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भारत के मुक्त व्यापार समझौतों को केवल कुछ कॉर्पोरेट हितों द्वारा नहीं, व्यापक सामाजिक हितों द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए

भारत में व्यापार वार्ताओं में कोई पारदर्शिता नहीं है और सौदों की शर्तों पर हितधारकों के साथ कोई परामर्श भी नहीं है। बड़े कॉर्पोरेट हितों द्वारा प्रभावित वाणिज्य मंत्रालय के मुट्ठी भर नौकरशाह व्यापार सौदों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
भारत के मुक्त व्यापार समझौतों को केवल कुछ कॉर्पोरेट हितों द्वारा नहीं, व्यापक सामाजिक हितों द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए
Tribune India

वर्ष 2022 में भारत ने संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया के साथ दो प्रमुख मुक्त व्यापार समझौते (FTA) किए। भारत-यूरोपीय संघ FTA वार्ता लंबी खिंच रही है, और हालांकि दिवाली तक समझौते का वादा किया गया था, अब दोनों सरकारें मार्च 2023 तक समझौता पूरा होने की उम्मीद कर रही हैं। यूरोपीय संघ के साथ FTA के अलावा, यूके, कनाडा और खाड़ी सहयोग परिषद के साथ FTA वार्ता ( यानी, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर और सऊदी अरब के अलावा संयुक्त अरब अमीरात) के 2023 में एक बेहतर स्थिति में पहुंचने की उम्मीद है और उनमें से कुछ अंतिम निष्कर्ष तक भी पहुंच सकते हैं। अधिमान्य व्यापार समझौते (Preferential Trade Agreements) भूटान, नेपाल, श्रीलंका, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मलेशिया और मॉरीशस के साथ पहले से ही मौजूद हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा प्रतीत होता है कि भारत ने FTAs की होड़ शुरू कर दी है।

यूरोपीय संघ या ब्रिटेन के साथ, या यहां तक कि ऑस्ट्रेलिया या कनाडा के साथ FTA भारत द्वारा अब तक गौण छोटे खिलाड़ियों के साथ किए गए कई व्यापार सौदों की तुलना में गुणात्मक रूप से एक अलग और उच्च स्तर के हैं। क्या भारतीय पूंजीवाद वास्तव में परिपक्व हो गया है और यूरोपीय संघ जैसी अधिक उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ FTA में प्रवेश करने हेतु पर्याप्त आश्वस्त (confident) हो गया है? अगर ऐसा है, तो क्यों अमेरिका के साथ किसी व्यापार समझौते का ज़िक्र तक नहीं किया जा रहा और क्यों भारत चीन के साथ व्यापार समझौते से डर रहा है, या उसकी बहुपक्षीय व्यवस्था RCEP का हिस्सा बनने से कतरा रहा है?

बेशक, अमेरिका और चीन के लिए भारतीय बाज़ारों को खोल देना विनाशकारी होगा। इसलिए ऐसी सावधानी उचित है। ऐसी पृष्ठभूमि में, क्या भारत यूरोपीय संघ के साथ अपने आसन्न FTA के जरिये दुस्साहस कर रहा है? क्या भारतीय व्यवसाय प्रतिस्पर्धा के कारण अधिक नुक़सान उठाएंगे या फिर अधिक बाज़ार पहुंच (market access) प्राप्त करेंगे? क्या भारत सरकार ने पर्याप्त सावधानी बरती है?

