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फ़ासीवाद से कैसे नहीं लड़ना चाहिए?

कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने के लिए दिए गए तर्क पर बात।
Kanhaiya Kumar

28 सितंबर को भगत सिंह की जन्मदिवस के दिन कन्हैया कुमार ने कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (सीपीआई) को छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने का फ़ैसला किया। कन्हैया, गुजरात में कांग्रेस समर्थित और वाम झुकाव वाले आंबेडकरवादी विधायक जिग्नेश मेवानी के साथ कांग्रेस में शामिल हुए। कन्हैया ने माना कि उनका जन्म सीपीआई में हुआ, लेकिन उन्हें इसे छोड़ने की जरूरत महसूस हुई, क्योंकि "कांग्रेस ही सिर्फ़ ऐसी पार्टी है, जो भारत के विचार को बचाने का वैचारिक युद्ध छेड़ सकती है।" उन्होंने कहा कि आज के भारत को भगत सिंह के साहस, महात्मा गांधी की एकता और आंबेडकर के समता के लिए संघर्ष की जरूरत है और कांग्रेस ही इन तत्वों को एकजुट करती है। कन्हैया और जिग्नेश को उनके द्वारा चुने गए राजनीतिक रास्ते के लिए बधाई, लेकिन कन्हैया ने फासीवाद से लड़ने के लिए जिस तर्क का इस्तेमाल किया है, उसका बारीकी से विश्लेषण करने की जरूरत है। 

इतिहास को दोबारा नहीं गढ़ सकते

पहली बात: भगत सिंह, गांधी और आंबेडकर, सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। लेकिन कभी ऐसा वक़्त नहीं था कि वे तीनों एक साथ कांग्रेस पार्टी में रहे हों। भगत सिंह, भगत सिंह और आंबेडकर, आंबेडकर इसलिए थे कि उन्होंने कांग्रेस के दायरे से परे जाकर क्रांतिकारी रास्ता और लक्ष्य चुने (भगत सिंह ने समाजवादी क्रांति चुनी और आंबेडकर ने दलित उत्थान और जातिवाद का खात्मा)। अपने जीवन के अंतिम समय में गांधी भी कांग्रेस से बतौर राजनीतिक दल दूर हो गए थे और अपना वक़्त दंगों से अटे पड़े रास्तों व मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए शांति और न्याय के लिए लड़ते हुए गुजारा था। जब सामाजिक और नैतिक उद्देश्य के चलते हिंदू सर्वोच्चतावादी ताकतों ने उनकी हत्या की, जिनका आज भारत पर शासन है, तो यह किसी कांग्रेस के एक नेता की हत्या नहीं थी। आज दोबारा इतिहास गढ़ना संभव नहीं है, जबरदस्ती कांग्रेस को इन तीनों ऐतिहासिक किरदारों का घर बताना गलत है। कोई ऐसा तभी कर सकता है, जब उसने एक गढ़े हुए आयाम में, इन लोगों के विशेष विचारों और विरोधाभासों को परे रखकर, सीमित कर दिया हो। 

जो ज़्यादा अहम और फौरी सवाल है, वह है: भारत में फासीवादियों के खिलाफ़ कौन सी "ताकतें वैचारिक युद्ध लड़ रही हैं?" क्या यह वैचारिक युद्ध वाम के बजाए कांग्रेस के मंच से ज़्यादा बेहतर लड़ा जा सकता है?

क्या हिंदू सर्वोच्चत्तावाद के विचार को चुनौती दिए बिना फासीवाद से लड़ा जा सकता है?

फासीवाद की मुख्य विशेषता यह है कि फासीवाद खुद को दूसरे तानाशाही और जन विरोधी राजनीतिक तंत्रों से अलग करता है। यहां राज्य तनाशाह होता है, अल्पसंख्यक समुदायों और वैचारिक विरोधियों के खिलाफ़ राज्य, गैर-राज्य तत्वों के साथ मिलकर हिंसा का आयोजन करता है। भारत में हिंदू सर्वोच्चत्तावादी विचारधारा और राजनीति ही फासीवाद है, जो संगठनात्मक ढंग से मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया के साथ-साथ ज़मीन तक पकड़ रखने वाले संगठनों को अपनी विचारधारा फैलाने के लिए काम पर रखता है। इस डॉक्ट्रीन में इस्लाम से घृणा और जाति व लिंग की मनुवादी सामाजिक कुलीनता प्रधान होती है, जिसे सामाजिक शांति के तौर पर प्रचारित किया जाता है। यह डॉक्ट्रीन धर्म, जाति और लिंग की कुलीनता का विरोध करने वाली सभी बौद्धिक, वैचारिक और राजनीतिक चुनौतियों को शांतिपूर्ण हिंदू राष्ट्र को तोड़ने की देश विरोधी कोशिशें बताता है।

