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मुक्त व्यापार अच्छा नहीं; यह बेरोज़गारी पैदा करता है!

पूरी दुनिया को मुक्त व्यापार के फ़ायदे का उपदेश देने वाला अमेरिका ख़ुद संरक्षणवादी होता जा रहा है।
Free Trade Effect

कल्पना कीजिए कि किसी देश में अपेक्षाकृत बेरोक-टोक विदेश व्यापार चल रहा है। इस तरह की व्यापार नीति के चलते उस देश को दो स्वत:स्पष्ट समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। पहली, भुगतान संतुलन की समस्या क्योंकि उसके निर्यात, आयातों की तुलना में अपर्याप्त साबित हो सकते हैं। और दूसरी है, बेरोज़गारी पैदा होना और कहीं सामान्य रूप से घरेलू संसाधनों का इसलिए बेकार पड़े रहना क्योंकि घरेलू माल आयातों से प्रतियोगिता नहीं कर पा रहे हैं।

व्यापार से संपन्नता का मिथक और अनौद्योगीकरण का सच

ये दोनों समस्याएं इस माने में एक जैसी नहीं हैं कि आयात अधिशेष के बिना बेरोज़गारी पैदा हो सकती है, जैसा कि औपनिवेशिक दौर में भारत के साथ हुआ था। उस दौर में घरेलू ‘अनौद्योगीकरण’ (deindustrialisation) हुआ था, जिससे दस्तकारों तथा कारीगरों के बीच भारी बेरोज़गारी पैदा हुई थी, हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई आयात अधिशेष नहीं था, उल्टे वास्तव में उसमें निर्यात अधिशेष ही था, जिसे औपनिवेशिक शासकों द्वारा मुफ्त में हड़प लिया जाता था। बहरहाल, इस टिप्पणी में मैं, अपेक्षाकृत बेरोक-टोक विदेश व्यापार के चलते, किसी तीसरी दुनिया के देश में पैदा होने वाली भुगतान संतुलन की समस्याओं में नहीं जाऊंगा। मैं यहां रोज़गार के प्रश्न पर ही ध्यान केंद्रित करूंगा।

यह तो स्पष्ट है कि बेरोक-टोक विदेश व्यापार, घरेलू बेरोज़गारी पैदा करता है। यह तीसरी दुनिया के लोगों के लिए तो खासतौर पर स्वत: स्पष्ट होना चाहिए, जो अनौद्योगीकरणकारी औपनिवेशिक राज के ऐतिहासिक अनुभव से गुजरे हैं। इसके बावजूद, आम तौर पर यह धारणा फैला दी गयी है कि मुक्त व्यापार एक अच्छी चीज है। और यह धारणा बनाने के लिए एक सरासर फर्जी दलील दी जाती है। वास्तव में, विश्व व्यापार संगठन के तहत जो तथाकथित वैश्विक व्यापार नियम विकसित किए गए हैं, ठीक इसी दलील पर आधारित हैं। यह दलील यह कहती है कि सभी देशों को उन मालों के उत्पादन में विशेषीकरण हासिल करना चाहिए, जिनके मामले में उन्हें एक ‘तुलनात्मक बढ़त’ हासिल हो। और अगर हरेक देश उन मालों के उत्पादन में विशेषज्ञता हासिल करता है, जिनके मामले में उसके पास खासतौर पर महारत है, तो समूची दुनिया को मिलाकर उत्पाद, अन्यथा जितना होता उससे ज़्यादा होगा और इस तरह सभी देश संपन्न हो जाएंगे।

