक सीमित नहीं रह गयी हैं। विभिन्न प्रकार के सरकारी दमन के प्रतिरोध के माहौल में पली-बढ़ी डोनिगर दुनिया के समकालीन सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रमों को लेकर प्रगतिशील राजनीतिक रुख़ अख़्तियार करने से कभी पीछे नहीं हटी हैं।

मुकुलिका आर के साथ इस साक्षात्कार में वह बताती हैं कि भारत में अपना बचपन गुज़ारते हुए, मैकार्थी युग के दौरान अमेरिका में बड़ी होते हुए आज के भारत की असहमति और बहुत सारी चीज़ों को लेकर उनकी दिलचस्पी क्या-क्या है।

मुकुलिका आर : हम इस साक्षात्कार की शुरुआत भारतीय इतिहास, साहित्य, दर्शन, संस्कृति, हिंदू धर्म और संस्कृत के अध्ययन से सम्बन्धित विषयों में आपकी दिलचस्पी को लेकर क्यों न करें? आप इन तमाम चीज़ों को पढ़ते हुए बड़ी होती रही थीं? वहां से आपकी इस तरह की दिलचस्पी कैसे पैदा हुई?

वेंडी डोनिगर : भारत में मेरी दिलचस्पी शुरुआती किशोरावस्था में उस समय से शुरू हुई थी, जब मेरी मां ने मुझे भारत में ई.एम.फ़ॉस्टर की ‘अ पैसेज टू इंडिया’ की एक प्रति लाकर दी थी, इस किताब को मैं लगातार पढ़ती रही हूं और बाद में अपनी किताबों में भी इसे उद्धृत किया है, भारत में घोड़ों के इतिहास को लेकर लिखी गयी मेरी नवीनतम किताब, ‘विंग्ड स्टैलियन्स एंड विकेड मार्स’ में भी इसका उद्धरण है, यह किताब इस साल के अप्रैल में प्रकाशित होगी। इसके बाद मैंने कुछ रूमर गोडन और पेंगुइन द्वारा प्रकाशित उपनिषदों के अनुवाद को पढ़ा। और फिर मैं भारतीय संस्कृति के उन तमाम पहलुओं से प्यार करने लगी, जिनमें चमकीले रंगों वाले महिलाओं के पहनावे थे, जो कि अमेरिकी महिलाओं के ‘मूल पहनावे’ से एकदम विपरीत थे, मंदिरों पर की गयी असाधारण नक्काशी थी, जो अमेरिकी इमारतों, ख़ास तौर पर आधुनिक इमारतों की सादगी से बिल्कुल अलग थी। इसके अलावा, मुझे आप लोगों का हाथ से खाना खाने का विचार भी अच्छा लगा; मुझे हमेशा से छूरी और कांटे से खाना पसंद नहीं था। इसलिए,मैं भारत आ गयी। और फिर मैं हाईस्कूल में लैटिन को पसंद करती थी, और थोड़ा बहुत ग्रीक भी सीखा था, और मेरे लैटिन के शिक्षक ने मुझे संस्कृत के बारे में बताया था, और मेरा झुकाव संस्कृत की ओर हो गया। मैं 17 साल की उम्र में पहले साल की छात्रा के तौर पर हार्वर्ड आ गयी और शुरू से ही संस्कृत में पढ़ाई की।

मुकुलिका आर : आप मैकार्थी के दौर में अमेरिका में रहती थीं। उस दौर की आपकी यादें किस तरह की हैं? मेरी जिज्ञासा इस बात को जानने में भी है कि क्या आपकी दिलचस्पियों, असहमति के विचारों, इससे लड़ती हुई आपकी प्रमुख धारणाओं और इस तरह की किसी अन्य चीज़ों पर इसका किसी तरह का प्रभाव है। वास्तव में ऐसा लगता है कि इस समय भारत ख़ुद ही अपने "मैककार्थी दौर" से गुज़र रहा है।

वेंडी डोनिगर : असल में न सिर्फ़ मैं मैकार्थी दौर में बड़ी हुई,बल्कि मेरी मां एक कम्युनिस्ट थी और हमारे कई दोस्त, जिनमें अभिनेता, लेखक, कलाकार और बहुत सारे अलग-अलग पेशों से थे, सबके सब बहुत परेशानी में पड़ गये थे और अपनी नौकरी तक गंवा दी थी। मेरे पिता एक प्रकाशक थे, उन्होंने उनमें से कई लोगों को जीने में मदद की थी। मैंने कुछ साल पहले ‘द डोनिगर्स ऑफ़ ग्रेट नेक’ नाम से प्रकाशित अपनी किताब में अपने माता-पिता के बारे में लिखा था। इसलिए, मैं हमेशा उपेक्षित लोगों के साथ घर पर रही हूं, ख़ासकर उस समय, जब शासक समूह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने को लेकर दृढ़ संकल्पित थे।

मैंने जब देखा कि भारत में भी कुछ इसी तरह से हो रहा है, झूठे इतिहास को फ़ैलाया जा रहा है, तो मैं गहरे तौर पर परेशान हो गयी, और यही एक वजह रही कि मैंने अपनी किताब, ‘द हिंदूज़’ लिखी।

