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कम्युनिटी ट्रांसमिशन के दौरान महामारी से कैसे निपटें ?

कोविड-19 को संभालने वाले केरल मॉडल का हर कदम का अनुसरण किए जाने की ज़रूरत है। वार्ड दर वार्ड और क्लस्टर दर क्लस्टर में रोकथाम के प्रभावी उपाय किए जाने की ख़ास ज़रूरत है।
महामारी से कैसे निपटें
Image Courtesy: NDTV

पिछले हफ्ते के अंत में, महामारी को रोकने वाली एक सरकारी सलाहकार समिति के एक सदस्य सहित तीन सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठनों ने प्रधानमंत्री कार्यालय पर सवाल उठाते हुए एक खुला पत्र लिखा, जिसमें कहा गया कि सरकार नोवेल वायरस के खिलाफ रोकथाम और उससे हुए नुकसान से निपटने के लिए बनाई जा रही रणनीति के मामले में विशेषज्ञों की व्यापक श्रेणी से परामर्श क्यों नहीं ले रही है।

उनका पत्र ऐसे समय में आया है जब इस बात का संदेह पैदा हो रहा है कि कम्युनिटी ट्रांसमिशन ने इस वायरल बीमारी को भारत के सभी राज्यों में फैला दिया है।

कोविड-19 के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उसके कारण कई भारतीय स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा ज़ाहिर की गई शंकाओं और दुश्वारियों को साझा करना जरूरी है। भारत में 24 मार्च तक कोविड़ के करीब 500 मामले मिले और आठ लोगों की मौत हुई थी, लेकिन अब, सख्त लॉकडाउन के दसवें सप्ताह के बाद संक्रमित लोगों की संख्या 2.27 लाख से अधिक पहुँच गई हैं और लगभग 6,500 की मौत हो गई है।

इसके अलावा, देश भर के अस्पतालों में कई बीमार लोगों को इलाज की सुविधा नहीं मिल पाने की दु:खद खबर मिल रही है। चरमराती सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं और उसकी वजह से संक्रमण और मौतों के बढ़ने के कारण यह धारणा पैदा हो रही है कि स्वास्थ्य प्रणाली महामारी के बोझ तले दबी जा रही है। फिर भी, बावजूद इस सब के, सरकार जोर देकर कह रही है कि अभी इस बीमारी का कम्युनिटी ट्रांसमिशन नहीं हुआ है। दूसरे शब्दों में, आधिकारिक दावा यह किया जा रहा है कि कोविड-19 के 2 लाख विषम मामलों में प्रत्येक के संक्रमण के स्रोत का पता लगाया गया है।

वास्तव में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय पर्दे के पीछे छिप गया है और कह रहा है कि  वह अपनी जांच करेगा फिर निर्धारित करेगा कि बीमारी का कम्युनिटी ट्रांसमिशन हुआ है या नहीं। मंत्रालय ने कहा है कि वह अगले सप्ताह अपने निष्कर्षों के साथ जनता के सामने आएगा।

हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में ग्लोबल हेल्थ एंड सोशल मेडिसिन विभाग के पूर्व प्रोफेसर डॉ. विक्रम पटेल हालात को आश्वस्त करने वाला नहीं मानते हैं। उनके मुताबिक,"हालात पहले ही बिगड़ चुके थे,"। वे कहते हैं कि, "संक्रमण फैल रहा है और यह बड़ी चिंता का विषय है।"

स्वास्थ्य मंत्रालय मौतों के छोटे प्रतिशत का हवाला देते हुए दावा करता है कि भारत में अभी कोविड-19 का कम्युनिटी ट्रांसमिशन नहीं हुआ है। इसके लिए मंत्रालय तर्क देता है कि प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर मौतें मात्र 3.4 (30 मई को) हैं जो दुनिया में सबसे कम आंकड़ों में से एक हैं।

लेकिन डॉ. पटेल का मानना है कि इस मामले में दो अन्य कारक हैं जिसने भारत की मदद की है। पहला यह कि पश्चिम के विपरीत, जहां बुजुर्ग आबादी के कारण रुग्णता का स्तर अधिक है, भारत में एक युवा आबादी है जो वायरस का सामना बेहतर ढंग से कर सकती है। दूसरा पहलू यह है कि भारत में काफी हद तक आबादी बाहर सोती है या घर के बाहर समय बिताती है। गर्मियों के दौरान, गांवों और कस्बों में, बड़ी संख्या में लोग बाहर सोते हैं या समय बिताते हैं। "पश्चिम में, हर कोई घर के अंदर धंसा रहता है जिससे संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है"।

