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और भी तरीके हैं आपदा को अवसर में बदलने के

दरअसल आपदा में अवसर का मतलब होता है किसी भी चुनौती को मौलिक रूप से समझना और उसे तात्कालिक रूप से लड़ने के साथ उन गलतियों को दूर करना और भविष्य में उनका निषेध करने के लिए कार्यक्रम बनाना जिनके नाते आपदाएं आती हैं।
और भी तरीके हैं आपदा को अवसर में बदलने के
Image Courtesy: AP

भारत सरकार किस तरह आपदा को अवसर में बदल रही है यह तो अब पूरी दुनिया समझ चुकी है। इसीलिए सारी दुनिया के अखबार और जरनल उसकी कड़ी आलोचना कर रहे हैं। विडंबना यह है कि उसे न तो हमारी सरकार समझने को तैयार है, न ही कई राज्य सरकारें और न ही इस देश का आमजन। अगर पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम से आहत केंद्रीय नेतृत्व वहां सीबीआई और राज्यपाल के माध्यम से फिर से चुनाव लड़ रहा है तो अब जमीनी स्तर पर संघर्ष करने वाली एक महिला के मुकाबले फिल्मी महिला को उतारा गया है। उधर देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के बारे में स्वयं हाईकोर्ट ने कहा है कि यहां सब कुछ राम भरोसे है।

इसलिए हमें सोचना होगा कि राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक यह महामारी हमें क्या संदेश दे रही है? उसमें से किस संदेश को हमें पकड़ना चाहिए और किसे छोड़ना चाहिए?

अगर हमने उन संदेशों को नहीं समझा तो क्या फिर कोई महामारी हमें नहीं जकड़ेगी? और अगर हमने उसे समझ लिया तो क्या हमारी दुनिया और भी समर्थ, स्वस्थ और सुखी हो पाएगी? क्या हम संकीर्णता, कट्टरता और राष्ट्रवादी आक्रामकता छोड़कर उदारवादी, मानवतावादी और विश्ववादी हो पाएंगे? 

क्या इस महामारी के बाद दुनिया में जनस्वास्थ्य संबंधी, प्रशासन संबंधी और पर्यावरण संबंधी सुधारों और अंतरराष्ट्रीय सहयोगों की झड़ी लग जाएगी और कुल मिलाकर कोई क्रांति होगी या फिर हम सब कुछ भुलाकर उसी पुराने ढर्रे पर चलने लगेंगे?

सवाल उठता है कि आपदा के बीच क्या यह भ्रष्टाचार से लड़ने का अवसर है? क्या जब स्वयं गंगा जैसी जीवनदायिनी नदी शव वाहिनी बन गई हो तो देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल को अपने प्रतिद्वंद्वी क्षेत्रीय दलों से संग्राम में उलझे रहना चाहिए? या उसे स्वास्थ्य सेवा सुधारने, संवेदनशील और जवाबदेह प्रशासन और पर्यावरण रक्षा पर नए सिरे से ध्यान देना चाहिए?

दरअसल आपदा में अवसर का मतलब होता है किसी भी चुनौती को मौलिक रूप से समझना और उसे तात्कालिक रूप से लड़ने के साथ उन गलतियों को दूर करना और भविष्य में उनका निषेध करने के लिए कार्यक्रम बनाना जिनके नाते आपदाएं आती हैं।

आपदाएं बहुत साफ शब्दों में संदेश देती हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार को बदल ले। अपनी राजनीति और संस्कृति में परिवर्तन कर ले और निरंतर लड़ने झगड़ने की बजाय सहयोग की भावना विकसित करे। अगर मानव उसे समझ जाता है तो वह न सिर्फ तात्कालिक आपदा से बाहर निकल जाता है बल्कि भावी आपदा से बच जाता है। लेकिन धरती का जो हिस्सा अपने अहंकार के कारण उसे नहीं समझता वह नए विनाश को आमंत्रित करता है।

यह बात दुनिया के तमाम समझदार विश्लेषक और विचारक कह रहे हैं कि आज मनुष्य चौराहे पर खड़ा है। उसके सामने कई विकल्प हैं। लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि वह सही विकल्प चुनता है या नहीं। दरअसल इस महामारी ने उसी तरह दुनिया के तमाम महाबलियों को कमजोर साबित कर दिया है जिस तरह से कहा जाता है कि हमाम में सभी नंगे हैं। इस तरह उघाड़ होने का अर्थ है कि अमेरिका से लेकर भारत तक, चीन से लेकर यूरोप तक के देशों को पता चल गया है कि उनकी स्वास्थ्य सेवा और दवा उत्पादन और वितरण में कहां कमी है और उन्होंने पर्यावरण का कहां अतिक्रमण किया जिसके नाते एक अदृश्य वायरस ने परमाणु शक्ति से संपन्न राज्यों के ढांचे को हिला दिया है।

भारतीय मूल के अमेरिकी पत्रकार फरीद जकरिया ने भी `टेन लेशन्स फार पोस्ट पैंडमिक वर्ल्ड’ के माध्यम से सोचने और अवसर तलाशने के सूत्र दिए हैं। उनकी जड़ें पिछली सदी से लेकर इस सदी तक फैली हुई हैं। पिछली सदी राजनीतिक घटनाओं और वैज्ञानिक आविष्कारों के मामले में बहुत उर्वर रही है। बोल्शेविक क्रांति के साथ ही प्रथम विश्व युद्ध, स्पैनिश फ्लू, फासीवाद और नाजीवाद का उदय, द्वितीय विश्व युद्ध, परमाणु बम का आविष्कार और उसका प्रयोग, भारत और दूसरे देशों की औपनिवेशिक गुलामी से आजादी, चीन की क्रांति, संयुक्त राष्ट्र का गठन, शीत युद्ध और चेचक, पोलियो, टीबी, हिपेटाइटिस, डिप्थीरिया जैसी तमाम बीमारियों का उन्मूलन और फिर सोवियत संघ का पतन जैसी तमाम घटनाएं हैं जिन्हें समझने और उसकी तह में जाने की जरूरत है। लेकिन कम से कम इतना जरूर कहा जा सकता है कि अगर प्रथम विश्व युद्ध जल्दी समाप्त हो गया होता तो शायद ही स्पैनिश फ्लू फैलता और अगर लीग आफ नेशन्स की बातें मानी गई होतीं या प्रथम विश्व युद्ध से निकली चेतावनियों पर ध्यान दिया गया होता तो द्वितीय विश्व युद्ध टाला जा सकता था। उसी के साथ टाला जा सकता था परमाणु बम से पैदा हुआ विनाश। शायद भारत ने भी अगर सांप्रदायिक द्वेष संबंधी चेतावनी सुनी होती तो उसका विभाजन न होता।

इसी तरह इस महामारी के बारे में भी कहा जा सकता है कि अगर हम इस दौरान समाज और शासन-प्रशासन में दिखने वाली दरारों को देख सकते हैं और उसे ठीक कर सकते हैं तो संभव है कि भविष्य की किसी महामारी या सुनामी को रोक सकते हैं या उसके असर को कम कर सकते हैं। लेकिन अगर हम आज नहीं संभले तो आपदाएं नए रूप में और ज्यादा भयंकर तरीके से आ सकती हैं। कहीं ऐसा न हो कि वह आपदा अंतिम हो।

निश्चित तौर पर यह आपदा प्रकृति पर या प्रकृति के नियमों में मनुष्य के अनावश्यक छेड़छाड़ का परिणाम है। संयुक्त राष्ट्र की 2019 की रपट कहती है कि मानव विकास ने भूभाग के 75 प्रतिशत हिस्से पर और समुद्री पर्यावरण के 66 प्रतिशत हिस्से पर अतिक्रमण कर लिया है। इस समय दुनिया के 90 प्रतिशत बड़े जानवरों में मनुष्य या पालतू जानवर शुमार हैं। भेड़ियों के देश के लिए चर्चित जर्मनी में आज सिर्फ सौ भेड़िए बचे हैं और उनमें भी ज्यादातर पोलैंड मूल के हैं। इसके विपरीत आज जर्मनी में पचास लाख पालतू कुत्ते हैं। हालांकि इस समय पूरी धरती पर दो लाख भेड़िए घूम रहे हैं लेकिन पालतू कुत्तों की संख्या 40 करोड़ हो चुकी है। अगर दुनिया में इस समय 40,000 शेर हैं तो 60 करोड़ घरेलू बिल्लियां हैं। नौ लाख अफ्रीकी भैंसें हैं तो 1.5 अरब पालतू गाएं हैं। पांच करोड़ पेंगुएन हैं तो 20 अरब मुर्गियां हैं। इस समय मानव प्रजाति धरती की पारिस्थितिकी को अकेले सर्वाधिक बदल रही है। वह तमाम प्रजातियों को विलुप्त कर रही है तो कई नई प्रजातियों को बढ़ावा दे रही है। नतीजतन प्रकृति के वे तमाम जीव मानव शरीर में प्रवेश ले रहे हैं जो अब तक बहुत दूर रहते थे।