इस तरह का वैकल्पिक इतिहास लिखना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है, लेकिन इस तरह के वैकल्पिक इतिहास को प्रकाशित करा पाना साफ़ तौर पर मुश्किल होता जा रहा है।

मुकुलिका आर : 2011 में हिंदुओं को संघ के एक संगठित हमले का सामना करना पड़ा। दस सालों बाद, यानी 2021 में चीज़ें कैसे बदल गयी हैं? हिंदू धर्म के जटिल सामाजिक-राजनीतिक, उसमें ऐतिहासिक असमानताओं के अस्तित्व के संदर्भ को स्वीकार करते हुए और हिंदू राष्ट्रवाद की तरफ़ से निर्मित धारणाओं को खारिज करते हुए हिंदू धर्म का वैकल्पिक इतिहास लिखना कैसे मुमकिन है?

वेंडी डोनिगर : जब मैंने ‘द हिंदूज़’ लिखा था, उसके बाद से चीज़ें और भी बदतर हो गयी हैं, और वास्तव में ख़ासतौर पर चिंताजनक हो गयी हैं और पिछले महीने ही दमनकारी क़ानून भी पारित किया गया है। मैं इन चीज़ों से असहमति रखने वाले उन लोगों की बहुत तारीफ़ करती हूं,जो वैकल्पिक विचारों को दबाने की कोशिशों का विरोध जारी रखे हुए हैं। इस तरह का वैकल्पिक इतिहास उनके लिए लिखना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है, जिन्हें इन स्रोतों के बारे में पता है, वे इस तरह का इतिहास लिख सकते है, लेकिन हां, इस तरह के वैकल्पिक इतिहास को प्रकाशित करा पाना साफ़ तौर पर मुश्किल होता जा रहा है। असल में इस तरह के ख़तरनाक प्रोजेक्ट को प्रकाशित करने की हिम्मत वाले प्रकाशकों की संख्या भी बहुत कम हैं, और हम में से जो लोग भी भारत में प्रकाशित होते रहते हैं, वे हमारे बहादुर प्रकाशकों के प्रति बहुत-बहुत आभारी हैं।

मैं तो उन लेखकों की भूरी-भूरी प्रशंसा करती हूं, जो भारत में रहते हैं और इस तरह के लेखन को जारी रखे हुए हैं, जिस तरह के लेखन को ख़ास तौर पर आपने हिंदू राष्ट्रवाद द्वारा उत्पादित "धारणा को अस्वीकार" करने वाला लेखन बताया हैं। मैं तो भारत में रहती नहीं या भारत में काम नहीं करती; मेरे काम की राजनीतिक आलोचना मुझे कोई नुकसान तो पहुंचाती नहीं (निश्चित रूप से वास्तविक आलोचना मुझे हमेशा बेहतर बनाती है, मुझे यह देखने में मदद करती है कि मैं कहां ग़लत हो गयी और अगली बार इसे दुरुस्त कर सकूं), बल्कि इस समय भारत से मिलने वाले ज़बरदस्त सराहना भरे संदेश हमेशा मुझे संतुलित रहने में मदद करते हैं। सच है कि मैं अब भारत नहीं जा सकती, और यह मेरे लिए बहुत दुख की बात है; वहां मेरे प्यारे दोस्त हैं, जिनके पास मैं जाना पसंद करूंगी, और वहां ऐसी जगहें भी हैं, जहां जाना मेरे लिए बहुत मायने रखता था और जहां मैं कभी जा नहीं सकी। लेकिन, मैं यहां सुरक्षित हूं, लेकिन मेरे कई भारतीय सहयोगी वहां बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं।

मुकुलिका आर : हिंदू धर्म में "बुराई" के मूल पर अपनी किताब में आप देवताओं और राक्षसों में नैतिक अस्पष्टता को लेकर बातें करती हैं और आख़िर उन्हें हमेशा "अच्छाई" या "बुराई" के तौर पर ही चिह्नित करना ठीक नहीं है। यह देखना दिलचस्प है कि भारत में उन मंदिरों का वजूद आख़िर कैसे हैं, जिनमें नायक विरोधियों की पूजा की जाती है, जो इन मंदिरों में जाने वाले समुदाय हैं, उनमें से ज़्यादातर "निम्न" जातियों से सम्बन्धित हैं। क्या यही विरोधावासी विचार तो नहीं है, जो इस तरह के वर्चस्ववादी धारणाओं के ख़िलाफ़ या "प्रति-संस्कृति" के अस्तित्व के लिए ज़िम्मेदार है ?

