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आईएमएफ का असली चेहरा : महामारी के दौर में भी दोहरा रवैया!

आईएमएफ चाहे बातें कुछ भी करे और चाहे किसी ख़ास मौके पर कितना ही ‘विवेकपूर्ण’ नजर आए, वह अनिवार्य रूप से तथा सभी मौकों पर, तीसरी दुनिया के देशों के मामले में, कमखर्ची तथा निजीकरण के एजेंडा के लिए ही ज़ोर लगाता है।
आईएमएफ
Image Courtesy: Reuters

कोविड-19 के संकट का विकसित देशों ने जैसे प्रत्युत्तर दिया है, उसमें और तीसरी दुनिया के देशों में जो किया जा सका है उसमें, बहुत भारी अंतर रहा है। विकसित देशों ने इस संकट के सामने बचाव व बहाली के लिए, खासे बड़े राजकोषीय पैकेज दिए हैं, जबकि तीसरी दुनिया के देश राजकोषीय कमखर्ची में ही उलझे रहे हैं। तीसरी दुनिया के देशों में भी, भारत का राजकोषीय पैकेज शायद सबसे ज्यादा कंजूसीभरा रहा है, जो जीडीपी के 1 फीसद से ज्यादा नहीं था। लेकिन, तीसरी दुनिया के अन्य देशों का भी प्रदर्शन कोई ज्यादा अच्छा नहीं रहा है।

इसके विपरीत, ट्रम्प के राज में अमरीका ने 20 खरब (2 ट्रिलियन) डालर का बचाव पैकेज दिया था, जो इस देश के जीडीपी के 10 फीसद के बराबर बैठता है। और बाइडेन प्रशासन ने 19 खरब (1.9 ट्रिलियन) डालर का अतिरिक्त पैकेज पेश किया है, जिसमें कम से कम 10 खरब डालर जनता के लिए सीधे राजकोषीय सहायता के रूप में दिए गए हैं। ये दोनों पैकेज मिलकर, अमरीका के डीजीपी के 20 फीसद के करीब बैठते हैं, हालांकि ये पैकेज एक साल से ज्यादा के कालखंड में फैले हुए हैं। योरपीय यूनियन ने भी महामारी से बचाव तथा बहाली के लिए, उल्लेखनीय रूप से बड़े राजकोषीय पैकेज दिए हैं।

इस सब में गौर करने वाली बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने, राजकोषीय कमखर्ची पर अपने सामान्य जोर से हटकर, इस तरह के पैकेजों को सक्रिय रूप से समर्थन देने तथा प्रोत्साहित करने का ही काम किया है। तीसरी दुनिया के देशों के लिए भी उसने महमारी के संदर्भ में, सार्वजनिक खर्चों के बढ़ाए जाने का ही पक्ष लिया है। लेकिन, ऑक्सफैम के एक विश्लेषण के अनुसार, महामारी के दौरान तीसरी दुनिया के देशों को ऋण देने के मामले में, आईएमएफ अपने इन नेक वचनों से फिर गया है और उसने एक बार फिर इन देशों पर राजकोषीय कमखर्ची की मांगें थोप दी हैं।

आक्सफैम का विश्लेषण दिखाता है कि 2020 के मार्च के बाद से 81 देशों के साथ आइएफएफ ने जो 91 ऋण समझौते किए थे, उनमें से 76 में कमखर्ची के कदमों को बढ़ावा दिया गया था या उनकी शर्त लगायी गयी थी। इन कदमों में सार्वजनिक खर्च में कटौतियां शामिल हैं, जिनके तहत सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्चों के स्तर को और पेंशन भुगतानों को घटाया जाएगा। इन कदमों में वेतन जाम तथा वेतन-कटौतियां शामिल हैं, जिनके चलते डाक्टरों, नर्सों तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के अन्य कार्मिकों की आय घट रही होगी और बेकारी लाभों तथा बीमारी में मिलने वाले वेतन में कटौतियां हो रही होंगी।

