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साम्राज्यवाद और प्राकृतिक संसाधन

दुनिया के ज़्यादातर विकसित देश, अनेकानेक प्राथमिक उत्पादों के लिए, जिनमें खनिज संसाधन तथा कृषि उत्पाद, दोनों ही आते हैं, अपने से ‘‘बाहर की दुनिया’’ पर बहुत ही ज़्यादा निर्भर बने हुए हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: विकिमीडिया कॉमन्स

इस दुनिया में विभिन्न देशों के बीच, उनके ‘विकास’ के स्तर और उनके पास प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के स्तर के बीच, बहुत भारी असंतुलन है। सबसे विकसित देशों के समूह, जी-7 को ही ले लीजिए जिसमें अमेरिका, यूके, जर्मनी, फ्रांस, इटली, जापान तथा कनाडा शामिल हैं। इस ग्रुप में दुनिया की कुल आबादी का सिर्फ 10 फीसद हिस्सा रहता है, लेकिन 2020 में दुनिया भर की कुल संपदा का आधे से ज्यादा हिस्सा, इसी ग्रुप के पास था और दुनिया के कुल घरेलू उत्पाद का मोटे तौर पर 40 फीसद हिस्सा उसी के पास था। (सुविधा के लिए मैंने विभिन्न अनुमानों का मध्यमान ले लिया है, जिनमें विश्व के कुल उत्पाद के 32 से 46 फीसद तक हिस्से पर इस ग्रुप का नियंत्रण आंका गया है।) इस समूह की आर्थिक ताकत निर्विवाद रूप से बहुत बड़ी है, फिर भी प्राकृतिक संसाधनों के भंडारों के लिहाज से देखें तो उन्हें काफी दरिद्र ही कहना पड़ेगा।

तेल: ग़रीब दुनिया पर अमीर देशों की निर्भरता

आइए, हम आज के जमाने के सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन, तेल तथा प्राकृतिक गैस की ही स्थिति को देख लें। बेशक, विश्व के तेल तथा गैस के भंडारों के अनुमानों में भारी अंतर पाया जाता है और देशों के बीच उनके वितरण के अनुमानों में भी भारी अंतर मिलता है। फिर भी, इस मामले में कुछ चीजें तो इतनी स्पष्ट हैं कि उनकी सत्यता पर, अनुमानों की इन भिन्नताओं से भी कोई असर नहीं पड़ता है। दुनिया में तेल के कुल सत्यापित भंडारों में से, अमेरिका के इनर्जी इन्फार्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (ईआइए) के ही अनुसार, जी-7 देशों में करीब 13 फीसद हैं और वह भी मुख्यत: कनाडा में, जिसके पास दुनिया के तेल के कुल भंडारों का करीब 10 फीसद हिस्सा है। बेशक, इस गणना में शेल ऑयल के भंडार शामिल नहीं हैं, जिनका दोहन करने की ओर अमेरिका पिछले कुछ समय से खास कोशिश कर रहा है। असल में ज्यादातर देशों के शेल ऑयल के भंडारों के बारे में, अभी तो जानकारी ही नहीं है। फिर भी, अगर शेल ऑयल को इस गणना में शामिल कर लिया जाए तब भी, इस बुनियादी सच्चाई में ज्यादा अंतर नहीं आने वाला है कि दुनिया के तेल भंडारों का अधिकांश हिस्सा, सबसे विकसित देशों की सीमाओं के बाहर ही है।