मुक्त व्यापार सौदों के संभावित सामाजिक प्रभाव

कोई भी FTA अर्थव्यवस्था के साथ-साथ समाज के विभिन्न क्षेत्रों पर अलग-अलग आर्थिक और सामाजिक प्रभाव डालेगा। जबकि सस्ती श्रम लागत MSMEs की निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता को उच्च बना सकती है, उनका निम्न तकनीकी स्तर और कम उत्पादकता उन्हें सस्ते आयातों से प्रतिस्पर्धा के प्रति असुरक्षित बनाती है। ऐसा विशेष रूप उन आयात वस्तुओं के निर्माताओं से, जो विकसित देशों में बड़े कॉर्पोरेट घराने हैं और जो स्केल फैक्टर, (यानी, बड़े पैमाने पर उत्पादन, जो उत्पादों को थोड़ा सस्ता बना सकता है) तथा उच्च तकनीक के चलते उच्च उत्पादकता का आनंद ले रहे हैं।

सामाजिक स्तर पर, भारत में किसान गंभीर रूप से प्रभावित होंगे यदि उन्हें उन देशों से सस्ते आयात का मुक़ाबला करना पड़ता है जहां व्यक्तिगत रूप से किसानों को प्रति वर्ष $10,000 या उससे अधिक की सब्सिडी दी जाती है। हम पहले ही देख चुके हैं कि विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि पर समझौते के तहत भारतीय किसान सस्ते आयात से कैसे प्रभावित हुए हैं। अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में उच्च निर्यात क़ीमत के कारण निर्यात भी भारतीय उपभोक्ता को प्रभावित करते हैं। इसी तरह, डेरी उत्पादों में मुक्त व्यापार भारत के लाखों छोटे डेरी किसानों को प्रभावित करेगा, यदि वे पश्चिम में सबसे आधुनिक और यंत्रीकृत बड़ी डेरी कंपनियों के डेरी उत्पादों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिनके पास 10,000 मवेशी या अधिक हैं। इसी तरह, भारत में पारंपरिक मछुआरे मशीनीकृत ट्रॉलरों के सहारे गहरे समुद्र में मछली पकड़ने वाली पश्चिम की बड़ी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं, ख़ासकर जब उन्हें भारतीय तटीय जल में आने और मछली पकड़ने की अनुमति मिली हो।

इन सबसे ऊपर, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत की मुख्य संपत्ति सस्ता श्रम है। यही प्रमुख कारण है कि बैंगलोर या तिरुपुर जैसे शहरों में परिधान (garments) जैसे श्रम-गहन निर्यात उद्योग फलते-फूलते हैं, जो लाखों श्रमिकों को रोज़गार प्रदान करते हैं। लेकिन, चक्रीय (cyclical) परिस्थितियों में, जैसे मंदी और उच्च मुद्रास्फीति के दौरान पश्चिम में कम उपभोक्ता मांग, भारत में कई कपड़ा इकाइयां निर्यात आदेशों के अभाव में बंद होने के लिए मजबूर हैं और लाखों श्रमिकों को बेरोज़गारी में झोंक रही हैं। क्या ईयू (EU) के साथ FTA मदद कर सकेगा? संभवतः बहुत अधिक नहीं, क्योंकि भारतीय परिधान इकाइयां कम मज़दूरी पर निम्न-कुशल श्रम का शोषण करने वाली स्वेटशॉप हैं; फिर भारतीय परिधान चीन से उच्च गुणवत्ता वाले रेडीमेड कपड़ों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हैं। और भारत की तुलना में बांग्लादेश और वियतनाम में श्रम लागत सस्ती है।

इसलिए, किसी भी FTA की शर्तों को न केवल भारत में निर्यातकों और बड़े कॉर्पोरेट निर्माताओं जैसे कुछ व्यापारियों के लिए बल्कि मुख्य तौर पर संभावित सामाजिक प्रभाव के मद्देनज़र नियंत्रित किया जाना चाहिए।

ग़लती से यह नहीं समझना चाहिये कि मुक्त व्यापार समझौते (FTAs) बिना किसी टैरिफ के पूरी तरह से मुक्त व्यापार को दर्शाते हैं। दुनिया की कोई भी अर्थव्यवस्था इस तरह का मुक्त व्यापार नहीं करती। भारत-आसियान FTA में, लगभग 4500 उत्पादों में टैरिफ को समाप्त करने के लिए परस्पर सहमति हुई और वह भी एक सहमत समय-सारणी के आधार पर; एक बार में नहीं। भारत ने 489 वस्तुओं को टैरिफ रियायत से पूरी तरह से बाहर कर दिया और 590 अतिरिक्त वस्तुओं पर आंशिक टैरिफ रियायत के लिए सहमति व्यक्त की। इसलिए मुक्त व्यापार सौदे सामाजिक रूप से अंशांकित सौदे भी हो सकते हैं। क्या यूरोपीय संघ के साथ आसन्न व्यापार सौदे के मामले में ऐसी सावधानी बरती गई?

