कोविड पर नियंत्रण के हालिया कदम कितने वैज्ञानिक हैं?
शुरुआत से ही, 2020 के आरंभ में जब भारत में कोविड-19 की महामारी के पांव पड़े थे, तब से ही, कोविड पर नियंत्रण पाने के लिए केंद्र सरकार के निर्णयों पर अनेक प्रश्न उठते रहे हैं। इस बात पर खासतौर पर प्रश्न उठते रहे हैं कि सरकार द्वारा लिए गए उक्त कदम, किस हद तक विज्ञान या अन्य साक्ष्यों पर आधारित थे। इन प्रश्नों के महत्व का पता इस बात से चलता है कि सिविल सोसाइटी के विज्ञान या स्वास्थ्य पर केंद्रित संगठनों के अलावा अनेक जाने-माने वैज्ञानिकों द्वारा भी ये सवाल उठाए जा रहे थे और इन वैज्ञानिकों में खुद सरकार द्वारा गठित निर्णयकारी कमेटियों के कुछ सदस्य तक शामिल थे।
मिसाल के तौर पर लॉकडाउन लगाने पर सवाल उठाए गए थे। टैस्ट किट, पीपीई, ऑक्सीजन आदि उपकरणों के संंबंध में योजनाबद्ध तरीके से काम तथा तैयारियों के अभाव को लेकर भी व्यापक पैमाने पर आलोचनाएं हुई थीं कि दावे व उपलब्ध आंकड़ों हकीकत से परे थे। सरकार के निर्णयों के पीछे संदिग्ध किस्म की मॉडलिंग का प्रयोग था, जिन्हें शीर्षस्थ सरकारी अधिकारियों व विज्ञान प्रशासकों का अनुमोदन हासिल था। इन प्रयोगों के आधार पर असंभव किस्म के पूर्वानुमान पेश किए जा रहे थे। इनसे भी इस व्यापक रूप से फैली धारणा को बल मिल रहा था कि सरकार को, विज्ञान तथा साक्ष्यों की उतनी चिंता नहीं है, जितनी कि अपने कदमों या निर्णयों से जाने वाले संदेश की या अपनी छवि बनाने की है।
इस सब के संदर्भ में देश की निर्णयकारी संस्थाओं या निकायों की भूमिका भी, इस तरह की जांच-परख के दायरे में आयी है। सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े, नेशनल सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल (एनसीडीसी) जैसे कई सरकारी निकाय वैसे तो पहले से मौजूद थे, लेकिन ऐसा लगता कि कोविड पर नियंत्रण के प्रयासों में उनकी शायद ही कोई भूमिका थी। दूसरी ओर कई-कई कथित रूप से उच्चाधिकार-प्राप्त कमेटियां तथा कार्य दल मौजूद तो थे, लेकिन इस संंबंध में कोई स्पष्टता नहीं थी कि निर्णय कहां और किस के द्वारा लिए जा रहे थे। निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता के अभाव में, इस भावना को और बल मिला कि सरासर मनमानी चल रही थी और इस संबंध में संदेह और गहरे हो गए कि फैसलों को विज्ञान के तकाजे संचालित कर रहे हैं या राजनीतिक प्रबंधन के तकाजे। जानकारियों का संग्रह अक्सर अपर्याप्त बना रहा, मिसाल के तौर पर टैस्टिंग या जेनेटिक सीक्वेंसिंग के संबंध में या इन आंकड़ों को सार्वजनिक किया ही नहीं गया, जिसके चलते जाने-माने वैज्ञानिकों को डॉटा सार्वजनिक किए जाने की मांग उठानी पड़ी, जिसे दुर्भाग्य से अनसुना ही कर दिया गया।
भारत में कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए भारत सरकार के कदमों और निर्णयों में उक्त समस्याएं बनी ही हुई हैं।