वेंडी डोनिगर : क्या ग़ज़ब का सवाल है। बेशक, एकदम इसी बोध से निचली जातियों की "शैतान के लिए सहानुभूति" होती है, ख़ासकर भारत में तो यह शैतान ही अक्सर सबसे सहानुभूति का पात्र होता है। लेकिन, यह वर्चस्ववादी विरोधी धारणा महज़ प्रताड़ित जातियों तक ही सीमित नहीं हैं; वे विशेषाधिकार प्राप्त भाषा संस्कृत के स्रोतों में भी मौजूद हैं। मुझे हमेशा लगता रहा है कि उस रावण को छोड़ने वाली सीता मूर्ख थी, जो मुझे सबसे ज़्यादा शिष्ट और आकर्षक शख़्स दिखता रहा है, और सीता उस राम के पास चली गयी, जो शुरू से ही एक ऐसा शख़्स रहा, जिसने बिना किसी पर्याप्त आधार के आश्चर्यजनक रूप से सीता को बाहर निकाल दिया था। पहले से ही उपनिषदों में आपके पास गाड़ी के नीचे रहने वाला एक बेघर-रैकवा जैसी शख्सियत है, जिसके पास तत्वमीमांसा के वे सत्य हैं, जिसकी तलाश ब्राह्मण को है। महाभारत के एकलव्य को ही देख लीजिये। हिंदू धर्म में इस संस्कृति के ख़िलाफ़ प्रति-संस्कृति शुरू से ही अंतर्निहित रही है, इस संस्कृति में यही एक बड़ी बात है, जिस कारण मैं हमेशा से इसे प्यार करती रही हूं और इसकी तारीफ़ करती रही हूं।

मुकुलिका आर : मनु और उनके उन क़ानूनों की भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में वापसी हो गयी है, जिनमें अक्सर दलितों, महिलाओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों के सिलसिले में बात की गयी है। जबकि कामसूत्र और जिन विचारों के बारे में आप बता रही हैं, वे उस तरह (महिलाओं की भयमुक्त लैंगिकता,प्रेम में जाति की अप्रासंगिकता) के विचार ग़ायब होते दिख रहे हैं; हमारे पास ऐसे भी अध्यादेश हैं, जो हिंदू महिलाओं की लैंगिकता को नियंत्रित करने की कोशिश में अंतर-धार्मिक रिश्तों की राह में आड़े आ रहे हैं। इस  सिलसिले में आपके क्या विचार हैं ?

वेंडी डोनिगर : यह शर्म की बात है कि भारतीय इतिहास में इतनी जल्दी वात्स्यायन (कामसूत्र के लेखक) के बजाय मनु की बातें सुनी जाने लगी हैं, और मनु की आवाज़ पहले अंग्रेज़ों के शासनकाल के दौरान सुनी जा रही थी और अब फिर से भाजपा के शासनकाल में सुनी जाने लगी है। ये वैराग्यवादी ताक़तें (जैसा कि इस समय भी है, इस वैराग्यवाद में अक्सर एक ज़बरदस्त स्त्री विरोधी तत्व शामिल होते है) और कामुकतावाद (जिसे न सिर्फ़ कामसूत्र स्वीकार करता है,बल्कि जो धार्मिक भारतीय कथाओं के साथ-साथ एके रामानुजन, डेविड शुलमैन और अन्य द्वारा अनूदित तमिल और तेलुगु कविता और हिंदी और बांग्ला के भक्ति साहित्य में भी गहरे तौर पर मौजूद है)- जैसा कि मैंने बहुत पहले-968 में अपने हार्वर्ड पीएचडी शोध प्रबंध में कहा था कि हमेशा इन दोनों को लेकर विवाद होता रहा है!, यही शोध प्रबंध मेरी पहली किताब, ‘शिवा द इरोटिक एसकिटिक’ के रूप में सामने आयी थी।

मैं निश्चित रूप से उम्मीद करूंगी कि लोग कामसूत्र पढ़ें, और व्यापक तौर पर इस्तेमाल होने वाले त्रुटिपूर्ण और लैंगिकवादी बर्टन के अनुवाद के बजाय कामसूत्र के ज़्यादा सटीक अनुवाद को पढ़ें, मुझे लगता है कि इसे लेकर महज़ हमारे प्रकाशनों में ही नहीं, बल्कि विधायिका के दायरे में भी ऐसा काम होना चाहिए, जो कि महिलाओं का दमन करने वाले कानूनों को रद्द करे और उनकी हिफ़ाज़त करने वाले नये क़ानूनों को पारित करे।

वेंडी डोनिगर इस समय शिकागो विश्वविद्यालय में हिस्ट्री ऑफ़ रिलीज़न के मर्सिया एलियड विशिष्ट सेवा प्रोफ़ेसर हैं। उनके पास हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड से संस्कृत और इंडियन स्टडी में अलग-अलग डॉक्टरेट की दो डिग्रियां हैं। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ़ अफ़्रीकन एंड ओरिएंटल स्टडीज़ और बर्कले के कैलिफ़ॉर्निया विश्वविद्यालय में पढ़ाया है।

मुकुलिका आर नई दिल्ली स्थित इंडियन कल्चरल फ़ोरम में संपादकीय समूह के सदस्य हैं।

सौजन्य: इंडियन कल्चरल फ़ोरम

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

Hindutva, Counter-Culture and Manusmriti

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest