Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

भाजपा सरकार अगर जनकल्याणकारी होती तो मुफ़्तख़ोरी जैसी शब्दावली का इस्तेमाल न करती

'फ्रीबी' शब्द का एक वर्ग छाप है। दार्शनिक नोम चॉम्स्की ने दिखाया है कि कैसे ‘मुफ्त’ जैसे वाक्यांशों के दैनिक राजनीतिक उपयोग में एक विशिष्ट वर्ग चरित्र निहित होता है। कॉर्पोरेट को दी गयी रियायत प्रोत्साहन कही जाती है और गरीबों को दी गयी राहत फ्रीबीज।
Modi

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिमाग में अब एक नया फितूर आया है। विडंबना यह है कि ‘उज्ज्वला’ और ‘किसान सम्मान निधि’, ‘गरीब कल्याण अन्न योजना’ और ‘आवास योजना’ के प्रमुख वास्तुकार ‘मुफ्त रेवड़ी बांटने’ के खिलाफ अब धर्मयुद्ध छेड़ चुके हैं। 16 जुलाई को उत्तर प्रदेश के जालौन में फोर-लेन बुंदेलखंड राजमार्ग का उद्घाटन करते हुए प्रधान मंत्री ने भारतीयों से चुनावी रियायतों का शिकार होने से बचने की अपील की।

विडंबना यह है कि योगी आदित्यनाथ, जिन्होंने पिछले चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने वाली स्कूली लड़कियों को स्कूटी देने का वादा किया था (लेकिन जिन्होंने अभी तक उस वादे को पूरा नहीं किया), उनके साथ थे।

मुफ्तखोरी के खिलाफ इस नए अभियान में मोदी अकेले नहीं हैं। संयोग से, या किसी योजना के तहत, भारतीय राज्य मशीनरी के कई प्रमुख अभिनेता कोरस में शामिल हो गए हैं।

भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी उपहार देने के खिलाफ जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना और जस्टिस कृष्ण मुरारी और हिमा कोहली ने 3 अगस्त 2022 को सरकार के प्रतिनिधियों, विपक्षी दलों, नीति आयोग, चुनाव आयोग, वित्त आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक की एक समिति बनाने का प्रस्ताव रखा। यह समिति अर्थव्यवस्था पर राजनीतिक दलों द्वारा घोषित मुफ्त चुनावी उपहारों के प्रभाव का "अध्ययन" करेगी । इसने याचिकाकर्ता, केंद्र, चुनाव आयोग और अधिवक्ता कपिल सिब्बल से कहा कि वे एक सप्ताह के भीतर इस तरह की एक निकाय की संरचना पर अपने ठोस प्रस्ताव प्रस्तुत करें।

कोरस में शामिल होते हुए, 11 जुलाई 2022 को, भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने राज्य वित्त - एक जोखिम विश्लेषण (State Finances-a Risk Analysis) शीर्षक एक अध्ययन निकाला, जिसमें मुख्य रूप से इस बात पर प्रकाश डाला गया कि डिस्कॉम (राज्य बिजली वितरण कंपनियों) का वित्त अवहनीय होता जा रहा है, जो राज्य वित्त के लिये जोखिम पैदा करता है। आश्चर्यजनक रूप से, आरबीआई की यह रिपोर्ट मुश्किल से दो महीने पहले (मई 2022) लाई गई अपनी वार्षिक रिपोर्ट में राज्य के वित्त पर अपने ही निष्कर्षों का खंडन कर रही थी, जैसा कि हम इस लेख में बाद में देखेंगे। पुनः जून में आरबीआई एक अध्ययन के साथ आया जिसमें राजकोषीय परिदृश्य बिगाड़ने के लिए गैर-भाजपा दलों द्वारा शासित राज्यों को चुनिंदा रूप से टार्गेट किया गया था।

धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश में संपन्न हुए मुख्य सचिवों के पहले 3 दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में, राज्यों को चलाने वाले शीर्ष नौकरशाहों ने स्वयं राज्यों में “फ्रीबी संस्कृति” के बारे में चिंता व्यक्त की, जिससे राज्यों में वित्तीय संकट पैदा हो गया था। इससे पहले, 4 अप्रैल 2022 को, मोदी द्वारा शासन के मुद्दों पर प्रतिक्रिया के लिए बुलाई गई केंद्रीय स्तर के सचिवों की एक बैठक में, लगभग दो दर्जन सचिवों ने मोदी को आगाह किया था कि राज्यों में “फ्रीबी संस्कृति” इतनी अवहनीय है कि यह देश को श्रीलंका की राह पर ले जाएगी। .

