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भारत को अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिकी नीति नहीं अपनानी चाहिए

भारत की 'नासमझी' की दुविधा दुखद है – भारत ख़ुद इस इस क्षेत्र का हिस्सा है और इसलिए उसे अमेरिका की ख़ातिर तालिबान का विरोध नहीं करना चाहिए।
भारत को अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिकी नीति नहीं अपनानी चाहिए
पेंटागन ने दावा किया है कि 28 अगस्त को काबुल में एक रीपर ड्रोन द्वारा "न्याय परायण हमले" ने एक आईएसआईएस आतंकवादी को मार डाला, जबकि वह सहायता प्रदान करने वाला एक कार्यकर्ता निकला। रिहायशी ब्लॉक में हुए हमले में 7 बच्चों समेत 10 की मौत हुई है।

इंग्लैंड में, वे एक ऐसी पार्क की योजना बनाते और उसे तब तक पूरा नहीं करते थे जब तक कि वे कुछ समय के लिए पैदल चलने वालों के पैरों की छाप का निरीक्षण नहीं कर लेते, यह तय करने के लिए कि अधिकतम उपयोगिता के लिए रास्ते कहाँ बिछाए जाएँ।

जो बाइडेन प्रशासन और नरेंद्र मोदी सरकार को स्पष्ट रूप से लगता है कि जब आफगानिस्तान की बात आती है तो उनके पास वह विलासिता नहीं है। वाशिंगटन में गृह  सचिव एंटनी ब्लिंकन के साथ सोमवार को कांग्रेस में की गई सुनवाई से यह परेशान करने वाला संकेत मिला है।

लेकिन, शुरुआत में, अमेरिका का फ़ायदा उठाने में पाकिस्तान के कथित दोहरेपन की भूमिका पर अपनी प्रतिक्रिया देने के मामले में ब्लिंकन मौन रहे। निश्चय ही वे तीन बातें तो जानते होंगे। 

पहली, अमेरिकी-रिश्ते में इस तरह की कलह कोई नई बात नहीं है। दूसरी, चूंकि वर्तमान में अफ़निस्तान में तालिबान का सत्ता पर कब्जा करने का मामला बड़ी ही बाधाओं से भरा है, इसलिए उसे भविष्य में पाकिस्तान के सहयोग की सख्त जरूरत है।

तीसरी बात, ब्लिंकन अच्छी तरह से जानते हैं कि इस विषय पर उनके अंतिम शब्द नहीं हो सकते हैं। वास्तव में, जैसा कि ब्लिंकन ने कहा, रक्षा खुफिया एजेंसी का नेतृत्व करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल स्कॉट बेरियर ने खुफिया और राष्ट्रीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन में बोलते हुए अनुमान लगाया था कि अल-कायदा अफ़ग़ानिस्तान में खुद को फिर से संगठित करने में केवल 12 से 24 महीने का वक़्त ले सकता है जोकि संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है। इस तरह के पूर्वानुमान की कितनी जरूरत है यह भी अपने में एक अनुमान का विषय है। मेरे ख्याल से, अफ़ग़ानिस्तान में अल-कायदा का फिर से शुरू होना बेहद असंभव है।

लेकिन अमेरिकी खुफिया और पेंटागन पाकिस्तान से परामर्श करने की तात्कालिकता को समझेंगे। यही कारण है कि सीआईए निदेशक ने हाल ही में पाकिस्तान के सीओएएस जनरल कमर जावेद बाजवा से दो बार मुलाक़ात की है।

यहीं पर भारत के बारे में ब्लिंकेन की टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। एक शक्तिशाली रिपब्लिकन कांग्रेसी मार्क ग्रीन ने उनसे सीधे तौर पर पूछा था कि क्या अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने की क्षमताओं के बारे में उत्तर-पश्चिम भारत में न नज़र आने वाली क्षमताओं की संभावना तलाशने की कोशिश की है:

उन्होने आगे पूछा कि “तालिबान के लिए आईएसआई के समर्थन की अफवाहों को ध्यान में रखते हुए, क्या आप लोग नज़र आने वाले बलों के इंतजाम के लिए भारत से संपर्क किया है? मैं उत्तर पश्चिम भारत के बारे में उसकी क्षमता के बारे में बात कर रहा हूं क्योंकि हम सभी जानते हैं कि क़तर और दोहा, अन्य स्थान, बस थोड़ी ही दूर हैं। कुवैत आदि और सब। उत्तर पश्चिम भारत के बारे में क्या जानकारी है? और क्या आपने उनसे संपर्क किया है - क्या आपने इसके बारे में सोचा है?"

रिपब्लिकन सांसद स्कॉट पेरी ने भी चुटकी ली: "मैं कहूंगा कि हमें अब पाकिस्तान को भुगतान न करके हमें भारत को भुगतान करना चाहिए।"

लेकिन ब्लिंकन ने स्पष्ट रूप से टालमटोल किया और कहा: "प्रिय कॉंग्रेसमेन, आमतौर पर हम  भारत के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं और उन्हे साथ लेकर चल रहे हैं। हालांकि, क्षमताओं में वृद्धि और हमारे द्वारा तैयार की गई योजनाओं के बारे में किसी भी विवरण को, में किसी  अलग मंच पर बताऊंगा।

दूसरे शब्दों में कहें तो, ब्लिंकन ने संकेत दिया कि यह विषय सार्वजनिक रूप से चर्चा करने के मामले में काफी संवेदनशील है, और वह इस पर एक बंद कमरे में बात करना पसंद करेंगे। विशेष रूप से, ब्लिंकन ने अमरीकी सांसदों के सुझाव को अस्वीकार नहीं किया, लेकिन एक बंद दरवाजे की चर्चा को प्राथमिकता दी, जो एक मौन स्वीकृति है कि यह एक खुली फाइल है।