व्यापार वार्ताओं में पारदर्शिता और लोकतंत्र का घोर अभाव

लेकिन भारत में व्यापार वार्ताओं में कोई पारदर्शिता नहीं है और सौदों की शर्तों पर हितधारकों के साथ कोई परामर्श भी नहीं है। बड़े कॉर्पोरेट हितों द्वारा प्रभावित वाणिज्य मंत्रालय के मुट्ठी भर नौकरशाह व्यापार सौदों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, भारत-यूरोपीय संघ FTA वार्ता एक बेहतर चरण में है। लेकिन क्या किसी किसान संगठन को इन वार्ताओं और भारतीय वार्ताकारों की शर्तों के बारे में कुछ भी पता है? यह उस हास्यास्पद रिकॉर्ड की पुनरावृत्ति है जिसमें श्रीलंका या आसियान के साथ द्विपक्षीय FTA के दौरान केरल, असम, पश्चिम बंगाल या कर्नाटक से परामर्श नहीं किया गया था।

बिग बिजनेस भारत-यूरोपीय संघ FTA वार्ता को संचालित करता है

कॉर्पोरेट यूरोप ऑब्जर्वेटरी (Corporate Europe Observatory) बेल्जियम में एक पूंजीवाद-विरोधी निगरानी एनजीओ (NGO) है। एक भारतीय एनजीओ 'इंडिया एफडीआई वॉच' (India FDI Watch) के साथ, उन्होंने 'ट्रेड इन्वैडर्स- भारत-यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार वार्ता को कितना बड़ा व्यवसाय चला रहा है' (‘Trade Invaders-How Big Business is driving India-EU free trade negotiations’) शीर्षक से एक 44-पृष्ठ का दस्तावेज़ प्रकाशित किया है। इस अध्ययन ने बताया है कि कैसे कॉरपोरेट लॉबियों ने FTA वार्ता के एजेंडे को एक कॉर्पोरेट एजेंडा बना दिया है। व्यापार वार्ता में श्रम और पर्यावरण मानकों और मानव अधिकारों की पूर्व शर्त ग़ायब हैं। यूरोपीय संघ भारत से सेवा निर्यात (service exports) पर बड़ी रियायतें लेने की कोशिश कर रहा है। 100 शीर्ष वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से लगभग आधे यूरोप में स्थित हैं और अध्ययन से पता चलता है कि वे कैसे विशाल भारतीय बाज़ार को हथियाने के इच्छुक हैं।

उदाहरण के लिए, अध्ययन से पता चलता है कि कैसे यूरोपीय बीज और फार्मा कंपनियां अपने हितों को आगे बढ़ा रही हैं। मई 2007 की शुरुआत में, यूरोपियन बिजनेस चैंबर बिजनेसयूरोप के तीन पैरवी करने वाले- कार्लोस गोंजालेज -फिनैट, (बिजनेसयूरोप के उस समय के सलाहकार), गिसेला पेयरस, ( यूरोपीय फार्मास्युटिकल लॉबी ईएफपीआईए से) और रॉबर्ट कोर्ट, ( फार्मा दिग्गज ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन के तत्कालीन उपाध्यक्ष और बिजनेसयूरोप भारतीय आयोग के अध्यक्ष) ने भारत के साथ समझौता वार्ता की रणनीति पर चर्चा करने के लिए यूरोपीय संघ के व्यापार महानिदेशक से मुलाक़ात की। अध्ययन यूरोपीय संघ के कृषि आयुक्त मैरियन फिशर की ओर भी इशारा करता है, जो बातचीत को प्रभावित करने के लिए यूरोपीय संघ की 28 खाद्य और पेय कंपनियों के एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर भारत आए थे। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत-यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार समझौता निश्चित ही एक कॉर्पोरेट छाप के साथ संपन्न होगा।