इससे भी बदतर, भाजपा के वरिष्ठ नेता और 15 वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह ने राज्यों को निशाना बनाया और यहां तक कि धमकी-भरे शब्दों में प्रस्तावित किया कि राज्यों को हर महीने हस्तांतरित किया जा रहा राजस्व घाटा अनुदान (revenue deficit grants) जैसे केंद्रीय हस्तांतरण (central devolution) को फ्रीबीज़ और अतिरिक्त बजटीय देनदारियों (extra-budgetary liabilities) पर अंकुश लगाने के लिए जोड़ा जा सकता है ( यानी, राज्यों के बजट में जिस व्यय का उल्लेख नहीं है)। यह केंद्र द्वारा राज्यों पर राजकोषीय दबाव और उनके संघीय अधिकारों का घोर उल्लंघन होगा।

गैर-भाजपा शासित राज्यों को चुन-चुनकर निशाना बना रहे

क्या तथाकथित ‘फ्रीबी संस्कृति’ मुख्य रूप से गैर-भाजपा दलों द्वारा शासित राज्यों तक सीमित है? क्या उनकी किसानों-के-लिए-मुफ्त-बिजली योजनाओं और गरीबों-को-मुफ्त-खाद्यान्न योजनाओं ने उन्हें वित्तीय दिवालियापन के कगार पर पहुंचा दिया है?

आइए पहले आरबीआई के ‘अलार्म’ को लें। मुश्किल से दो महीने पहले, मई 2022 में, आरबीआई अपनी वार्षिक रिपोर्ट पेश करता है, जिसमें दिखाया गया कि 2021-22 में राज्य के वित्त में सुधार हो रहा था और 26 राज्यों का सकल राजकोषीय घाटा (Gross Fiscal Deficit, GFD) एक साल पहले की तुलना में यानि 2020-21, महामारी का चरम वर्ष की अपेक्षा 31.5% कम था।

2022-23 के लिए, केंद्र ने राज्यों के लिए राजकोषीय घाटे को कुल जीएसडीपी के 4% सीमा तक निर्धारित किया था, और उधार के स्तर से पता चलता है कि उधार लेने की प्रवृत्ति उस सीमा के भीतर है। राज्यों के 4% सकल राजकोषीय घाटे का केवल 0.5% डिस्कॉम को राज्यों के वित्तीय समर्थन के कारण होने का अनुमान लगाया गया था और इसलिए डिस्कॉम वित्त भी असहनीय नहीं हैं ।

जून 2022 में आरबीआई द्वारा एक और अध्ययन आता है; फिर मुख्य रूप से विपक्ष-शासित राज्यों को बिगड़ती वित्तीय स्थिति के लिए चुनकर लक्षित किया गया। सबसे अधिक कर्जदार राज्य पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल हैं। कुछ गैर-बीजेपी शासित राज्यों में राजकोषीय गिरावट के बारे में आरबीआई की इस चयनात्मक चिंता के जबाब में राजस्थान के वित्त सचिव  ने कहा कि राज्य के राजस्व में सुधार हो रहा था। केरल के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस इज़ाक ने भी राज्य के वित्त पर आरबीआई की जुलाई 2022 की रिस्क एनैलिसिस रिपोर्ट पर हमला बोलते हुए दिखाया कि इन पांच राज्यों में से किसी के भी वित्तीय रूप से विफल होने का कोई सवाल ही नहीं था।

