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सभी के लिए घर : एक बुनियादी जरूरत, लेकिन ग्रामीण भारत में ज़्यादातर लोगों के लिए दूर की कौड़ी

आवास की समस्या हर इंसान की प्राथमिक चिंता है और किसी भी विकास मॉडल में यह केंद्र में होनी चाहिए। फिर भी, पिछली सरकारों के लिए आवास योजनाएं सिर्फ़ प्रोपगेंडा का साधन बन रहीं, जबकि आवासहीन लोगों की ज़िदगियों में कोई ठोस अंतर नहीं आया। 
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बिहार: समस्तीपुर जिले के छोटही गांव में तालाब के पास करीब़ 50 लोग इकट्ठा हुए हैं। छोटही गांव विभूतिपुर तहसील की भागपुरा पंचायत के अंतर्गत आता है। यह लोग अपने घरों को बचाने पर बात करने के लिए जुटे हैं। दरअसल इनके घर जिस ज़मीन पर बने थे, उसै अवैध घोषित कर दिया गया है और उस ज़मीन को राज्य सरकार द्वारा "जल जीवन हरियाली" नाम के प्रोजेक्ट के तहत ग्रीन बेल्ट के तौर पर विकसित किया जा रहा है। 

उन्हें जबरदस्ती उनके घर से निकाल दिया जाएगा, जबकि उनके पास रहने के लिए कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। इनके घर कच्चे हैं, लेकिन इनके पास सिर्फ़ यही हैं। इन बसाहटों में उन्होंने दशकों बिताए हैं। लगभग सभी लोग निचली जाति के कृषिहर मज़दूर हैं। यह लोग ना केवल आर्थिक तौर पर कमज़ोर हैं, बल्कि इन्हें पीढ़ियों से सामाजिक वंचना का सामना करना पड़ा है। 

इन लोगों का मामला कोई अकेला नहीं है। भारत में लाखों भूमिहीनों की यही हालत है, जिनके पास अपने सिर के ऊपर छत डालने के लिए भी ज़मीन नहीं है। उनके घरों की यह ज़मीन, उनके जीवन में स्थिरता लाने और अनिश्चित्ता खत्म करने का पहला कदम थी। 

भारत के कामग़ार वर्ग ने अंग्रेजों के खिलाफ़ इस आशा के साथ लड़ाई लड़ी थी कि उन्हें संसाधनों में बराबर का बंटवारा मिलेगा। लेकिन आज़ादी के 75 साल बाद भी उनके उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं। अब यह उम्मीदें कमज़ोर होती जा रही हैं, क्योंकि लाखों परिवारों के पास उनके निजी घर जैसी बुनियादी चीज भी नहीं है। 

2011 की जनगणना के मुताबिक़, ग्रामीण भारत में औसत व्यक्ति के पास 40.03 वर्गफीट जगह है। वहीं शहर में यह आंकड़ा 39.20 वर्ग फीट है। ग्रामीण इलाकों में पांच लोगों का परिवार तुलनात्मक तौर पर तुलनात्मक तौर पर बड़े घरों में रहता है, लेकिन यह अंतर बहुत ज़्यादा नहीं है। तो ग्रामीण इलाकों में भी लोग छोटे घरों में क्यों रहने को मजबूर हैं, इसकी वज़ह ज़मीन की कमी तो नहीं है। बल्कि गरीब़ों में भूमि और संसाधन का समान बंटवारा ना होना इसकी वज़ह है।

भारत में घरों से वंचित लोगों का कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। 2011 की जनगणना के मुताबिक़ भारत में 10 लाख 77 लोग आवासहीन हैं। निश्चित तौर पर पिछले एक दशक में इस आंकड़े में बढ़ोत्तरी हुई होगी। ऐसा सिर्फ़ इसलिए नहीं है कि लोगों की संख्या बढ़ गई है। बल्कि कॉरपोरेट या उनके लिए सरकार द्वारा ज़मीन हड़पा जाना इसकी प्राथमिक वज़हों में से एक है। 

आवास, हर इंसान का प्राथमिक मुद्दा है, यह विकास के मॉडल में केंद्र में होना चाहिए। बल्कि आवास को मानवाधिकार माना गया है और सरकारों को सभी लोगों के लिए समुचित आवास उपलब्ध कराना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवास के अधिकार को सरकार की ज़िम्मेदारी माना गया है। सरकार द्वारा आवास का अधिकार सुनिश्चित किए जाने का जिक्र पहली बार मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणा, 1948 में मिलता है।    