इसलिए कोरोना वायरस वह चेतावनी है कि हमें धरती की स्वाभाविक स्थिति को कहीं न कहीं बचाकर रखना होगा। उसके लिए चाहे कुछ क्षेत्र विशेष ही बनाकर रखे जाएं। ताकि अगर इस  तरह की महामारी का झटका आए तो हम झेल सकें। यह ऐसा अवसर है जो पर्यावरणीय चेतना को जागृत करने, उस बारे में नीति बनाने और उसे लागू करने की ओर जाता है। यह अवसर कार्बन उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन को रोकने के सवालों को फिर से प्रासंगिक कर देता है।

लेकिन इस महामारी ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर असमानता में वृद्धि की है। कुछ तो असमानताएं पहले से थीं जैसे कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भारत फिसड्डी है। वह अपने जीडीपी का सिर्फ एक प्रतिशत  खर्च करता है। वह टीका लगाने में धीमी गति आगे बढ़ता था। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का टीकाकरण का रिकार्ड तो सब-सहारा (मध्य और दक्षिण अफ्रीका) इलाकों से भी खराब रहा है। बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों ने इस मोर्चे पर भारत से अच्छा प्रदर्शन किया है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र के अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता के आंकड़े तो भारत की और खराब स्थिति का वर्णन करते हैं। भारत में प्रति दस हजार पर सिर्फ पांच बिस्तर उपलब्ध रहे हैं। जबकि बांग्लादेश में प्रति दस हजार पर 8, अमेरिका में 32 और यूरोपीय संघ में 64 रहे हैं। कोविड-19 ने जब इस असमानता को उजागर कर दिया है तो सरकार का फर्ज बनता है कि वह इसे अवसर में बदले। लेकिन उससे भी बड़ी चिंता तेजी से बढ़ती बेरोजगारी है।

भारत और चीन ने पिछले 25 वर्षो में तकरीबन पचास करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया था। इस महामारी का असर चीन पर भी पड़ेगा लेकिन ज्यादा असर भारत पर पड़ने वाला है। खतरा उन लोगों के फिर गरीबी रेखा से नीचे आ जाने का है जो उससे ऊपर उठे थे। इस दौरान रेस्तरां में काम करने वाले, होटलो में काम करने वाले और मनरेगा में काम करने वाले तमाम कामगारों और मजदूरों का रोजगार छिना है। उन्हें सरकार की तरफ से दी जाने वाली सहायता ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। ऐसे में मुद्रास्फीति की चिंताएं छोड़कर और निजीकरण के नियमों को तोड़कर उनके लिए अवसर उपलब्ध कराना ही आपदा में सही अवसर की तलाश है।

आपदा के दौरान एक महत्वपूर्ण अवसर प्रशासनिक ढांचे में बदलाव करने का है। कोविड-19 के दौरान यह तो साफ तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सारे लोकतांत्रिक देशों में अच्छा काम हुआ है और सारे गैर- लोकतांत्रिक देशों में खराब काम हुआ है। न ही यह कहा जा सकता है कि सारे गैर लोकतांत्रिक देशों में अच्छा काम हुआ है और लोकतांत्रिक देशों का प्रदर्शन खराब रहा है। स्थिति मिली जुली रही है। जैसे कि गैर-लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद चीन ने कोविड से लड़ाई में अच्छा प्रदर्शन किया है। जबकि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र होने के बावजूद अमेरिका ने आरंभ में खराब प्रदर्शन किया है। इसी तरह जापान और भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों का प्रदर्शन भी खराब रहा है। ब्रिटेन का भी आरंभिक प्रदर्शन खराब ही कहा जाएगा। उनकी तुलना में ताइवान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी और न्यूजीलैंड का प्रदर्शन बेहतर रहा है। ऐसे में जरूरत एक ऐसे प्रशासनिक तंत्र के विकास की है जो संवेदनशील हो, जवाबदेह हो और जहां नियमबद्धता हो। चीन शायद इसलिए सफल हुआ क्योंकि वहां एक नियमबद्धता है।

यह स्थितियां बताती हैं कि न तो वोकल फॉर लोकल का नारा चला है और न ही पूंजी पर आधारित वैश्वीकरण। जो भी स्थानीयता हो उसमें वैश्विक दृष्टि होनी चाहिए और जो भी वैश्वीकरण हो उसमें स्थानीयता की चिंता भी होनी चाहिए। लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है संप्रभु राष्ट्रों के बीच पारस्परिक सहयोग और समर्थ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का विकास। अगर हम आज ऐसा अवसर बनाएंगे तो भविष्य में दूसरे शीत युद्ध से बचेंगे और किसी बड़ी महामारी से भी। यही वास्तव में आपदा में अवसर बनाने का सही तरीका होगा।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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