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भारत में मज़दूरों को मौत के खेल में धकेल दिया गया

आमदनी ख़त्म हो गई है, नौकरियां चली गई हैं, भूखे लोग दान पर ज़िंदा हैं और मोदी सरकार औपचारिक क्षेत्र (सरकारी और कॉरपोरेट) को खुश करने के लिए श्रमिकों पर अधिक दमनकारी तरीक़े के माध्यम से इस लॉकडाउन का इस्तेमाल कर रही है।
भारत में मज़दूर

मौत और मज़दूर वर्ग के बीच देश भर में शतरंज का एक घातक खेल खेला जा रहा है, जो ठीक बहुत प्रसिद्ध इंगमार बर्गमैन की फिल्म ‘द सेवेंथ सील’ की तरह है। इस फ़िल्म की कहानी 14वीं शताब्दी के यूरोप की है जब ब्लैक डेथ (प्लेग महामारी) अपने चरम पर थी। लेकिन, भारत में आज मौत को कोरोनोवायरस द्वारा न केवल व्यक्त ही किया जाता है। यह भी शोर शराबा है कि नरेंद्र मोदी सरकार की रणनीति की शुरुआत हो गई है। बर्गमैन ने एक मास्टरपीस बनाई थी, जो तहस नहस हुए समय की रूपक कथा थी, लेकिन मोदी दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश के कामकाजी लोगों और सबसे ग़रीब देश को तबाह करके इतिहास रच रहे हैं।

COVID-19 की चपेट में आए भारत की इस दुखद कहानी के दो हिस्से हैं। एक तो यह कि किस तरह अदूरदर्शी नीतियों ने लाखों लोगों को बेरोज़गार कर दिया है। ये लोग दूसरे के दिए खाने और दान पर निर्भर हो गए हैं। ये अपने झुग्गी झोपड़ियों में फंसे हुए हैं। पुलिस और प्रशासन की बर्बरता के शिकार हुए हैं और उनके भविष्य में अंधेरा छा गया है। हॉस्पिटल और डिस्पेंसरी तक न पहुंच पाने के चलते प्रसव झोपड़ियों में कराया जा रहा है। टीबी के मरीज़ और दिल के मरीज़ भी इलाज के लिए इंतज़ार कर रहे हैं। बच्चे अप्रिय स्थिति में समय काट रहे हैं क्योंकि स्कूल और मिड-डे मील बंद है।

वे लोग जो ज़िंदगी गुज़ारने के लिए खेती का काम करते हों या कारखानों में या निर्माण क्षेत्र में काम करते हों वे अब बेकार और निराश बैठे हैं। और, ज़ाहिर है हज़ारों प्रवासी श्रमिक दूर दराज़ की झुग्गियों में फंसे हुए हैं जबकि कई लोगों ने वापस घर लौटते हुए अपनी जान गंवा दी है।

इन सबको टाला जा सकता था केवल अगर मोदी सरकार ने टीवी पर उपदेश देने के बजाए, आकस्मिक लॉकडाउन की योजना बनाते समय और इसे लागू करने के लिए पुलिस बलों की तैनाती के दौरान ग़रीबों के बारे में थोड़ा भी सोचा होता। लेकिन, उनकी सरकार के लिए श्रमिकों कोई मायने नहीं है।

सभी भारतीयों की भलाई के लिए वायरस ट्रांसमिशन की श्रृंखला को तोड़ने के लिए श्रमिकों के दर्द और दुख को सुविधा के अनुसार 'बलिदान’ के रूप में आसानी से कह दिया गया। इसे एक क्षणभंगुर चरण के रूप में पेश किया गया था जो कि जल्द ही गुज़र जाएगा।

श्रमिकों को मशीन बनाना

लेकिन यह कहानी का दूसरा हिस्सा है जो अधिक घातक और लंबे समय तक चलने वाला है। इस तरह से श्रमिकों को एक मात्र मोहरे में तब्दील किया जा रहा है। बिना किसी अधिकार के और बिना किसी आवश्यकता के उन्हें कमज़ोर करते हुए वे केवल उत्पादन और लाभ देने वाले साधन हैं।