शीर्ष स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में संक्रमण की दर जुलाई की शुरुआत में बढ़ जाएगी, जो कि एक महीना ही दूर है, और इस महीने का एक भी दिन ऐसा नहीं होगा जब  सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा जोखिमों से बच पाएगी।

वाशिंगटन में सेंटर फॉर डिसीज, डायनेमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी के निदेशक डॉ. रामनयन लक्ष्मीनारायण कहते हैं, यह एक और जटिलता है। सबसे पहले तो, नोवेल कोरोनावायरस की ट्राजेक्टरी का पालन करना मुश्किल है जो कोविड-19 रोग का कारण बनी है। दूसरा,यह कोई "एक भारतीय महामारी नहीं" है। यह “एक महाराष्ट्र महामारी, गुजरात महामारी, तमिलनाडु और या फिर दिल्ली…” है।

फिर भी, भारत में कोविड-19 के प्रसार की गति तेज होने के कारण, इसके लिए एक समन्वित या आपसी मिलीजुली राष्ट्रीय प्रतिक्रिया की तत्काल जरूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह बीमारी देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग दरों पर फैल रही है। लेकिन इस बात में बहुत कम संदेह होना चाहिए कि पूरे देश में कुछ समान तरह के उपाय किए जाने की जरूरत है। इसके बजाय, प्रत्येक भारतीय राज्य ने अपने-अपने ढंग से इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है या इसकी रोकथाम के अलग-अलग रास्ते अपनाए हैं।

उदाहरण के लिए, दिल्ली सरकार ने कोविड-19 रोगियों के इलाज के लिए 117 सार्वजनिक और निजी अस्पतालों को तैयार किया है, लेकिन गैर-कोविड रोगियों को खुद के भरोसे पर छोड़ दिया गया है। ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क की सह-संयोजक मालिनी ऐसोला कहती हैं, "समय पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप की कमी के कारण कई मरीजों की मौत हो गई है।"

एक और बढ़ती समस्या यह भी है कि कोविड़ और गैर-कोविड श्वसन संक्रमण के बीच की रेखा बेहद धुंधली रही है। इसका नतीजा यह है कि निजी अस्पताल कोविड-19 के इलाज के लिए बहुत अधिक दर वसूल रहे हैं, खासकर मेडिकल स्टाफ द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पीपीई किट के एवज़ में ऐसा हो रहा है। यह अकेले एक मरीज के लिए एक दिन में 10,000 रुपये से अधिक का खर्च बैठ सकता है और ऊपर से रोगियों की संख्या बढ़ रही है।

बड़ा तथ्य यह है कि, पीपीई किट नियमित सुरक्षा सावधानियों का हिस्सा बनने जा रही हैं, जिन्हें सभी अस्पतालों को अपने काम की मुख्यधारा में लाना होगा - जैसे एचआईवी-एड्स या हेपेटाइटिस के लिए सुरक्षा उपाय पेश किए गए हैं। लेकिन इसके साथ अस्पतालों द्वारा वसूले जाने वाले दामों को कम करने के साथ-साथ पीपीई की लागत को भी विनियमित करना होगा। जैसा कि ऐसोला कहती है, इस महामारी के दौरान सभी रोगियों के लिए, और देश भर में सभी के लिए ऐसा करना ही होगा। "पीपीई किट के लिए मरीजों से पैसा वसूलना उनके कंधों पर विशेष रूप से अनुचित बोझ डालना है क्योंकि यह एक सार्वभौमिक सावधानी का अंग है जिसे इस स्वास्थ्य संकट के दौरान ही पहनना चाहिए," उन्होने कहा।

पश्चिम बंगाल में, निजी अस्पतालों को राज्य सरकार ने कहा है वे कोविड-19 रोगियों के उपचार सरकारी निर्धारित दरों पर करें। अहमदाबाद में, गुजरात उच्च न्यायालय की चेतावनियों के बावजूद, अस्पताल मरीजों से अधिक पैसा वसूलना जारी रखे हुए है। महाराष्ट्र में, सरकार ने निजी अस्पतालों के 80 प्रतिशत बेड का शुल्क तय कर दिया है, जबकि शेष 20 प्रतिशत के लिए, अस्पताल नियमित दरों पर शुल्क लेने के लिए स्वतंत्र है।

मुंबई में, जन स्वास्थ्य अभियान (JSA) ने 1 जून को बीएमसी प्रमुख, इकबाल सिंह चहल को कई नर्सिंग और पैरामेडिकल समूहों की ओर से उनकी निराशाजनक काम की स्थिति को उजागर करते हुए पत्र लिखा। पत्र में कहा गया है कि: "मुंबई निस्संदेह देश का सबसे बड़ा हॉटस्पॉट है और 1,500 एमसीजीएम कर्मियों [नगर निगम ग्रेटर मुंबई] को कोविड-19 का संक्रामण हो गया है, जबकि उनमें से 25 ने वायरस के कारण दम तोड़ दिया है ..."

जेएसए ने कहा है कि अस्पताल के अधिकारियों को ज्ञापन देने के बावजूद काम करने की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है, जिससे लगभग 200 नर्सों को संक्रमित होने के डर से अपनी नौकरी छोड़कर अपने गृह राज्य केरल वापस जाना पड़ा। पत्र में कहा गया है कि जब "एक सामान्य व्यक्ति कोविड-19 से संक्रमित होता है, तो नर्सें उनकी देखभाल करती हैं। जब नर्सों को कोविड-19 होता है, तो उनकी देखभाल के लिए कोई नहीं होता है।”

टाटा स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में पढ़ाने वाली ब्रिनेल डिसूजा, बॉम्बे हाई कोर्ट में दायर एक जनहित का याचिका की याचिकाकर्ताओं में से एक हैं, जो हाईकोर्ट से राज्य सरकार के लिए निर्देश की मांग करती है कि गैर-कोविड मरीजों को अस्पतालों से दूर न किया जाए, जो लॉकडाउन के दौरान की एक सामान्य घटना बन गई है।

मुंबई की ख़ासियत यह है कि इसके हॉटस्पॉट कम आय वाले इलाके हैं। उदाहरण के लिए धारावी इनमें से एक है। इस विशाल बस्ती जिसमें एक सार्वजनिक शौचालय पर 1,500 लोग हैं। यहाँ रहने के लिए इतने छोटे और कम क्वार्टर हैं कि उन्हें शिफ्ट के आधार पर श्रमिकों को भाड़े पर दिया जाता है। डी’सूजा धारावी में लोगों के रहने के हालात को एक उदाहरण के साथ पेश करते हैं: सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक, छह लोग झोंपड़ी में रहेंगे, फिर बाद में शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक अन्य छह लोगों उसे किराये पर लेते हैं। लेकिन अचानक लॉकडाउन से सभी की आवाजाही पर रोक लगा गई और सभी बारह किरायेदारों एक साथ उस छोटे से स्थान पर रहने के लिए मजबूर हैं।

इसके ऊपर, धारावी निवासियों को अत्यधिक दरों पर पानी खरीदना पड़ता है। अक्सर एक परिवार पानी के लिए 3,000 रुपये प्रति माह खर्च करता है। “लॉकडाउन के दौरान कोई नौकरी भी नहीं है, तो इतना महंगा पानी कौन खरीदेगा। जाहिर है, प्रवासी कामगार अपने गाँव लौटने के लिए दौड़ लगा रहे हैं, ” डी’सूज़ा कहते हैं।

लेकिन यह सिर्फ धारावी नहीं है। मुंबई के एक रेजीडेंट डॉक्टर ने एक वीडियो जारी कर कहा है कि कैसे किंग एडवर्ड मेमोरियल (केईएम) अस्पताल के एक वार्ड में तीन रेजिडेंट डॉक्टर बिना नर्स, वार्ड बॉय या अन्य सहायक स्टाफ के वार्ड के 35 गंभीर रोगियों की देखभाल के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहाँ केवल ये तीन डॉक्टर हैं जो मरीजों को दवाइयां दे रहे हैं, उन्हें खाना खिला रहे हैं और अन्य सभी काम कर रहे हैं। "हर कोई अस्पताल छोड़ कर भाग गया है," डॉक्टरों में से एक ने वीडियो में उक्त बात कही। डॉक्टर ने कहा, "हमने कुछ अधिकारियों को अपनी दुर्दशा बताने के लिए तथा कुछ सहायक भेजने के लिए कई कॉल किए, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है।"

