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भारत के 'अंतहीन युद्ध' और 'स्थायी योद्धा'

वॉशिंगटन स्थित क्विंसी इंस्टीट्यूट की अफ़ग़ान ‘विपन्स बिज़ बैंकरोल्स एक्सपर्ट्स पुशिंग टू एक्टेंड अफ़ग़ान’ नामक जांच रिपोर्ट उन हित समूहों पर रोशनी डालती है,जो अमेरिका के ‘अंतहीन युद्ध’ की धारणा पर हावी रहे हैं।
भारत के 'अंतहीन युद्ध' और 'स्थायी योद्धा'
चित्र परिचय : पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील के किनारे चीनी और भारतीय सेनाओं के बीच पीछे हटने की प्रक्रिया

कोई शक नहीं कि वाशिंगटन स्थित क्विंसी संस्थान इस समय का बौद्धिक रूप से सबसे ज़्यादा प्रेरक अमेरिकी जानकारों का एक समूह है, मंगलवार को अपने अनिवार्य रूप से पठनीय पत्रिका-रिस्पॉंसिबल स्टेटक्राफ़्ट में एक खोजी रिपोर्ट लिखी,जिसका शीर्षक था-‘विपन्स बिज़ बैंकरोल्स एक्सपर्ट्स पुशिंग टू एक्टेंड अफ़ग़ान’ और इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले हैं-अमेरिकी विदेश नीति के जाने-माने जानकार और पत्रकार-एली क्लिफ़्टन।

यह रिपोर्ट उन हित समूहों से पर्दा उठाती है, जो अमेरिका के ‘अंतहीन युद्धों’ की धारणा पर हावी रहे हैं। क्लिफ़्टन ने कांग्रेस की ओर से स्थापित विशेषज्ञों के समूह द्वारा तैयार की गयी उस विवादास्पद रिपोर्ट की एक ऐसी केस स्टडी तैयार की है, जिसमें सिफ़ारिश की गयी थी कि व्हाइट हाउस को तालिबान के साथ दोहा समझौते के तहत निर्धारित उस समय सीमा को बढ़ा देने चाहिए, जिसमें कहा गया था कि 1 मई को अमेरिकी सैनिकों की वापसी होनी चाहिए।

लेकिन, इस रिपोर्ट का जो अहम बिन्दु है, वह कुछ इस तरह है:“समूह के तीन सह-अध्यक्षों में से दो सह-अध्यक्ष और समूह के 12 पूर्ण सदस्यों में से नौ सदस्यों का इस समय प्रमुख रक्षा ठेकेदारों के साथ या हालिया वित्तीय रिश्ते हैं, यह एक ऐसा उद्योग है,जो 740 बिलियन के रक्षा बजट के आधे से ज़्यादा राशि को सोख लेता है, और अमेरिका के बाहर दुनिया भर में अमेरिका की सैन्य भागीदारी से मुनाफ़ा कमाता है।"

सह-अध्यक्षों में से एक का नाम जनरल जोसेफ़ एफ.डनफ़र्ड है, जो पहले ज्वाइंट चिफ़्स ऑफ़ स्टाफ़ के प्रमुख, मरीन कॉर्प्स के कमांडेंट और अफ़गानिस्तान और 2013 में सभी अमेरिकी और नाटो बलों के कमांडर थे, और इस समय बोर्ड ऑफ़ लॉकहीड मार्टिन में सेवारत हैं,और उनके पास हथियार बनाने को लेकर तक़रीबन 290,000 डॉलर की हिस्सेदारी है, यह हिस्सेदारी एक कुटिल योजना के तहत निदेशकों की हिस्सेदारी देने को लेकर एक कपटपूर्ण योजना के तहत रखा जाता है ताकि आम तौर पर हिस्सेदारों के हितों के साथ उनके आर्थिक हितों को भी समायोजित किया जा सके।

