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राजकीय हस्तक्षेप के प्रति वैचारिक दुराग्रह: बीजेपी एजेंडा लागू कराने के लिए मात्र एक औजार भर है

आँखी दास और अन्य के हस्तक्षेप सिर्फ इस वजह से नहीं हो रहे हैं क्योंकि बीजेपी और फेसबुक और उसके जैसे अन्य के बीच की साझेदारी की वजह से यह संभव हो रहा है, बल्कि यह उनके वृहत्तर एजेंडा का एक हिस्सा मात्र है जिसे वे भारत में लागू करना चाहते हैं।
Ankhi Das
आँखी दास। | चित्र सौजन्य: हफ़पोस्ट इंडिया

आँखी दास आज एक वो नाम है जो अचानक से सारे देश में लोकप्रिय हो चुका है और मीडिया में यह नाम लगातार सुर्ख़ियों में बना हुआ है। दक्षिण और मध्य एशिया क्षेत्र के लिए फेसबुक की सार्वजनिक नीतियों की प्रमुख के तौर पर तैनात दास को न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी से उनकी घनिष्ठता के लिए जाना जाता है बल्कि किस प्रकार से उन्होंने इस दक्षिणपंथी पार्टी के प्रति फेसबुक की नीतियों के झुकाव को आकार देने का काम किया है, के तौर पर भी जाना जाता है।

उनकी टिप्पणी सिर्फ 2014 के आम चुनावों में मिली जीत के पीछे की गुटबाजी तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका सम्बंध उस वैचारिक दुराग्रह की गहराइयों से संबंधित है जहाँ से वे जुडी हुई हैं। और यही वह वैचारिक झुकाव है जो उन्हें बीजेपी से सम्बद्ध रहने के लिए एक सटीक जुड़ाव का आधार मुहैय्या कराता है।

इस वैचारिक ‘दुराग्रह’ का सार्वजनिक प्रदर्शन 2014 की एक पोस्ट में दिए गये संदेश के जरिये दर्शाया गया था, और वह भी चुनावों के परिणाम घोषित होने से ठीक एक दिन पहले की बात है। पोस्ट में कहा गया था "यह 30 वर्षों से ग्रासरूट स्तर पर काम करने का नतीजा है, जिसके चलते आख़िरकार भारत में राजकीय समाजवाद से छुटकारा मिलने जा रहा है।"

फेसबुक ने अंततः अपने काम को अंजाम दे दिया था, और दास ने इस बारे में कथित तौर पर एक ग्रुप में लिखा था, "हमने उनके (मोदी के) सोशल मीडिया अभियान को हवा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी, और शेष तो स्पष्ट तौर पर अब इतिहास का विषय बन चुका है।"

मैं यहां पर इस बहस में नहीं पड़ना चाहता हूं कि यह राजकीय समाजवाद है या राज्य पूंजीवाद; लेकिन आँखी दास और अन्य के इस वैचारिक दुराग्रह को, जिसमें राज्य के हस्तक्षेप से छुटकारा पाने के लिए विभिन्न हैसियत में काम करते हुए, यह देखना बेहद रोचक है कि किस प्रकार से ‘बड़ी पूंजी’ इस परिवर्तन को होते देखने को लेकर बेहद व्यग्र थी।

ऐसा नहीं है कि 2014 में भाजपा की जीत के बाद से ही कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों से राज्य ने अपने हाथ खींचने की शुरुआत की हो, बल्कि इसकी पहल तो 1990 के शुरुआती दशक में ही हो चुकी थी। लेकिन बीजेपी के पक्ष में इस जीत को सुनिश्चित करने का कुल मकसद यह था कि इस नव-उदारवादी पूंजीवाद की रफ्तार को द्रुत गति प्रदान कराना।

आँखी दास का यह बयान जॉन पर्किंस द्वारा लिखित पुस्तक, कन्फेशन ऑफ एन इकॉनॉमिक हिटमैन की याद दिलाती है। पर्किन्स के पास दक्षिण एशिया के कई देशों को लोकतंत्र की अमेरिकी अवधारणा के प्रति झुकाव पैदा करने की जिम्मेदारी मिली हुई थी। इसमें इन अविकसित देशों के नेताओं को निर्माण और इंजीनियरिंग क्षेत्र में कर्ज लेने के लिए तैयार करना और इसके बाद इस बात को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी कि इन कामों के ठेके भी अमेरिकी कम्पनियों को अनुबंधित कर दिए जाएँ।