टीकाकरण और बूस्टरों का विस्तार करो
कोविड से बचाव के लिए टीकाकरण की नीतियों को ही लिया जा सकता है। ईमानदारी का तकाजा है कि हम शुरुआत में ही यह स्वीकार कर लें कि इस नोवल कोरोना वायरस और उसके वेरिएंटों के संबंध में और इससे निपटने के लिए काफी जल्दी में विकसित किए गए टीकों व अन्य दवाओं के संबंध में, अभी हमारी जानकारियां सीमित ही हैं। इसलिए, इस महामारी से निपटने के लिए जा रहे सभी निर्णयों की पूर्ण वैज्ञानिक सटीकता की अपेक्षा करना, लगभग नामुमकिन को मुमकिन करने की मांग करना होगा। स्वाभाविक रूप से इस आपदा के संदर्भ में उठाए गए कदम ज्यादातर विज्ञान, साक्ष्य आधारित तर्क-पद्घति और प्रबंधकीय विवेक के तकाजों के योग पर, आधारित होने ही थे। फिर भी, इन निर्णय प्रक्रियाओं द्वारा आजमायी गयी तर्क पद्धति को पारदर्शी बनाया जा सकता है, बनाया जाना चाहिए और उसे विशेषज्ञों के सामने तथा व्यापक जनता के सामने भी रखा जाना चाहिए, ताकि जो निर्णय लिए जा रहे हैं उनमें भरोसा पैदा किया जा सके और उनका पालन होना सुनिश्चित किया जा सके।
समूची आबादी के लिए बूस्टर डोज लगाने के पक्ष में शायद ही कोई साक्ष्य हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन अनेकानेक आधारों पर इस बात को दोहराता आया है। इस तरह की टीके की बूस्टर खुराकों से व्यक्तिगत रूप से यह टीका लेेने वालों को गंभीर रुग्णता, अस्पताल में भर्ती किए जाने की नौबत या मौत के खतरे से कुछ अतिरिक्त बचाव तो हासिल हो सकता है, लेकिन समूचे समाज के स्तर पर इस तरह के बूस्टर टीकाकरण के महामारीशास्त्रीय प्रभाव पर संदेह बने हुए हैं। क्या बूस्टर का टीका लगने से, वाइरस के प्रसार की दशा या भविष्य में वेरिएंटों के विकास पर, असर पड़ता है? दुनिया भर के साक्ष्य तो इसके खिलाफ ही हैं। अमरीका, यूके तथा योरप के अन्य देशों में, जहां पहले से तथा बड़े पैमाने पर बूस्टर खुराकें लगायी जा चुकी हैं, डेल्टा तथा ओमिक्रॉन, दोनों वेरिएंटों के संक्रमण की दरें बहुत ऊंची बनी हुई हैं, हालांकि कोविड-19 की पिछली लहर के मुकाबले में, संक्रमितों के अस्पताल पहुंचने तथा मौतों का अनुपात कम है। यूके तथा फ्रांस में क्रमश: करीब 1.5 लाख तथा 3.5 लाख केस रोजाना आ रहे हैं और अन्य यूरोपीय देशों में एक-एक लाख तथा अमरीका में करीब 8.5 लाख। इस्राइल ने सबसे पहले बूस्टर लगाने शुरू किए थे और अब तो वह चौथा बूस्टर लगाना शुरू कर रहा है, फिर भी नये साल में वहां केसों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है और करीब 50 हजार केस हर रोज आ रहे हैं।
और जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन कहते नहीं थकता है, दुनिया में टीकों के वितरण में घोर असमानता बनी हुई है और अफ्रीका की 85 फीसद आबादी को अब तक एक भी टीका नहीं मिल पाया है। वितरण की इस असमानता के नैतिक पहलुओं के अलावा, इसका मतलब यह है कि आबादी के एक विशाल हिस्से को वायरस के फैलने तथा अपने अंदर बदलाव लाने के लिए खुला मैदान बनाकर छोड़ दिया गया है, जबकि बाकी हिस्से को टीके के बूस्टर दिए जा रहे हैं। इस तरह की नीति तो सरासर अतार्किक है।
भारत में, जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कहता आ रहा है, इसकी तुक तो बनती है कि डॉक्टरों तथा अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को बूस्टर टीके लगाए जाएं क्योंकि वे ही संक्रमितों के सबसे ज्यादा संपर्क में आने वालों की श्रेणी में आते हैं और उनके बीच संक्रमण ज्यादा फैलने से तो पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था ही चरमरा जाएगी। इसी प्रकार, पहले ही अन्य रुग्णताओं से घिरे बुजुर्गों को बूस्टर डोज लगाने का भी कुछ औचित्य है, हालांकि तब यह सवाल उठता है कि सभी बुजुर्गों को ही बूस्टर डोज क्यों नहीं दे दी जाए? और वास्तव में समूची आबादी को ही बूस्टर खुराक क्यों नहीं लगा दी जाए, जैसा कि पश्चिमी देशों में हो भी रहा है, जिनमें से अनेक में तो अब पूरी तरह टीकाकृत सिर्फ उन्हीं को माना जाने लगा है, जिन्हें टीके की तीन खुराकें लग चुकी हों? ईमानदारी की बात यह है कि इस सवाल का जवाब, जो हमारे नीति निर्माता अपनी जुबान पर शायद ही लाएं, उनके मन में तो यही यही होगा कि बाकी सारी आबादी को भी बूस्टर लगाने के लिए टीके ही कहां हैं?
लेकिन, अगर टीकों की अनुपलब्धता ही इस तरह के निर्णय के पीछे प्रमुख कारक है, तो इससे तीन सवाल उठते हैं। अ) क्या विस्तारित टीकाकरण कार्यक्रम का, जिसमें 15 से 17 वर्ष तक आयु के किशोरों को भी शामिल किया गया है, औचित्य है; i) क्या यही ज्यादा उपयुक्त नहीं होता कि पहले तथा तेजी से, 18 वर्ष से ज्यादा आयु वालों का दो खुराकों का टीकाकरण पूरा कर लिया जाता; और बहुत ही महत्वपूर्ण यह कि ;ii) भारत में जिसके ‘दुनिया की टीका राजधानी’ होने का बहुत ढोल पीटा जाता है और जहां की सरकार टीकों का उत्पादन बढ़ाने में बहुत भारी जोर लगा देने के दावे कर रही है, टीकों की ऐसी तंगी क्यों बनी हुई है?
टीकाकरण पूरा करो
2021 के सितंबर के दूसरे पखवाड़े में, प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर भारत ने, 2 करोड़ टीके लगाने का कृत्रिम शिखर हासिल कर लिया था। इसके बावजूद, 2021 तक पूर्ण टीकाकरण का लक्ष्य हासिल करने के लिए, रोजाना करीब 1 करोड़ 10 लाख टीके लगाने की जरूरत थी, जिस लक्ष्य को जाहिर है कि हासिल नहीं किया जा सका। वास्तव में उक्त शिखर को छूने के बाद से, दैनिक टीकाकरण की दर 40 और 85 लाख के बीच ही ऊपर-नीचे होती रही है और लक्ष्य पूरा करने के लिए जरूरी दर के आस-पास भी नहीं पहुंची