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जेनेवा में भारत का फ्लॉप-शो

जेनेवा  में हुए WTO की मंत्रीस्तरीय बैठक में क्या हुआ? क्या यह बैठक भारतीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के मुताबिक भारत के लिए सफल रही या कोई और बात है ?
Geneva

विश्व व्यापार संगठन (WTO) का 12वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन 17 जून 2022 को जिनेवा में संपन्न हुआ। सम्मेलन समाप्त होने के ठीक बाद मीडिया को संबोधित करते हुए भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे भारतीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने दावा किया कि यह मीटिंग सफल रही।

वाणिज्य मंत्री ने कहा “आज जब हम भारत लौट रहे हैं तो ऐसा कोई मुद्दा नहीं है, जिस पर हमें लेशमात्र भी चिंतित होना चाहिए, चाहे वह कृषि से संबंधित हो, जैसे एमएसपी, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को पूरा करने के लिए सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग कार्यक्रम की प्रासंगिकता को मजबूत करना या पीएम गरीब कल्याण योजना, ट्रिप्स छूट, ई-कॉमर्स स्थगन, कोविड की प्रतिक्रिया और मत्स्य पालन हो।

“भारत को किसी भी मुद्दे पर लेशमात्र भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है” - यह एक आश्चर्यजनक बयान है, जो भारत के वाणिज्य मंत्री की ओर से आ रहा है। बहुपक्षीय व्यापार में कई तरह की पैंतरेबाजी होती है। इतनी जटिल पैंतरेबाजी होती है कि मुश्किल किस्म की सौदेबाज़ी किसी एक मंत्रीस्तरीय सम्मलेन के साथ खत्म नहीं होती।  

बहुपक्षीय प्रक्रिया को जीवित रखने के लिए हाल ही में संपन्न मंत्रिस्तरीय बैठक ने एक न्यूनतम एजेंडा अपनाया और सभी प्रमुख विवादास्पद मुद्दों को दो साल बाद होने वाले अगले मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के लिए स्थगित कर दिया। ऐसे में  केवल लोकप्रियता हासिल करने की खातिर हम कूटनीतिक ‘हारा- किरी’ क्यों करें?

बातचीत की रणनीति को छोड़ दें, तो ठोस रूप से भी, भारत अपने व्यापारिक हितों की रक्षा करने में कितना सफल रहा? जेनेवा मंत्री स्तरीय एजेंडा में केंद्रीय मुद्दा कृषि पर समझौते (AoA) से संबंधित लंबित मुद्दे थे, जो 1995 में विश्व व्यापार संगठन के उरुग्वे दौर में संपन्न हुए थे। AoA एक बहुत ही खराब सौदा था और इसके कारण विकासशील देशों को भारी नुकसान हुआ। AoA से संबंधित कुछ मुद्दों पर निर्णय अभी भी लंबित है। भारत ने 1995 के इस बुरे सौदे से कुछ भी सीखे बिना, जिनेवा में दूसरा आत्मसमर्पण किया। इस तरह मोदी सरकार किसानों के हितों की कुर्बानी दे देती है।

AoA से संबंधित ये लंबित मुद्दे क्या थे ? भारत की मूल मांगें और सौदेबाज़ी की स्थिति क्या थी? आखिर भारत ने वहां से क्या हासिल किया? हम इन सवालों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

जेनेवा के एजेंडे में कृषि पर समझौते से संबंधित मुख्य लंबित मुद्दा सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों (MSP) पर किसानों से सार्वजनिक खरीद (public procurement) के माध्यम से पब्लिक स्टॉकहोल्डिंग का सवाल था।

दूसरा यह प्रश्न था कि क्या भारत उन मामलों में भी निर्यात प्रतिबंध लगा सकता है, जहां भारतीय कृषि उत्पादों का निर्यात विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) के लिए था?

