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विकलांगों के लिए मसौदा नीति में भारी चूक

मसौदा नीति अजीब ढंग से कौशल विकास और रोजगार को एक ही शीर्षक के तहत जोड़ती है, एक चौंकाने वाला आंकड़ा पेश करती है कि केवल 36% विकलांग ही रोज़गार में हैं। सरकार को कम से कम इस दुर्भाग्यपूर्ण श्रेणी के लिए न्यूनतम मजदूरी के बराबर सुनिश्चित न्यूनतम आय की गारंटी करनी चाहिए।
policy for the disabled
Image courtesy : Feminism in India

भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची की प्रविष्टि 9 के अनुसार राज्य विकलांगों के पुनर्वास और सहायता के लिए बाध्य है। लेकिन संविधान को अपनाने के 4 दशक से अधिक समय के बाद ही भारतीय संसद ने विकलांगों के लिए पहला कानून बनाया। 1995 में विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण, और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम पारित किया गया था। विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर भारत के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने के दस साल बाद 2016 में विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों संबंधी अधिनियम को  लाया गया था। विकलांग व्यक्तियों के लिए पहली राष्ट्रीय नीति 2016 में अपनाई गई थी। अब उस नीति को अपडेट करने के लिए, सामाजिक कल्याण मंत्रालय के तहत विकलांग व्यक्तियों के अधिकारिता (empowerment) विभाग ( DEPwD ) ने विकलांग व्यक्तियों के लिए 9 जून 2022 को एक नई मसौदा राष्ट्रीय नीति तैयार की है। उन्होंने इसे सार्वजनिक डोमेन पर रखा है और जनता से 9 जुलाई 2022 तक अपनी राय प्रस्तुत करने को कहा है। इसी संदर्भ में यह लेखः

2011 की जनगणना ने देश में विकलांगों की संख्या 2.68 करोड़ (तत्कालीन जनसंख्या का 2.21%) बताई। पहली नज़र में, इतनी बड़ी आबादी की भलाई सुनिश्चित करने वाली 92-पृष्ठ की मसौदा नीति बहुत विस्तृत और व्यापक लगती है। नीति को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों, दृष्टि और मिशन को बताते हुए, मसौदा नीति दस्तावेज दस प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित है: विकलांगता की रोकथाम, विकलांगों का प्रमाणीकरण, उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास और रोजगार, खेल, संस्कृति और मनोरंजन में उनकी भूमिका, उनके लिए सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच और उनकी सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे। फिर यह विकलांगों के मुद्दों और अंततः उनके अधिकारों के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न को संबोधित करने वाले संस्थानों के मौजूदा नेटवर्क पर विस्तार से बात करता है। हालांकि, करीब से जांच करने पर, मसौदा नीति गंभीर चूक से ग्रस्त है। आइए हम इन दस शीर्षों के तहत इन बड़ी चूकों को उजागर करने के लिए ठोस प्रस्तावों की सूची बनाएं।

निवारण

डब्ल्यूएचओ की एक तथ्य-पत्रक (fact sheet) इंगित करता है कि 20 से 50 मिलियन, यानि 2-5 करोड़ लोग सड़क दुर्घटनाओं में गैर-घातक चोटों का शिकार होते हैं, जिनमें से कई स्थायी विकलांगता के शिकार होते हैं। नीति इस मुद्दे को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देती है जैसे कि यह इसके दायरे से बाहर हो।

विकलांगता का दूसरा प्रमुख स्रोत कार्यस्थल दुर्घटनाएं हैं। फरवरी 2006 में जर्नल सेफ्टी साइंस में प्रकाशित “व्यावसायिक दुर्घटनाओं के वैश्विक अनुमान” नामक एक अध्ययन से पता चला है कि 2003 में भारत में लगभग 2.5 करोड़ गैर-घातक कार्यस्थल दुर्घटनाएँ हुईं। निर्माण उद्योग, खनन, रासायनिक उद्योगों में श्रमिकों को विकलांगता का शिकार होना पड़ा, जो विशेष रूप से गुजरात में, और कृषि क्षेत्र में बहुत अधिक है। व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा के मुद्दे को संबोधित करने हेतु माना जाने वाला श्रम संहिता (labour code) रोकथाम के बारे में बहुत ही संक्षिप्त है। यह फैक्ट्री एक्ट की तुलना में और भी खराब है, पर यह उसे ओवरराइड करेगा। नौकरशाही विभागवाद का शिकार होने के कारण मसौदा नीति इस मुद्दे को भी पूरी तरह से नजरअंदाज करती है। यह आंकड़ा देने में भी विफल है कि कितने प्रतिशत विकलांग कार्यस्थल की चोटों के शिकार हुए थे।