अब प्राकृतिक गैस के भंडारों पर विचार कर लें। इस मामले में भी हमें प्राकृतिक गैस के कुल भंडारों और देशों के बीच उनके वितरण के अनुमानों में, काफी भिन्नताएं देखने को मिलती हैं। फिर भी अगर हम 2020 के आखिर के जी-7 देशों के प्राकृतिक गैस के भंडारों के ईआइए के अनुमानों को लें और गैस के दुनिया के कुल अनुमानित भंडारों में, जिनके 1880 खरब घन मीटर होने का अनुमान है, उसका भाग दें तो हम पाते हैं कि प्राकृतिक गैस के कुल विश्व भंडारों में, जी-7 देशों का हिस्सा महज 8 फीसद से कुछ ज्यादा है। पुन: इन अनुमानों में भी शेल गैस के अनुमान शामिल नहीं हैं, फिर भी इतना तो निर्विवाद ही है कि प्राकृतिक गैस के दुनिया के ज्यादातर भंडार, विकसित देशों के बाहर ही हैं। इसके बावजूद, तेल तथा प्राकृतिक गैस पर इन देशों की निर्भरता बहुत ही ज्यादा है। बेशक, हाल के दौर में इनमें से कुछ ने इन ईंधनों का अपना उपयोग घटाया है। फ्रांस ने नाभिकीय ऊर्जा पर अपनी निर्भरता को बढ़ा लिया है। और जलवायु परिवर्तन की आशंकाओं ने, ऊर्जा के स्रोतों के इस बहुविधकरण को किसी हद तक तेज कर दिया है। फिर भी, यह तथ्य अपनी जगह है कि अब तक तो तेल तथा प्राकृतिक गैस पर विकसित देशों की निर्भरता बहुत ज्यादा बनी हुई है, जबकि उनकी अपनी सीमाओं में इन संसाधनों की उपलब्धता बहुत ही सीमित बनी हुई है।

ग़रीब देशों के कृषि उत्पादों पर विकसित देशों की निर्भरता

यहां तक हमने कृषि मामलों की बात ही नहीं की है, जिनके मामले में विकसित देशों की उत्पादन क्षमता, भौगोलिक कारकों के चलते सीमित ही है। सूती कपड़ा उद्योग, ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति को और इसलिए औद्योगिक पूंजीवाद को भी लेकर आया था। लेकिन, ब्रिटेन तो कपास पैदा कर ही नहीं सकता था और उसे पूरी तरह से कपास का आयात ही करना पड़ता था। इस प्रकार पूंजीवादी केंद्र, जो मुख्यत: दुनिया के ठंडे इलाकों में ही स्थित हैं, बहुत सारी फसलें या तो पैदा कर ही नहीं सकते हैं या पर्याप्त मात्रा में या साल भर पैदा नहीं कर सकते हैं। दूसरी ओर, कटिबंधीय तथा उपकटिबंधीय गर्म इलाके ये फसलें पैदा कर सकते हैं और पूंजी के विकसित केंद्रों के लिए उनकी आपूर्ति करते हैं।

इसलिए, अनेक पैदावारों के लिए, जिनमें रसीली फसल के उपज से लेकर, फाइबर वाली उपज तथा खाद्य फसलें तक शामिल हैं, अबाध व पूरे साल भर आपूर्ति के लिए, पूंजी के विकसित केंद्र इन कटिबंधीय तथा उपकटिबंधीय क्षेत्रों पर, बहुत ज्यादा निर्भर बने हुए हैं। बेशक, हाल के वर्षों में विकसित देशों ने अपनी जरूरत से ज्यादा खाद्यान्न पैदा करना शुरू कर दिया है, लेकिन यह तथ्य भी कटिबंधीय तथा उपकटिबंधीय क्षेत्रों पर उनकी भारी निर्भरता को खत्म नहीं करता है। वास्तव में, अपने अतिरिक्त खाद्यान्न का इस्तेमाल वे तीसरी दुनिया के देशों को, जो मुख्यत: दुनिया के कटिबंधीय तथा उपकटिबंधीय क्षेत्रों में स्थित हैं, इसके लिए मजबूर करने के लिए करते रहे हैं कि वे खाद्यान्न उत्पादन बंद कर दें और ऐसी फसलों की पैदावार की ओर मुड़ जाएं, जिनकी पूंजी की इन महानगरों को जरूरत है।

इसलिए, यह एक निर्विवाद तथ्य है कि दुनिया के ज्यादातर विकसित देश, अनेकानेक प्राथमिक उत्पादों के लिए, जिनमें खनिज संसाधन तथा कृषि उत्पाद, दोनों ही आते हैं, अपने से ‘‘बाहर की दुनिया’’ पर बहुत ही ज्यादा निर्भर बने हुए हैं। उन्हें कम दाम पर इन मालों की अविराम आपूर्ति हासिल करनी ही होती है। उपनिवेशवाद के दौर में तो वे इन मालों का खासा बड़ा हिस्सा तो बिना किसी भुगतान के, मुफ्त में ही हासिल कर लिया करते थे। इन मालों के रूप में ही वे उपनिवेशों तथा अर्थ-उपनिवेशों से अतिरिक्त मूल्य निचोड़ लिया करते थे। बहरहाल, उनके पास अपने उपनिवेश हों या नहीं हों, ऐसी आपूर्तियों की उनकी जरूरत सबसे प्रमुख होती है।

इसी असमान रिश्ते का साधन है साम्राज्यवाद

विकसित पूंजीवादी केंद्रों के लिए, अनेक आवश्यक मालों का ‘‘बाहर’’ की दुनिया से कम दाम पर (या मुफ्त ही) इस तरह का सतत प्रवाह, साम्राज्यवाद द्वारा सुनिश्चित किया जाता है और औपनिवेशिक चरण, साम्राज्यवाद का एक खास दौर भर है। तीसरी दुनिया के देशों में, जिनमें तेल उत्पादक देश भी शामिल हैं, ऐसे निजाम कायम कराना जो पूंजी के विकसित केंद्रों के इशारे पर चलते हों, इन विकसित पूंजीवादी केंद्रों के अपनी मर्जी थोपने का ही एक तरीका है। इन देशों को ऐसी नवउदारवादी विश्व व्यवस्था में फंसाना, जहां उन्हें अपनी घरेलू अर्थव्यवस्थाओं के लिए हर प्रकार का संरक्षण त्यागने के लिए मजबूर किया जाता है और व्यापार निर्भर होने के लिए विवश किया जाता है, उसी लक्ष्य को हासिल करने की एक कड़ी आम कार्यनीति है।

तीसरी दुनिया के ‘‘गैर-आज्ञाकारी’’ निजामों को हटाने का काम, तरह-तरह के उपायों से किया जाता है, जिसमें सीआइए-प्रायोजित तख्तापलटों से लेकर, ऐसे निजामों वाले देशों के खिलाफ पाबंदियां लगाना तक शामिल हैं। यह साम्राज्यवाद के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध की ही निशानी है कि पिछले कुछ समय में ऐसे देशों की संख्या बढ़ती ही गयी है, जिन्हें इन पाबंदियों का निशाना बनाया जा रहा है। और यही साम्राज्यवाद की दु:खती रग है।

पाबंदियां: साम्राज्यवाद का भोंथरा होता हथियार

अगर पाबंदियां एक-दो देशों पर ही लगानी पड़ रही हों, तो ये साम्राज्यवाद के लिए कारगर भी हो सकती हैं। लेकिन, अगर पाबंदियों का निशाना बनाए जाने वाले देशों की संख्या ज्यादा हो जाती है, तो उससे तो साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था के लिए ही खतरा पैदा हो जाता है। ऐसी स्थिति में पाबंदियों का निशाना बनने वाले देश, इन पाबंदियों का अलग-अलग रहने पर अपने ऊपर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है उससे उबरने के लिए, एकजुट हो सकते हैं। इतना ही नहीं दूसरे ऐसे देश भी, जो न तो विकसित पूंजी के केंद्र हैं और न ही पाबंदियों के शिकार देशों में आते हैं, इन पाबंदियों को धता बताने के लिए प्रोत्साहित हो सकते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था को, इस सबसे होने वाले नुकसान से बचाने में मदद मिल सकती है। इसी प्रकार, अगर पाबंदी का निशाना बनने वाला देश बड़ा हो और अपने आप में ही उसकी अर्थव्यवस्था में काफी वैविध्य हो, तो उसके खिलाफ पाबंदियां लगाना साम्राज्यवाद के लिए उल्टा भी पड़ सकता है, जैसा कि पिछले अर्से में रूस के खिलाफ लगायी गयी पाबंदियों के मामले में हुआ है।

पश्चिमी मीडिया यूक्रेन युद्ध को ऐसा बनाकर पेश कर रहा है जैसे यह युद्ध सिर्फ एक साल पहले ही शुरू हुआ हो और यह युद्ध, अपने एक छोटे से पड़ोसी देश के खिलाफ, एक बड़ी ताकत के हमलावर व्यवहार का ही नतीजा हो। लेकिन, सच्चाई यह है कि इस टकराव की शुरूआत तो करीब एक दशक पहले ही हो गयी थी, जब यूक्रेन के जनतांत्रिक रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति, विक्टर येनुकोविच को, एक तख्तापलट के जरिए सत्ता से हटा दिया गया था। इस तख्तापलट की योजना नव-अनुदारपंथियों ने बनायी थी और सीआइए ने इस ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने में मदद की थी। इसलिए, वर्तमान टकराव के पीछे एक कहीं बुनियादी टकराव है, जो पश्चिमी साम्राज्यवाद और रूस के बीच है। और रूस के पास, प्राकृतिक गैस के विश्व के कुल भंडार का पांचवां यानी दुनिया के सभी देशों के बीच से सबसे बड़ा हिस्सा है। इसके अलावा, उसके पास दुनिया के तेल के कुल भंडार का भी करीब 5 फीसद हिस्सा है।

यूक्रेन युद्ध: साम्राज्यवादी लक्ष्यों की मुश्किल

अंतर्राष्ट्रीय मामलों के ऐसे टीकाकार भी, जो यूक्रेन युद्ध को, पश्चिमी साम्राज्यवाद और रूस के बीच टकराव के हिस्से के तौर पर देखते हैं, इस टकराव को पूरी तरह से एकध्रुवीयता से, बहुध्रुवीयता की ओर संक्रमण की कोशिश के रूप में देखते हैं। लेकिन, रूस के विशद प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हासिल करने की पश्चिम की इच्छा, इस तरह की चर्चाओं में शायद ही कभी आती है। लेकिन, पश्चिम की इस इच्छा के असर को कम कर के नहीं देखा जाना चाहिए। साम्राज्यवाद, बोरिस येल्त्सिन को नियंत्रण में लेने में कामयाब हो गया था। बताया जाता है कि वह हमेशा दर्जनों सीआइए के लोगों से घिरा रहते थे। लेकिन, पुतिन के सत्ता में आने के बाद, उसके दूसरे दोष चाहे जो भी हों, रूस के मामलों में पश्चिम का यह बोलबाला खत्म हो चुका है। इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि अमेरिका के राष्ट्रपति, जो बाइडेन ने पिछले ही दिनों यह बोल ही दिया कि यूक्रेन युद्ध में अमेरिका का मकसद, रूस में सत्ता बदल कराना यानी वहां ऐसा निजाम कायम करना है, जो पूंजीवाद के बड़े केंद्रों के प्रति ‘‘आज्ञाकारी’’ होगा।

लेकिन, एक साथ इतने सारे देशों पर पाबंदियां लगाए जाने की, जिनमें रूस जैसा एक बड़ा देश भी शामिल है, खुद पश्चिमी साम्राज्यवाद पर चोट पडऩी शुरू हो गयी है। इन पाबंदियों की मार, सिर्फ उन देशों पर ही नहीं पड़ रही है, जिन्हें इन पाबंदियों को निशाना बनाया जा रहा है बल्कि इन पाबंदियों की मार तो, खुद ये पाबंदियां लगाने वाले देशों की मेहनतकश जनता पर भी पड़ रही है। प्राकृतिक गैस के आयात रुकने के चलते, उन्हें जिस तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, उसके चलते पूरे योरप में लाखों मजदूर युद्ध-विरोधी, महंगाई-विरोधी प्रदर्शनों में सडक़ों पर उतर रहे हैं। 1970 के दशक के बाद से, इतने बड़े विरोध प्रदर्शन वहां पहली बार ही देखने को मिल रहे हैं। दूसरी ओर, पाबंदियां थोपे जाने के जिस तरह के नतीजों की उम्मीद की जाती थी यानी पाबंदियों का निशाना बनने वाले देश की मुद्रा का अवमूल्यन होने तथा वहां महंगाई बढऩे की जो उम्मीद की जाती थी उसके विपरीत, डॉलर की तुलना में रूबल वास्तव में ऊपर चढ़ गया है और उसके खिलाफ पाबंदियां लगाने वाले देश खुद ही, मुद्रास्फीति से तबाह हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि साम्राज्यवाद इस समय, अपने लिए मुश्किलों के दौर में प्रवेश कर चुका है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Imperialism in Peril Over Growing Natural Resources’ Crisis

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