फासीवाद के खिलाफ़ लड़ाई में सबसे पहले जरूरत होती है कि हम खुलकर अपनी पूरी ताकत से क्रांतिकारी विचारधाराओं और वंचित तबकों के खिलाफ़ वैचारिक और शारीरिक प्रतिघात का जवाब दें। इसके लिए हमें बहादुरी से उन लोगों के पक्ष में खड़े होने की जरूरत होती है, जिन्हें "देश विरोधी" या "घुसपैठिया" किया जा रहा है, हमें "हिंदू सर्वोच्चत्तावादी विचारधारा" का "भारतीय राष्ट्रवाद" का प्रतिनिधि होने का दावा खारिज करना है।

इसके लिए हमें जरूरत होती है कि हम पुलिस प्रताड़ना का शिकार हुए वर्गों को संगठित करें, जिनके ऊपर फासीवादियों ने यह दमन चक्र अपने कॉरपोरेट निवेशकों की सेवा में चलाया है। हमें यह चुनौती तब भी लेनी है, जब फासीवाद का दमन झेलने वाले अब भी उनके डर के साये में हैं। जब गरीब़ भारतीय पहचान रहे हैं कि वे भी इन फासीवादी नीतियों का शिकार बन रहे हैं, तो हमें भी उनके संघर्ष में साथ खड़ा होना होगा। इन लोगों में वे लोग शामिल हैं, जिन्होंने अपने करीबियों को कोविड-19 में खो दिया, संघर्ष के बाद हासिल किए गए श्रम कानूनों को खो दिया और अब अपने अस्तित्व की आखिरी लड़ाई- कृषि को भी खो रहे हैं।

कोई भी फासीवाद विरोधी आंदोलन, नफ़रती हिंदू सर्वोच्चत्तावादी या मनुवादी पितृसत्तात्मक विचारधाराओं से टकराने की जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकता, जिन्होंने भारत में बहुत ज़्यादा गरीब़ और उत्पीड़ित वर्गों के बीच गहराई तक पैठ बना ली है। जब तक दलित, आदिवासी और बेहद गरीब समुदाय, जो मोदी सरकार की नीतियों से तबाह हो चुके हैं, वे मुस्लिम अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न से असहज नहीं होंगे या उसमें संतोष महसूस करेंगे, तब तक मौजूदा सत्ता के खिलाफ़ उनका बहुत मजबूत आंदोलन भी सफल फासीवाद विरोधी प्रतिरोध के स्तर पर पहुंचने में कामयाब नहीं रहेगा। 

क्या अन्याय पर रणनीतिक चुप्पी चुनावी ज़रूरत है?

वामपंथी राजनीतिक दल से औपचारिक नाता तोड़ने से बहुत पहले ही कन्हैया कुमार की वैचारिक समझ वाम राजनीति से अलग होकर कांग्रेस और दूसरे मध्यवादी राजनीतिक संगठनों और उनकी विचारधाराओं के करीब चली गई थी। इन लोगों ने अल्पसंख्यकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रताड़ना पर दक्षिणपंथ को बहुत जगह देकर रखी है। उनका कहना है कि अगर वे इस उत्पीड़न के खिलाफ बोलते हैं, तो हिंदू मतदाता उनसे दूर हो जाएंगे। बेहतर होगा कि हिंदू मतदाताओं से आर्थिक दिक्कतों, भ्रष्टाचार, किसानों के अधिकार और ऐसे ही मुद्दों पर अपील की जाए। यहां दलित और आदिवासी मुद्दे भी उठाए जा सकते हैं, क्योंकि इन्हें "सुरक्षित" माना जाता है, "महिला सुरक्षा" के साथ भी ऐसा ही है। लेकिन अंतर्धार्मिक विवाह या अंतर्जातीय विवाह राजनीतिक तौर पर असुरक्षित और अलोकप्रिय वर्ग में आता है। सितंबर-अक्टूबर 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव की शाम पर कन्हैया ने ऐसे ही तर्क दिए थे।