एक अन्य पूंजीवाद-विरोधी एनजीओ ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूट (Transnational Institute) भी एक अध्ययन लेकर आया है, जिसमें बताया गया है कि भारत-यूरोपीय संघ FTA नौ प्रमुख क्षेत्रों में भारत को कैसे नुक़सान पहुंचाएगा। ये दो अध्ययन सार्वजनिक डोमेन पर उपलब्ध हैं और भारत में कार्यकर्ताओं को स्थानीय भाषाओं में किसान संगठनों और ट्रेड यूनियनों के बीच इनपर अपने निष्कर्षों को प्रचारित करने की आवश्यकता है।

चाय और कॉफी में एफटीए त्रासदी

भारतीय अधिकारी श्रीलंका और आसियान के साथ FTA के नुक़सान से कभी सीखने को तैयार नहीं हैं। चाय और कॉफी पर भारत का आयात शुल्क मूल रूप से 100% था। सार्क देशों के लिए, भारत ने मोस्ट फेवर्ड नेशंस (MFN) का दर्जा बढ़ाया और टैरिफ स्तर को घटाकर 15% कर दिया। MFN स्थिति के अलावा, भारत ने श्रीलंका के साथ एक द्विपक्षीय FTA में प्रवेश किया, जिसके तहत श्रीलंका से चाय के आयात पर केवल 7.5% का शुल्क लगाया गया। इसका केरल ही नहीं, बल्कि असम और पश्चिम बंगाल के छोटे चाय उत्पादकों पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

इसी तरह, आसियान के साथ FTA के तहत, चाय के लिए 45% टैरिफ के लिए परस्पर सहमति हुई थी। लेकिन FTA पर हस्ताक्षर करने के समय, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इंडोनेशियाई चाय की क़ीमत 45.8% सस्ती थी और वियतनाम की चाय 41.6% सस्ती थी। यहां तक कि 45% टैरिफ भी भारतीय उत्पादकों की रक्षा नहीं कर सका क्योंकि इन देशों में क़ीमत की तुलना में भारत में चाय की क़ीमत तेज़ी से बढ़ी। इसलिए छोटे चाय उत्पादकों और यहां तक कि बड़े बागान उद्योग को भी कुछ हद तक नुक़सान उठाना पड़ा। कई परिणामों में से एक था बड़े बागानों में श्रमिकों का वेतन फ्रीज करना और यहां तक कि मजदूरी का घटना। केरल में इस मुद्दे पर सड़कों पर विरोध प्रदर्शन हुए।

इसी तरह, वियतनाम से कॉफी निर्यात पहले से ही भारतीय क़ीमतों की तुलना में 20% सस्ता है और थाईलैंड की कॉफी 25% सस्ती है, भारत में टैरिफ कुशन 100% से 45% तक कम हो गया था। भारतीय क़ीमतों में और ज़रा भी वृद्धि भारतीय छोटे कॉफी उत्पादकों को सस्ते आयातों से प्रतिस्पर्द्धा का एहसास ज़रूर कराएगी।

यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया के साथ एफटीए पर चिंता

बहुत ही संकीर्ण घरेलू विनिर्माण आधार वाले संयुक्त अरब अमीरात के साथ FTA कोई बड़ी बात नहीं है। यदि कुछ हो भी, तो केवल वहां के भारतीय श्रमिक वर्ग को ही स्वदेशी उत्पादों के सस्ते आयात से लाभ होगा।

