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सत्ता से सच बोलने में नाकाम हैं भारत के टीवी पत्रकार

जिन भी पत्रकारों ने मोदी का इंटरव्यू किया उनके लिए मोदी के भाषण और ट्वीट ही सूचना के एकमात्र स्रोत थे।
Indian Media

जब पूरा भारत सीएए (नागरिकता संशोधन क़ानून) के ख़िलाफ़ रोज़मर्रा के विरोध और हिंसा की चपेट में है तब मोदी अपने 50.2 मिलियन फोलोवर्स को ट्वीट के ज़रिये ढांढस बँधा रहे थे, “मैं अपने साथी भारतीयों को स्पष्ट रूप से आश्वस्त करना चाहता हूं कि सीएए भारत में किसी भी धर्म के नागरिक को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। किसी भी भारतीय को इस अधिनियम के बारे में चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह अधिनियम केवल उन लोगों के लिए है जिन्होंने वर्षों से उत्पीड़न का सामना किया है और उनके पास भारत में आने के सिवाय कोई अन्य जगह नहीं है।”

इस ट्वीट के साथ एकमात्र समस्या यह थी, कि इसे उस वक़्त जारी किया गया जब भारत के बड़े हिस्से में इंटरनेट ब्लैकआउट किया हुआ था यानी इंटरनेट बंद था।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारत में इंटरनेट बंद करने की बढ़ती घटनाओं की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि भारत में सबसे अधिक इंटरनेट बंद होता है। 2018 में भारत में इंटरनेट सेवाओं को 134 बार बाधित किया गया था, और 2019 में अंतिम गणना के अनुसार यह 93 बार बंद हुआ। इंटेरेनेट बंद करने की दौड़ में भारत का निकटतम प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान है, जिसने पिछले साल के भीतर 12 बार नेट बंद किया था।

2014 में चुनाव जीतने से पहले मोदी ने इंटरनेट कनेक्टिविटी को एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बना दिया था। डिजिटल इंडिया अभियान के तहत किए गए वादों में एक यह था कि लाखों गांवों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी, ई -गवर्नेंस, और यूनिवर्सल मोबाइल सेवाएं उपलब्ध करवाई जाएंगी। यद्यपि सरकार अपनी इस पहल को मनाने में लगी हुई थी तभी हफ़पोस्ट इंडिया की एक रिपोर्ट ने मोदी सरकार का भांडा फोड़ दिया और बताया कि "सरकार ने अनधिकृत सेवाओं जैसे रेलवे बुकिंग, क्रेडिट कार्ड लेनदेन और आधार प्रमाणीकरण को ई-गवर्नेंस के रूप में प्रचारित करके डाटा में नकली वृद्धि की है।"

उदाहरण के लिए, सभी ऑनलाइन रेलवे बुकिंग और कैंसिलेशन को 2015 में पहली बार ई-गवर्नेंस लेनदेन के रूप में वर्गीकृत किया गया था, जबकि 2002 के बाद से टिकट सेवा ऑनलाइन उपलब्ध थी।

मोदी की डिजिटल इंडिया की वकालत करने के पीछे की वास्तविक प्रेरणा का पता लगाना तो मुश्किल है; लेकिन एक कारण यह हो सकता है कि वे इंटरनेट पर निर्भरता से सीधे अपने घटकों तक पहुँच सकते हैं। विद्वानों के बीच एक आम धारणा है कि चुनाव जीतने के लिए मोदी एक प्रभावी सोशल मीडिया अभियान की रणनीति में सबसे आगे हैं, खासकर उन्होंने मुख्यधारा के समाचार मीडिया को तब चौंका दिया जब प्रधानमंत्री होने के नाते अपने पहले कार्यकाल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की, भारत के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में यह किसी भी प्रधानमंत्री के लिए इस तरह का पहला कृत्य है।

अपनी व्यक्तिगत सोशल मीडिया साइटों में मोदी न तो किसी मुख्यधारा समाचार मीडिया की कहानियों से जुड़ते हैं और न ही वे भारत के आज़ाद मीडिया के लंबे इतिहास को स्वीकार करते हैं। मुख्यधारा के मीडिया के प्रति मोदी की घृणा तब से है जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री के हुआ करते थे, और किस्सा यह है की जब प्रसिद्ध पत्रकार करन थापर उनका साक्षात्कार ले रहे थे और 2002 के सांप्रदायिक दंगों में उनकी भूमिका के बारे में पूछे जाने वे साक्षात्कार छोड़ बीच में ही चले गए। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने संदेशों को ट्वीट और रेडियो कार्यक्रमों के माध्यम से प्रचारित किया और उन्होंने सभी नए मीडिया को दूर कर दिया।

हालांकि मोदी सोशल मीडिया की ताक़त को समझते हैं, लेकिन वे यह भी जानते हैं कि भारत काफ़ी हद तक अभी भी एक केबल टेलीविज़न वाला राष्ट्र है। स्ट्रीमिंग और समाचार ऐप्स की बढ़ती लोकप्रियता की वजह से भारत में केबल टीवी समाचार की खपत 2016 और 2018 के बीच 16 प्रतिशत बढ़ी है। मोदी की चुनाव में जीत ने टेलीविज़न रेटिंग को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। चुनाव परिणाम के दिन सबसे अधिक दर्शकों की संख्या तीन हिंदी समाचार चैनलों पर देखी गई: आजतक, एबीपी और इंडिया टीवी, जिन्हें देखने वाले संयुक्त दर्शकों की संख्या 297 मिलियन थी।