इसके साथ ही, अपने लाभ को बरक़रार रखने के लिए कॉरपोरेट वर्गों को बड़ी रियायतें दी जा रही हैं। आइए हम ‘मोदी-इतिहास बना रहे हैं’ की कहानी के दूसरे हिस्से की ओर मुड़ते हैं। यह एक ऐसा हिस्सा जिसे अक्सर अनदेखा किया जाता है लेकिन अक्सर मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रशंसा की जाती है। और हां निश्चित रूप से मुख्यधारा की मीडिया विशेष रूप से टीवी चैनल द्वारा प्रशंसा की जाती है।

मोदी सरकार काफी समय से भारत में नियोक्ता और कर्मचारी के बीच तमाम संबंधों को बदलने पर ज़ोर दे रही थी। ये सरकार चार श्रम क़ानून लेकर आई थी जिसमें श्रमिकों से जुड़े 44 अलग-अलग क़ानूनों को शामिल किया गया था। श्रमिक क़ानूनों को कमज़ोर वर्ग - मज़दूर वर्ग -को बड़े और सशक्त नियोक्ताओं के वर्ग से बचाने के लिए पिछली सदी में पारित किया गया था। ये नए क़ानून संसद के माध्यम से अपनी दिशा बदल रहे हैं लेकिन ये ट्रेड यूनियनों के कड़े विरोध का सामना कर रहे हैं।

महामारी और जारी लॉकडाउन में मोदी और सचेत कॉरपोरेट वर्ग ने एक सुनहरा अवसर देखा। उनका मानना था कि क़ानून हो या नहीं श्रमिक लॉकडाउन में असमर्थ थे, वे इकट्ठा नहीं हो सकते थे और विरोध नहीं कर सकते थे, वे हड़ताल नहीं कर सकते - और सरकार के पासे किसी भी मामले में ऐसे किसी भी विरोध को रोकने के लिए पर्याप्त क़ानूनी कार्रवाई करने के साथ सक्षम थी।

वेतन और नौकरी का नुकसान

पहला संकेत यह है कि मोदी सरकार स्पष्ट रूप से लॉकडाउन (24 मार्च) की घोषणा के तुरंत बाद श्रमिकों के साथ नहीं बल्कि नियोक्ताओं के साथ खड़ी थी। श्रम सचिव और गृह सचिव दोनों के द्वारा जारी किए गए निर्देशों (या सलाह) के बावजूद कि किसी भी कर्मचारी को नौकरी से हटाया नहीं जाएगा या वेतन में कटौती नहीं की जाएगी और हालांकि प्रधानमंत्री ने खुद भी इसे दोहराया था फिर भी हज़ारों कर्मचारियों को देश भर में नियोक्ताओं द्वारा निकाल दिया गया। उन्हें कहा गया कि कारखाने अब बंद हो गए हैं और वे ख़ुद अपने लिए मजबूर हैं। सरकार ने अपने आदेशों को सख्ती से लागू करने के लिए एक उंगली तक नहीं उठाई, सिवाय इसके कि जहां यूनियनों ने दबाव बनाया। जाहिर है, इसके आदेश केवल काग़ज़ के टुकड़े थे, मतलब यह कि केवल प्रचार के लिए थे।

फिर, अप्रैल की शुरुआत में जब मार्च की कमाई गई मज़दूरी बकाया हो गई तो नियोक्ताओं ने लगभग आखिरी में 24 मार्च से शुरू होने वाले लॉकडाउन अवधि के लिए मज़दूरी में कटौती की। यह फिर से आदेशों का सीधा उल्लंघन था। और फिर से सरकार ने कुछ नहीं किया।