है। देश के दो प्रमुख टीका उत्पादकों, कोवीशील्ड के उत्पादक सीरम इंस्टीट्यूट और कोवैक्सिन के उत्पादक, भारत बायोटैक में से, बाद वाले उत्पादक ने सिर्फ 10 फीसद के करीब टीकों का ही उत्पादन किया है। इन टीका उत्पादकों का उत्पादन भी अपने चरम पर पहुंच चुका लगता है और सीरम इंस्टीट्यूट ने दिसंबर के शुरू में यह भी कह दिया था कि अगर सरकार से और आर्डर नहीं मिलते हैं, तो उसे अपने उत्पादन में 50 फीसद की कमी करनी पड़ेगी।
टीका उत्पादन का आंकड़ा एक और क्षेत्र है, जिसे इस सरकार ने अपारदर्शी बनाए रखा है और टीकों की आपूर्ति पर्याप्त होने के इस सरकार के आंकड़ों का अक्सर राज्य सरकारों द्वारा भी और खुद टीका निर्माताओं द्वारा भी, खंडन किया जाता रहा है। देश में, सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र, दोनों में ही मौजूद, टीका संयंत्रों के लिए प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के जरिए, देश में टीकों के उत्पादन को बढ़ाने की बार-बार मांगें उठने के बावजूद, ऐसा नहीं किया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसा किया गया होता तो शायद हमारे देश की अपनी मांग कहीं जल्दी पूरी की जा सकती थी और उसके बाद कोवैक्स पहल के लिए बड़े पैमाने पर टीकों की आपूर्ति दोबारा शुरू की जा सकती थी, ताकि ये टीके कम आय वाले देशों तक पहुंच पाते।
इसके ऊपर से, जैसाकि राज्यों के पास टीकों के स्टॉक के साप्ताहिक डॉटा का विश्लेषण कर, कुछ अध्ययनों में बताया गया है, टीकों की मांग या ज्यादा सटीक तरीके से कहें तो टीकों के उपयोग की दरें भी, एक बड़ी समस्या का क्षेत्र हो सकती हैं।
इस समय, टीकों के पात्र आबादी के करीब 87.6 फीसद को कम से कम टीके की एक खुराक मिली है, जबकि 62.5 फीसद का ही पूर्ण टीकाकरण हो पाया है। इसका मतलब है, करीब 50 करोड़ लोगों के या टीके की करीब 100 करोड़ खुराकों के लगाए जाने की कसर रहती है। अगर टीकों की मांग वाकई धीमी पड़ गयी है, तो लोगों तक टीके पहुंचाने के तथा अन्य कदमों के रूप में एक बड़े प्रयास की जरूरत है, जिसके लिए केंद्र सरकार को राज्यों को मजबूत वित्तीय तथा ताने-बाने से संंबंधित मदद मुहैया करानी चाहिए। बेशक, टीके की दो खुराकों के साथ टीकाकरण को मुकम्मल करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जो कि अपने आप में बहुत बड़ा काम है।
टीका, दवाएं और परिस्थितियां
15 से 17 तक आयु वर्ग के लिए सिर्फ कोवैक्सीन के ही प्रयोग की इजाजत देना, कोवैक्सीन की पहले ही दबाव में चल रही आपूर्ति के ऊपर और भी दबाव डाल दिया गया है। चूंकि जॉयडस केडिल्ला के टीके जायकोव-डी के लिए पहले ही भारत के औषधि नियंत्रक द्वारा आपात उपयोग के लिए इजाजत दे दी है, 15 से 17 वर्ष तक आयु वर्ग के टीकाकरण में इसके उपयोग की इजाजत क्यों नहीं दी जा रही है?