इन महाशय ने वे सारे काम किये, जो भी उनके बूते का था। इसमें इन देशों के प्रमुखों को रिश्वत खिलाने से लेकर उन्हें शक्तिहीन करने तक के कार्य शामिल थे। जॉन पर्किन्स ने अमेरिका के लिए क्या-क्या कारनामे किये और आँखी दास और अन्य क्या कर रहे हैं, में अनेकों समानताएं खोजी जा सकती हैं। लेकिन इस सबमें एकमात्र फर्क यह है कि जॉन पर्किन्स ने इस बारे में अपनी लिखित स्वीकारोक्ति दी है और अंततः अपने कुकर्मों को स्वीकारा है, जबकि दास अभी भी उसी घोड़े की घुड़सवारी कर रही हैं।

इसके अलावा एक और नाम भी है जो वैसे तो कम चर्चा में है, लेकिन राजकीय हस्तक्षेप के खिलाफ समान रूप से बैचेन होने के साथ समान रूप से दुराग्रह रखने वाले संजीव सान्याल के रूप में अब प्रधानमंत्री की निगेहबानी में हैं। आजकल सान्याल भारत सरकार के वित्त मंत्रालय में प्रमुख आर्थिक सलाहकार के तौर पर हैं।

मुझे याद है कि शहरी विकास के मुद्दों पर एक बार दिल्ली में एक सम्मेलन के दौरान उनसे मिलना हुआ था। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और ड्यूश बैंक द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित इस सम्मेलन को 'अर्बन ऐज कांफ्रेंस' का नाम दिया गया था। दिलचस्प बात यह रही कि अभिजीत बनर्जी (नोबेल पुरस्कार विजेता), प्रोफेसर दुनु रॉय सहित मैं एक ही पैनल ‘इनक्लूसिव गवर्नेंस’ में थे।

चर्चा का मुख्य बिंदु कैसे राज्य को पहले से अधिक हस्तक्षेप के साथ ज्यादा समर्थवान शहरों को बनाने और समावेशी शासन पर बना हुआ था। जब चर्चा समाप्त हो गई तो सान्याल ने मुलाकात की और कहा था कि राज्य के हस्तक्षेप का युग अब खत्म हो चुका है। शहरों में रोजमर्रा के काम-काज में सरकार को अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए और सरकार को गवर्नेंस के काम को छोड़कर बाकी सभी कार्यों की कमान निजी क्षेत्र को सौंप देनी चाहिए ताकि शहरों को ज्यादा प्रतिस्पर्धी और निवेश हासिल करने हेतु आकर्षक बनाया जा सके।

सान्याल अब मोदी सरकार में नीतिगत बदलावों के प्रमुख पैरोकारों के तौर पर उसका हिस्सा हैं, और इसी वजह से हम बेहद सहजता से महसूस कर पा रहे हैं कि जीडीपी में वृद्धि के बजाय तकरीबन 24% की गिरावट क्यों हो चुकी है।

चलिए राज्य हस्तक्षेप की दिशा में चलाए गए प्रयासों के प्रति इस दुराग्रह की गहराई की पड़ताल करते हैं कि किस प्रकार से इस नई नीति निर्धारक दिशा ने शहरों के कामकाज को प्रभावित किया है। 2015 में पहली बार बीजेपी सरकार की ओर से स्मार्ट सिटीज की अवधारणा की घोषणा की गई थी।

देश में कुलमिलाकर एक सौ स्मार्ट शहरों की पहचान एक तथाकथित ‘प्रतिस्पर्धात्मक’ आधार पर की गई थी, जिसे उस दौरान शहरी शासन के प्रकाश-स्तंभ के तौर पर पहचान मिली थी। स्मार्ट शहरों में शुमार होने के लिए पात्रता की आवश्यक शर्तों में से एक शर्त, इन शहरों में किए गए शहरी सुधार के कार्य थे। ये सुधार, जो सुनने में प्रगतिशील लग सकते थे, जोकि आंतरिक तौर पर वे प्रतिगामी थे।