ऐसी ही स्थिति भारत के कई अस्पतालों में व्याप्त है। उत्तर प्रदेश में, वाराणसी स्थित सामाजिक कार्यकर्ता, अफलातून, जिनकी पत्नी मई में रक्त कैंसर की भेंट चढ़ गई थी, का कहना है कि बीएचयू परिसर में सर सुंदरलाल अस्पताल में गंभीर रूप से बीमार रोगियों को दाखिल करने के लिए या उनकी जांच करने के लिए कोई भी वरिष्ठ चिकित्सक मौजूद नहीं है। उन्हें हर हफ्ते अपनी पत्नी को लेकर अस्पताल जाना पड़ता है, जहाँ उनका डायलिसिस चल रहा था।

उन्होंने कहा कि “अस्पताल को रेजिडेंट डॉक्टरों द्वारा चलाया जा रहा है। मेरी पत्नी को एक छोटी सर्जिकल प्रक्रिया की आवश्यकता थी जो नहीं हो सकी क्योंकि ऑपरेशन करने के लिए कोई वरिष्ठ डॉक्टर उपलब्ध नहीं है”। ठीक यही स्थिति मुंबई स्थित अस्पताल के वीडियो में डॉक्टरों ने बताई है।

रिपोर्टों में कहा गया है कि निजी अस्पताल कोविड-19 रोगी को दाखिल करने से पहले 6-7 लाख रुपये जमा करने की मांग कर रहे हैं। स्वास्थ्य कर्मी जोर देते हैं कि चूंकि महामारी एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल है, इसलिए निजी अस्पतालों द्वारा लगाए जाने वाले शुल्कों पर मूल्य की सीमा होनी चाहिए।

इसका नतीजा यह है कि कई मरीज अस्पतालों में कोविड के इलाज नहीं ले पा रहे हैं, उन्हे मरने के लिए घरों में छोड़ दिया गया है क्योंकि वे इलाज का इतना विशाल खर्च वहन नहीं कर सकते हैं।

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क के पूर्व कार्यकारी निदेशक डॉ. टी. सुंदरमण का मानना है कि "घरेलू उपचार मॉडल त्रुटिपूर्ण है और अस्पतालों में कोविड-19 रोगियों का इलाज किया जाना चाहिए।"

सुंदररमण कोविड से संबंधित मौतों के बारे में आशंकित हैं’… जिनके बारे में सही विवरण सार्वजनिक डोमेन में अभी भी जारी नहीं किया गया है।" मिसाल के तौर पर, वह इस बात से हैरान हैं कि वेंटिलेटर का इस्तेमाल भारत में सक्रिय मरीजों की बढ़ती संख्या के कारण अपर्याप्त लग रहा है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष प्रो. के. श्रीनाथ रेड्डी ने जोर देकर कहा कि संख्या को नियंत्रित करने का एकमात्र तरीका देश भर में सूक्ष्मस्तरीय रोकथाम की रणनीति को आगे बढ़ाना है। "हमें वार्ड दर वार्ड, क्लस्टर दर क्लस्टर, में रोकथाम के उपाय करने की आवश्यकता है और ट्रांसमिशन को रोकने के लिए सिंड्रोमिक निगरानी का पालन करना भी जरूरी है"।

जिन दो राज्यों में वायरस की रोकथाम कर ली गई है, वे हैं केरल और आंध्र प्रदेश, वहाँ ये उपाय काफी तेज़ी से किए गए हैं।

रेड्डी का मानना है कि कम्युनिटी वालंटियर्स की मदद से कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग को बढ़ाया जाना चाहिए। “इन वालंटियर्स को किसी तरह के लंबे प्रशिक्षण की जरूरत नहीं है। उनके मुताबिक, इन्फ्लूएंजा के मामूली संदेह वाले किसी भी व्यक्ति को संगरोध यानी क्वारंटाइन में रखा जाना चाहिए”। देश को युद्धस्तर पर महामारी से निपटने की जरूरत है। उन सभी रोगियों की उचित अस्पताल में भर्ती की व्यवस्था की जानी चाहिए जिन्हें इसकी जरूरत है। इस संकट से निपटने का पूरे देश के सामने केरल मॉडल मौजूद है और महामारी की रोकथाम के लिए इसके हर कदम का अनुसरण किया जाना चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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