एक शोध में मैंने मोदी के 2019 के चुनाव अभियान के टेलीविजन कवरेज का अध्यन किया, मैंने पाया कि चुनाव परिणाम आने के महीने में-48 घंटे के प्राइम टाइम समाचार प्रसारण में टेलीविज़न पत्रकारों ने मोदी के 18 साक्षात्कार लिए, और व्यक्तिगत पत्रकारों के साथ उनके व्यक्तिगत साक्षात्कार के प्रसारण के मामले में इन हिंदी चैनलों पर मोदी का कवरेज पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण था। मोदी के भाषणों और ट्वीट्स का उपयोग विशेष रूप से सूचना के स्रोतों के रूप में किया गया, मोदी को साक्षात्कार के दौरान केवल नरम सवाल पूछे गए, और पत्रकारों ने व्यक्तिगत रूप से स्वीकार किया कि उन पर दबाव था कि वे सरकार समर्थक दिखें। यह स्पष्ट है कि भारतीय टेलीविजन पत्रकार सत्ता के मुँह पर सच नहीं बोल सकते हैं - या यहां तक कि सच्चाई का ज़िक्र भी नहीं कर सकते हैं।

इसमें से कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं लगना चाहिए।

भारतीय केबल समाचार मीडिया उद्योग, 1991 में हुए निजीकरण के बाद से, पश्चिमी और उन्नत लोकतंत्रों में हम जिस तरह के वॉचडॉग टेलीविजन समाचारों को देखते हैं, उससे हम आगे नहीं बढ़े हैं। इसके बजाय, पत्रकार प्रसून सोनवलकर के अनुसार, टेलीविजन समाचार "बाइलाइन से बॉटम लाइन" में परिवर्तित हो गया है, जहां लाभ कमाना उद्योग का एकमात्र उद्देश्य बन गया है, जिसके परिणामस्वरूप विज्ञापन पर निर्भरता बढ़ गई, विशेष रूप से सत्ताधारी सरकार से विज्ञापन के जरिए राजस्व कमाने के लिए।

यह जानते हुए भी कि मोदी सरकार केबल समाचार उद्योग को अपने नियंत्रण में रखने के लिए काम कर रही है। इसके लिए वह समाचार चैनलों पर छापा मारना, बहस और टेलीविज़न का बहिष्कार करना और सरकारी विज्ञापन को रोकना कुछ ऐसे हथकंडे हैं, जिनका वह काफ़ी इस्तेमाल कर रही है। इसलिए भारतीय मीडिया हाउस के मालिक लोग केवल मौन स्वीकृति,  असंतोष को दबाकर ही खुश हैं, क्योंकि उनमें से कई ने अन्य व्यवसायों में निवेश किया हुआ हैं जैसे कि अचल संपत्ति, परिवहन, प्राकृतिक गैस, और दूरसंचार - जिसके लिए वे सरकार पर निर्भर हैं।

अगर कहीं और इसका नज़ारा मिलता है, तो वह तुर्की है, जहां भारत से पहले इसी तरह से स्वतंत्र प्रेस का गला दबाया गया था। 

2002 में जब रेसेप एर्दोगन सत्ता में आए थे तो तुर्की में अपेक्षाकृत स्वतंत्र प्रेस थी, लेकिन इसमें तेज़ी से गिरावट आई। 2005 की शुरुआत में, सरकार ने उन समाचार पत्रों और टेलीविज़न मीडिया कंपनियों पर जुर्माना लगाना शुरू कर दिया था, जिन्होंने एर्दोगन को "एंटी नेशनल" या "एंटी तुर्की" कहकर उन्हें अच्छी रोशनी में प्रोजेक्ट नहीं किया था। जल्द ही एर्दोगन के दामाद सहित मीडिया ने एक ऐसा समूह बनाया जो समाचार माध्यमों के अधिकांश हिस्से के मालिक बन गए थे। 2015 तक, मीडिया को पूरी तरह गोद ले लिया गया था। अब चूंकि पूरा मीडिया ही गोदी मीडिया बन चुका था इसलिए समाचारों को रिपोर्ट करने पर कोई भी प्रतिबंध नहीं लगाया जाता और न ही सरकार को ऐसा करने की कोई आवश्यकता है। सब पर ख़ुद की सेंसरशिप लागू है; प्रतिष्ठित पत्रकारों पर या तो जुर्माना लगा दिया गए या उन्हें निकाल दिया गया। बिना स्पष्ट ख़तरों के भी, कई संपादकों ने कानूनी परिणामों के डर से एक अदृश्य रेखा को पार कर लिया क्योंकि व्यक्तिगत पत्रकारों के ख़िलाफ़ अदालती मामले बढ़ रहे थे।

एर्दोगन द्वारा हम और वे के बारे में बयानबाज़ी ने पत्रकारों को एर्दोगन के पक्ष में खड़े होने के साथ ‘देशभक्त’ होने के लिए मजबूर कर दिया। 2013 के बाद से 100 से अधिक मीडिया आउटलेट्स को जबरन "राष्ट्र विरोधी" और "आतंक समर्थक" होने का इल्ज़ाम लगाकर बंद कर दिया गया और वर्तमान में 150 से अधिक पत्रकार सलाखों के पीछे हैं।

तुर्की की तरह, भारत का भविष्य भी धुंधला दिखाता है, ख़ासकर अगर सरकार लगातार इंटरनेट को बंद रखती है। कुछ महत्वपूर्ण और स्वतंत्र समाचार मीडिया, विदेशी मीडिया की तरह ऑनलाइन हो गए हैं और उन्हें बंद करने का मतलब होगा कि एक स्वतंत्र प्रेस के अवशेष की अंतिम विदाई। इसके साथ ही, भारत के लोकतंत्र की भी।

लेखक संचार अध्ययन विभाग, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, प्लेट्सबर्ग में पढ़ाती हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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