ये सुधार अंततः शहरों के निजीकरण के लिए, शहरों की संपदा और शासन के निजीकरण के पैरोकार साबित हुए। इन सुधारों का सारतत्व कुलमिलाकर यही था कि शहरों में कुल कितनी पूँजी और उपयोगकर्ता शुल्क के उत्पादन का काम हो रहा था।

इन 100 स्मार्ट शहरों को पारंपरिक व्यवस्था वाली पार्षदों के नगरपालिका में फैसले लेने के लिए अधिकार-संपन्न बनाने वाली पारंपरिक व्यवस्था के बजाय, स्पेशल परपज व्हीकल (एसपीवी) के निर्माण के जरिये चलाया जाना था। इसके बाद इन एसपीवी को कंपनी अधिनियम के तहत पंजीकृत कराया गया था और देश में गठित इन एसपीवी का नेतृत्व किसी भी मेयर सहित निर्वाचित सदस्यों द्वारा नहीं किया जा रहा है। इनका नियंत्रण या तो किसी नौकरशाह या सलाहकार के हाथों में है। राजकीय हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ दुराग्रह मात्र सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की बिकवाली तक ही सिमट कर नहीं रह सकी है, बल्कि इसने खुद को शहरों के कामकाज से लेकर गवर्नेंस तक में विस्तारित कर डाला है।

इस नई कार्यप्रणाली ने किस प्रकार से शहरों में रहने वाले लोगों के हालात को बदतर बना डाला है और कैसे एसपीवी फार्मूला एक बड़ी विफलता साबित हुआ है, के बारे में यहाँ जोर नहीं दिया जा रहा है। यहाँ पर मुद्दा यह है कि राजकीय हस्तक्षेप की जरूरत को ख़ारिज करने की यह बैचेनी वस्तुतः उन संपत्तियों के निजीकरण के पक्ष में खुद को आत्मसमर्पित करने वाली है, जिसे भारतीय शहरी सन्दर्भ में कहें तो समुदायों या शहरों का मालिकाना रहा है। इस बीच कचरे के संग्रहण, ठोस कचरा प्रबंधन, जल वितरण, आवास जैसी करीब-करीब सभी बुनियादी सुविधाओं जिसे राज्य या इसके ढाँचे की ओर से मुहैय्या कराये जाने की आवश्यकता थी या उसमें हस्तक्षेप करना था, के निजीकरण पर जोर दिया जा रहा है।

इस पृष्ठभूमि में हमने यह भी देखा कि किस प्रकार से स्मार्ट सिटी की अवधारणा शहर-के काम-काज और यहां तक कि संचालन के लिए डिजिटलीकरण की ओर उन्मुख है। डिजिटलीकरण अपनेआप में कोई बुरी चीज नहीं है, लेकिन जिस तरह से इसे अंजाम में लाया जा रहा है और जो अब रिलायंस और फेसबुक के बीच के सौदों के चलते पूरी तरह से सुस्पष्ट हो चुका है, का उद्देश्य नागरिकों की जेबों से भारी पैमाने पर उगाही करने का है। स्मार्ट शहर इस प्रकार की लूट को वैधता प्रदान कराने के लिए स्पेस मुहैय्या करते हैं। जिन डिजिटल समाधानों को सस्ती दरों पर भी मुहैय्या कराया जा सकता था, लेकिन उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। वहीँ सिटी कमांड सेंटरों को (डिजिटल आधार पर नियंत्रित केन्द्रों) बड़े कॉर्पोरेट्स के हाथों सौंपे जाने का क्रम जारी है।

इसलिए आँखी दास और अन्य की ओर से किये जाने वाले हस्तक्षेप सिर्फ बीजेपी और फेसबुक या अन्य के बीच स्थापित हो चुकी साझेदारी तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि यह उस बड़े एजेंडे के एक हिस्से के तौर पर हैं, जिसे वे भारत में लागू कराना चाहते हैं। इस एजेंडे को लागू कराने के मामले में बीजेपी बेहतर औजार साबित हो रही है।

लेखक शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर रह चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Ideological Malaise to State Intervention: BJP Only a Tool to Carry Agenda

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