क्लिफ़्टन का अनुमान है कि "इस अध्ययन समूह के पूर्ण सदस्य और सैन्य औद्योगिक आधार का एक दूसरे के साथ गहरा सम्बन्ध है, तक़रीबन 4 मिलियन डॉलर वाले इस समूह के सह-अध्यक्षों और पूर्ण सदस्यों को रक्षा ठेकेदारों के बोर्ड में उनके काम के लिए इनाम मिला है।"
साफ़ तौर पर बाइडेन प्रशासन की अफ़गान-नीति निर्माण को अबतक अलग नज़रों से देखा गया है, ऐसा इसलिए, क्योंकि जो सलाहें इसे मिल रही हैं, उनमें ज़्यादातर उन लोगों की सलाहें हैं, जिनका युद्ध को जारी रखने में वित्तीय हित दांव पर लगे हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर 20 वीं शताब्दी में राष्ट्रपति चुने जाने वाले एकमात्र जनरल थे, जिन्होंने पहली बार सैन्य-औद्योगिक परिसर के भ्रष्ट करते असर को लेकर उस समय चेतावनी दी थी, जब उन्होंने जनवरी,1961 में अपने विदाई संबोधन में ज़ोर देकर कहा था, "हमें काउंसिल ऑफ़ गवर्नमेंट के भीतर सैन्य-औद्योगिक परिसर(सैन्य-औद्योगिक परिसर किसी राष्ट्र की सेना और उस रक्षा उद्योग के बीच एक अनौपचारिक गठबंधन होता है, जो रक्षा हथियार की आपूर्ति करता है, इसे एक ऐसे निहित स्वार्थ के रूप में देखा जाता है, जो सार्वजनिक नीति को प्रभावित करता है।) की तरफ़ से मांगे-बेमांगे अनुचित लाभ उठाने की कोशिशों के ख़िलाफ़ सतर्क रहना चाहिए।"

पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ विवादित सीमा पर सैनिकों के हाल में अपने-अपने स्थान से पीछे हटने को लेकर भारतीय धारणा कुछ विशेष तरीकों से उपरोक्त विवरण को अपने माकूल बनाती है, हालांकि भारत में अभी तक कोई सैन्य-औद्योगिक परिसर नहीं है। तार्किक रूप से पूर्वी लद्दाख में सैनिकों का अपनी जगह से पीछे हटना फिलहाल इस ख़ुशी का आधार बन गया है कि युद्ध के बादल छंट गये हैं। यहां तक कि चीनी विशेषज्ञ भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अपनी-अपनी जगह से दोनों सैनिकों का पीछे हटना एक "महत्वपूर्ण कामयाबी" का संकेत है, इससे इस बात की उम्मीद जगती है कि कुछ समय के लिए इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता आयेगी।

आगे की ओर देखते हुए भारत-चीन द्विपक्षीय सम्बन्धों में सकारात्मक बदलाव को लेकर इस समय पूर्व स्थितियां मौजूद हैं। इसके पीछे का तर्क यह है कि संयुक्त राष्ट्र के मंच में आगामी एजेंडा और भारत-चीन परामर्श प्रक्रिया को लेकर हाल ही में मंगलवार को रायटर की एक विशेष रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार आने वाले हफ़्तों में चीन से कुछ नये निवेश प्रस्तावों को मंज़ूरी देने की तैयारी कर रही है, जो इस बात के संकेत हैं कि सैनिकों के पीछे हटने का यह समझौता रंग ला रहा है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक उच्च प्रतिष्ठित संस्थान,सिंघुआ विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय रणनीति संस्थान में अनुसंधान विभाग के निदेशक और एक शीर्ष चीनी विशेषज्ञ, कियान फ़ेंग ने 19 फ़रवरी को लिखा था कि मोदी सरकार की तरफ़ से किया गया सैनिकों के पीछे हटने का यह समझौता "एक समझदारी से भरा हुआ और व्यावहारिक फ़ैसला" है। यह देश के आंतरिक और बाहरी, दोनों ही मामले में हितकर है।”