संसाधनों के पूर्ण उपयोग का भ्रम

‘तुलनीय बढ़त’ पर आधारित मुक्त व्यापार की यह दलील, जो कि वास्तव में उसकी इकलौती दलील है, पूरी तरह से जालसाजी है। इसमें यह मान लिया जाता है और बस मान ही लिया जाता है कि हरेक देश में और इसलिए कुल मिलाकर पूरी दुनिया में ही, हमेशा ही सभी संसाधनों का, जिसमें उसकी कुल श्रम शक्ति भी शामिल है, पूरी तरह से उपयोग हो रहा होता है, फिर भले ही वह देश बाहर से व्यापार कर रहा हो या नहीं कर रहा हो। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर इस तरह के व्यापार से पहले भी और बाद में भी, उसकी श्रम शक्ति समेत सभी संसाधनों का पूरा-पूरा उपयोग हो रहा हो, तो तमाम व्यापार में संसाधनों को एक प्रकार के उपयोग से, दूसरी प्रकार के उपयोग की ओर मोड़ा भर जा रहा होगा। इससे किसी भी सूरत में किसी भी संसाधन का उपयोग न हो पाने की स्थिति पैदा ही नहीं हो सकती है और इसमें देश की श्रम शक्ति के उपयोग न हो पाने की स्थिति भी शामिल है।

बहरहाल, एक बार जब हम इस पूर्वधारणा को खारिज कर देते हैं, जिसे खारिज करना ही होगा क्योंकि न तो तथ्य में और न ही सिद्धांत में, इसका तो कोई आधार ही नहीं है (माइकेल कलेकी और जॉन मेनार्ड केन्स ने 1930 के दशक में ही इस पूर्वधारणा की सैद्धांतिक आधारहीनता का प्रदर्शन कर दिया था, हालांकि मार्क्स ने तीन चौथाई सदी पहले ही उनकी इस सैद्धांतिक खोज का पूर्वानुमान पेश कर दिया था) किसी देश के लिए मुक्त व्यापार के संभावित रूप से नुकसानदेह निहितार्थ स्पष्ट हो जाते हैं।

इसे एक आसान उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए कि विश्व अर्थव्यवस्था की कुल उत्पादन क्षमता 100 इकाई की है। अब अगर विश्व अर्थव्यवस्था में कुल मांग 80 इकाई की ही है, तो विश्व उत्पाद की 20 इकाई हासिल ही नहीं की जा सकेंगी यानी पूंजीवादी व्यवस्था में वे अनुत्पादित ही रह जाएंगी। इसके फलस्वरूप, अप्रयुक्त रह जाने वाले संसाधनों का, देशों के बीच किसी खास तरीके से वितरण हो रहा होगा।

राज्य के हस्तक्षेप और मुक्त व्यापार से बंधे हाथ

यहां एक सवाल पूछा जा सकता है। केन्स ने, जिन्हें इसका डर था कि पूंजीवाद जो बेरोज़गारी पैदा करता है, उसकी वजह से मजदूरों का उसकी ओर से मोहभंग होगा और वे समाजवाद की ओर चले जाएंगे, यह सुझाव दिया था कि पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप के सहारे, सकल मांग के और इसलिए रोज़गार के स्तर के स्तर को ऊपर उठाया जाए। तब यही उपाय विश्व के पैमाने पर क्यों नहीं किया जा सकता है और अगर ऐसा होता है तो मुक्त व्यापार के बावजूद, कोई भी देश अनुपयोगी पड़े संसाधनों की समस्या से नहीं जूझ रहा होगा।

मामले की जटिलताओं में जाए बिना भी, इस सवाल का बहुत ही सरल तथा स्वत:स्पष्ट उत्तर तो यही है कि वह सब होने के लिए, एक विश्व राज्य तथा उसकी विश्व सरकार होनी चाहिए और पूंजीवाद के अतर्गत वह तो है ही नहीं। और उन देशों में, जहां विश्व मांग के पर्याप्त बड़ी न होने के चलते, संसाधनों का एक हिस्सा बिना उपयोग के पड़ा रह जाता हो, अगर उनके अपने राष्ट्र राज्य और ज़्यादा रोज़गार पैदा करने के लिए मांग को बढ़ाने की कोशिश करते हैं, तो मुक्त बाज़ार के हालात में यह अतिरिक्त मांग ‘बाहर रिस’ सकती है और इसके नतीजे में अतिरिक्त आयात का बोझ पड़ सकता है और इसलिए असहनीय व्यापार घाटे की स्थिति पैदा हो सकती है। लेकिन, अगर इन देशों में मुक्त व्यापार की व्यवस्था नहीं चल रही होती और वे अपनी अर्थव्यवस्था को संरक्षण देने की स्थिति में होते, तब ज़रूर उनकी सरकारें घरेलू सकल मांग को और इसलिए रोज़गार को बढ़ा सकती थीं। लेकिन, मुक्त व्यापार के चलते इस लिहाज से उनके हाथ बंध जाते हैं।

