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कोरोना काल में भूख कॉरपोरेट की तिजोरी में बंद, सरकार मौन ! 

तीन कृषि कानूनों की गहनता से पड़ताल की जाए तो हम पाते है की यह पूरी प्रक्रिया वर्चूअल सप्लाई चेन को स्थापित करने की है जहां पूर्ति की हर कड़ी पर, चाहे वो उत्पादक हो या फिर वितरक, मुख्य कंपनी की पकड़ होती है।
दिल्ली के अलग अलग बॉर्डरों पर किसानों को आंदोलन करते हुए

दिल्ली के अलग अलग बॉर्डरों पर किसानों को आंदोलन करते हुए 150 दिन हो चले है. इस दौरान उन्होंने भयंकर ठंड, बारिश का मुक़ाबला किया. कुछ दिनों में गर्म मौसम अपने चरम पर होगा. इन सारी विकट परिस्थितियों के बावजूद वे पूरी दृढ़ता के साथ एक ही बात कह रहे है कि हालिया क़ानून अपने मौजूदा स्वरूप में देश की खाद्य सुरक्षा को ख़तरे में डाल देंगे. पिछले 7 दशकों के लंबे अंतराल में पंचवर्षीय योजनाओं से विश्वविद्यालय एवं अनुसंधान तकनीक की मदद से राष्ट्र के 52 करोड़ किसान एवं मजदूर वर्ग ने हमें यह खाद्य सुरक्षा प्रदान की और देश को स्वावलंबी बनाया. किसान नेता अपने भाषणों में बार बार ज़ोर देते रहे है कि भूख को तिजोरी में क़ैद किया रहा है. शब्दों से परे हम इस कथन को बिना पृष्ठभूमि के नहीं समझ सकते. 2013 मे 132 करोड़ नागरिकों को आगामी 3 वर्षों के खाद्यान्न सुरक्षा एवं  मांग आपूर्ति संतुलन में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं भूमि अर्जन कानून का  पास होना ऐतिहासिक पल थे. लेकिन बाद के सालों की घटनाओं ने संघर्षों से हासिल इन अधिकारों को कुचलने का काम किया. इसकी पहली शुरुआत कोरोना काल में तीनों बिलों को अध्यादेश के रूप में लाने से हुई. 

इसके साथ साथ गौर में लाने वाली बात यह भी है कि कृषि में बिल गेट्स जैसे पूँजीपति भी अपने प्रयोग कर रहे है जहाँ हज़ारों एकड़ में खेती मशीनों के मदद से की जानी है. इन प्रयोगों की ख़ासियत यह है कि अनाज के दामों में बेतहाशा वृद्धि होगी. हम पहले ही देख चुके है कि विश्व व्यापार संगठन में अमेरिका, कनाडा और ब्राज़ील जैसे देश भारत में सब्सिडी देने की शिकायत कर चुके है. इस इंटरनेशनल गिरोह की साज़िशों का ही नतीजा है कि देश में TPDS यानी टार्गेट पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम के माध्यम से देश के सबसे पिछड़े वर्गों तक राशन पहुँचाने वाली व्यवस्था अब ध्वस्त हो चुकी है. इस जर्जर हो चुके ढाँचे में आख़िरी चोट तीन कृषि क़ानूनों ने की है जहाँ सीधा सीधा फ़ायदा भंडारण के क्षेत्र में बड़ी कॉरपोरेट कंपनी को होना है. सबसे पहले सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) की आर्थिक सेहत को नज़रअंदाज़ करते हुए भंडारण की चालीस प्रतिशत हिस्सेदारी अड़ानी को दी जहां भुगतान की शर्तें एकतरफ़ा झुकती हुई नज़र आती है. इस पूरी व्यवस्था में दिलचस्प बात देखने वाली यह रही है कि कंपनी को 800 करोड़ के क़रार का विरोध अपने आप को किसान हितैषी बताने वाली कांग्रेस ने कभी नहीं किया. 

यहाँ ये बताना भी ज़रूरी हो जाता है कि भंडारण के लिए कंपनी के इन साइलोज़ का निर्माण सारे नियम क़ानूनों को दरकिनार करते हुए किया जा रहा है. साइलोज़ स्टील के बड़े सिलेंडरनुमा भंडार होते है जहां अनाज तापमान व नमी की मार से बचा रहता है. अगर मैं हरियाणा का अनुभव साझा करूँ क्यूँकि मैं यहाँ का निवासी भी हूँ तो पाता हूँ कि लोगों को सरासर झूठ बोल कर ज़मीन अधिग्रहित की गई कि किसानों के बच्चों को रेलवे जैसे सरकारी उपक्रमों में नौकरी दी जाएगी. इस छल के माध्यम से किसानों की 987 एकड़ भूमि अधिग्रहीत की गई. जबकि क़ानून इसके बारे में स्पष्ट है कि अधिग्रहण की शर्तें, भुगतान, सामाजिक और पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की समीक्षा की जाएगी पर धरातल पर ऐसा कुछ होता नज़र नहीं आया. हमें यह बात, जिसके दस्तावेज सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है, भी पता चली कि अधिग्रहण की प्रक्रिया को निर्बाध रूप से जारी रखने के लिए लैंड यूज़ की शर्तों को भी बदला गया जिसकी मंज़ूरी टाउन और कंट्री प्लानिंग की ओर दो गयी. किसानों ने जब व्यवस्था की पैदल यात्रा के माध्यम से पोल खोली तो उन पर क़ानून की तमाम संगीन धाराएँ लगा दी गई. बलराज कुंडू जैसे स्वतंत्र विधायकों पर दबाव बनाया गया कि विधानसभा के अंदर ख़ामोश रहे. इसका प्रत्यक्ष नुक़सान ये रहा कि किसानों पर व्यक्तिगत तौर पर ज़मीन बेचने का दबाव बनाया जिसके लिए प्रक्रिया पहले से निर्धारित है. अतः ये संघर्ष ज़मीन और रोटी दोनों को बचाने का है.

पर क्या ये सारे प्रयोग नए है जिनकी उत्पत्ति अचानक हो गयी ! गहनता से पड़ताल की जाए तो हम पाते है की यह पूरी प्रक्रिया वर्चूअल सप्लाई चेन को स्थापित करने की है जहां पूर्ति की हर कड़ी पर, चाहे वो उत्पादक हो या फिर वितरक, मुख्य कंपनी की पकड़ होती है. अमेरिका में वॉलमार्ट जैसे उदाहरण हमारे सामने है जो न सिर्फ़ बेचने का काम अपने मॉल से करती है जबकि किसानों से उत्पादन तक करवाती है. इसी मॉडल की बदौलत वॉलटन परिवार लगभग सारा मुनाफ़ा खुद अपने पास रख लेता है. एक ऐसी व्यवस्था जिसने अमेरिका के किसानों को 45 अरब डॉलर के क़र्ज़े के तहत दबा रखा हो, ऐसे में उसे कॉरपोरेट के मुनाफ़े के लिए उसे जारी रखना कितना उचित होगा ये हमारे हुक्मरानों को सोचना होगा !

( यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक एक किसान नेता है)

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