इसमें कोई शक नहीं कि यह फ़ैसला भारत के राष्ट्रीय हित में है। सच कहा जाय तो, चीन के साथ आर्थिक सम्बन्धों में कटौती एक अव्यावहारिक क़दम थी। चीन से भारत का आयात वास्तव में पिछले वर्ष की दूसरी छमाही में बढ़ गया था और अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए चीन भारत का नंबर एक व्यापारिक भागीदार बन गया था।

भारतीय अर्थव्यवस्था से चीनी निवेश का बोरिया बिस्तर का समेटा जाना एक की तरह की आत्मघाती नीति थी, क्योंकि महामारी के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना और रोज़गार का सृजन राष्ट्रीय प्राथमिकता होनी चाहिए थी। विश्व अर्थव्यवस्था की स्थिति को देखते हुए चीन एक ऐसा साझेदार बन चुका है, जिसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सकता।

देर से ही सही, मगर सरकार ने इस सच को मान लिया है। लेकिन,यह देखना अभी बाक़ी है कि चीनी निवेशक भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ पाते हैं या नहीं। जो व्यवस्थागत कारण पश्चिमी निवेशकों की राह में रुकावट बने हुए हैं, वही कारण चीनी निवेशकों की राह के भी रुकावट हैं। ज़ाहिर है, उत्पादन लागत में कटौती करने वाली चीन से स्थानांतरित होती पश्चिमी कंपनियां भारत आने से कहीं ज़्यादा वियतनाम या ताइवान जाना पसंद करती हैं।

भारत उस एशियाई आपूर्ति श्रृंखला के बाहर खड़ा है, जिससे आरसीईपी यानी क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी को मजबूत करने की उम्मीद की जाती है। सबसे ऊपर, विश्वास लब्धांक,यानी साख, विश्वसनीयता और अंतरंगता का मामला होता है। लद्दाख में सैनिकों के अपनी-अपनी जगह से पीछे हट जाने के बावजूद, भारत-चीन रिश्तों में आपसी विश्वास की कमी बनी हुई है।

यह वही बात है, जहां विवादित सीमा क्षेत्रों में बफ़र जोन का निर्माण अहमियत रखता है। इस तरह के परस्पर जुड़ाव से आपसी विश्वास बढ़ता है और इससे जो अमन-चैन की स्थिति बनती है,वह भी स्थायी होती है। पूर्व सेना प्रमुख और भारत सरकार में मंत्री-वीके सिंह की तरफ़ से हाल ही में किया गया चौंकाने वाला यह खुलासा कि भारतीय घुसपैठ ऐतिहासिक रूप से चीनी घुसपैठ की संख्या का पांच गुना होना चाहिए, वीके सिंह का यह ख़ुलासा बफ़र ज़ोन की अहमियत को ही रेखांकित करता है।

इसके बावजूद इस तरह के बफ़र जोन के निर्माण को लेकर भारतीय विश्लेषकों का रोना यह है कि यह कथित तौर पर सेना को विवादित क्षेत्रों में "गश्त" लगाने से रोकता है। अब तो सीमा के आप-पार आने-जाने पर हमेशा तकनीकी साधनों के ज़रिये नज़र रखी जा सकती हैजबकि गश्त से झड़प की संभावना बनी रहती है। सरकार ने स्थायी आधार पर अमन-चैन को प्राथमिकता देने का फ़ैसला कर लिया है।

भारतीय विश्लेषक इतना खिन्न क्यों दिखते हैं ? बुनियादी तौर पर इसकी व्याख्या उस प्रतिकूल मानसिकता से होती है,जो 1962 के बाद के दशकों से पैदा होने वाली भावना से बनी है। आम तौर पर ठीक उसी तरह अपारदर्शी परिस्थितियों में हित समूह पैदा होते हैं, जिस तरह नम मिट्टी में मशरूम पैदा होता है।