इस बिंदु पर यह बताना बहुत जरूरी हो जाता है कि आवास का मतलब क्या होता है। जब हम आवास की बात करते हैं, तो इसका मतलब चार दीवार और एक छत नहीं होता। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने सामान्य टिप्पणी संख्या-4 (1991) में बताया है कि समुचित आवास के अधिकार को संकीर्ण या बंधित तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए। सिर्फ़ किसी के सिर पर छत होना या बसेरे को सिर्फ़ एक वस्तु की तरह देखा जाना आवास नहीं है। बल्कि यह किसी का सुरक्षा, शांति और सम्मान से रहने का अधिकार है (संयुक्त राष्ट्रसंघ 1991)। 

अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं और वक्तव्यों से इतर, कागज़ पर किए गए वायदों और ज़मीन पर लोगों की जिंदगी में बहुत अंतर है। इंदिरा आवास योजना को एक आवास ढांच या इमारत (या इमारत का हिस्सा) उपलब्ध कराने के लिए लाया गया था। 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण (पीएमएवाय-जी या सभी के लिए आवास) को लॉन्च किया, जिसे गरीब़ ग्रामीणों के लिए दुनिया के सबसे बड़े आवास कार्यक्रम के तौर पर प्रचारित किया गया। इसके तहत ग्रामीण इलाकों के गरीब़ों के लिए 2022 तक 3 करोड़ घर बनाए जाने थे। 

बल्कि यह सभी योजनाएं सिर्फ़ प्रोपगेंडा का हथियार बनकर रह गई हैं, जबकि भूमिहीन लोगों की ज़िंदगी में इनसे कोई परिवर्तन नहीं आया है। मोदी सरकार को आंकड़ों से खेलने और बिना किसी ठोस व्याख्या के फर्जी दावे करने के लिए जाना जाता है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया कि ग्रामीण इलाकों में उनकी योजना के तहत 1 करोड़ घर दिए जा चुके हैं। लेकिन 2015 में जबसे यह योजना शुरू हुई है, तबसे अब तक ग्रामीण इलाकों में सिर्फ़ 70 लाख घर बने हैं।

लेकिन मौजूदा योजना आवास की समस्या को खत्म नहीं करती, बल्कि यह उसे जटिल ही बनाती है। मौजूदा योजना भूमिहीनों को मदद नहीं करती, जिनके पास घर बनाने के लिए ज़गह नहीं है। बल्कि ज़्यादातर योजनाओं में आर्थिक दान लेने के लिए किसी को भी ज़मीन का वैधानिक मालिक होना जरूरी होता है। 

काग़जों पर खूब प्रावधान हैं, जिनके तहत सरकार को ग्रामीण इलाकों में भूमिहीनों को ज़मीन दिया जाना है, अलग-अलग राज्यों के भूमि सुधार कानून हैं, जिनमें अलग-अलग भू-सीमा तय की गई है (जिन्हें कुछ राज्यों को छोड़कर बाकी जगह लागू नहीं किय गया), फिर ऐसे प्रावधान भी हैं, जिनमें गांव की ज़मीन को एससी और एसटी के भूमिहीनों को बांटी जानी है। लेकिन अब तक इन प्रावधानों का उपयोग नहीं किया गया, बशर्ते किसी जनआंदोलन ने राज्य सरकारों को ऐसा करने के लिए मजबूर ना किया हो, या फिर कुछ संवेदनशील प्रशासनिक अधिकारियों ने राजनीतिक लहर के विपरीत जाकर लोगों को राहत पहुंचाने की कोशिश की हो।  

यह समस्या का एक पहलू है। यहां भूमिहीन परिवार हैं, जिनके पास घर तो हैं, लेकिन ज़मीन उनकी नहीं है। उन्हें हमेशा सरकार या भूमि मालिक की तरफ से अपने घर से बेघर किए जाने का ख़तरा बना होता है। जनजातियों के एक बड़े हिस्से को उनकी ज़मीन से हटा दिया गया है। इन इलाकों में रहने वाले लोगों को ज़मीन के मालिकों और सरकारी अधिकारियों के कई तरह के अपमान को सहन करना पड़ता है। पंजाब के पठानकोट जिले में सुजानपुर क्षेत्र में छोटा पनोल गांव में कई लोगों के घर एक ज़मींदार की ज़मीन पर बने हुए हैं। जब भी स्थानीय लोगों या ज़मीदार के परिवार के सदस्यों या उसके कर्मचारियों में तनाव पैदा होता है, तो वे बस्ती तक आने का रास्ता रोक देते हैं। फिर जब भी कोई परिवार अपने घर में काम करवाना चाहता है या उसी ज़मीन पर नया घर बनवाना चाहता है, तो ज़मीदार उन्हें कोर्ट ले जाता है और उनकी दिक्कतें फिर बढ़ जाती हैं। जिन लोगों के पास ज़मीन नहीं हैं, उनके सामने आने वाली कई समस्याओं में से यह एक है।