लेकिन विशेषज्ञों ने आशंका व्यक्त की है कि यूरोपीय संघ के साथ FTA भारतीय किसानों को बुरी तरह प्रभावित करेगा। 2010 में एक डच फॉर्म का औसत आकार 26 हेक्टेयर था और उस वर्ष 93% भारतीय खेतों के पास 1 हेक्टेयर से कम का स्वामित्व था। डच किसानों को 1% पर ऋण मिल सकता है जबकि भारतीय किसानों को 7% का भुगतान करना पड़ता था। क्या छोटा भारतीय किसान हॉलैंड में 4000 हेक्टेयर वाले बड़े पूंजीवादी खेतों का मुक़ाबला कर सकता है? इसी तरह, ऑस्ट्रेलिया के साथ FTA में- पहले ही ऑस्ट्रेलिया से डेरी उत्पादों के सस्ते आयात के कारण भारत के डेरी किसानों ने इसका विरोध किया था।

व्यापार से संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार (TRIPS) India-FTA में एक प्रमुख विवादास्पद मुद्दा है और भारतीय फॉर्मा हलकों में इस बात को लेकर चिंता है कि क्या भारत पेटेंट अधिकारों पर यूरोपीय संघ के दबाव के आगे घुटने टेक देगा? लोक स्वास्थ्य कार्यकर्ता पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि यदि भारत ट्रिप्स (TRIPS) के आगे घुटने टेक देता है तो भारत से सस्ती जेनेरिक दवाओं का उत्पादन और निर्यात ख़त्म हो जाएगा। इसी तरह, दूसरे देश में काम करने के लिए भारतीय कर्मियों की मुक्त आवाजाही मुख्य बाधा के रूप में उभरी है और इस मुद्दे पर गतिरोध व्यापार समझौते के संपन्न होने में देरी करवा रहा है। यूरोपीय संघ के वार्ताकार अड़े हुए हैं। हाल ही में आशंका व्यक्त की गई है कि भारत और यूके के कुछ प्रमुख कॉर्पोरेट घरानों के दबाव में, भारत यूके के साथ भी एकतरफा मुक्त व्यापार समझौते के आगे घुटने टेक सकता है।

कोई ख़ास आर्थिक फ़ायदा भी नहीं

भारत ने जो FTA किये हैं उनसे अपने निर्यात में कोई भारी वृद्धि नहीं की है। बल्कि, व्यापार संतुलन केवल रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। उदाहरण के लिए, आसियान को भारत का निर्यात 2010 में 22.96 अरब डॉलर से बढ़कर 2019 में 34.25 अरब डॉलर हो गया, लेकिन इसी अवधि में आसियान से आयात 29.64 अरब डॉलर से बढ़कर 57.04 अरब डॉलर हो गया और व्यापार घाटा 7 अरब डॉलर से बढ़कर लगभग 23 अरब डॉलर हो गया। अन्य FTA भागीदारों के साथ व्यापार या तो हाल-फिलहाल के हैं या बहुत कम है कि उनपर विस्तृत चर्चा की जाए। हालांकि निर्यात और आयात में लगे कुछ बड़े कॉरपोरेट घरानों को, ख़ासकर गुजरात में, इसका फ़ायदा ज़रूर हुआ है।

दो प्रख्यात अर्थशास्त्री, प्रणब बर्धन, एक वामपंथी और रघुराम राजन धुर उदारवादी, ने पिछले सप्ताह भारत की समग्र विकास रणनीति पर टिप्पणी की थी। प्रणब बर्धन ने कहा था कि लंबे समय तक निर्यात आधारित विकास रणनीति भारत के अनुकूल नहीं होगी और भारत को अपने घरेलू बाज़ार को मज़बूत करने पर ध्यान देना चाहिए। और रघुराम राजन ने वस्तुओं और कच्चे माल के निर्यात पर निर्भरता के ख़िलाफ़ सलाह दी है और सेवा निर्यात पर अधिक ध्यान देने का सुझाव दिया है, जहां भारत अपेक्षाकृत कमज़ोर है। भारतीय नीति निर्माताओं को इस बेहतर सलाह को ध्यान से सुनना चाहिये।

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