तीसरा क्या भारत घरेलू खाद्य सुरक्षा/पीडीएस उद्देश्यों के लिए मूल रूप से खरीदे और जमा किए गए खाद्यान्नों के अपने सार्वजनिक स्टॉक से अधिशेष (surplus) का निर्यात कर सकता है? खासकर जब ऐसे निर्यात अन्य सरकारों के लिए हों न कि अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक बाजारों के लिए? भारत इस मुद्दे को भी एजेंडे में रखना चाहता था और यह चाहता था कि इस मंत्रिस्तरीय बैठक में इसे सुलझा भी लिया जाए ?

अंत में मत्स्य पालन पर एजेंडे में दो मुद्दे थे- 1) देश के विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) के भीतर मछली पकड़ने (fishing) के लिए सब्सिडी पर प्रतिबंध और 2) EEZ के दायरे से बाहर मछली पकड़ने के लिए सब्सिडी पर प्रतिबंध।

आइए हम संक्षेप में बताएं कि भारत इन सभी मुद्दों पर क्या चाहता था और उसे क्या हासिल हुआ?
 
कृषि पर समझौते से संबंधित लंबित मुद्दों पर भारत ने जेनेवा मंत्रिस्तरीय समावेश से क्या मांग की और क्या हासिल करना चाहता था?

सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग पर भारत की मूल मांग -

• खाद्य संप्रभुता का मतलब है - देश भोजन खरीदने, जमा करने अपनी आबादी के बीच जरूरतमंदों को वितरित करने के लिए स्वतंत्र है। इसे अब कृषि व्यवसाय निगमों द्वारा मुक्त व्यापार पर अंकुश लगाने वाली एक प्रतिबंधात्मक प्रथा के रूप में चुनौती दी जा रही है।

• विकसित देश भारत की खाद्य सब्सिडी पर आपत्ति जताते रहे हैं। खाद्य सब्सिडी का अर्थ है सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर खाद्यान्न की खरीद और पीडीएस के माध्यम से रियायती दर पर खाद्यान्न जारी करना। इसका विरोध करने के अलावा विकसित देश किसानों को दी जा रही विभिन्न प्रकार की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सब्सिडी का भी विरोध कर रहे हैं। पश्चिम के देशों में एक किसान को 10 गुना अधिक सब्सिडी मिल जाती है। चूंकि उनकी खेती करने वाली आबादी कम है- भारत जिसमें बहुत बड़ी कृषि आबादी है, में कुल कृषि समर्थन (farm support) की तुलना में उनका कुल कृषि समर्थन कम होगा। लेकिन पश्चिम तय करता है कि सब्सिडी को कैसे परिभाषित करें और उसकी गणना कैसे की जाए।

अपनी परिभाषा के अनुसार वे एमएसपी, खरीद और पीडीएस की भारत की नीतियों का विरोध इस बहाने करते रहते हैं कि ये प्रथाएं बाजार की ताकतों के मुक्त क्रियाकलाप पर अंकुश लगाती हैं। विशेष रूप से, उनका तर्क है कि सरकारी खरीद की वजह से बहुराष्ट्रीय कृषि व्यवसाय व्यापारिक घरानों के लिए व्यापारिक स्पेस संकुचित हो जाता है। उनका यह भी दावा है कि रियायती दर (subsidized rate) पर खाद्यान्न उनकी बाजार पहुंच को भी कम करता है। लेकिन अपने ही लोगों की खाद्य सुरक्षा भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय था और इसने भारत के कृषि व्यापार हितों को भी पीछे छोड़ दिया।

• इसलिए, भारत इस मांग के साथ जिनेवा के मंच पर गया कि यहां "खाद्य सुरक्षा के लिए सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग के मुद्दे का स्थायी समाधान" होना चाहिए। दूसरे शब्दों में भारत इस मुद्दे पर एक बहुपक्षीय समझौता चाहता था ताकि कोई भी देश आपत्ति न कर सके और इनमें से किसी भी मुद्दे पर व्यापार की राजनीति कर सके।
 
जेनेवा में भारत ने क्या हासिल किया?

• सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग पर कोई समझौता नहीं हुआ; कुछ वर्षों के लिए कोई "स्थायी" या अस्थायी समाधान भी नहीं। इस मुद्दे को अगले मंत्रिस्तरीय समावेश के लिए स्थगित कर दिया गया। एमएसपी, खरीद और पीडीएस, यहां तक कि गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न पर भारत की नीतियों के लिए बहुपक्षीय सहमती के साथ डब्ल्यूटीओ की हरी झंडी भी नहीं रही। इसका मतलब है कि भारत एमएसपी तय करने, सरकारी खरीद, और सब्सिडी दरों पर पीडीएस प्रणाली को जारी रखने और यहां तक कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न देने की अपनी नीति, जो कि तीव्र महामारी के दौरान शुरू हुई थी, से संबंधित मामलों पर लगातार द्विपक्षीय दबाव में आता रहेगा। संक्षेप में, भारत ने जेनेवा में इस केंद्रीय मुद्दे पर एक बड़ा शून्य हासिल किया।
 
विश्व खाद्य कार्यक्रम के लिए निर्यात पर अंकुश लगाने की भारत की मूल मांग

भारत ने कहा कि जब उसकी अपनी आबादी की खाद्य सुरक्षा दांव पर है, तो वह पूरी दुनिया को खिलाने की विलासिता को वहन नहीं कर सकता। इसलिए वह जरूरत पड़ने पर विश्व खाद्य कार्यक्रम के लिए निर्यात पर भी प्रतिबंध लगाना चाहता है।

जेनेवा में भारत ने इस  बाबत क्या हासिल किया?

जिनेवा मंत्रिस्तरीय समावेश ने निर्णय लिया कि विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) को निर्यात पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। यानि भारत की मांग को खारिज कर दिया गया।

WFP जाहिरा तौर पर एक संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रम है। वह सीरिया, इराक, अफगानिस्तान जैसे संघर्ष के क्षेत्रों में, जो वास्तव में अमेरिका द्वारा साम्राज्यवादी आक्रमण के शिकार थे, अत्यंत आवश्यक भोजन प्रदान करता है। WFP सोमालिया, इथियोपिया, केन्या और अब यूक्रेन में लाखों भूखे लोगों को भी भोजन प्रदान करता है, जो कि बड़ी शक्ति प्रतिद्वंद्विता (big power rivalry) के शिकार थे।

2021 में, WFP ने लगभग 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किए। अगर भारत युद्धग्रस्त यूक्रेन में गेहूं भेजना चाहे, तो वह सीधे गेहूं नहीं भेज सकता; निजी निगम यह काम करेंगे। उदाहरण के लिए, पेप्सिको ने इराक में खाद्य वितरण के लिए विश्व खाद्य कार्यक्रम के साथ साझेदारी की। संयुक्त राष्ट्र खाद्य राहत पर निजी निगम हावी हो गए हैं। उदाहरण के लिए, महामारी संकट के चरम पर, संयुक्त राष्ट्र ने महामारी से उत्पन्न वैश्विक खाद्य संकट को संबोधित करने के लिए एक विश्व खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन (World Food Systems Summit) आयोजित किया। प्रतिभागियों के बीच एक महत्वपूर्ण घटक था सतत विकास के लिए संदिग्ध रूप से नामित विश्व व्यापार परिषद। नेस्ले, बेयर और मोनसेंटो जैसी खाद्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके सदस्य हैं।

जिनेवा में, यह निर्णय लिया गया कि भारत ऐसे कार्यक्रम के लिये खाद्य निर्यात को सीमित नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, भले ही भारत में गरीब लोग भूखे मरें, भारत को WFP को नियंत्रित करने वाले अमीर देशों और निगमों को उपकृत करना ही होगा। वे तय करेंगे कि किस देश में भूखे व गरीबों को खाना खिलाया जाए और किस हद तक, और इस प्रक्रिया में अपने लिए कितना लाभ कमाया जाए।

यह एक ऐसा समर्पण है, जिसे पीयूष गोयल जेनेवा में भारत के लिए "शानदार सफलता" के रूप में वर्णित कर रहे थे! सच है, उनकी सरकार इस पर " लेशमात्र भी चिंतित" नहीं दिखती! सार्वजनिक स्टॉक से अधिशेष खाद्यान्न के निर्यात की अनुमति

भारत ने मूल रूप से क्या मांग की?

