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ऐतिहासिक किसान विरोध में महिला किसानों की भागीदारी और भारत में महिलाओं का सवाल

देश की हजारों हजार महिला किसान उत्तरी राज्यों की सीमाओं पर इक्कट्ठी हुईं और हर दिन उनकी संख्या में वृद्धि होती गई। किसान आंदोलन में उनकी भागीदारी के निहितार्थ को इसके सभी आयामों में पहचानने की आवश्यकता है।
women farmers

भारत तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग को लेकर साल भर चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन का द्रष्टा रहा है। यह इसी का नतीजा था कि सरकार इन कानूनों को संसद में निरस्त करने पर आखिरकरा राजी हुई और शीत सत्र में इन्हें रद्द भी कर दिया। किसान आंदोलन इन परिणामों के हासिल करने के साथ अपने संघर्ष में प्रभावी रूप से विजयी हुआ है। हालांकि, संघर्ष के मार्ग में यह शानदार कामयाबी अंततः  700 किसान साथियों के शहीद होने की शर्त पर मिली है। फिर भी किसानों का यह संघर्ष जिस लक्ष्य को ले कर चला था, उससे कहीं अधिक हासिल किया है। आंदोलन में महिला किसानों की हमेशा जीवंत उपस्थिति के साथ मीडिया में उसके संघर्ष की छवियों को भी रेखांकित किया गया था। फिर भी महिला किसान जो कृषि उत्पादन में प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक हैं, वे भारतीय आधिकारिक आंकड़ों में ओझल ही रही हैं। लेकिन संघर्ष का कोई भी वृतांत उनको छोड़ कर पूरा नहीं हो सकता। हमने देखा कि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों की महिला किसानों ने किसान-संघर्ष की शुरुआत से ही विरोध के कुरुक्षेत्र पर अपना दबदबा कायम रखा था। जिसने देश में लोकतांत्रिक आंदोलन की कथा और महिलाओं के प्रश्न को स्पष्ट रूप से बदल दिया। 

आंकड़ों में नहीं पहचानी गईं महिला किसान 

सभी शहरी और ग्रामीण गतिविधियों में महिलाओं के काम को मान्यता न दिया जाने का रिवाज काफी प्रचलित और प्रसिद्ध है। हमेशा से माना जाता है कि ये सब काम, विशेष रूप से कृषि में खेतों से संबंधित काम, घरेलू काम के तहत ही आने वाले काम हैं। यही वह कारण है जिससे कि अधिकतर महिलाओं के श्रम अनचिन्हे रह जाते हैं, वे आंकड़ों में अलग दर्ज ही नहीं हो पाते। लेकिन कृषि क्षेत्र में संलग्न महिला किसान/श्रमिकों की संख्या श्रम की बाकी अन्य सभी श्रेणियों के अनुपात में कहीं अधिक है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (2019-20) के अनुसार, कृषि क्षेत्र में काम करने वाली ग्रामीण महिलाएं कुल ग्रामीण महिलाओं की 75.7 फीसदी हैं। उनमें से अधिकतर महिलाएं अपना काम करती हैं, जबकि उनके पुरुष काम-धंधे की तलाश में शहर चले जाते हैं। यह स्थिति उत्तरी राज्यों में थोड़ी अलग है, जहां कृषि क्षेत्रों में श्रम-बल की भारी मांग अधिकतर महिलाओं को खेतों में सभी कामों को करने पर मजबूर करती है। इसी के चलते महिलाओं को भी खेतिहर-मजदूरों के रूप में काम में जुतना पड़ता है। भारत की जनगणना उन किसानों को ही 'उत्पादक किसानों' के रूप में परिभाषित करती है, जो कृषि योग्य भूमि के एक टुकड़े पर काम करते हैं। इसका मतलब है कि जो लोग अपनी जमीन पर खेती करते हैं या अपनी जमीन पर अधिकार रखते हैं, उन्हें ही 'उत्पादक किसान' के रूप में गिना जाता है। इस परिभाषा के दायरे से महिलाएं बाहर हो जाती हैं और इस तरह, वे भारतीय आधिकारिक आंकड़ों में मान्यता प्राप्त 'किसान' की प्रविष्टि में दर्ज होने से विफल हो जाती हैं। 