प्रमाणीकरण (Certification)

केंद्र विकलांग व्यक्तियों के लिए एक राष्ट्रीय डेटाबेस तैयार कर रहा है और केंद्र ने विकलांग व्यक्तियों के लिए एक विशिष्ट आईडी नंबर जारी करना शुरू कर दिया है। विकलांग व्यक्ति को पंजीकृत करने के बाद ही एक पहचान पत्र मिलेगा जो भविष्य में विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा प्रदान की जाने वाली योजनाओं और लाभों का फायदा उठाने के लिए आवश्यक होगा। वर्तमान में, राज्य सरकारें विकलांगों को विकलांग पेंशन वितरित करने के लिए पंजीकृत कर रही हैं और केंद्र को राज्य डेटाबेस को दोबारा तैयार करने की आवश्यकता क्यों है? वैसे भी, पंजीकरण प्रक्रिया में कई लोगों को इस शर्त पर शामिल नहीं किया जाता है कि केवल 40% विकलांगता वाले लोगों को विकलांग के रूप में प्रमाणित किया जाएगा। इस विशिष्ट आईडी के लिए पंजीकरण करने हेतु एक विकलांग व्यक्ति को आय प्रमाण पत्र, पहचान प्रमाण, जाति प्रमाण पत्र (एससी, एसटी और ओबीसी के लिए) के साथ आवेदन करना होगा और इन दस्तावेजों की आपूर्ति राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा की जाती है। आवेदन तब संबंधित चिकित्सा अधिकारी के पास जाएगा, जो अधिकांश मामलों में, राज्य सरकार के अधीन होगा। तब चिकित्सा अधिकारी की राय एक मेडिकल बोर्ड के पास जाएगी और वह विकलांगता का प्रतिशत बताएगी। उसके बाद ही यूडीआईडी नंबर जेनरेट होगा और विकलांग व्यक्ति को एक आईडी कार्ड मिलेगा। यह अपने आप में एक अत्यधिक अक्षम करने वाली (disabling) प्रक्रिया है! अनाम स्नेह संस्था के संस्थापक श्रीनारायण यादव का कहना है कि ‘‘पॉलिसी तो सही है पर उसे लागू करने वाला तंत्र पूरी तरह लचर और लापरवाह है। मसलन डॉक्टर को जब प्रमाणित करना होता है कि व्यक्ति विकलांग है, वह सोचता है कि- हमारी बला से-वह एक मिनट भी एक्स्ट्रा खर्च नहीं करना चाहता। इसी प्रकार हर प्रमाणपत्र के लिए कई-कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। नौकरषाही ने बहुत सारे रोड़े खड़े कर रखे हैं। तो विकलांगों को बहुत झेलना पड़ता है।“  श्रीनारायण स्वयं एक विद्युत दुर्घटना में अपने दोनों हाथ खो चुके हैं। वे बिना सरकारी फंडिंग अपने जैसे विकलांगों को अपने पैरों पर खड़ा केरने की कोशिश कर रहे हैं।

राज्य सरकारों ने राज्य मुख्यालयों में डिस्लेक्सिया से ग्रस्त बच्चों में सीखने की अक्षमता को प्रमाणित करने के लिए किसी भी सरकारी अस्पताल को नहीं, केवल कुछ निजी अस्पतालों को नामित किया है जैसे हैदराबाद में निलौफर अस्पताल या बैंगलोर में निमहंस। परंतु इस प्रकार गरीब ग्रामीण छात्र वंचित हो रहे हैं। अब आईडी के बिना बच्चों को न केवल छात्रवृत्ति और विशेष शिक्षण किट से वंचित रहना होगा, वे अपनी परीक्षा भी नहीं दे सकेंगे। कॉलेज भी विकलांग छात्रों को प्रवेश देने के लिए ऐसे विकलांगता प्रमाण पत्र की मांग करते हैं।

शिक्षा

मसौदा नीति में कहा गया है कि केवल 5% विकलांग व्यक्ति स्नातक हैं या उन्होंने अधिक अध्ययन किया है। लेकिन 55 प्रतिशत साक्षर हैं। जाहिर है, शिक्षा को आगे बढ़ाने में बाधाएं हैं, हालांकि वे उच्च शिक्षा के लिए अन्यथा सक्षम हैं ।

नीति विकलांग बच्चों की अलग-अलग श्रेणियों जैसे डिस्लेक्सिक बच्चों, ऑटिस्टिक बच्चों, नेत्रहीन बच्चों आदि के लिए विशेष स्कूलों को बढ़ावा देने के बारे में मौन है।