आक्सफैम ने इस सिलसिले में कई ठोस मिसालें दी हैं। इक्वाडोर के मामले में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हाल ही में 6.5 अरब डालर के ऋण को मंजूरी दी है। लेकिन, इस मंजूरी के साथ पेच यह लगा हुआ है कि इसके साथ इक्वाडोर को यह ‘सलाह’ दी गयी है कि स्वास्थ्य रक्षा पर खर्चों में कटौती करे, ईंधन सब्सिडियों में कटौती करे जिन पर गरीब बुरी तरह से निर्भर हैं और जिन लोगों को काम नहीं मिल पाया है, उनके खातों में नकद हस्तांतरण बंद करे। नौ देशों से, जिनमें अंगोला तथा नाइजीरिया शामिल हैं, वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) बढ़ाने या लगाने के लिए कहा गया है। इन करों का ज्यादा बोझ गरीबों पर ही पडऩे जा रहा है क्योंकि ये ऋण भोजन, वस्त्र तथा घरेलू आपूर्तियों, सभी पर पड़ रहा होगा। इन्हीं शर्तों के चलते 14 देशों में, जिनमें बारबडोस, अल सल्वाडोर, लसोथो तथा ट्यूनीशिया शामिल हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में मजदूरियों तथा रोजगारों में कटौतियां या जाम लागू किए जाने के आसार हैं। इन कटौतियों का मतलब होगा, सरकारी डाक्टरों, नर्सों तथा स्वास्थ्यसेवा कर्मियों की संख्या में और कमी। और यह कमी उन देशों में हो रही होगी, जहां आबादी के अनुपात में ऐसे कार्मिकों की संख्या पहले ही बहुत ही थोड़ी है।

आईएमएफ का कमखर्ची पर यह आग्रह, दो चीजें दिखाता है। पहली तो यही कि यह देशों के बीच स्पष्ट रूप से भेदभाव किए जाने को दिखाता है, जिसमें एक तरह का सलूक गरीब देशों के साथ हो रहा है और उससे बिल्कुल भिन्न तरह का सलूक अमीर देशों के साथ हो रहा है। वह अमीर देशों के मामले में तो कमखर्ची के कदमों से बचने को तैयार हो सकता है, लेकिन विकासशील देशों के मामले में ऐसा करने के लिए कभी तैयार नहीं होगा। दूसरे, वह चाहे बातें कुछ भी करे और चाहे किसी खास मौके पर कितना ही ‘विवेकपूर्ण’ नजर आए, वह अनिवार्य रूप से तथा सभी मौकों पर, तीसरी दुनिया के देशों के मामले में, कमखर्ची तथा निजीकरण के एजेंडा के लिए ही जोर लगाता है। किसी-किसी मौके पर उसकी तरफ से आने वाली ‘समझदारीपूर्ण’ सी लगने वाली घोषणाओं से, जो उसकी ‘शर्तों’ के तर्क के ही खिलाफ जाती हैं, कई बार प्रगतिशील अर्थशास्त्रियों को भी ऐसा लगने लगता है कि हो सकता है आईएमएफ भी बदल रहा हो। लेकिन ये घोषणाएं, जो अक्सर इसके जर्नल में प्रकाशित होने वाले आईएमएफ के स्टाफ के शोध परिपत्रों के रूप में सामने आती हैं, वास्तव में एक मुखौटा ही साबित होती हैं, जिसके पीछे आईएमएफ वही करना जारी रखता है, तो वह हमेशा से करता आया है।

इसी तरह के दोमुंहेपन का एक और उदाहरण तब देखने को मिला था, जब उसने तीसरी दुनिया में कुछ पूंजी नियंत्रण लगाए जाने की जरूरत एक हद तक मानने की बात कही थी। इससे अनेक प्रगतिशील अर्थशास्त्रियों को यह लगने लगा था कि आखिरकार, आईएमएफ बदल रहा है। लेकिन, उसके वास्तविक आचरण में तो रत्तीभर बदलाव नहीं आया। उसके इस बात के आग्रह में कभी भी कमी नहीं आयी कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे पूंजी के प्रवाह के लिए, जिसमें वित्तीय पूंजी भी शामिल है, चौपट खुले रखे जाने चाहिए। इस सबसे हमें यही नतीजा निकालना होगा कि अपनी ‘शर्तों’ के खिलाफ जाने वाले विचारों के प्रति जब-तब उसका सहानुभूति दिखाना, आइएफएफ की जनसंपर्क तिकड़म भर है, जिसके जरिए वह प्रगतिशील अर्थशास्त्रियों के बीच अपनी साख में कुछ बढ़ोतरी करने की कोशिश करता है।