स्थिति कुछ दिनों में एक विस्फोटक के रूप में हो जाएगी क्योंकि अप्रैल का वेतन बाक़ी है और लॉकडाउन के बावजूद, नियोक्ताओं को भुगतान करना चाहिए। ऐसा कुछ जो वे निश्चित रूप से बचने की कोशिश करेंगे।

श्रम क़ानून की प्रक्रिया में तेज़ी

भारत के एक सबसे बड़े ट्रेड यूनियन सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स के महासचिव तपन सेन कहते हैं कि बहुत संभावना है कि लंबित दो श्रम क़ानून- इंडस्ट्रियल रिलेशन और ऑक्यपेशनल हेल्थ, सेफ्टी एंड वर्किंग कंडिशन- को अध्यादेशों के रूप में लागू कर दिया जाएगा। सरकार उत्तरोत्तर इस शॉर्ट-कट मार्ग को अपनाती रही है और इस महामारी ने इसे लागू करने का अवसर प्रदान कर दिया है।

यह नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों में कई महत्वपूर्ण बदलावों का रास्ता खोलेगा जिसमें कॉरपोरेट क्षेत्र की एक प्रमुख मांग प्रत्येक कार्य दिवस में समय को बढ़ाना भी शामिल है।

काम के बोझ में इज़ाफ़ा

इसलिए, अब यह प्रस्तावित किया गया है- जैसा कि अभी तक आधिकारिक तौर पर नहीं है - कि कार्य दिवस को वैश्विक मानक के अधिकतम 8 घंटे के बजाय 12 घंटे तक बढ़ाया जा सकता है। अतिरिक्त घंटों के लिए मज़दूरी दोगुनी दर के हिसाब से नहीं होगी, जैसा कि पहले के क़ानूनों द्वारा निर्धारित किया गया था। इनका भुगतान काम के समय के आधार पर (pro rata basis) किया जाएगा। नियोक्ताओं के लाभ को नुकसान न हो, इसलिए, श्रमिक मज़दूरी खो देंगे और काम करके खुद को अचेत भी बना लेंगे।

सेन ने कहा कि गुजरात और मध्य प्रदेश की राज्य सरकारों ने पहले ही कार्य दिवस को बढ़ाकर 12 घंटे करने की अधिसूचना जारी कर दी है और अन्य लोग जल्द ही इस पर अमल कर सकते हैं।

ध्यान दें कि इसका मतलब श्रमबल में भारी कमी है। कम श्रमिक, समान कार्य: बुर्जुआ के लिए स्वर्ग जैसा है। यह, ऐसे समय में, जब सेंटर ऑफ मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा बेरोज़गारी का आंकड़ा 23.7% बताया गया है। अधिक श्रमिकों को रोज़गार देने के बजाय, बड़े कॉरपोरेट घराने ज़्यादा से ज़्यादा निकालने की कोशिश में लगे हैं।

श्रमबल को छिन्न भिन्न करना- घर से काम करना

केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में लॉकडाउन के परिणामों में से एक घर से काम करना है। स्वाभाविक रूप से सभी काम घर से नहीं किए जा सकते हैं लेकिन सेवा क्षेत्र के कई काम हो सकते हैं। यह नियोक्ता को अत्यधिक ऊपरी ख़र्च (कार्यालय के रखरखाव आदि) से बचाता है और, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कर्मचारियों की सामूहिक चर्चा की शक्ति बिगड़ जाती है। यहां तक कि उन्हें व्यक्तिगत ठेकेदारों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, उन्हें विचार करके एक विशेष कार्य करने के लिए कहा जा सकता है।

नियोक्ता सामाजिक सुरक्षा, नौकरी की सुरक्षा और आमतौर पर नियमित कर्मचारियों को दिए गए किसी भी अन्य लाभ की किसी भी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। पहले से ही भारत में बंद के कारण मीडिया घरानों, आईटी / आईटीईएस क्षेत्र, वित्तीय सेवाओं आदि के बड़ी संख्या में कर्मचारी घर से काम कर रहे हैं। इसने सिस्टम को स्थायी रूप से स्थापित करने के लिए ज़मीन तैयार की है।