सच है, भारत में सार्वजनिक खाद्य भंडार, जो कि सार्वजनिक खजाने की कीमत पर बनाए रखा जाता है, प्राथमिक रूप से पीडीएस प्रणाली के माध्यम से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के गैर-व्यावसायिक विचार से प्रेरित है। यह निर्यात या खुले बाजार की बिक्री जैसे वाणिज्यिक कारणों से नहीं रहा। हालांकि, भारत के अनुभव से पता चलता है कि बंपर फसलों के वर्षों के दौरान, भारत पीडीएस के लिए आवश्यक से अधिक अधिशेष स्टॉक (surplus stock) जमा करता है। यह हाल के वर्षों में गेहूं, चावल और चीनी के लिए होता रहा है। सरकार को ऐसे अधिशेष का क्या करना चाहिए? इसे सड़ने दे? भारत ऐसे अधिशेष स्टॉक का निर्यात करना चाहता है - और वह भी केवल अन्य सरकारों को - ताकि निर्यात आय को उसके विशाल खाद्य सब्सिडी बिल हेतु समायोजित किया जा सके।

भारत इस मुद्दे को जिनेवा के एजेंडे में लाना चाहता था। यह कथित तौर पर केवल एक छोटे समूह की बैठक में चर्चा के लिए आया था, जहां संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के विरोध के कारण भारत ने नम्रतापूर्वक आत्मसमर्पण किया। यह पीयूष गोयल की एक और "शानदार सफलता" थी।
 
मत्स्य पालन पर भी भारत को मिला कच्चा सौदा

विकसित देशों ने पिछले कुछ दशकों में अपने स्वयं के मत्स्य पालन के बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए बहुत पैसा खर्च किया था। उन्होंने ट्रॉलर का उपयोग करने वाली कंपनियों द्वारा औद्योगिक मछली पकड़ने (industrialised fishing) पर स्विच ओवर कर लिया है। भारत में  मछली पकड़ने का काम मुख्य रूप से लाखों मछुआरों द्वारा किया जाता है। उनमें से अधिकांश पारंपरिक कटमरैन (दो तरण्डों को जोड़कर बनाई गई नौका) का उपयोग करते हैं और मशीनीकृत नाव तक का नहीं। फिर भी, वे अपने सस्ते समुद्री उत्पादों के साथ पश्चिम में मछली पकड़ने वाली कंपनियों को कड़ी प्रतिस्पर्धा दे रहे हैं। अब, मुक्त प्रतिस्पर्धा और मुक्त व्यापार के लिए सब्सिडी पर अंकुश लगाने के नाम पर, विकासशील देशों में, विशेष रूप से मछली पकड़ने के बंदरगाहों, मछली भंडारण, विपणन और परिवहन पर खर्च के लिए राज्य सब्सिडी पर पश्चिम प्रतिबंध चाहता है। इससे कारीगर (artisanal) मछुआरों को नुकसान होगा।

भारत विकासशील देशों को उनके विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) में मछली पकड़ने के लिए किसी भी सब्सिडी में कटौती से 25 साल की छूट चाहता था। इसी तरह, भारत विकसित देशों में भी मछली पकड़ने वाली कंपनियों के लिए, जो अपने विशेष आर्थिक क्षेत्रों से परे मछली पकड़ रहे हैं, सब्सिडी पर 25 साल का प्रतिबंध चाहता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारी सब्सिडी वाली मछली पकड़ने वाली कंपनियां उच्च समुद्र (high seas) में भारतीय मछुआरों को मछली पकड़ने (की संभावनाओं) से वंचित नहीं कर सकतीं। पर भारत इनमें से कोई भी मांग हासिल नहीं कर सका।

लेकिन जब शासन धोखे के बल पर चल रहा हो, तो यह भी सरकार के लिए एक "भव्य सफलता" ही कही जाएगी।

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