यहां अपरिहार्य रूप से एक आशंका पैदा होती है। महामारी के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विकसित देशों और पिछड़े देशों के मामले में जो अलग-अलग रुख अपनाए हैं, हो सकता है कि ये भिन्न रुख महामारी से आगे तक चले जाएं और यह दोभांत ऐसी नयी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का ही आधार बन जाए, जो नवउदारवादी पूंजीवाद द्वारा पैदा किए गए आर्थिक संकट से विकसित दुनिया की बहाली को आसान बनाने के लिए काम करेगी। इस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में, संकट से अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं का उबारने के लिए विभिन्न विकसित देशों की सरकारों द्वारा लाए गए राजकोषीय उत्प्रेरण को तो हिसाब में लिया जाएगा, लेकिन तीसरी दुनिया के देशों के लिए इस व्यवस्था में कमखर्ची का ही नुस्खा जारी रहेगा, जिससे वे बड़े पैमाने पर बेरोजगारी से ग्रस्त बने रहेंगे और आय संकुचन से ग्रस्त बने रहेंगे, जिसमें विकसित देशों का यह भी ‘फायदा’ है कि उनकी बहाली के लिए मुद्रास्फीति पैदा होने की बाधा भी नहीं खड़ी होगी।

दूसरे शब्दों में यह रणनीति, विकसित देशों के लिए, तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं से बचाव की दीवार बना रही होगी। यह उसी तरह के संरक्षण के जरिए किया जाएगा, जिस तरह का संरक्षण ट्रम्प ने अमरीका में कायम किया था। लेकिन, अब इस संरक्षण को समग्रता में विकसित देशों में सामान्य रूप से स्थापित कर दिया जाएगा, जिसके साथ ही राजकोषीय उत्प्रेरण भी काम कर रहा होगा, जिसके प्रभावों को विकसित देशों की घरेलू अर्थव्यवस्थाओं तक  ही सीमित रखा जाएगा। दूसरे शब्दों में उन्नत देशों में तो आमदनियां बढ़ रही होंगी, लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में आमदनियों को दबा कर रखा जाएगा और यह किया जाएगा, राजकोषीय कमखर्ची पर अमल के जरिए और विकसित देशों के बाजारों तक पहुंच से  उन्हें महरूम रखे जाने के जरिए।

चूंकि तीसरी दुनिया में पैदा होने वाले अनेक प्राथमिक उत्पादों की कीमतें, इन देशों में लोगों की आय से जुड़ी होती हैं, जो कि ऐसे मालों की स्थानीय मांग को तय करती है, तीसरी दुनिया में आमदनियों का संकुचन, मांग में भी संकुचन सुनिश्चित करेगा और इसके चलते, ऐसे मालों का बढ़ता हिस्सा, कीमतों में किसी बढ़ोतरी के बिना ही, विकसित दुनिया की मांगों के लिए मुक्त किया जा रहा होगा।