असुरक्षित श्रमिकों पर काम का दबाव

इस महामारी से निपटने के लिए सरकार की रणनीति भी इसी दृष्टिकोण की पुनरावृत्ति है। श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित किए बिना, स्वास्थ्य सुविधाओं पर किसी भी उचित मांग को पूरा करने की तैयारी के बिना सरकार ने कहा है कि प्रशासन द्वारा COVID-19 का असर भांपने के बाद उद्योग कुछ क्षेत्रों में खुलना शुरू हो सकते हैं।

यह श्रमिकों के लिए बहुत मुश्किल संयोग है क्योंकि वे फिर से काम करना शुरू करना चाहते हैं लेकिन जहां तक वायरस का मामला है वे असुरक्षित रहेंगे और बिना किसी तैयारी के ही काम करेंगे। सरकार इस खेल में मज़दूरों को मोहरे के रूप में आगे बढ़ा रही है मतलब कि कुर्बानी देने के लिए तैयार रहें। जिन औद्योगिक क्षेत्र में उद्योगों को फिर से खोलने की अनुमति दी गई है वहां सुरक्षात्मक उपाय प्रदान करना, स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करना और टेस्टिंग सुविधा अनिवार्य रूप से देने चाहिए। लेकिन मज़दूरों की मौत हो जाए तो कौन परवाह करता है?

लॉकडाउन से मुक्त उद्योगों के लिए भी यही बात लागू होती है। हालांकि सेवा प्रदाताओं (और सही ही) की काफी प्रशंसा की जाती है, फिर भी उद्योगों में काम करने वाले श्रमिक भी काम पर जाते समय अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। फिर भी, वे हीरो नहीं हैं।

दबाव

इस कठिन समय के बावजूद एक उभरता असंतोष है जो पूरे देश में ताकत जुटा रहा है। यह पहली बार सीटू द्वारा आह्वान किए गए विरोध प्रदर्शन दिवस पर दिखाई दिया और 21 अप्रैल को कई किसानों, महिलाओं और छात्रों और युवा संगठनों द्वारा समर्थन किया गया। रिपोर्टों से पता चलता है कि ये असंतोष मुख्य रूप से काम करने वाले क्षेत्रों में हर जगह देखा गया और कुछ अन्य स्थानों पर भी देखा गया।

लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, जैसे-जैसे भोजन रसोई से ख़त्म होता जा रहा है ऐसे में क़र्ज़ बढ़ता जा रहा है, क्योंकि रोज़ कमाने वाले लोग हाशिए पर धकेल दिए गए हैं तो इस तरह गुस्सा निश्चित रूप बढ़ जाएगा। दुर्भाग्यवश, देश की अधिकांश विपक्षी ताक़तें इस कठिन घड़ी में लोगों को कैसे बचाया जाए इसे लेकर निरुत्साहित और अनभिज्ञ लग रही हैं।

केवल वामपंथी ताकतें हैं जिन्होंने पीड़ित लोगों को राहत देने और प्रतिरोध की आवाज उठाने में पहल की है। प्रशासनिक प्रतिक्रिया के मामले में भी वामपंथी सबसे आगे रहे हैं, केरल में इनकी सरकार ने महामारी से निपटने के लिए लोगों पर ध्यान दिया जिसकी सराहना दुनिया भर में की जा रही है। इसलिए, वामपंथी फिर से वायरस और मोदी सरकार की विनाशकारी नीतियों से लोगों की रक्षा के लिए इस लड़ाई का नेतृत्व करेंगे। इसका अंत बर्गमैन फिल्म की तरह नहीं होगा, जहां मौत अंततः जीत जाती है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

In India, Workers Being Sucked Into a Game of Death

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