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दवा के दामों में वृद्धि लोगों को बुरी तरह आहत करेगी – दवा मूल्य निर्धारण एवं उत्पादन नीति को पुनर्निर्देशित करने की आवश्यता है

आवश्यक दवाओं के अधिकतम मूल्य में 10.8% की वृद्धि आम लोगों पर प्रतिकूल असर डालेगी। कार्यकर्ताओं ने इन बढ़ी हुई कीमतों को वापस लेने और सार्वजनिक क्षेत्र के दवा उद्योग को सुदृढ़ बनाने और एक तर्कसंगत मूल्य निर्धारण नीति को बनाये जाने की मांग की है।
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राष्ट्रीय दवा मूल्य निर्धारण नियामक (एनपीपीए) के हालिया नोटिस के मुताबिक, सभी आवश्यक दवाइयों की अधिकतम कीमत में लगभग 10.8% की वृद्धि कर दी गई है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) में हुई वृद्धि के कारण इसे 1 अप्रैल 2022 से प्रभावी कर दिया गया है। 

इस वृद्धि से आम लोगों को भारी नुकसान होने की संभावना है, क्योंकि भारत में करीब 70% आकस्मिक खर्च दवाओं पर खर्च के कारण होता है। इस मूल्य वृद्धि में पेरासिटामोल और मेटफोर्मिन जैसी बुनियादी आवश्यक दवाओं समेत कुछ जीवन-रक्षक दवाएं भी शामिल हैं।  

उदाहरण के लिए, जीवन रक्षक कैंसर उपचार ट्रैस्टुजुमाब (440एमजी/50एमएल) के इंजेक्शन की अधिकतम कीमत जो पिछले वर्ष के 60,298 रूपये थी, अब बढ़कर 66,790 रूपये हो गई है। इसी प्रकार से, प्रत्येक ड्रग- इल्यूटिंग स्टेंट के लिए, मात्र एक वर्ष के भीतर अधिकतम कीमत 30,811 रूपये से बढ़कर 34,128 रूपये हो गई है।

इस आदेश से तकरीबन 872 अनुसूचित फार्मूलेशन (सूत्र) प्रभावित होने जा रहे हैं जो कि आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) का हिस्सा हैं और मूल्य नियंत्रण के अधीन हैं, और भारत में कुल दवा बाजार के करीब 18% हिस्से पर इनकी हिस्सेदारी है। 

आश्चर्यजनक रूप से, इस बार गैर-अनुसूचित दवाओं की तुलना में आवश्यक अनुसूचित दवाओं की कीमतों में अधिक वृद्धि देखने को मिली है। गैर-अनुसचित दवाओं के निर्माताओं को कीमतों में सालाना 10% की बढ़ोत्तरी करने की इजाजत है।

इसके अलावा, 10.8% की यह मूल्य वृद्धि एक ऐसे समय में आई है जब दवाओं की कीमतों में वृद्धि पहले से ही महामारी के दौरान से लोगों को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है, और सामान्य मुद्रास्फीति (मूल्य वृद्धि) की दर को पार कर गई है। 

दवा की कीमतें सामान्य कीमतों से अधिक 

यदि हम सामान्य मूल्य वृद्धि के साथ दवा (एलोपैथिक) में हुई मूल्य वृद्धि (मुद्रा स्फीति) की प्रवृति की तुलना करें, तो हम पाते हैं कि महामारी के दौरान दवाओं के मूल्य में हुई वृद्धि पूरे 2021 में सामान्य मूल्य वृद्धि से कहीं अधिक थी। यह ग्राफ (रेखाचित्र) दवाओं (एलोपैथिक) और सामान्य कीमतों (सभी वस्तुओं) की मुद्रा स्फीति की दर की हलचलों को ट्रैक करता है।

जैसा कि ग्राफ (रेखाचित्र) में दिखाया गया है, दवाओं की कीमतों वृद्धि का सिलसिला अगस्त 2020 से शुरू हो गया था और सामान्य मूल्य वृद्धि को इसने सितंबर 2020 में पार कर लिया था। महामारी की चरम अवधि के दौरान यह उच्च स्तर पर बनी रही, और मुद्रास्फीति की दर सामान्य मुद्रास्फीति से उपर  बनी रही। सिर्फ सितंबर 2021 में, यह दिसंबर 2021 के सामान्य मुद्रास्फीति के समान स्तर तक कम हो गई थी। लोग पहले से ही इस प्रकार की उच्च मुद्रास्फीति का खामियाजा भुगत रहे थे, अब उपर से यह 10.8% की वृद्धि उनके हालात को और बिगाड़ देगी। 