अग्रणी पूंजीवादी देश पर विश्व मांग की निर्भरता

इस तरह यह एक तथ्य है कि मुक्त व्यापार व्यवस्था के अंतर्गत, किसी देश की सरकार हस्तक्षेप कर के सकल मांग तथा इसलिए रोज़गार को बढ़ा ही नहीं सकती है, उल्टे उसे तो विश्व मांग का जो भी स्तर हो, उसके प्रतिकूल परिणामों को हाथ बांधकर स्वीकार करना ही होता है। और इसका अर्थ यह है कि चाहे किसी खास देश का मामला हो या विश्व स्तर का, मुक्त व्यापार की व्यवस्था के अंतर्गत रोज़गार का स्तर, संबंधित देशों के संरक्षण का सहारा ले सकने की स्थिति में होने पर जितना हो सकता था, उससे बाकायदा घटकर ही होगा। यह तो मुक्त व्यापार के पक्ष में दी जाने वाली दलील को पूरी तरह से ही गलत साबित कर देता है। याद रहे कि यह दलील तो टिकी ही इस दावे पर है कि हरेक देश, जिन मालों के उत्पादन में उसकी तुलनात्मक बढ़त है, उन्हीं के उत्पादन में विशेषीकरण के जरिए, विश्व उत्पाद में बढ़ोतरी ला सकता है और इससे सभी देशों को फायदा हो सकता है। लेकिन, यह दलील तब औंधे मुंह गिर पड़ती है, जब हम इस सचाई को पहचानते हैं कि मुक्त व्यापार आने के बाद की दुनिया में विश्व उत्पाद, मुक्त व्यापार से पहले की दुनिया की तुलना में घटकर हो सकता है, अगर मुक्त व्यापार के हालात में सकल विश्व उत्पाद मांग, मुक्त व्यापार से पहले के हालात के मुकाबले घटकर हो।

यह पूछा जा सकता है कि मुक्त व्यापार के हालात में विश्व मांग, आखिर निर्भर किस चीज पर करती है? विश्व सकल मांग का मुख्य निर्धारक है, अग्रणी पूंजीवादी देश के अंदर पैदा हो रही सकल मांग और मौजूदा संदर्भ में इस भूमिका में अमेरिका है, जिसे मांग पैदा करने के मामले में एक हद तक स्वायत्तता हासिल है, चाहे यह अतिरिक्त मांग अन्य देशों की ओर ‘रिसकर चली’ ही क्यों नहीं जा रही हो। इसकी वजह यह है कि उसे व्यापार घाटे की परवाह करने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि उसकी मुद्रा को ही आम तौर पर ‘सोने जैसी खरी’ माना जाता है और उसके लिए तो अपने बाहरी घाटे की भरपाई करने के लिए फालतू मुद्रा छाप लेना ही काफी होगा क्योंकि शेष दुनिया उसकी मुद्रा में अपनी संपदा रखने के लिए तैयार होगी।

इसीलिए, अमेरिका का उपभोग जमा निवेश जमा सरकारी खर्चा, विश्व सकल मांग का मुख्य निर्धारक बन जाता है। इस मामले में अमेरिकी सरकार का खर्चा खासतौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि उसकी एक हद तक स्वायत्तता होती है। इसे किसी नल की तरह, कभी भी खोला जा सकता है। इस अर्थ में अमेरिकी राज्य, समकालीन पूंजीवाद के हालात में, एक राष्ट्र-राज्य होते हुए भी, संभावित रूप से एक सरोगेट (Surrogate) या एवजीदार विश्व राज्य की तरह काम कर सकता है और वास्तव में एक हद तक करता भी है।