इंडियन एक्सप्रेस के साथ किए गए एक इंटरव्यू में 22 अक्टूबर 2020 को कन्हैया ने तर्क दिया कि विपक्षी दलों को खुद का एजेंडा तय करना चाहिए, जिसमें कृषि कानून, श्रम कानून, लोगों की बेरोज़गारी और गरीबी के दौर में अंबानी और अडानी की अमीरी, हंगर इंडेक्स में भारत की गिरती स्थिति और ऐसे ही मुद्दे शामिल होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बीजेपी ने जो सांप्रदायिक एजेंडा चला रखा है, वह पूरी तरह ऊपर उल्लेखित मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए है। उनका इंटरव्यू लेने वाले मंझे हुए पत्रकार मनोज सीजी ने उन्हें व्याख्या देने के लिए मजबूर किया और पूछा, "तो विभाजनकारी मुद्दों पर विपक्षी पार्टियों को प्रतिक्रिया देना बंद कर देना चाहिए?" कन्हैया ने जवाब में कहा, "अगर हिंदू्-मुस्लिम का मुद्दा होता है, तो एक राजनीतिक दल के तौर पर आपको प्रतिक्रिया देना चाहिए। दीजिए, लेकिन किसानों, बेरोज़गारी, महिला सुरक्षा और अत्याचार के मुद्दों को उठाना जारी रखिए।"

इस स्थिति के साथ दिक्कत यह है कि आरएसएस और बीजेपी के लिए नफ़रती एजेंडा सिर्फ़ ध्यान भटकाने वाली चीजें नहीं हैं। भारत के फासीवादियों के लिए यह एजेंडे दोहरा काम करते हैं। वे लोग लोकप्रिय आम विश्वास को "हिंदू सर्वोच्चत्तावादी राष्ट्र" की तरफ धकेल देते हैं और हिंदू सर्वोच्चत्तावाद की राजनीति को ज़्यादा "सामान्य" दिखाते हैं। ठीक इसी दौरान इन एजेंडों के ज़रिए, दलित, आदिवासी, महिला, कामग़ार या किसान वर्ग के उत्पीड़न के बजाए, एक बड़े वर्ग को हिंदू उत्पीड़न और हिंदू सर्वोच्चत्तावाद के विश्वास के साथ एकजुट किया जाता है। यह सिर्फ़ आम भटकाव की तकनीक नहीं है- यह फासीवादी राजनीतिक के केंद्र में है और इससे नज़र हटाने का कोई रास्ता नहीं है। फासीवाद विरोधियों के लिए यह हिंदू-मुस्लिम विभाजन के मुद्दे नहीं हैं, बल्कि उनके लिएय न्याय का मुद्दा है। दूसरे शब्दों में कहें, तो फासीवादी प्रचारक न्याय के सभी मुद्दों को "हिंदू-मुस्लिम मुद्दों", हिंदुओं से घृणा और मुस्लिम तुष्टिकरण के तौर पर पेश करते हैं, फासीवाद विरोधी इसे कैसे स्वीकार कर सकते हैं?

दुनिया के जाने-माने फासीवाद विरोध कवि, मार्क्सवादी बर्टोल्ट ब्रेख़्त अच्छी तरह जानते थे कि जब तक उत्पीड़त कामग़ार और किसान, दमित यहूदियों के साथ भाईचारा महसूस नहीं करेंगे, फासीवादियों को हराना असंभव है। उन्होंने लिखा, "दमित लोगों का दूसरे दमित लोगों के लिए दया का भाव रखना बेहद जरूरी है। यही दुनिया की एकमात्र आशा है।" उनकी कविता, "सॉन्ग ऑफ़ द एस ए मेन" सीधे उन कामग़ारों को लक्षित करती है, जो फासीवादी प्रचार के जाल में फंस जाते हैं और फासीवादी ब्रिगेड का हिस्सा रहते हुए उन्हें मारते हैं। ऐसा ही एक कामग़ार गाता है, "उन्होंने मुझे बताया कि मुझे किस दुश्मन को मारना है/ तो मैंने बन्दूक की और निशाना लगाया/ जब मैं गोली चला चुका था, तो मैंने देखा कि उन्होंने जिसे दुश्मन बताया था, वो मेरा भाई था/ तो अब मेरा भाई मर रहा है/ मेरे अपने हाथो से वो मारा गया/इसके बावजूद मैं जानता हूं कि अगर वो हार गया/ तो मैं भी हार जाऊंगा।"

 सरल शब्दों में अच्छी भाषण कला से युक्त कन्हैया भारतीय लोगों को न्याय और मानवाधिकारों को  रोटी की तरह का अहम मुद्दा समझने में मदद कर सकते थे। इसके बजाए उन्होंने चुना की इस तरह के विभाजनकारी और विवादित मुद्दों पर किसी को सिर्फ़ एक प्रतिक्रिया, एक प्रेस रिलीज़ जारी करनी चाहिए और वापस रोजी रोटी के मुद्दे और "सुरक्षित" सामाजिक मुद्दों पर लौटना चाहिए। उन्होंने अपनी स्थिति अक्टूबर, 2020 में ही साफ़ बता दी थी, लेकिन पिछले कई महीनों से इसे वे व्यवहार में ला रहे थे।