2011 की जनगणना के मुताबिक देश में कुल 3.6 करोड़ महिला किसान थीं। ऑक्सफैम इंडिया पॉलिसी ब्रीफ रिपोर्ट (2013) में कहा गया है कि पूर्णकालिक कृषि श्रम का 75 फीसदी हिस्सा महिलाओं का है। महिलाएं बिना मजदूरी के भी कृषि श्रम करती हैं। 2018 में, नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की एक रिपोर्ट में, भूमि स्वामित्व मामले में काफी जेंडर भेद पाया गया था। कृषि में 42 फीसदी कार्यबल महिला श्रमिकों का है, जबकि उनके पास 2 फीसदी से भी कम कृषि भूमि है। पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (PARI) ने दिखाया है कि दो-तिहाई महिला कार्यबल कृषि क्षेत्र में काम करती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 1995 और 2018 के बीच 50,188 महिला किसानों ने आत्महत्या की थीं, जो कुल किसान आत्महत्याओं की 14.82 फीसदी है। खुदकुशी करने वाली महिलाओं में ज्यादातर अविवाहित महिलाएं हैं, या वे अपने पति की आत्महत्या करने से विधवा हो गई हैं या खेतों का प्रबंधन करने के लिए अकेली रह गई हैं। ज्यादातर आत्महत्या भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों ने की है। 

पितृसत्ता को चुनौती दी 

लोकप्रिय मीडिया और राज्य प्राधिकरण ने महिलाओं को किसानों की माताओं, पत्नियों एवं बेटियों के रूप में चित्रित किया है लेकिन उनकी इस क्षेत्र में और विरोध आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी ने भूमि और कृषि के साथ उनके घनिष्ठ संबंध को पुख्ता कर दिया है। आंदोलन स्थल पर महिला किसानों ने खुद माइक्रोफोन लेकर देश में कॉरपोरेट द्वारा कृषि उत्पादों के अपहरण किए जाने के खिलाफ जमकर नारेबाजी कीं। वे सब की सब हितधारक थीं और यह कृषि में महिलाओं के वास्तविक योगदान देने के कारण ही संभव हुआ था, जिन्हें राज्य की नीतियों में लंबे समय से उपेक्षा की जा रही थी। 

टिकरी, सिंघू और गाजीपुर सीमा पर किसानों के ऐतिहासिक विरोध आंदोलनों में महिला किसानों ने सार्वजनिक रूप से अपने बयानों में विस्फोट किया "हम पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में अन्न उपजाती हैं। हम कॉरपोरेट्स अडानी और अंबानी के लिए अपने पैदावार पर से अपना अधिकार नहीं छोड़ने जा रही हैं। प्रधानमंत्री भले ही ऐसा सोचते हों।" हजारों हजार महिला किसान उत्तरी राज्यों की सीमाओं पर एकत्रित हुईं और हर दिन उनकी भागीदारी में वृद्धि होती चली गई। वे इन संघर्षों में स्पष्ट रूप से दिखाई दी रही थीं।

यह कोई नया परिदृश्य नहीं है। इसके पहले, 2018 में, महाराष्ट्र में नासिक से लेकर मुंबई तक आयोजित अखिल भारतीय किसान सभा के मार्च में भी इन महिला किसानों ने अपना दबदबा दिखाया था। वे इसके भी काफी पहले से ही अपने अधिकारों को लेकर मुखर रही थीं, और हमें औपनिवेशिक भारत के तेभागा और तेलंगाना में किसानों के उन जीवट वाले संघर्षों के जीवंत इतिहास की याद दिला रही थीं, जिनमें महिलाओं की भारी भागीदारी भी देखी गई थी। और अब वर्तमान में, विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों पर देश में बनाए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के बैनर तले शुरू किए गए आंदोलनों में व्यापक पैमाने पर सक्रिय भागीदारी के जरिए महिला किसानों ने फिर से साबित कर दिया कि वे देशहित की कितनी परवाह करती हैं। इस बात से इनकार नहीं करते हुए कि वे किसानों की मां, पत्नियां एवं बेटियां थीं और इन्हीं भूमिकाओं में वे उनके परिवारों की देखभाल करने वाली थीं, पर किसानों के संघर्ष में उनका सरोकार बिल्कुल स्पष्ट था।