वास्तव में यदि राज्य वित्त को ऋण से जीएसडीपी अनुपात में देखा जाता है, तो वित्त आयोग ने 30% की एक  लक्ष्मण-रेखा निर्धारित की थी। भाजपा शासित मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा सहित दस राज्यों ने उस स्तर से ऊपर उधार लिया है।

यदि राजकोषीय घाटा-जीएसडीपी अनुपात की दृष्टि से देखा जाए, तो पुनः 10 राज्य वित्त आयोग द्वारा अनुशंसित 30% की सीमा से ऊपर हैं और उनमें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश भी शामिल हैं।

यदि राज्यों को उनके ब्याज भुगतान के बोझ के मामले में रैंक दिया जाता है, तो शीर्ष दस राज्यों में भाजपा शासित हरियाणा, कर्नाटक और गुजरात भी शामिल हैं।

वास्तव में, जबकि राज्यों के जीएसडीपी अनुपात के लिए आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि गैर-भाजपा दलों द्वारा शासित राज्यों में यह अनुपात मामूली रूप से बढ़ रहा है, हम देखते हैं कि भाजपा शासित मध्य प्रदेश में यह वृद्धि अधिक तीव्र है।

गैर-भाजपा शासित राज्यों और भाजपा शासित मध्य प्रदेश में राज्य ऋण- जीएसडीपी अनुपात

स्रोत: आरबीआई।

विडंबना यह है कि, जबकि गैर-भाजपा दलों द्वारा शासित राज्यों का ऋण-जीएसडीपी अनुपात 40% के भीतर है, केंद्र का ऋण-जीडीपी अनुपात 2021-22 में 56.29% पर पहुंच गया था और 2022-23 के लिए इसका आंकलन 59.9% पर है! इसलिए विपक्षी शासित राज्यों को राजकोषीय लापरवाही और मुफ्तखोरी की संस्कृति के लिए निशाना बनाना तथ्यों के विपरीत है और स्पष्ट रूप से एक राजनीतिक हमला है।

बड़ा राजनीतिक संदेश

'फ्रीबी' शब्द का एक वर्ग छाप है। दार्शनिक नोम चॉम्स्की ने दिखाया है कि कैसे ‘मुफ्त’ जैसे वाक्यांशों के दैनिक राजनीतिक उपयोग में एक विशिष्ट वर्ग चरित्र निहित होता है। कॉरपोरेट घरानों को कर माफी के ज़रिये 5 लाख करोड़ रुपये के राजस्व छूट (revenue foregone) को ‘मुफ्तखोरी’ नहीं कहा जाएगा, लेकिन मोदी के दूसरे कार्यकाल में उज्ज्वला 2.0 के तहत 80,000 करोड़ रुपये के बजट परिव्यय पर गरीब महिलाओं को दिए गए 1.35 करोड़ गैस स्टोव ‘फ्रीबी’ कहलाएगा।अगर योगी किसानों को मुफ्त बिजली देने का वादा करते हैं तो यह अर्थव्यवस्था के लिए एक आवश्यक निर्णय है लेकिन अगर पंजाब के सीएम भगवंत मान सभी उपभोक्ताओं को 300 यूनिट मुफ्त बिजली देते हैं तो यह मुफ्तखोरी है।अगर मोदी हर साल छोटे किसानों को 6000 रुपये देते हैं तो यह उनकी भलाई के लिए है और अगर एमके स्टालिन हर गृहिणी के लिए 2000 रुपये प्रति माह का वादा करते हैं तो यह खतरनाक चुनावी उपहार (poll sop) है जो लोकतंत्र को नष्ट कर देगा! बड़ा राजनीतिक संदेश यह है कि मुफ्तखोरी के खिलाफ अपने नए अभियान के साथ मोदी ज़ोर-जबरदस्ती वाले संघवाद (coercive federalism) की ओर बढ़ रहे हैं।

ज़ोर जबरदस्ती का संघवाद

रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि केंद्र, वित्त आयोग के मानदंडों के अनुसार, केंद्र द्वारा हस्तांतरित धन को राज्यों से जोड़ने के तरीकों की जांच कर रहा है, ताकि फ्रीबीज़ पर अंकुश लगाया जा सके। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की जाने वाली प्रस्तावित समिति को भी इसकी व्यवहार्यता का अध्ययन करना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से राज्यों के अधिकारों का उल्लंघन है।