लागत-आधारित से लेकर बाज़ार-आधारित मूल्य-निर्धारण तक  

विशेषज्ञों का तर्क है कि पिछले कुछ दशकों से नीतिगत बदलाव के चलते ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जहाँ लोगों को मरीजों और उपभोक्ताओं के तौर पर इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है, और भारत ने “विश्व के औषधालय” वाली अपनी पूर्ववर्ती स्थिति भी खो दी है।

सामाजिक कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों ने औसत मूल्य-आधारित मूल्य निर्धारण फार्मूले और 2013 में शुरू किये गए थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के साथ इसके जुड़ाव के खिलाफ अपनी बात रखी है, और वे लगातार इसका विरोध करते आ रहे हैं। 

दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013 ने दवा मूल्य नीति में व्यापक बदलाव पेश किये हैं:

  • पहला, एक निर्दिष्ट ताकत एवं खुराक के अनुसूचित फार्मूलेशन का अधिकतम मूल्य, अनुसूचित फार्मूलेशन के औसत मूल्य के अनुसार 16% मार्जिन के साथ तय किया गया था। इस औसत मूल्य के निर्धारण के लिए उस दवा के सभी ब्रांड्स के खुदरा विक्रेताओं और जेनेरिक संस्करणों की कीमतों को, जिनका कुल बाजार कारोबार के 1% हिस्से से अधिक या उसके बराबर के बाजार में हिस्सेदारी है, को लिया जाता है।
  • दूसरा, इसमें तय किया गया कि सरकार पिछले वर्ष के लिए निर्धारित किये गए वार्षिक थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के अनुसार हर वर्ष अनुसूचित फार्मूलेशन की अधिकतम कीमतों को संशोधित करेगी।
  • यह नीति गैर-अनुसूचित दवाओं में हर साल 10% तक की वृद्धि करने की भी अनुमति देती है।

इससे पूर्व, जैसा कि डीपीसीओ 1979 में निर्दिष्ट किया गया है कि एमएपीई (निर्माण के बाद का अधिकतम स्वीकार्य खर्च) की अवधारणा को लागू करके फार्मूलेशन के खुदरा मूल्य को तय किया गया था। इसमें एक्स-फैक्ट्री लागत को मार्क-अप (कीमत-लागत अंतर) किया जाता था, जिसमें खुदरा और थोक व्यापार मार्जिन के साथ-साथ इसकी बिक्री और वितरण की लागत को शामिल किया जाता था।

इन दवाओं को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाता था, जिनके लिए अलग-अलग एमएपीई थीं। जीवन-रक्षक दवाओं सहित सबसे महत्वपूर्ण दवाओं को उस श्रेणी में रखा जाता था जिसमें सबसे कम एमएपीई हो।

एक सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता एवं वर्तमान में केरल सरकार के कोविड एक्सपर्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉ. इकबाल बाप्पूकुंजू ने इस बारे में बताते हैं, “डीपीसीओ 1979 के मुताबिक, जीवन-रक्षक दवाओं को मूल्य वृद्धि से संरक्षित रखा जाता था। तब देश के पास गुणवत्ता एवं कम लागत के साथ आवश्यक दवाओं का उत्पादन करने वाला एक मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र था। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की उपेक्षा की गई और अब यह बंद होने के कगार पर है। इसका परिणाम यह है कि हमने थोक दवाओं के उत्पादन में अपनी आत्मनिर्भरता खो दी है, और एपीआई के लिए हमें आयात पर निर्भर रहना पड़ रहा है।” 

कम-लागत वाले छोटे निर्माता नुकसान झेल रहे हैं 

दवा कंपनियां भी दवाओं की कीमतों को बढ़ोत्तरी के लिए पैरवी कर रही हैं। उनकी ओर से यह शिकायत की जा रही है कि कच्चे माल या सक्रिय दवा घटक (एपीआई) की लागत बढ़ गई है। एपीआई की एक विशाल मात्रा, करीब 70% चीन से आयात की जाती है, और कथित तौर पर कुछ मामलों में ये दाम कई गुना बढ़ गए हैं।