पितृसत्तात्मक पूंजीवादी राज्य द्वारा किसानों के विरोध में महिलाओं की भागीदारी का उपहास उड़ाया गया था, तब भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने भी पूछा था कि "महिलाओं को विरोध-प्रदर्शन में क्यों रखा जाता है"? एसकेएम ने सिर्फ साल भर पहले ही एक बयान जारी कर स्पष्ट रूप से कहा था कि कृषि में महिलाओं का योगदान अतुलनीय है और यह आंदोलन महिलाओं का आंदोलन है। उन्होंने आंदोलन में महिला किसानों की भागीदारी को लेकर की जा रही टीका-टिप्पणियों की कड़ी निंदा की थी। महिलाएं किसान आंदोलन का नेतृत्व अग्रिम मोर्चे से कर रही थीं। इसी बीच, वे अपने गांव वापस जा कर अपने घरों और खेतों की देखभाल भी करती थीं, और ग्रामीण क्षेत्रों में संघर्ष को भी लामबंद कर रही थीं। जब वे रोजाना किसानों के  विरोध स्थलों पर मार्च करतीं तो पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं एवं पुरुषों के साथ मार्च करतीं थीं। बाद में देश के सभी हिस्सों के किसान इस आंदोलन में शामिल हुए। ये किसान महिलाएं तीनों कानूनों के फलाफल से अच्छी तरह वाकिफ थीं और उन्होंने सभी मीडिया के सामने दृढ़ता से कहा था  कि उनकी उपज को कॉरपोरेट को देने का पहला झटका उनकी रसोई को लगेगा।

देश भर में लामबंदी

शहरी नौकरीपेशा, छात्राओं और पेशेवर महिलाओं पर भी इन महिला किसान प्रदर्शनकारियों का भारी प्रभाव पड़ा था। जीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं के जीवन पर पड़े इस सकारत्मक प्रभाव ने देश में महिलाओं के संघर्ष को महिला मुक्ति के एजेंडे को बनाए रखने में मदद की है। इस विरोध प्रदर्शन ने महिला आंदोलन में जेंडर-वर्ग की एकता और एकजुटता को प्रभावी ढंग से हासिल किया है। केवल बूढ़े और बच्चों को ही गांवों में घरों  में  वापस रखा जाता था और महिलाओं को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वे गाँवों में वापस जाएँ और वहां अपने परिवार के लोगों और मवेशियों की देखभाल कर फिर लौट आएँ। लेकिन गांव लौट कर इन महिलाओं ने केवल अपने घर-बार और माल-मवेशियों की ही देखभाल तक सीमित नहीं रहीं थीं। उन्होंने गाँवों में ही सभाएँ कीं, किसानों के संघर्ष को संगठित किया और उन्हें फैलाया। इसके बाद वे गाँवों के अधिक से अधिक लोगों के साथ धरना-प्रदर्शन स्थल पर लौटीं। इन महिलाओं में कुछेक के बच्चे भी शिविरों में उनके साथ रहे थे।

पंजाब में हाल के वर्षों में खेती की लागत में भारी वृद्धि हुई है, जिसके कारण किसानों का कर्ज भी बढ़ा है। इन्हें न चुका पाने के कारण किसान आत्महत्याओं में भी वृद्धि हुई है। इसलिए फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) किसानों की एक ऐसी ही मांग थी जिसे महिलाओं ने खुद के जीवित रहने की गरज से उठाया था। उन्होंने स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय धन की कॉरपोरेट लूट पर अपनी उंगली उठाई। यह मांग उनके निजी सरोकार के तहत उठी है। यह आरोप कि महिलाएं राजनीतिक नारों के मायने को नहीं समझती हैं और पुरुषों को अपने परिवार के हिस्से के रूप में शामिल करती हैं, संघर्ष की शुरुआत से ही हवा में थीं। यह हमारे देश में महिलाओं के कॉरपोरेट नेतृत्व वाले सांख्यिकी दृष्टिकोण का वक्तव्य है। यह ग्रामीण भारत में महिलाओं के संघर्ष का राजनीतिकरण करने का एक प्रयास है। हालांकि किसान आंदोलन को पूरे देश से मिली एकजुटता ने थोड़े ही समय में इन सभी बयानों को गलत साबित कर दिया। 