स्वास्थ्य

जबकि कुछ प्रकार की विकलांगता आयुष्मान भारत के अंतर्गत आती है, सभी विकलांग स्वतः आयुष्मान भारत के अंतर्गत नहीं आते हैं। यदि उनकी पारिवारिक आय अधिक है, तो वे आयुष्मान भारत के हकदार नहीं हैं। आयुष्मान भारत के तहत सभी प्रकार की विकलांगता को कवर नहीं किया जाता है । इसलिए, आयुष्मान भारत तक पहुंच रखने वाले भी कुछ मामलों में इसके तहत एमआरआई नहीं करवा सकते हैं। DEPwD ने स्वास्थ्य मंत्रालय को सुझाव दिया है कि कानून के तहत सभी 21 प्रकार की विकलांगता को मान्यता प्राप्त श्रेणी में किया जाए, और स्वास्थ्य मंत्रालय को इसपर जवाब देना बाकी है। योजना में सभी विकलांगों का सार्वभौमिक कवरेज होना चाहिए। सभी योग्य विकलांगों को मुफ्त प्रॉस्थेटिक लिंब, जैसे जयपुर फुट, चश्मा, श्रवण यंत्र (hearing aid) आदि की गारंटी देने से राजकोष पर अधिक खर्च का बाझ नहीं होगा।

कुमकुम जी जो पोलियोग्रस्त होने के कारण चल नहीं पातीं, कहती हैं कि ‘‘श्रीनारायणजी ने जैसे खुद को स्वावलंबी बनाया है और कई सारे विकलांगों को रोज़गार में लगाया है, मोबाइल किराना दुकानें दी हैं, ट्रेन किया है और सामूहिक विवाह तक कराए हैं, ऐसे प्रयास सरकार को हर कस्बे व जिले में करने चाहिये। उन्हें ऐसे एनजीओज़ को प्रोत्साहित करने हेतु अनुदान देना चाहिये।“

कौशल विकास और रोज़गार

मसौदा नीति अजीब ढंग से कौशल विकास और रोजगार को एक ही शीर्षक के तहत जोड़ती है, एक चौंकाने वाला आंकड़ा पेश करती है कि केवल 36% विकलांग ही रोज़गार में हैं। यह उनकी आजीविका के वास्ते राज्य, परिवार के सदस्यों या अन्य स्रोतों पर उनकी निर्भरता के स्तर पर प्रकाश डालता है। सरकार को कम से कम इस दुर्भाग्यपूर्ण श्रेणी के लिए न्यूनतम मजदूरी के बराबर सुनिश्चित न्यूनतम आय की गारंटी करनी चाहिए।

विकलांगों के लिए कौशल विकास (skill development) तो सामान्य कौशल विकास कार्यक्रमों में फिट नहीं होगा। इसके लिए हमें विशेष प्रतिभाओं और विशेषज्ञता के साथ और भी विशिष्ट संस्थानों की आवश्यकता है। डिजिटल युग में, 100% विकलांग भी आवाज नियंत्रित उपकरणों (voice controlled devices) का उपयोग करके सहायता प्राप्त कर सकते हैं। शुरुआत में सरकार ऐसे उपकरणों पर कम से कम सब्सिडी दे सकती है।

श्री राजेश शर्मा, फ़िज़ियोथेरापिस्ट, जिनका अपना फ़िज़ियोथेरापी केंद्र नैनी में है, कहते हैं कि उनकी क्लिनिक में ‘‘अधिकतम केस सेरिब्रल पॉलसी और लकवा के कारण विकलांगता के आते हैं। इन्हें फ़िज़ियोथेरापी और विशेष प्रशिक्षण की जरूरत होती है। उन्हें सरकारी खर्च पर विशेष उपकरणों, व्हील चेयर और फ़िज़ियोथेरापी व ट्रेनिंग की निःशुल्क व्यवस्था उपलब्ध कराई जानी चाहिये, वरना वे जीवन भर वंचित और अनुपयोगी रह जाते हैं। इससे उनका आत्मसम्मान कम होता है। “

भारत में, भले ही हजारों लोगों को रोजगार देने वाला कोई उद्योग एक भी महिला, दलित,आदिवासी , मुस्लिम या विकलांग व्यक्ति को रोजगार देने में विफल हो, वह इस भेदभाव के लिए दंडित नहीं होता है और कर छूट और प्रोत्साहन जैसी सभी सरकारी रियायतों का आनंद लेना जारी रखता है। सरकार को चाहिए कि वह रियायतों को उन व्यवसायों के साथ जोड़े जो भेदभाव वाली श्रेणियों के रोजगार को प्रोत्साहन दे और नियत समय में उनके लिए कोटा भी तय करे।