इस प्रकार के घटनाक्रमों ने छोटे कम-लागत वाले उत्पादकों पर बड़ी कंपनियों की तुलना में काफी अधिक प्रतिकूल पभाव डाला है। जैसा कि आल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क, के चीनू श्रीनिवासन बताते हैं – “अनुसूचित फार्मूलेशन के कई एपीआई जिनकी लागत मूल्य अधिकतम मूल्य के करीब पहुँच चुकी है, वे अव्यवहार्य हो जाते हैं जब इनका एपीआई 50-80% तक बढ़ जाता है। लेकिन थोक मूल्य सूचकांक इसे प्रतिबिंबित नहीं करता है।

विविध पोर्टफोलियो वाले बड़े उत्पादक अपने व्यवसायों को चलाना जारी रखते हैं और फलते-फूलते हैं जबकि छोटे उत्पादक एक-एक कर बाहर होते जाते हैं। 1% से अधिक की बाजार हिस्सेदारी वाले बड़े उत्पादक और जो मितव्ययिता के पैमाने पर लाभ उठाते हैं, कम दरों पर भी उत्पादन कर सकते हैं और इस प्रकार अच्छे अंतर पर अपना माल बेच सकते हैं और भारी मुनाफा कमा सकते हैं। 

श्रीनिवासन यह भी बताते हैं कि “निर्माता एनएलईएम में जो बातें निर्दिष्ट नहीं की गई हैं, अपनी शक्तियों को स्थानांतरित कर उपलब्ध बचाव के रास्तों का उपयोग करते हैं। या कह सकते हैं कि ज्यादा गैर-अनुसूचित दवाएं बनाने में लग जाती हैं।” इस प्रकार, वर्तमान परिदृश्य में, जहाँ सिर्फ 18% दवा बाजार को ही विनियमित किया जाता है, मूल्य निर्धारण की प्रभावशीलता पर सवालिया निशान खड़ा हो जाता है।

थोक दवाओं का उत्पादन करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र का कमज़ोर हो जाना  

पिछले कुछ वर्षों में, भारत में नीतिगत बदलावों ने घरेलू दवा कौशल को कमजोर करने का काम किया है, जिसे भारत ने अर्जित किया था। एक ऐसी स्थिति से जहाँ भारत थोक दवाओं या एपीआई के निर्माण में आत्म-निर्भर हो गया था, अब एक ऐसी स्थिति में आ गया है कि इसे एपीआई के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ रहा है। 

किस वजह से ऐसा परिद्रश्य बना?

थोक दवाएं पूर्व में औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति के तहत थीं, और इनमें से कई सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थीं। औषध नीति 1978 ने औषधि प्रौद्योगिकी में आत्म-निर्भरता के लक्ष्य को विकसित करने, आयात पर निर्भरता को कम करने, सार्वजनिक क्षेत्र को नेतृत्वकारी भूमिका प्रदान करने और उचित मूल्य पर दवाओं को उपलब्ध कराने के लक्ष्यों की परिकल्पना की गई थी।

डीपीसीओ 1979 ने इस दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव शुरू किये थे। एमएपीई पर आधारित लागत-आधारित मूल्य निर्धारण नीति को शुरू करने के साथ जीवन-रक्षक एवं आवश्यक दवाओं पर कम मार्जिन को रखने के अलावा इसने स्वदेशी आधार पर उत्पादित होने वाली थोक दवाओं पर जोर दिया। इसने फार्मूलेशन बनाने वाली कंपनियों के लिए प्रारंभिक चरण से ही आवश्यक थोक दवाओं के उत्पादन को अनिवार्य बना दिया था। फार्मूलेशन के उत्पदान को थोक दवाओं के स्वदेशी उत्पदान से जोड़ने के लिए एक निर्धारित अनुपात पैरामीटर (प्राचल) को तय किया गया। इससे कंपनियों को उस प्रौद्योगिकी को हासिल करने में मदद मिली जिससे थोक दवाओं के स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा मिला और घरेलू उत्पादन में वृद्धि हुई। 

हालाँकि, दवा क्षेत्र में उदारीकरण और बाजारोन्मुख सुधारों ने आयात के लिए रास्ता खोल दिया, और इससे व्यापार मार्जिन में कमी ने व्यापक नीतिगत बदलावों के हिस्से के तौर पर इस प्रकार के अनुपात पैरामीटर की नीति को भी समाप्त कर दिया था। जिन कुछ थोक दवाओं और फार्मूलेशन के निर्माण को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षण नीति के तहत रखा गया था, उन्हें भी धीरे-धीरे समाप्त कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत आज के दिन अपने कच्चे माल की जरूरतों के 70% से भी अधिक के लिए आयात पर निर्भर हो गया है। कुछ दवाओं के मामले में तो यह निर्भरता 90% से भी अधिक है।