पहले के कृषि उत्पाद बाजार समिति अधिनियम को दरकिनार करते हुए ताजा कृषि सुधार अधिनियम बनाया गया था, जिन्हें बाद में सरकार को किसानों के भारी दबाव पर संसद में निरस्त करना पड़ा, उसमें विपणन को कॉरपोरेट नेताओं के हाथों में सौंप दिया गया था। इन कानूनों  के रहने से महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता क्योंकि ग्रामीण महिलाएं अपनी सीमित आवाजाही की वजह से  बुनियादी ढांचे के अवसर का लाभ नहीं उठा सकती थीं। इसके साथ ही, महिलाओं की मोलभाव करने की कम क्षमता को देखते हुए, अनुबंध खेती की शुरुआत के साथ ही उन्हें और अधिक कमजोर स्थिति में धकेल दिया जाता। 

इसलिए महिलाओं ने महसूस किया कि इन तीनों कृषि कानूनों में खुद उनका बहुत कुछ दांव पर लगा है, जिसके चलते उन्होंने इन्हें वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर किया। प्रदर्शनकारियों के मुताबिक, जब राज्य और समाज उनके हितों को नहीं समझता है तो उनके फैसले में बदलाव पर मजबूर करने के लिए इस तरह के विरोध प्रदर्शन की दरकार होती है। महिला किसान पहले से ही कृषि व्यवसाय के खिलाफ थीं और इस लिहाजन उनका विरोध एक तरह से स्वतःस्फूर्त था। जैसे-जैसे विरोध बढ़ता गया, महिलाओं की भागीदारी पर उठने वाले  सवाल और उनकी आलोचनाएं भी कम होती गईं। फिर तो इन महिला किसानों के प्रति एकजुटता दिखाने के लिए सभी क्षेत्रों की महिलाएं अधिक से अधिक तादाद में उमड़ पड़ीं। 

महिलाओं का आंदोलन झकझोरने वाला

क्या तीन कृषि कानूनों के विरोध और इनके फलस्वरूप उन्हें निरस्त किए जाने से महिलाओं के जीवन में कोई बदलाव आएगा? यह सवाल संघर्ष के अंत में भी बना हुआ है। विरोध सैद्धांतिक रूप से समाप्त नहीं हुआ है। एसकेएम को राज्य की नीति में और बदलाव का अभी इंतजार है। लेकिन साल भर के विरोध और महिलाओं की भारी भागीदारी ने महिला मुक्ति के कुछ मुद्दों को तो राज-समाज के केंद्र में ला ही दिया है। महिलाओं की पसंद के खिलाफ काम करने वाली खाप पंचायतों की जमीन से आकर, यह वर्ग-विरोध एक साझा शिविर में बदल गया जहाँ महिलाएँ अपनी मांगों के समर्थन में भाषण दे रही थीं, विरोध आंदोलन की शर्तें तय कर रही थीं और लोगों को संगठित कर रही थीं।