खेल, संस्कृति और मनोरंजन

विकलांगों द्वारा खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देना इन क्षेत्रों में समग्र व्यावसायीकरण की प्रवृत्ति से पूरी तरह विपरीत है। आईपीएल टर्नओवर और बड़े बजट की फिल्मों पर 10% सेस होना चाहिए, जिसे विकलांगों के बीच खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए।

पहुंच (accessibility)

कुछ राज्यों में सत्ता पक्ष और यहां तक कि विपक्षी दल भी उन लड़कियों को स्कूटी देने का वादा करती हैं , जो चुनावी दृष्टि से बहुसंख्यक हैं, लेकिन विकलांगों को मुफ्त परिवहन की व्यवस्था के बारे में  एक शब्द भी नहीं बोलती हैं, न केवल काम पर आने के लिए बल्कि स्वास्थ्य केंद्रों पर जाने के लिए भी। जैसा कि एनआरएचएम में प्रावधान है, परिवहन के लिए सरकारी खर्च पर विकलांगों को अस्पतालों तक ले जाने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

आपदा प्रबंधन

मसौदा नीति में आपदा प्रबंधन पर बात की गई है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के चलते प्रकृतिक आपदाओं में वद्धि हुई है। इनका प्रभाव आम लोगों से कहीं अधिक विकलांगों पर पड़ता है। पर कहीं भी कोविड-19 के दौरान लॉकडाउन के समय विकलांगों को क्या कुछ झेलना पड़ा इसका कोई जिक्र नहीं है, जैसे कि महामारी से कुछ भी सीख नहीं ली गई हो।

सामाजिक सुरक्षा

निःशक्तता पेंशन योजना के तहत केवल 18-79 वर्ष के आयु वर्ग और 80 प्रतिशत निःशक्तता वाले व्यक्ति ही अधिकतम 3500 रुपए प्रतिमाह पेंशन प्राप्त कर सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति एक हाथ खो देता है तो यह केवल 60% विकलांगता है और उसे पेंशन नहीं मिलेगी! 80 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लोगों के लिए क्या है? और, यह राशि भी कई राज्यों में न्यूनतम वेतन का एक तिहाई है।

जब नीति ही त्रुटिपूर्ण है, तो मौजूदा संस्थाएं विकलांग देखभाल की समस्या को कैसे सुलझा सकती हैं? केरल ने उच्चतम न्यायालय के आदेश के तहत 2001 में एंडोसल्फान कीटनाशक पर प्रतिबंध लगा दिया था पर क्योंकि तमिलनाडु ने इसे प्रतिबंधित नहीं किया है, इसे केरल में स्वतंत्र रूप से तस्करी करके इस्तेमाल किया जाता है। सरकार ने प्रमुख शहरों में एंडोसल्फान पीड़ितों के इलाज के लिए केवल कुछ अस्पतालों को सूचीबद्ध किया है, लेकिन समर्पित अस्पतालों की स्थापना नहीं की है । इस नीति में एंडोसल्फान जैसे जहरीले कीटनाशकों से विकलांग लोगों को, या किसी भी तरह के रसायनों के कारण होने वाले अक्षमता के लिए मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है।

अधिकार

विकलांगों के अधिकार विशिष्ट अधिकारों जैसे स्वास्थ्य का अधिकार, उच्च शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार और विशेष देखभाल का अधिकार आदि पर आधारित होने चाहिए। इन सभी अधिकारों के लिए उपयुक्त कानून की भी आवश्यकता होती है। वर्तमान में, केवल 4 कानून विकलांगों को कवर करते हैं। एक बड़ी नीतिगत और विधायी शून्य है और ऐसे परिदृश्य में अधिकारों की बात करना ज्यादा फलदायी नहीं होगा।

विकलांगों को राहत संविधान की राज्य सूची (प्रविष्टि 9) में आती है। विकलांग व्यक्तियों का कल्याण भी पंचायतों और नगर पालिकाओं से संबंधित संविधान की 11 वीं और 12 वीं अनुसूची के अंतर्गत आता है। फिर भी केंद्र को समग्र राष्ट्रीय नीति बनानी होगी। लेकिन ऐसी नीति को संघीय न्याय की भावना के मद्देनज़र शक्तियों और संसाधनों के विभाजन और जिम्मेदारियों के वितरण को स्पष्ट करना होगा। लेकिन यह नीति ऐसा करने में विफल है और यह विकलांग कल्याण से संबंधित वित्तीय मुद्दों पर पूरी तरह से भी मौन है। विकलांग अधिकार इस प्रकार संघीय अधिकारों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। नीति इस पर चुप्पी साधे रखती है।

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत है।)

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