नवउदारवादी पूंजीवाद के अंतर्गत विकसित दुनिया से तीसरी दुनिया की ओर, खासतौर एशियाई देशों की ओर, हालांकि सिर्फ एशियाई देशों की ओर ही नहीं, आर्थिक गतिविधियों का प्रसरण हुआ है और इसने विश्व अर्थव्यवस्था में पड़ी दीवारों को हटाया है। बहरहाल, अब जिस रणनीति के चलाए जाने की आशंका है, जिसकी आईएमएफ द्वारा लागू की जा रही नीति शायद पूर्व-भूमिका है, विश्व अर्थव्यवस्था में दीवारों को दोबारा खड़ा करने का काम करेगा। इस विभाजन में, एक ओर विकसित देशों के कार्पोरेट-वित्तीय कुलीन तंत्र होंगे, जो विकसित अर्थव्यवस्थाओं में एक प्रकार की बहाली को उत्प्रेरित करने के जरिए एक हद तक ‘हानि-नियंत्रण’ कर रहे होंगे, तथा विकसित देशों में बेरोजगारी तथा वहां के मजदूरों की बदहाली को घटा रहे होंगे। और दूसरी ओर, तीसरी दुनिया के मेहनतकश होंगे जो लगातार इन अर्थव्यवस्थाओं में गतिरोध तथा मंदी के बने रहने की मार झेल रहे होंगे। तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में उनके बड़े पूंजीपतियों को इस तरह की व्यवस्था में इसके लिए काफी मौके मिल जाएंगे कि वे अपने मुनाफे अधिकतम कर सकें और यहां तक विकसित अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करने के जरिए भी, अपने मुनाफे अधिकतम कर सकें।

इसका अर्थ होगा, औपनिवेशिक परिदृश्य का दोहराया जाना। अब तक नवउदारवादी पूंजीवाद का जो रूप बना रहा था उसमें, तीसरी दुनिया के मेहनतकशों को पोषण के पहलू से गरीबी बढऩे की मार भले ही झेलनी पड़ रही थी, कम से कम विकसित दुनिया से, तीसरी दुनिया की ओर आर्थिक गतिविधियों का स्थानांतरण तो हो रहा था। लेकिन, ऐसा लगता है कि आर्थिक गतिविधियों के इस तरह के स्थानांतरण का अंत आ रहा है। और शायद चीन के प्रति अमरीका की रंजिश, अमरीका में तथा विकसित दुनिया में और सभी जगहों पर भी, इस तरह के स्थानांतरण को हतोत्साहित करने वाली नीतियों के अपनाए जाने के लिए ओट मुहैया करा सकती है।

बेशक, पश्चिम के प्रगतिशील अर्थशास्त्री इस तरह के नंगे भेदभाव को बेनकाब करेंगे और इसके खिलाफ अपनी आवाज उठाएंगे। लेकिन, अगर इस रास्ते पर ही चला जाता रहता है तो, तीसरी दुनिया के देश इसके लिए मजबूर हो जाएंगे कि ऐसी खुल्लमखुल्ला भेदभावपूर्ण विश्व व्यवस्था से खुद को अलग कर लें और अपनी वृद्धि के लिए वैकल्पिक उत्प्रेरण तलाश करें।

जाहिर है कि वैश्विक व्यवस्था हमेशा से ही तीसरी दुनिया के मेहनतकशों के प्रति भेदभावपूर्ण बनी रही है, लेकिन अब तक इस पर इन देशों में जीडीपी की उस ऊंची वृद्धि दर के एहसास ने पर्दा डाले रखा था, जो विकसित दुनिया से ऐसी गतिविधियों के स्थानांतरण के चलते संभव हुई थी। लेकिन, अगर खुल्लमखुल्ला भेदभाव के जरिए आर्थिक गतिविधियों के इस तरह के स्थानांतरण का रास्ता बंद कर दिया जाता है, तो ऐसी व्यवस्था के खिलाफ तीसरी दुनिया में प्रतिरोध का ज्वार उठना तय है।

अनेक प्रगतिशील अर्थशास्त्री, जो देशों के बीच समरसता का सपना देखते रहे हैं, ताकि धनी देश गरीब देशों की आर्थिक बहाली करने तथा खुशहाल होने में मदद कर सकें, बेशक एक नेक सपना देखते हैं। लेकिन, खेद का विषय है कि पूंजीवादी व्यवस्था में यह सपना पूरा हो ही नहीं सकता है। महामारी के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के रुख के दुहरे पैमाने, जिनके महामारी से आगे तक ले जाए जाने का खतरा है, ठीक इसी नुक्ते को रेखांकित करने का काम करते हैं। 

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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