क्या यह राजनीतिक सशक्तिकरण किसी वर्ग-संघर्ष के जरिए आ रहा था? विरोध स्थलों पर अस्थायी पुस्तकालय बना दिया था, जहां महिलाएं एवं पुरुष दोनों किताबें पढ़ते, साझी राय बनाते और अपने संघर्ष पर चर्चा करते थे। किशोरों के गिरते लिंगानुपात के लिए चिन्हित राज्य से आईं महिलाएं गीत गातीं थीं, नाचतीं थीं और अपनी पसंद के सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेती थीं, और उन्हें ऐसा करने से किसी ने नहीं रोक-टोक नहीं किया था। जब संसद में कानूनों को निरस्त किया गया और जब किसान अपने घर लौट रहे थे, तो पुरुषों के साथ सड़क पर गीत गातीं और नाचतीं महिलाओं का सार्वजनिक रूप से आनंद लेना अब तक अनदेखा और अनसुना वाकयात था। क्या किसी ने आंदोलन में जाति के आधार पर किसी विभाजन के बारे में सुना? आंदोलन के अंतिम दिनों में जेंडर-जाति का अलगाव भी दूर हो गया। एक ही रसोई में भोजन बनाने और एक साथ भोजन करने ने उनके बीच पहले के सभी मतभेद दूर कर दिए थे। ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन्स एसोसिएशन, हरियाणा की सविता ने, जो खुद भी इस आंदोलन में शामिल थीं, उन्होंने कहा, "संघर्ष के बाद जब परिवार लौट रहे थे, तो उन्होंने आंदोलन से पितृसत्ता को खुरच दिया था और घर लौटने वाले परिवारों को एकदम से बदल दिया।" कम से कम आंदोलन के अंतिम वर्ष में महिलाएं सशक्तिकरण के एक नए स्थान में जा रही थीं, जो कि कॉरपोरेट पूंजीवाद के आधिपत्य के खिलाफ भूमि संघर्ष, वर्ग संघर्ष का एक उपहार था। संघर्ष ने स्त्री-पुरुष की मानसिकता बदल दी क्योंकि संघर्ष में सभी एकजुट थे क्योंकि उनका लक्ष्य बहुत अच्छी तरह से परिभाषित था। क्या इन सबका विरोध प्रदर्शन में भाग लेने वाले राज्यों के ग्रामीण समाज पर भी कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है? क्या इसका देश में स्वतंत्रता और समानता के लिए किए जाने वाले महिला आंदोलनों पर भी कोई प्रभाव पड़ सकता है? ये सभी प्रश्न भविष्य में हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

भारतीय महिला अध्ययन संघ द्वारा शुरू की गई चर्चा

इंडियन एसोसिएशन फॉर विमेन स्टडीज, फेमिनिस्ट पॉलिसी कलेक्टिव, और महिला किसान अधिकार मंच ने 21 अक्टूबर, 2021 को 'ट्रांसफॉर्मेटिव फाइनेंसिंग एंड वूमेन इन एग्रीकल्चर इन इंडिया' विषय पर एक दिवसीय वेबिनार का आयोजन किया था। इसमें विद्वान उत्सा पटनायक ने मुख्य भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने देश में गहराते कृषि संकट और विश्व व्यापार संगठन के जनादेश के बारे में बताया,जिसने ग्रामीण परिवारों को दुख पहुंचाया है। महिलाएं निस्संदेह इस संकट की शिकार थीं। पी साईनाथ, रवि श्रीवास्तव, पी रामकुमार, नवशरोन सिंह, सेजल दंड, सोमा पार्थसारथी और अन्य वक्ताओं ने इस विषय पर अपने विचार रखे। मधुरा स्वामीनाथन ने समापन वक्तव्य दिया था। यह आयोजन 15 अक्टूबर को मनाए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस के बाद किया गया था। समावेशी होने के लिए विकास के वित्तपोषण में परिवर्तनकारी वित्तपोषण के लिए अधिक जेंडर-संवेदनशील प्रथाओं की आवश्यकता होती है क्या इसमें कृषि में महिलाएं शामिल नहीं हैं? किसानों के कामयाब विरोध ने इसका माकूल जवाब दिया है। 

वेबिनार ने कॉरपोरेट्स द्वारा बाजारों पर नियंत्रण पर सवाल उठाया, जिसने पारंपरिक उत्पादन और स्थानीय बाजारों और छोटे सर्किट बाजारों पर महिलाओं की पसंद को अवैध कर दिया था। तैयार की गई इस नीति से बटाईदारी के निर्णयों पर भी असर पड़ता। जैसा कि कृषि कानूनों का मतलब कृषि अधिकारों में पूर्ण उलटफेर था, जो कुछ भी कम रह गया था, उसके विरोध में अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय एकजुटता देखी गई। महिला किसान देश में व्याप्त इस गहरे कृषि संकट में राजनीतिक रूप से अंतर्निहित थीं। इसलिए यह केवल उनके राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग का माध्यम है, जिसका अर्थ अपने अधिकारों तक पहुंच के माध्यम से सशक्तिकरण करना है। इस आंदोलन में दलित महिलाएं भी अग्रिम मोर्चे पर डटी हुई थीं। 