16 अक्टूबर 2020 को कन्हैया ने उमर खालिद की गिरफ्तारी के बाद सीपीआई (एमएल) की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोलने पर सहमति जताई। लेकिन वो वहां नहीं पहुंचे। बल्कि बाद में एक लम्बी सोशल मीडिया पोस्ट के तौर पर उन्होंने एक प्रतिक्रिया जारी की जिसमें रोजी रोटी के वो मुद्दे उठाए गए थे, जिन पर मोदी सरकार काम नहीं कर पाई है और इन मामलों से ध्यान हटाने के लिए गढ़े गए मामलों, गिरफ्तारियों, जेल आदि का सहारा ले रही है। इसमें उन्होंने एक सूची बताई, जिसमें ही उमर खालिद के नाम का उल्लेख किया गया था। उस वक़्त कन्हैया के साथियों ने इसे चुनावी राजनीति का दबाव बताया था। खासकर बिहार विधानसभा चुनावों के लिए।
 
प्रेस कॉन्फ्रेंस से अनुपस्थिति पर जब पूछा गया तो कन्हैया ने कहा, "एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल न होने के लिए मुझे व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार क्यों ठहराया जा रहा है? क्या दूसरे विपक्षी दलों के नेताओं से ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं।  कन्हैया की बात में तर्क था। अगर कन्हैया अपने विश्विद्यालय के साथी उमर खालिद की गिरफ्तारी पर चुप है तो दूसरे दलों के नेता भी हैं।कांग्रेस पार्टी अपनी सांसद इशरत जहां की अन्यायपूर्ण गिरफ्तारी पर चुप थी। वहीं आरजेडी अपने छात्र नेता मीरन हैदर की गिरफ्तारी पर चुप थी। मीरन हैदर उसी  तरह के गढ़े गए मामले में जेल में हैं, जैसे उमर खालिद हैं।

फासीवाद विरोधी गठबंधन को तेज तर्रार वामपंथ की जरूरत है

मेरा कहना है कि रक्षात्मक होकर न्याय के मुद्दे को नजरंदाज करने से हार मिलेगी। भले ही यह असल राजनीति की बात हो। अगर कोई पहले ही यह मानकर बैठा है कि वह अपने मतदाताओं में से हिन्दुओं को मुस्लिमों के खिलाफ हो रहे अन्याय के विरोध में खड़ा नहीं करवा सकता, तो चुनाव शुरू होने के पहले ही वो हार मान चुका है।

बिहार चुनाव में सीपीआईएमएल के अच्छे प्रदर्शन ने काफी लोगों का ध्यान अपने तरफ खींचा था। एक अहम मुद्दा यह था कि वामपंथ लॉकडाउन के दौरान प्रवासी संकट और भूख, बेरोजगारी व खाली सरकारी पदों को लेकर भी उतना ही सक्रिय था जितना हर तबके के सामाजिक न्याय अधिकारों को लेकर। चाहे वह एनपीआर एनआरसी की बात हो या सांप्रदायिक लिंचिंग की, राजनीतिक तौर पर हुई गिरफ्तारियां हों या अनुच्छेद 370 को हटाया जाना। उमर, शरजील, इशरत, गुलफिसा, सफूरा, नताशा और सुधा भारद्धाज समेत अन्य नाम हर बैठक में लिए जाते थे। जैसा अनुमान लगाया गया था योगी आदित्यनाथ जैसे बीजेपी नेताओं ने सीपीआईएमएल  पर नक्सल, शाहीन बाग, जेएनयू टुकड़े टुकड़े गैंग समर्थक होने का आरोप लगाते हुए हमले किए। इसके बावजूद सीपीआईएमएल ने अच्छा प्रदर्शन किया। 
 
यह साफ़ है कि बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती सड़कों पर होने वाले मौजूदा आंदोलनों से मिली है। और ज़्यादातर राज्यों में इन संघर्षों में वामपंथ एक अहम भूमिका निभा रहा है। दुश्मन वामपंथ की साख को अपने लिए चुनौती मानता है। इसलिए वह वामपंथ की साख को नुकसान पहुंचाना चाहता है: इस्केइए हर तरह की चुनौती को अर्बन नक्सल का ठप्पा लगाया जा रहा है। लेकिन इसमें से कोई भी प्रयास लाल झंडे को दूसरे झंडों के साथ अलग अलग संघर्ष में हिस्सा लेने से नहीं रोक पाए। किसी आंदोलन में तेज तर्रार वामपंथ के केंद्र में हुए बिना, वामपंथ द्वारा वैचारिक धार बनाए बिना, किसी फासीवाद विरोधी राजनीतिक और चुनावी गठबंधन की कल्पना नहीं की जा सकती।

लेखिका AIPWA की सचिव हैं और सीपीआईएमएल में पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

How Not To Fight Fascism

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