भारत में भूमिहीनता एक बड़ा सवाल है और आवास का सवाल इससे जुड़ा हुआ है। सभी के लिए आवास सुनिश्चित करने की दिशा में यह एक बड़ी बाधा है। यहां हम भूमिहीनता और भूमि सुधारों के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा नहीं कर रहे हैं, हम बस यहां असमान भूमि संबंधों के मुद्दे पर प्रकाश डाल रहे हैं। इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट (2016) के मुताबिक़, देश की सिर्फ़ 4.9 फ़ीसदी आबादी के पास भारत की एक तिहाई कृषि भूमि है और एक बड़ा भूमि स्वामी आम तौर पर सीमांत किसान की तुलना में 45 गुना तक ज़मीन रखता है। 

भूमि सुधारों और ज़मीन वितरण का विमर्श अब राजनीतिक चर्चा से बाहर हो चुका है। कुछ लोगों का मानना है कि भूमि सुधारों की संभावना खत्म हो चुकी है भविष्य में ग्रामीण इलाकों में विकास सिर्फ़ निजी निवेश से ही हो सकता है। हालिया दौर, खासकर नवउदारवादी सुधारों के बाद भूमि सुधारों की उल्टी कार्रवाई हुई है। अगर कोई भूमिहीन परिवारों पर NSSO सर्वे के 1987-88 के आंकड़ों को 2011-12 के आंकड़ों से तुलना करे, तो उसे भूमिहीनता की बढ़ती दर का अंदाजा लग सकता है। इस दौरान ग्रामीण इलाकों में भूमिहीन परिवारों की संख्या 35 फ़ीसदी से बढ़कर 49 फ़ीसदी हो गई है। यह ऐसे परिवार हैं, जिनके पास 0.1 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है। 

एक तरफ भारत सरकार चीख-चीखकर दावा करती है कि वो सभी के लिए आवास की दिशा में काम कर रही है, लेकिन सरकारी नीतियां सिर्फ़ कुछ योजनाओं तक ही सीमित हैं। यह योजनाएं उसी रास्ते पर हैं, जिन्हें पिछली यूपीए सरकार ने अपनाया था, मौजूदा एनडीए सरकार तो लोगों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर रही है। वनाधिकार अधिनियम जैसे कानून, जिनके जरिए जनजातियों और वन घूमंतुओं को ज़मीनें दी जानी थी, उनका उपयोग लाखों आदिवासियों को उनकी ही ज़मीन से हटाने के लिए किया जा रहा है। विकास परियोजनाओं के नाम पर किसानों से हज़ारों एकड़ जमीन छीनकर कॉरपोरेट को दी जा रही है। 

जबरदस्ती ज़मीन खाली करवाए जाने पर "द हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (HLRN)" की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़, केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर 2017, 2018 और 2019 में कुल 1,77,700 घरों को नष्ट किया। इसका मतलब हुआ कि रोजाना करीब़ 519 लोगों ने अपने आवास खोए, हर घंटे औसतन पांच घर गिराए गए या हर घंटे 22 लोगों को उनके घरों से निकाला गया। ऊपर से करीब़ डेढ़ करोड़ लोग भारत में विस्थापन के डर से रहते हैं। यह आंकड़े बहुत चौंकाने वाले हैं, फिर भी यह बहुत सीमित ढंग के हैं, क्योंकि इनमें उन्हीं मामलों का जिक्र है, जो HLRN के ध्यान में आए। मतलब यह एक राष्ट्रीय संकट की आंशिक तस्वीर ही बताते हैं। एचएलआरएन के मुताबिक़, महामारी के दौरान (16 मार्च से 31 जुलाई 2020 के बीच) भी भारत में प्रशासन ने 20,000 लोगों को उनके घरों से निकाला।  

भारत में "दो वक़्त की रोटी और सर छुपाने के लिए छत" को जीने के लिए बुनियादी चीज समझी जाती है, लेकिन आज जब हम आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तब लोग बुनियादी चीजों के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। हंगर इंडेक्स में भारत 101वें पायदान पर है; एक ऐसे देश में जहां भारतीय खाद्यान्न निगम जरूरत से दोगुने अनाज़ का भंडारण कर रहा है, वहां लाखों लोग भुखमरी का शिकार हैं। इसी तरह अपने घर का सपना भी लाखों लोगों के लिए बहुत बड़ी बात है, जबकि इसके लिए ज़मीन भी उपलब्ध है। कॉरपोरेट नियंत्रित रहीं पिछली सरकारों ने भारत को नाकाम किया है, जबकि भारत के पास संसाधनों की कमी नहीं रही। भारत में उन्नत संसाधन हैं, लेकिन सरकारों द्वारा विकास का जो मॉडल अपनाया गया, उससे बहुसंख्यक आबादी को वंचना सहनी पड़ रही है और कुछ लोग मुनाफ़ा कमा रहे हैं।

विक्रम सिंह "ऑल इंडिया वर्कर्स यूनियन" में संयुक्त सचिव हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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