वर्तमान स्थिति के अनुसार, वित्त आयोग राज्यों द्वारा उधार लेने की सीमा तय करता है और आरबीआई प्रत्येक राज्य में इस सीमा के भीतर ही उधारी को रखने हेतु लगाम लगाता है। उदाहरण के लिए, आरबीआई ने आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी और तेलंगाना में केसीआर दोनों की ऋण माफी योजनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया और कुछ शर्तों के तहत ही इस प्रतिबंध को हटाया।

यह पूरी तरह से राज्यों पर निर्भर करता है कि वह अपने लोगों को क्या लाभ प्रदान करेंगे। अगर कुछ राज्य सरकारें अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए भारी कर्ज लेती हैं तो उस राज्य पर ब्याज का बोझ बढ़ जाएगा। उसे नुकसान होगा क्योंकि उसके पास पूंजी निवेश और विकास परियोजनाएं बनाने के लिए पैसे नहीं होंगे। यह इसके समग्र प्रदर्शन पर प्रतिबिंबित करेगा। यह उस राज्य के मतदाताओं को तय करना है कि उसे अगले चुनावों में सत्ता से बाहर फेंक देना है या नहीं।आप केंद्र में बैठे तय करने वाले कौन होते हैं कि कोई राज्य अपने लोगों को मुफ्त में क्या दे सकता है और क्या नहीं?

भारत श्रीलंका की तरह अति-मुद्रास्फीति के चरण में प्रवेश करने के करीब कहीं भी नहीं है और आरबीआई बार-बार दरों में बढ़ोतरी के साथ मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रख रहा है। इसलिए मुफ्त उपहारों पर चौतरफा हमले की कोई जरूरत नहीं है। राज्यों द्वारा दी जाने वाली सभी मुफ्त सुविधाएं उत्पादन से असंबंधित नहीं हैं और कुछ मुफ्त उपहारों की आर्थिक रूप से उत्पादक भूमिका है। सच है, नेपोलियन बोनापार्ट के लोकलुभावन वादों का जिक्र करते हुए, कार्ल मार्क्स ने भी उनका उपहास उड़ाते हुए कहा, "डॉल्स एंड लोन ... लम्पट सर्वहारा का वित्तीय विज्ञान! (Doles and loans…..financial science of the lumpen proletariat!)" लेकिन बाद में मार्क्सवादियों ने भी आंशिक रूप से स्वीकार किया कि कल्याणकारी खर्च के विस्तार के लिए कीन्ज़ के नुस्खे कुल मांग का विस्तार कर सकते हैं और मंदी के खिलाफ एक प्रतिचक्रीय बल के रूप में अहं भूमिका निभा सकते हैं। महामारी से उबरने की वर्तमान परिस्थितियों में, भारतीय अर्थव्यवस्था को भी इन फ्रीबीज़ से मांग प्रोत्साहन (demand stimulus) मिल सकता है।

लोकसभा चुनाव के बाद के सभी विश्लेषण दिखाते हैं कि मोदी की जीत उज्ज्वला और आवास योजना के कारण उतनी ही थी जितनी पुलवामा के कारण। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, मोदी का शासन ब्राजील में बोल्सोनारो के शासन और तुर्की में एर्दोगन के शासन के अलावा, दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद- यानि सर्वसत्तावाद और उदार उपहारों के मिश्रण-के लिए एक मानक उदाहरण बन गया है। इसलिए, कोई आश्चर्य नहीं कि मुफ्तखोरी के खिलाफ मोदी का नया धर्मयुद्ध शैतान के उपदेश (Satanic sermon) जैसा लगता है।

फिर इस समय अचानक पक्ष परिवर्तन और इस तरह के उपदेश क्यों? क्या मोदी सर्वसत्तावादी लोकलुभावन शासन (authoritarian populist regime) से सर्वसत्तावादी मितव्ययी शासन (authoritarian austerity regime) की ओर बढ़ने की योजना बना रहे हैं?

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest