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फ़ैज़ की याद में: क्यों ज़रूरी है इश्क़ और इंक़लाब को साथ याद करना? 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्मदिन पर क्या उन्हें उस तरह से याद किया गया जैसे याद करने की ज़रूरत है? मौजूदा दौर में फ़ैज़ की नज़्में, ग़ज़लें क्या मायने रखती हैं? 
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13 फ़रवरी का दिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्मदिन का होता है, गुलाबी मौसम में पैदा हुए फ़ैज़ के इंक़लाबी तरानों में जो गर्मी थी वो हुक्मरानों को बेचैन कर दिया करती थी। फ़ैज़ किसी एक मुल्क़ के शायर नहीं बल्कि उनकी इंक़लाबी शायरी हर उस सोच के ख़िलाफ़ थी और है जो दमन की बात करती है। 

एक बार फिर 13 फरवरी का दिन आया और हम सुबह से ही तलाश रहे थे कि दिल्ली में कोई ख़ास प्रोग्राम उनपर होगा, दिल्ली सिर्फ़ राजनीति का ही केंद्र नहीं बल्कि अदब की दुनिया को भी सदियों से ख़ुद में समेटे है। लेकिन बड़ी हैरानी हुई कि दिल्ली में कोई एक बड़ा प्रोग्राम फ़ैज़ की याद में नहीं दिखा। ( या हो सकता है हमने मिस कर दिया हो) आख़िर इसकी क्या वजह हो सकती है? क्या फ़ैज़ को गुनगुनाना अब गुनाह हो गया है? या फिर फ़ैज़ पर बात करने वालों ने ख़ुद को दुनिया से दूर कर लिया है ? या फिर अब हमें फ़ैज़ के तरानों की ज़रूरत ही नहीं रही?  इन हालात पर तो फ़ैज़ की ही नज़्म याद आती है- 

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 
बोल ज़बां अब तक तेरी है 
तेरा सुत्वां जिस्म है तेरा 
बोल कि जां अब तक तेरी है 
देख कि आहन-गर की दुकां में 
तुंद हैं शोले सुर्ख़ हैं आहन ( लोहा) 
खुलने लगे क़ुफ़्लों ( locks)  के दहाने 
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म ओ ज़बां की मौत से पहले 
बोल कि सच ज़िन्दा है अबतक 
बोल जो कुछ कहना है कह ले 

फ़ैज़ की क़लम से निकली रुमानियत भरी ग़ज़ल हो या फिर इंक़लाबी तराना अपना एक मेयार बना देती थी। फ़ैज़ ने अपनी क़लम चलाई और चलाते रहने के लिए बार-बार जेल का सफ़र किया पर वो रुके नहीं, माने नहीं यहां तक कि उनकी लिखी नज़्मों को पब्लिक में गाना भी उस दौर में एक चैलेंज था, बताया जाता है कि पाकिस्तान के जनरल ज़ियाउल हक़ के मार्शल लॉ के दौरान जब लोकतंत्र छटपटा रहा था तो वहीं की मशहूर सिंगर इक़बाल बानों ने हज़ारों की भीड़ में फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे' पढ़नी शुरू की तो स्टेडियम में मौजूद लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। 

image 'जामिया दस्तक' के कार्यक्रम में लगा पोस्टर 

यही नज़्म CAA-NRC के वक़्त हमारे देश में भी जगह-जगह हुए धरना प्रदर्शन में ख़ूब गाई गई थी और उस वक़्त हमारे यहां भी लोगों ने इस नज़्म पर सवाल खड़े किए थे। 

बहरहाल, सुबह से ही फ़ैज़ से जुड़े किसी प्रोग्राम की तलाश शाम होते-होते उस वक़्त पूरी हुई जब जामिया यूनिवर्सिटी में 'जामिया दस्तक' की तरफ़ से एक प्रोग्राम के बारे में पता चला- प्रोग्राम का नाम था 'महफ़िल-ए-इश्क़', छात्रों की एक छोटी सी टोली थी जिन्होंने दो पेड़ों के बीच एक सुतली बांधी थी और तेज़ हवा में उड़ती उस सुतली में बंधे थे फ़ैज़ के इंक़बाली शेरों के पोस्टर जिनपर लिखा था-  

image'जामिया दस्तक' की तरफ़ से 'महफ़िल-ए-इश्क़' का आयोजन 

दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है 

इसके अलावा एक पोस्टर पर लिखा था-

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म ओ ज़बां की मौत से पहले 
बोल कि सच ज़िन्दा है अबतक 
बोल जो कुछ कहना है कह ले 

साथ ही 'जामिया दस्तक' की तरफ़ से प्रोग्राम की टैगलाइन भी लिखी हुई थी-

''हमारा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे''

imageसनम हुसैन, 'जामिया दस्तक' से जुड़ी छात्रा 

इस प्रोग्राम का आयोजन करने वालों में से एक सनम हुसैन से हमारी बातचीत हुई तो पता चला कि इस प्रोग्राम की बहुत ही मुश्किल से इजाज़त मिली थी वो कहती हैं कि ''हमने बहुत मुश्किल से फ़ैज़ को याद करने के लिए ये छोटी सी टोली इकट्ठा की है''। उन्होंने बताया कि  इस प्रोग्राम के ज़रिए वे लोग पोएट्री को, प्यार को सेलिब्रेट कर रहे हैं। जब हमने उनसे पूछा कि इन सबको सेलिब्रेट करने के लिए फै़ज़ के जन्मदिन को ही क्यों चुना तो उनका जवाब था कि '' प्यार अपने आप में ही इंकलाबी चीज़ है और इसे सेलिब्रेट करने के लिए हमें फ़ैज़ के जन्मदिन से अच्छा कोई दिन मिला नहीं'' 

सवाल- क्यों इस वक़्त फ़ैज़ को याद करना ज़रूरी है, ख़ासकर स्कूल,कॉलेज में? 

जवाब- क्योंकी उन्होंने उस वक़्त जो चीज़े समाज पर थोपी जा रही थी उसके ख़िलाफ़ ज़बरदस्त इंक़लाबी तरीक़े से लिखा, जैसे ''हम देखेंगे'' बहुत ही ख़ास है, ''बोल की लब आज़ाद है तेरे''। अब अगर देखें तो आज़ादी के बाद हम एक बार फिर से उसी तरह के दमनकारी शासन में आते जा रहे हैं, जहां हमारे हर अधिकार पर पांबदी लगती जा रही है, कहने के लिए हमारे पास संवैधानिक अधिकार है लेकिन हम एक अघोषित इमजेंसी में जी रहे हैं, जैसा की आप देख सकती हैं कि हम यहां एक छोटा सा प्रोग्राम कर रहे थे लेकिन हमें उसकी भी इज़ाजत नहीं मिल रही थी। ऐसे में हमारे लिए फ़ैज़, मजाज़ जैसे शायरों को याद करना और भी ज़रूरी हो जाता है। हम उन्हें इस वक़्त ज़्यादा रिलेट कर पा रहे हैं। हम भले ही इन शायरों को पढ़कर बढ़े नहीं हुए लेकिन हम जिस दौर में हैं इन शायरों से ज़्यादा रिलेट कर पा रहे हैं।

image'जामिया दस्तक' से जुड़ी छात्रा 

इसके अलावा 'जामिया दस्तक' से जुड़ी एक और स्टूडेंट सखी से भी हमारी बातचीत हुई जिन्होंने इस प्रोग्राम के बारे में कुछ ये बताया 
''तो हम जानते हैं कि 14 फरवरी को वैलेंटाइंस डे होता है और 13 फरवरी को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्मदिन तो हमने सोचा कि एक ऐसे प्रोग्राम का आयोजन करें जो इश्क़ की भी बात करता है और इंक़लाब की भी, तो हमने छोटा सा प्रोग्राम 'महफ़िल-ए-इश्क़' के नाम से रखा जिसके अंदर हमने जामिया के तमाम स्टूंडेट्स को बुलाया जहां उन्होंने अपनी शायरी सुनाई, इस प्रोग्राम को करने के दौरान हमें काफ़ी दिक़्क़तों का भी सामना करना पड़ा, प्रोग्राम शुरू होते ही गार्ड्स आ गए और पूछने लगे कि ''क्या हो रहा है, क्या हो रहा है''। 

सवाल- कितना ज़रूरी है आज के दौर में प्यार की बात करना ? 

जवाब- इस समय इश्क़ की बात करना बहुत ज़रूरी है, और ये भी समझा जाए कि इश्क़ का महत्व क्या है, ये इश्क़ रोमांस नहीं है ये उससे कहीं ज़्यादा है 'रेवोलुशन टू चेंज', तो अमन के लिए प्यार बहुत ज़रूरी है। 

बड़े-बड़े सुखनवर और अदब की दुनिया की शख़्सियत से पटी दिल्ली में जामिया के छात्रों की एक छोटी सी टोली ने भले ही फ़ैज़ के नाम पर उनकी एक नज़्म पढ़ी लेकिन ये कोशिश इस वक़्त में बहुत मायने रखती है। 

महफ़िल-ए-इश्क़ का प्रोग्राम ख़त्म हो गया और फ़ैज़ के तरानों को ढलती शाम के साथ पेड़ पर बांधी गई सुतली से उतार कर समेट लिया गया, ये मंजर फ़ैज़ के जन्मदिन पर आई एक ख़बर की टीस सी मालूम हो रही थी। 13 फरवरी को फ़ैज़ के जन्मदिन पर पाकिस्तान के ही मशहूर एक्टर ज़िया मोहिउद्दीन इस दुनिया से रुख़सत हो गए। ज़िया और फ़ैज़ का बहुत ही ख़ूबसूरत रिश्ता था ज़िया साहब ने फ़ैज़ की नज़्मों को अपनी एक अलाहदा आवाज़ में कुछ यूं जज़्ब किया की सुनने वालों के दिल में उतर गए। 

साभार : जशन-ए-रेख़्ता

ज़िया मोहिउद्दीन पाकिस्तान के चंद ऐसे एक्टर में शुमार थे जिन्होंने हॉलीवुड में भी काम किया था लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया( 1962) बीहोल्ड द पेल होर्सिन ( 1964) और इमैक्युलेट कंसेप्शन ( 1992 ) उनकी यादगार फ़िल्में हैं। एक्टिंग के अलावा नज़्मों को पढ़ने के उनके अंदाज़ ने उन्हें ख़ासी मक़बूलियत अदा की, वे थिएटर से जुड़े थे, उन्होंने किताबें लिखीं थी, लेकिन जिस अंदाज़ में उन्होंने फ़ैज़ की नज़्मों को अपनी आवाज़ में उतारा उनके जाने के बाद ये ना सिर्फ़ उनके फ़ैंस के लिए बल्कि अदब की दुनिया के लिए भी एक बड़ा नुक़सान है। उनके जाने के बाद फ़ैज़ की ही एक नज़्म 'तन्हाई' याद आती है। 

इसे भी पढ़ें: अलविदा: मुर्दा से मुर्दा कलाम में भी अपनी आवाज़ से जान फूंक देने वाले ज़िया मोहिउद्दीन

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं 
राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार 
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़
सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़ार 
अजनबी ख़ाक ने धुंदला दिए क़दमों के सुराग़
गुल करो शमएं बढ़ा दो मय ओ मीना ओ अयाग़
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो 
अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा

साभार 

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