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कैसे बच्चों को कोविड के अदृष्य प्रभाव से बचाएं?

यूनिसेफ ने इस बात को चेताया है कि यदि हम इन बच्चों पर महामारी के प्रभाव पर आज काम नहीं करते तो कोविड-19 की अनुगूंज हमारे साझा भविष्य को बर्बाद कर देगी। इसके लिए यूनिसेफ ने ‘ग्लोबल एजेंडा फॉर एक्शन’ तय किया है।
Child safety
Image courtesy: News Nation

वर्तमान समय में कोविड-19 के आंकड़े और क्लिनिकल टेस्ट यह राहत की खबर दे रहे हैं कि बच्चों पर महामारी का असर काफी कम है। फिर चाहे संख्या के लिहाज से हो या संक्रमण की गंभीरता के संदर्भ में। भारत में केवल 10 प्रतिशत बच्चे संक्रमित पाए गए और इनमें गंभीर संक्रमण के मामले तो गिनती भर के थे। चीन के हुबे प्रॉविन्स में भी गंभीर संक्रमण वाले बच्चे कम ही थे। फिर भी बच्चों को लेकर इस नयी चिन्ता ने विश्व को परेशान कर दिया है कि आखिर बच्चे महामारी के दौर में मानसिक रूप से स्वस्थ कैसे रहें? उनके स्कूल बन्द हैं, दोस्तों और बाहरी दुनिया से वे पूरी तरह कटे हुए हैं और रात-दिन टीवी या सोशल मीडिया में भयावह दृष्यों से रू-ब-रू हैं। 

इस मामले में संयुक्त राष्ट्र की बाल अधिकार संस्था यूनिसेफ (UNICEF) ने गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘बच्चों को कोविड-19 महामारी के अदृश्य शिकार न बनने दें।’’ उसके अनुसार विश्व के 99 प्रतिशत 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे किसी न किसी महामारी संबंधी आवाजाही के प्रतिबंध में जी रहे हैं। 60 प्रतिशत ऐसे देशों में रहते हैं जहां पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन है, यानी 186 देशों में इन बच्चों की संख्या 2.34 अरब है। 

यूनिसेफ ने इस बात को भी चेताया कि यदि हम इन बच्चों पर महामारी के प्रभाव पर आज काम नहीं करते तो कोविड-19 की अनुगूंज हमारे साझा भविष्य को बर्बाद कर देगी। बच्चे जो हमारे भविष्य हैं, उनके शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य व पोषण, पेय जल आपूर्ति और साफ-सफाई पर निवेश करें। बाल-केंद्रित सामाजिक सेवाओं पर विशेष ध्यान दें।

यूनिसेफ ने ‘ग्लोबल एजेंडा फॉर एक्शन’ तय किया है। इसके 6-सूत्री एजेंडे में बच्चों को स्वस्थ और सुरक्षित रखना, कमज़ोर बच्चों तक जल व साफ-सफाई की सेवा पहुंचाना, बच्चों को लगातार शिक्षित करना, गरीब परिवारों की जरूरतें पूरी करना ताकि वे अपने बच्चों की देख-रेख कर सकें, बच्चों को हिंसा, शोषण और यौन अत्याचार से बचाना शामिल है।

अंतिम बिंदू हमारा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करता है, क्योंकि इस बीच दो चिंताजनक खबरें आईं। पहली तो यह कि इस दौर में बच्चों पर हिंसा में इज़ाफा हुआ है। दूसरी, कि भारत से चाइल्ड पॉर्न की ट्रैफिक में भयानक बढ़ोतरी हुई है। 

इस संबंध में दो अधिवक्ताओं, समर सोढ़ी और आर्जू़ अनेजा ने सीजेआई जस्टिस बोबडे को पत्र लिखा है कि वे इस बात को संज्ञान में लें कि यद्यपि देश में अपराध कम हुए हैं, लेकिन बच्चों पर हिंसा और शोषण में इज़ाफ़ा हुआ है। इन्होंने बताया कि हम आम तौर पर ऐसे बच्चों को घर में न रहने की हिदायत देते हैं ताकि उन्हें अपने परिवार द्वारा और अधिक प्रताड़ना न सहनी पड़े। पर लॉकडाउन के दौर में वे घर से बाहर जा नहीं सकते, तो उनकी स्थिति और बदतर हो गई है। लॉकडाउन के कारण उनके सर्पोट नेटवर्क खत्म हैं और वे भाग भी नहीं सकते हैं।

कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन की नीति निर्देशिका निहारिका चोपड़ा ने कहा कि ये आश्चर्य की बात है कि लॉकडाउन के दौरान स्वयंसेवी संगठनों और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पास मुहय्या नहीं किये जाते। क्योंकि उनकी सेवाएं ‘‘आवश्यक सेवाओं’’ में नहीं आती हैं। इसलिए वे परेशानी में फंसे बच्चों तक पहुंच नहीं पाते।

इस मामले में इंडिया चाइल्डलाइन की उप-निदेशिका हरलीन वालिया ने अपनी ओर से मांग की है कि बच्चों को सुरक्षा देना आवश्यक सेवा माना जाए और कार्यकर्ताओं को स्पेशल पास मिलें ताकि वे बच्चों तक पहुंच सकें। 

एक समाचार के अनुसार चाइल्डलाइन इंडिया हेल्पलाइन में ऐसे बच्चों से संबंधित 92,000 से अधिक कॉल आ चुके थे। यह भी पता चला कि लॉकडाउन के पहले 10 दिनों में ही कॉल्स में 50 प्रतिशत वृद्धि हो गई थी।

दूसरा खुलासा पॉर्नहब, विश्व के सबसे बड़े पॉर्न वेबसाइट के ट्रैफिक को लेकर आया। इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फन्ड ने दावा किया कि मार्च 24 से मार्च 26, 2020 इस साइट पर ट्रैफिक 95 प्रतिशत बढ़ गयी थी। कैलाश सत्यार्थी का इस संबंध में ट्वीट आया, उसके बाद ही महिला एवं बाल विकास मंत्री, स्मृति इरानी ने सभी चाइल्ड हेल्पलाइन्स को निर्देशित किया कि सभी जिलों में न केवल आपात सेवा दी जाए, बल्कि बाल यौन शोषण की सeमाग्री के विषय में जिला प्रशासन व पुलिस के पास रिपोर्ट भी पहुंचाई जाए।

इन तमाम बातों के साथ एक बात और भी जोड़ी जानी चाहिये कि बच्चों को बचाने के लिए जिला प्रशासन को जवाबदेह बनाया जाए और सरकार की ओर से पुलिस को प्रोत्साहन राशि दी जाए, ताकि उनकी तत्परता बढ़े। क्योंकि पॉर्न रैकेट अरबों डालर का कारोबार है और उसकी समानान्तर अर्थव्यवस्था चलती है, लड़ाई आसान नहीं है। पॉर्न व सेक्स उद्योग के लिए और रईसों के घरों में या कारखानों में बंधुआ के रूप में काम करवाने के लिए बड़े पैमाने पर बच्चों की खरीद-फरोख़्त चलती है।

यह कारोबार देश-विदेश तक फैला हुआ है। कोरोना के दौर में इसमें बेतहाशा वृद्धि होगी, क्योंकि आर्थिक मंदी के समय बच्चे, खासकर लड़कियां सॉफ्ट टार्गेट बनेंगी। अर्थाभाव में सबसे अधिक शिकार तो वे बच्चे होंगे जो मज़दूर परिवारों से आते हैं, बाल श्रमिक हैं अथवा बेघर हैं। इसे रोकने के लिए संसद में लंबित ट्रैफिकिंग बिल को संशोधित कर जल्द पारित करना होगा। साथ ही समस्त बाल-गृहों व आश्रमों सहित बच्चों के स्कूलों, घरों और कारखानों में मानिटरिंग एजेन्सियों को जांच-पड़ताल का काम कई वर्षों तक भी करना पड़ सकता है।

गांवों में स्कूल जाने वाले बच्चों को इस समय श्रम करना पड़ रहा है और लॉकडाउन खत्म होने पर भी यह स्पष्ट नहीं कि वे वापस स्कूल जाएंगे या गरीबी की गिरफ़्त में आकर मज़दूरी करने पर मजबूर होंगे। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद कई राज्यों में मिड-डे-मील की सुविधा अब तक नहीं है। क्या ऐसी स्थिति में बच्चे, जो पहले ही बड़ी संख्या में कुपोषित हैं, और भी कुपोषित नहीं हांगे? आज समाचारों से पता चल रहा है कि हज़ारों बच्चों को भूखे सोना पड़ रहा है। क्या हमें अपने देश की प्राथमिकताएं सही तरीके से नहीं तय करनी चाहिये कि हमारे ये नन्हे बच्चे स्वस्थ और सुरक्षित रहें? आंगनवाड़ी कार्यकताओं को 10,000 रु प्रतिमाह की प्रोत्साहन राशि देकर यह जिम्मेदारी दी जा सकती है।