वीके सिंह का यह ख़ुलासा ज़मीनी हकीकतों की एक ऐसी ग़ैर-मामूली स्वीकृति है, जो पिछले दशकों के दौरान एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने राजनीतिक अभियान के एक बड़े हिस्से के रूप में इस हक़ीक़त को छुपाकर रखा है। यह यही दिखाता है कि सरकार का सैनिकों के पीछे हटने को लेकर किया जाने वाला फ़ैसला “एकला चलो’ वाला नहीं हो सकता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। राजनीतिक और राजनयिक क्षेत्र में बहाव के साथ चलने वाले घटनाक्रम बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं।

तत्कालीन रूसी विदेश नीति की अवधारणा (जिसमें दिलचस्प रूप से "रूस-भारत-चीन त्रिकोणीय प्रारूप" का भी अह्वान किया गया था, हालांकि दिल्ली ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया था।) से चीन-रूस सीमा समझौते का अध्ययन करने वाला कोई भी छात्र इस बात से सहमत होगा कि अक्टूबर 2003 का यह समझौता,जिसने अमूर और अरगुन नदियों के तीन द्वीपों पर नियंत्रण के विवादास्पद प्रश्न सहित पूरी तरह से दुसाध्य दिखने वाले विवादों को सुलझा लिया था, वह भी आपसी इच्छा के कारण ही संभव हो सका था। विश्व राजनीति के प्रमुख मुद्दों पर साझा बुनियादी मौलिक दृष्टिकोणों के आधार पर विकासशील रूस-चीन सामरिक रणनीतिक साझेदारी को "सभी क्षेत्रों में मज़बूत बनाया गया था।" इसका मक़सद विश्व राजनीति के प्रमुख मुद्दों पर साझा बुनियादी मौलिक दृष्टिकोण के आधार पर सभी क्षेत्रों में विकासशील रूस-सामरिक रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करना था।

कोई शक नहीं कि भारत और चीन के पास अपने रिश्तों को ‘अक्टूबर 2003 के उस पल’ तक पहुंचाने के लिए बहुत कुछ है। शायद इससे या तो अमेरिका को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा,या फिर भारत के बिना इसकी इंडो-पैसिफ़िक रणनीति एक ऊंचा दुकान,फ़ीका पकवान साबित होगी। न ही भारत की अमेरिका के साथ एक अर्ध-गठबंधन की ओर झुक रही विदेश-नीति मददगार होने जा रही है। वाशिंगटन की तरफ़ से हिमालय में सैनिकों की अपनी जगह से हटने के बीच कल बेवक़्त हुई क्वाड की बैठक का आह्वान सही मायने में भारतीय नीतियों में विरोधाभास को ही उजागर करता है।

कहने का मतलब यह है कि भारत में भी "अंतहीन युद्धों" को लेकर एक शक्तिशाली अमेरिकी लॉबी काम करती है। इस लॉबी को चीन से दिखाये जाने वाला डर निर्बाध रूप से खुराक़ देता है। इस लॉबी की ताक़त तभी बढ़ेगी, जब भारत रक्षा उद्योग और कॉर्पोरेट हितों को विकसित करता है और विदेशी और सुरक्षा नीतियों के क्षेत्र में अनिवार्य रूप से रक्षा प्रतिष्ठान के साथ उनकी पूरी सांठगांठ हो जाती है।

आइजनहॉवर नागरिक लोकतंत्र को बनाये रखने वाले सभी लोकतंत्रों के लिए सार्वभौमिक रूप से लागू लाल रेखा को चिह्नित करने वाले भविष्यद्रष्टा थे, लेकिन ऐसा करने के मुक़ाबले कहना आसान होता है। इस प्रकार, निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि 'स्थायी योद्धा' सबसे अच्छे तरीक़े से संगठित होते हैं और वित्तीय रूप से सबसे संपन्न होते हैं और निहायत ही प्रेरित होते हैं, जिनका वजूद तक़रीबन हमेशा बना रहता है।

सौजन्य:इंडियन पंचलाइन

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

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