बहरहाल, यहां एक अंतर्विरोध है, जिसने अब अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। हालांकि अमेरिकी राज्य एवजीदार विश्व राज्य की तरह काम तो कर सकता है, लेकिन वह विश्व राज्य तो है नहीं। सब कुछ के बावजूद, वह आखिरकार रहेगा तो एक राष्ट्र-राज्य ही। अगर अमेरिकी राज्य अपनी घरेलू सकल मांग को बढ़ाता है और यह बढ़ी हुई मांग ‘‘बाहर रिस जाती’’ है, तो अपने विदेशी घाटे की भरपाई करने में भले ही उसे कोई समस्या नहीं हो, फिर भी अपने विदेशी घाटे की भरपाई करने में, उसके ऊपर कर्जा तो चढ़ ही रहा होगा। और यह कर्जा तब चढ़ रहा होगा, जबकि मांग के बाहर रिस जाने से यह जो अतिरिक्त रोज़गार पैदा कर रहा होगा, ज़्यादातर अपनी सीमाओं से बाहर पैदा कर रहा होगा। इसलिए, सरकारी खर्चे में बढ़ोतरी के जरिए, अमेरिका की सकल मांग बढ़ाए जाने से खुद अमेरिका के लिए इस माने में भले ही कोई तकनीकी समस्या पैदा नहीं हो रही हो कि उसके लिए ऐसा करना अवहनीय नहीं होगा, फिर भी ऐसा करना उसके संकीर्ण राष्ट्रवादी नजरिए के खिलाफ जाता है और इस तरह के संकीर्ण राष्ट्रवादी नजरिए को अमेरिकी राज्य अनदेखा नहीं कर सकता है क्योंकि आखिरकार है तो यह एक राष्ट्र-राज्य ही। संक्षेप में यह कि उसकी राष्ट्र-राज्य की भूमिका, उसकी एक एवजीदार विश्व राज्य की भूमिका के आड़े आती है। यह अंतर्विरोध अब एक तीखा रूप ग्रहण कर रहा है।

महामारी के दौरान अमेरिका को और अन्य उन्नत देशों को भी, अपनी जनता को राहत देने के लिए, भारी राजकोषीय घाटे उठाने पड़े थे। महामारी के खत्म होने के बाद भी अमेरिका, अपने अपेक्षाकृत बड़े राजकोषीय घाटे जारी रखने के लिए उत्सुक था ताकि घरेलू सकल मांग में नयी जान डाल सके, लेकिन मुद्रास्फीति में हाल में आए उछाल ने इसे एक हद तक बाधित कर दिया। लेकिन, एक बार जब यह उछाल बैठ जाता है, अमेरिका में राजकीय खर्च के जरिए, घरेलू मांग के लिए उत्प्रेरण आने की संभावना है, पर इसके साथ-साथ संरक्षणवाद चल रहा होगा, जिससे इस अतिरिक्त मांग के दूसरे देशों में ‘‘रिसकर जाने’’ को रोका जा सके। वास्तव में अमेरिका पिछले कुछ समय से संरक्षणवाद की ओर जा रहा है। यह संरक्षणवाद सबसे स्पष्ट रूप से चीन को निशाना बनाकर चलाया जा रहा है, लेकिन तीसरी दुनिया के अन्य देश भी इसके निशाने पर हैं।

अमेरिका में संरक्षणवाद की ओर इस गति को कुछ लोगों ने डी-ग्लोबलाइजेशन का नाम दिया है, लेकिन यह सही नहीं है। हालांकि, संरक्षणवाद लागू करने की यह प्रवृत्ति चल रही है, अमेरिका की ओर से वित्तीय पूंजी की आवाजाही पर कोई अंकुश नहीं लगाए जा रहे हैं। उल्टे, तीसरी दुनिया का कोई भी देश जो पूंजी नियंत्रण लागू करता है, अमेरिका द्वारा उसे अपने निशाने पर ले लिया जाता है। बहरहाल, अमेरिका को इस तरह के अंतर्विरोधों की कोई परवाह नहीं है। आखिरकार, वह एक देश है और वह संरक्षणवाद का सहारा लेने जा रहा है, हालांकि इसके बावजूद वह बाकी सारी दुनिया को मुक्त व्यापार का उपदेश देता रहने वाला है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Free Trade Isn’t a Good Thing; It Creates Unemployment

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