उस संघर्ष से पहले से ही एक लामबंदी की गई थी, जहाँ महिलाएँ कृषि आंदोलनों में भाग लेने लगी थीं। महिला किसान यह मानने लगी थीं कि उनके अधिकारों का दावा करने के लिए राजनीतिक संघर्ष ही एकमात्र विकल्प बच गया है। इस चर्चा के बाद, इंडियन एसोसिएशन फॉर विमेन स्टडीज और इंडियन सोसाइटी ऑफ एग्रीकल्चर इकोनॉमिक्स ने 2 दिसम्बर को अपने वार्षिक सम्मेलन में 'कृषि संकट, किसान विरोध और महिला किसानों के सवाल' पर एक पैनल चर्चा का आयोजन किया था। इस पैनल की अध्यक्षता अभिजीत सेन ने की थी और महेंद्र देव, नवशरोन सिंह और सविता जैसे शोधकर्ताओं और शिक्षाविदों ने इसे संबोधित किया था। महिला किसानों के संघर्ष को देश में महिला किसानों की दुर्दशा की पृष्ठभूमि में रखते हुए उस पर विचार-विमर्श किया गया था।

कृषि में महिलाओं पर नीति

भारत में कृषि क्षेत्र में लगीं महिलाओं की समस्याएं लंबे समय तक बनी रही हैं। कृषि संकट से यह स्थिति और भी विकट हो गई है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने 2009 में कृषि में महिलाओं के लिए राष्ट्रीय नीति का एक मसौदा तैयार किया था और इसे अपनाने की सिफारिश के साथ कृषि मंत्रालय को भेजा था। यह बात 2008 में राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट से सामने आई है। यह समय नीति पत्र पर नए सिरे से विचार करने का है क्योंकि महिला किसानों की मान्यता का अधिकार, वन भूमि सहित भूमि पर अधिकार, कर्ज से मुक्ति और विनियमित बाजारों पर उनके अधिकार को अब विमर्श की नई ऊंचाइयों पर ले जाया गया है।

अब यह देखना बाकी है कि भविष्य में महिला आंदोलन किस तरह से खुद को पोषित करता है और महिला किसानों के संघर्ष से लाभ उठाकर आगे की ओर बढ़ता है। पितृसत्ता एक पूंजीवादी कॉर्पोरेट प्रणाली द्वारा पोषित होती है, जो राज्य और नीति को नियंत्रित करती है। किसान के संघर्ष ने जाहिर किया है कि केवल संयुक्त वर्ग संघर्ष ही इसका प्रतिरोध और प्रतिकार कर सकता है, और महिलाओं की समानता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। सवाल यह है कि जब महिलाएं साल भर के संघर्ष के बाद अपने घर-बार वापस लौट आई हैं तो क्या वे गांव में बदले हुए सामाजिक-आर्थिक माहौल और मानदंडों को पूरा करेंगी या पितृसत्ता के पुराने रूपों में वापस आ जाएंगी? सवाल यह है कि आंदोलन में महिला नेतृत्व देश में समानता के लिए जारी रखे जाने वाले महिला आंदोलन को किस हद तक हिला सकता है, या विरोध-संघर्ष के दौरान कायम एकजुटता की आभा धीरे-धीरे फीकी पड़ जानी है? इसमें कोई शक नहीं कि आंदोलन अपने तय लक्ष्य से कहीं आगे निकल आया है,और उसके फलितार्थों ने देश के मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तंत्र पर प्रहार किया है। अभी हमें इंतजार करना है और भारतीय जेंडर राजनीति में जन आंदोलन के महत्त्व की प्रभावशीलता को देखना है। 

(लेखिका कलकत्ता विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं और भारतीय महिला अध्ययन संघ की अध्यक्ष भी हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Historic Farmer’s Protest, Participation of Women Farmers And Women’s Question in India

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