टीके की दूसरी खुराक और बूस्टर खुराक के बीच, 39 सप्ताह या 9 महीने का अंतर रखे जाने का फैसला, एक और ऐसा फैसला है जिसका कारण नहीं बताया गया है। यूके में इसके लिए सिर्फ तीन महीने का और अमरीका में छ: महीने का अंतर रखा गया है, जिसके मुकाबले यह अंतर कहीं ज्यादा है। टीकाकरण की मौजूदा रफ्तार के हिसाब से तो, बुजुर्गों की विशाल संख्या को तीसरा टीका अब से कई महीने बाद ही दिया जा सकेगा, जबकि तब तक शायद इसकी उपयोगिता ही नहीं रह जाए। शायद, नौ महीने के अंतराल का यह फैसला भी, टीकों की मांग और आपूर्ति में मेल न बैठ पाने की वजह से लिया गया है।
इसी प्रकार, कोवैक्सीन टीके की शीशियों की उपयोग की अवधि छ: महीने से बढ़ाकर 12 महीने करने के फैसले के औचित्य के संबंध में भी, कोई विवरण नहीं दिए गए हैं। इस संबंध में सिर्फ इसका दावा करना काफी समझा गया है कि यह सारी जरूरी शर्तें पूरी करता है। जैसी कि उम्मीद की जा सकती थी, इसने संदेहशील जनता, डाक्टरों तथा अस्पतालों के बीच काफी संदेहों, नाराजगी तथा सवालों को पैदा किया है। इसने नियमनकारी प्रक्रियाओं को लेकर, खासतौर पर कोवैक्सीन के मामले में इन प्रक्रियाओं को लेकर, संदेहों को गहरा करने का ही काम किया है। याद रहे कि इसके पीछे उसे विशेष दर्जा मिलने का इतिहास है, जो उसकी ओर से समकक्षों द्वारा समीक्षित डाटा मिले बिना ही, उसके उपयोग के लिए मंजूरी दिए जाने से जुड़ा हुआ है।
इस सब के संबंध में, कोविड से निपटने के प्रयास के साथ सीधे जुड़े ग्रुपों, जैसे नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑन इम्यूनाजेशन (एनटीएजीआइ) व नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप ऑन वैक्सीनेशन फॉर कोविड (एनईजीवीएसी) या नेशनल कोविड-19 टास्क फोर्स की क्या भूमिका रही है और उनकी क्या सिफारिशें थीं, यह भी स्पष्ट नहीं है और न ही यह स्पष्ट है कि इस संबंध में किन साक्ष्यों पर विचार किया गया है या संबंधित निर्णय के पीछे क्या तर्क है? इस संबंध में बड़े प्रश्न बने ही हुए हैं कि ये फैसले किसने लिए हैं और किस आधार पर लिए हैं?
अंत में यह कि कोविड-19 के मरीजों के उपचार की दवाओं और खासतौर पर मोलनूपिराविर के उपयोग के संबंध में, जिसकी मिल्कियत अब अमरीकी कंपनी मेर्क के पास है, एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। अमरीकी एफडीए ने, बहुत मामूली बहुमत के आधार पर दिसंबर के महीने में इस दवा के उपयोग की इजाजत दी थी। दरअस्ल इस दवा के म्यूटाजेनिक होने यानी संभावित रूप से मानव कोशिकाओं में म्यूटेशन पैदा कर सकने, जिसमें कैंसर भी शामिल है, को लेकर गंभीर चिंताएं सामने आयी थीं। बहरहाल, अमरीका में मंजूरी के बाद सेंट्रल ड्रग्स स्टेंडर्ड कंट्रोलर ऑर्गनाइजेशन (सीडीएससीओ) ने भारत में भी इस दवा के उत्पादन तथा मार्केटिंग की इजाजत दे दी। बहरहाल, इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च (आइसीएमआर) और स्वास्थ्य मंत्रालय, खुले आम इस दवा के उपयोग के खिलाफ जोर-शोर से अभियान चला रहे हैं और इस दवा को कोविड-19 के उपचार के प्रोटोकॉल में शामिल नहीं किया गया है। लेकिन, दुर्भाग्य से एक बार जब यह दवा बाजार में आ जाती है, उसके बाद आइसीएमआर का यह रुख भी, इस दवा का उपयोग करने से डाक्टरों और मरीजों को रोक नहीं पाएगा।
विभिन्न सरकारी एजेंसियों के एक-दूसरे के विरोधी रुख अपनाने तथा सिफारिशों में सुसंगतता नहीं रहने की यह समस्या, कोविड के उपचार के संबंध में पहले भी सामने आ रही थी, मिसाल के तौर पर हाइड्रोक्सीक्लोरीक्विन, प्लाज्मा थेरेपी, फेवीपिराविर आदि के उपयोग के संबंध में।
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