भारत के खिलाफ पाकिस्तान के साथ खेलना यूएस के टूलबॉक्स का हिस्सा है। 2001 में भी, तालिबान शासन को उखाड़ फेंकने में अमेरिका के साथ साझेदारी करने के भारत के उत्साह ने परवेज़ मुशर्रफ को परेशान किया था। किसी भी मामले में, आश्चर्यचकित न हों। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के कब्जे के होने की पक्की संभावना के मद्देनज़र मैंने अप्रैल के अंत में ऐसा होने की भविष्यवाणी की थी।

ऐतिहासिक दृष्टि से, समय का पहिया पूरी तरह से घूम चुका है। हम 2003 पर नज़र दौड़ाएँ तो तब जॉर्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन ने इराक़ पर अमेरिकी आक्रमण में भारतीय सेना के एक दल की भागीदारी के विषय पर सावधानीपूर्वक चर्चा की थी। नई दिल्ली में उदार अंतर्राष्ट्रीयवादी लॉबी ने इस संभावना से रोमांचित महसूस किया कि इराक़ में भारतीय मिशन जोकि इस ग्रह पर एकमात्र देश है वह महाशक्ति की सहायता करेगा। 

खुदा का शुक्र है, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़ी ही दृढ़ता के साथ इसे नामंज़ूर कर दिया था, जिसने अंतत भारत की प्रतिष्ठा को बचाया था।

मजे की बात यह है कि अमेरिकी सांसदों ने इस संवेदनशील विषय पर तब चर्चा की जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्हाइट हाउस का दौरा 10 दिनों में होने वाला है। रूसियों से पूछें: वे आपको शीत युद्ध के अनुभव से बताएंगे कि कैसे इस तरह के आदान-प्रदान को लगभग हमेशा सावधानी से कोरियोग्राफ किया जाता है।

यह बेहद परेशान करने वाला परिदृश्य है। दिल्ली की रणनीतिक चुप्पी मामलों में मदद नहीं कर रही है। इस बीच, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 13 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में अफ़ग़ानिस्तान को सहायता के संबंध में अमेरिकी लाइन के अनुरूप भाषण दिया - कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता के लिए और वितरण में अफ़गान सरकार को दरकिनार कर दिया जाना चाहिए।

जयशंकर ने वैसा ही किया जैसा कि अमरीका असद सरकार की वैधता को किसी भी तरह से कमजोर करने की दृष्टि से सीरिया के साथ बर्ताव कर रहा है।

अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता चरमरा गई है और अगर अफ़ग़ान राज्य का पतन होता है तो यह भारत के दीर्घकालिक हितों के लिए बेहद हानिकारक है। यह समय जयशंकर के लिए पाकिस्तान या चीन या दोनों के साथ मुकाबले का खेल खेलने का नहीं है।

तालिबान ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी किस्म के सैन्य हस्तक्षेप का डट कर विरोध करेगा। उसने जोर देकर कहा है कि अफ़फगान धरती पर इस तरह के सैन्य अभियान उसका संप्रभु विशेषाधिकार होगा। ठीक ही तो कहा है।

कड़ाई से कानूनी शर्तों में, अमेरिका के साथ अगस्त 2016 का लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट दोनों सेनाओं को एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने और एक-दूसरे के ठिकानों का इस्तेमाल करने का रास्ता प्रदान कर सकता है, जहां अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में ऑपरेशन  की योजना बना रहा है।

लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तालिबान के प्रति भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की पहले की दुश्मनी है, अफ़ग़ानिस्तान अभी भी एक मित्र देश बना हुआ है और पेंटागन के हवाई/मिसाइल हमलों में नागरिकों को मारने का एक पूरा इतिहास है। हमने अभी देखा कि कैसे 28 अगस्त को काबुल में पेंटागन के झूठ का सहारा लेकर ड्रोन हमले में सात बच्चे मार दिए थे।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय धरती से पेंटागन के सैन्य अभियानों को सुविधाजनक बनाकर, दिल्ली अपने ही मामले में को कमजोर कर रही है जिसमें वह कहता है कि तालिबान को भारत के खिलाफ अफ़गान धरती का इस्तेमाल नहीं करने देना चाहिए।

विडंबना यह है कि तालिबान के विदेश मंत्री मुत्ताकी ने काबुल में कहा, "हम किसी को या किसी समूह को किसी अन्य देश के खिलाफ अपनी धरती का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देंगे।" तालिबान के साथ पिछले साल दोहा में हुए समझौते का सम्मान करने के लिए नए मंत्रिमंडल के इरादे की अंतरिम सरकार की ओर से यह पहली पुष्टि है।

इन सबसे ऊपर, इसकी क्या गारंटी है कि किसी मोड पर अमेरिका तालिबान के साथ संबंध न बना ले और उनके साथ न मिल जाए। इस तरह की कलाबाज़ी वाली नीति अमेरिकी क्षेत्रीय रणनीति के लिए स्थानिक मसला हैं। भारत इसी क्षेत्र में रहता है और उसे अमेरिका की खातिर तालिबान का विरोध नहीं करना चाहिए।

वाजपेयी ने ऐसे मुद्दों पर संसद की राय जानने की एक महान परंपरा स्थापित की थी।

एमके भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Reflections on Events in Afghanistan-18

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