घरेलू फार्मा क्षमता के क्षरण के पीछे की वजह और एपीआई के लिए चीन पर निर्भरता के कारणों के बारे में बताते हुए औद्योगिक विकास अध्ययन संस्थान के रेजी के. जोसफ विस्तार से बताते हैं – “इसका प्रमुख कारक नीति-से उपजा हुआ है, हमारी नीतिगत पहलकदमियों की वजह से, जैसे कि आयात उदारीकरण, डीलिंकिंग आदि। लेकिन इसी के साथ-साथ, चीन इस दौरान एपीआई में अपनी क्षमताओं को लगातार निर्मित कर रहा था, विशेषकर फर्मेंटेशन-आधारित एपीआई के क्षेत्र में। चीन ने नई प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए बड़े पैमाने पर राजकीय वित्त पोषण को मुहैय्या कराने का काम किया। वे जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्र को विकसित करना चाहते थे क्योंकि वे इसमें ढेर सारी संभावनाओं को देख रहे थे। जबकि भारतीय कंपनियों ने नई प्रौद्योगिकी में नई खोज करने में निवेश नहीं किया।”

आयात पर निर्भरता को कम करने और दवाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजारों की अनिश्चितता को कम करने के लिए दवा क्षेत्र में एक सुदृढ़ सार्वजनिक क्षेत्र को तैयार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकताओं ने कीमतों में वृद्धि का विरोध किया है। प्रजा आरोग्य वेदिका, आंध्रप्रदेश ने एक बयान जारी कर कहा है, “वास्तव में पिछले कुछ वर्षों के दौरान दवाओं की कीमतों में नियमित रूप से वृद्धि की जा रही है। अब एंटी- इंफ्लेमेटरी ड्रग्स, एंटीबायोटिक्स, मिर्गी एवं रक्तहीनता की दवाओं के दामों में बेतहाशा बढोत्तरी कर दी गई है, जिससे लोगों को चोट पहुंचेगी। इस कदम से सिर्फ निजी कॉर्पोरेट दवा कंपनियों को ही जम कर मुनाफा होने जा रहा है।”

विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के द्वारा ब्रांडेड और पेटेंटेड दवाओं का उत्पादन करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पेटेंट दवाएं मूल्य नियंत्रण के दायरे से बाहर हैं। आवश्यक दवाओं के दामों में की गई बढोत्तरी को वापस लेने की मांग करते हुए, डॉ. इकबाल कहते हैं कि केंद्र सरकार चाहे तो आसानी से पैसा लगाकर दवा की बढ़ती कीमतों को रोक सकती है। दीर्घकालीन समाधान के लिए, उनके पास कुछ चुनिंदा सुझाव हैं - एक, डीपीसीओ 1979 के अनुरूप एक दवा मूल्य नियंत्रण आदेश, जो आवश्यक एवं जीवन-रक्षक दवाओं को मूल्य वृद्धि से संरक्षण प्रदान करता है, को लागू किया जाना चाहिए। दूसरा, थोक दवा निर्माताओं (एपीआई) को निर्माण की अनुमति देने वाली पिछली नीति को फिर से लागू किया जाना चाहिए। तीसरा, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, वो चाहे केंद्र या राज्य सरकारों के अधीन आती हों, दोनों को ही मजबूत किया जाना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के माध्यम से दवाओं के उत्पादन को बढ़ाया जाना चाहिए और उचित मूल्य की दुकानों के जरिये इसे वितरित किया जाना चाहिए।

वर्तमान स्थिति को देखते हुए जहाँ अर्थव्यवस्था में समग्रता में मूल्य वृद्धि - पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, आवश्यक वस्तुएं - आम लोगों को बुरी तरह से प्रभावित कर रही हैं, ऐसे में सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। और इस दृष्टिकोण को दीर्घावधि में देखते हुए सरकार को, महामारी के अनुभवों से सीखते हुए, कार्यकार्ताओं की मागों पर ध्यान देना चाहिए और सार्वजनिक क्षेत्र की फार्मा ईकाइयों को सुदृढ़ करना चाहिए।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Increase-Drug-Prices-Will-Hit-People-Hard-Need-Re-orienting-Drug-Pricing-Production-Policy

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