जहां तक मध्यम या उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों की बात है, तो सारी सुविधाओं के बावजूद वे तनाव में जी रहे हैं। कोविड-19 के बारे में इतनी भयावह तस्वीर मीडिया के माध्यम से सामने आई है कि बच्चों को डर लग रहा है, और कई बच्चे चिंता और डिप्रेशन में जाकर चुप हो गये हैं।

अधिक छोटे बच्चे मां से चिपकने लगे हैं और रोते भी हैं। कुछ को नींद नहीं आती क्योंकि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि घर में स्थितियां असामान्य क्यों हो गई हैं। बड़े बच्चों को पढ़ाई और कैरियर की चिंता सताती है क्योंकि बहुत से बच्चे बिना स्कूल और कोचिंग सेन्टर की मदद के अपना काम पूरा नहीं कर पा रहे, जबकि स्कूलों ने बोर्ड के निर्देशानुसार ऑनलाइन पढ़ाई शुरू करा दी है। परीक्षा का दबाव भी बना हुआ है। टीचरों की मेंटरिंग के बिना बच्चे असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।

आईएससी और एनसीईआरटी का निर्देश है कि बच्चों को घर के कामों में मदद करने, रचनात्मक कार्य करने ओर व्यायाम या योग में जोड़ना चाहिये और उनकी दिनचर्या को समय-सारिणी के अनुसार चलाना चाहिये। लेकिन माताओं का कहना है कि उनके लिए यह असंभव हो रहा है। बच्चे रात-दिन टीवी और मोबाइल फोन पर लगे रहते हैं। दूसरा, उनके जागने और सोने का समय अस्तव्यस्त हो गया है। क्या इन बच्चों और उनके अभिभवकों को हर राज्य में फोन या व्हाट्सएप के जरिये निःशुल्क काउन्सलिंग सेवा मिल सकती है, जैसा कि पश्चिम बंगाल, केरल और दिल्ली में हो रहा है? हालांकि कुछ मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि घरवालों के सामने बच्चे ऑनलाइन बात नहीं करते।

आज अभिभावकों को भी बच्चों से महामारी से उत्पन्न स्थिति पर बात करनी चाहिये, पर उतना ही जितना वे अपने स्रोतों से जानते हैं। बच्चे अधिक परेशान हों तो मनोचिकित्सकों से बात करनी चाहिये। मैंगलुरु में एक बच्चा तो इतना अकेला हो गया कि अपने मित्र को सूटकेस में भरकर ले आया, पर वह पकड़ा गया।

कई बच्चों को अपने परिवारजनों की चिंता है। खासकर उनकी जो बूढ़े हैं, दूर रहते हैं या विदेश में हैं। किसी के माता-पिता चिकित्सक या नर्स हैं, अथवा दोस्त हॉस्टलों मे फंसे हुए हैं। यह चिंता अक्सर खुले तौर पर प्रकट नहीं होती, पर अंदर-ही अंदर खाती है। इसलिए मनोवैज्ञानिकों की सलाह है कि फोन, व्हाट्सएप, स्काइप आदि पर उन्हें अपने प्रियजनों से बात करानी चाहिये और लोगों के ठीक होने की या अन्य सकारात्मक खबरें देनी चाहिये। 

एक महत्वपूर्ण सलाह यह भी है कि स्कूल बंद होने पर भी बच्चे सहित समस्त परिवारजनों को एक रूटीन बनाये रखना चाहिए, इससे सुरक्षाबोध होता है। साथ ही टीवी, कंप्यूटर व मोबाइल  का उपयोग 3 घंटे से अधिक नहीं हो, वह भी बड़ों की निगरानी में। ऐसा न होने पर डिप्रेशन में आकर वे दुष्ट लोगों के चंगुल में फंस सकते हैं और ऑनलाइन अब्यूज़ व बुल्लींग के शिकार बन सकते हैं। यह उनके संपूर्ण जीवन को प्रभावित कर सकता है। कुल मिलाकर समाज और सरकार के ऊपर भारी ज़िम्मेदारी है, जितना हो सके, बच्चों को सकारात्मक माहौल दें।

(कुमुदिनी पति एक महिला एक्टिविस्ट और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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